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श्री श्रावकाचार जी
दर्सनं साधनं जस्य व्रत तपस्य उच्यते ।
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व्रत तप ने संजुक्तं, सार्धं स्वात्म दर्सनं ॥ ४०५ ।।
अन्वयार्थ - ( दर्सनं सार्धनं जस्य) जिसके सम्यक्दर्शन का श्रद्धान है (व्रत तपस्य उच्यते) उसी के व्रत तप सही कहे जाते हैं (व्रत तप नेम संजुक्त) जो व्रत तप नियम से संयुक्त है (सार्धं स्वात्म दर्सनं) और स्वात्म दर्शन की साधना करता है वह व्रत प्रतिमाधारी है।
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विशेषार्थ जो अखंड सम्यक्दर्शन और अष्ट मूलगुणों का धारक है। मिथ्या, माया, निदान शल्यों से रहित राग-द्वेष के अभाव और साम्य भाव की प्राप्ति के लिये अतिचार रहित व्रत तप नियम का पालन करता है वह व्रती श्रावक है। यहां श्री तारण स्वामी ने बहुत संक्षेप में, मात्र एक गाथा में ही व्रत प्रतिमा का स्वरूप बताया है परंतु पूरा सार भर दिया है। मूल आधार स्वात्म दर्शन, शुद्धोपयोग की साधना का ही लक्ष्य है और इसी के लिये यह व्यवहार में व्रत, नियम, संयम, तप का पालन करता है। यह बात जगत प्रसिद्ध है और धर्म शास्त्र भी ऐसा ही कहते हैं कि हिंसा के समान पाप और अहिंसा के समान पुण्य नहीं है। यद्यपि भेद विवक्षा से अनेक प्रकार के पाप कहे जाते हैं तो भी यथार्थ में सब पापों का मूल एक हिंसा ही है, इसी के विशेष भेद झूठ, चोरी, कुशील और अति तृष्णा आदि हैं। इसी कारण शास्त्रों में आचार्यों ने जहां-तहां इन पांचों पापों के निवारण का उपदेश दिया है। श्री आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में इन पापों के त्यागरूप पांच ही व्रत कहकर उनके अणुव्रत महाव्रत दो भेद किये हैं। पाँच पापों का एकदेश त्याग करना अणुव्रत और सर्वदेश त्याग करना महाव्रत कहलाता है।
SYARAT YAAAAAT FAR AS YEAR.
पांच पापों का त्याग जब बुद्धि पूर्वक अर्थात् भेदज्ञान (सम्यक्त्व) पूर्वक होता है तभी उसे व्रत संज्ञा प्राप्त होती है। इन व्रतों को अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि अंतरंग या बाह्य सामग्री की योग्यता देख धारण करके भले प्रकार निर्दोष पालना चाहिये, कदाचित् किसी प्रबल कारणवश व्रत भंग हो जाये तो प्रायश्चित लेकर पुनः 5 स्थापना करना चाहिये । ग्रहस्थ श्रावक प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम के अनुसार अणुव्रत धारण कर सकता है, इसके महाव्रत धारण करने योग्य कषाय नहीं घटी इसलिये सर्वथा आरंभ विषयक कषाय त्यागने को असमर्थ है।
व्रत प्रतिमा में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत मिलकर बारह व्रत
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कहलाते हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं
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गाथा ४०५
पांच अणुव्रत - हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील का त्याग, परिग्रह प्रमाण । तीन गुणव्रत - दिव्रत, देशव्रत, अनर्थदण्ड (त्याग) व्रत ।
चार शिक्षाव्रत- सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण, अतिथि संविभाग । व्रत प्रतिमा में पंचाणुव्रत तो निरतिचार पलते हैं, तीन गुणव्रत गुणों की वृद्धि
करते हैं और चार शिक्षाव्रत इन्हें महाव्रतों की हद तक पहुंचाते हैं। यद्यपि व्रती जहां तक संभव हो इनको भी दोषों से बचाता है तथापि यह सप्तशील व्रत प्रतिमा में निरतिचार नहीं होते।
यहां कोई प्रश्न करे कि व्रत प्रतिमा में ही यह बारह व्रत एक साथ निरतिचार होना चाहिये क्योंकि बारह व्रतों के अतिचारों का वर्णन तत्वार्थसूत्र में एक ही जगह व्रतों के प्रकरण में किया है ?
उसका समाधान करते हैं कि एक ही स्थान पर वर्णन करना तो प्रकरणवश होता है, यहां केवल वस्तु स्वरूप बताना था, प्रतिमाओं का वर्णन नहीं करना था, यदि बारह व्रत दूसरी प्रतिमा में ही निरतिचार हो जावें तो आगे की सामायिक आदि प्रतिमा व्यर्थ ठहरें; क्योंकि तीसरी से ग्यारहवीं प्रतिमा तक इन सप्तशीलों के निरतिचार पालन करने का ही उपदेश है। यही बात सर्वार्थ सिद्धि तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कही है।
व्रत प्रतिमा में पंचाणुव्रत निरतिचार होते हैं, तीसरी प्रतिमा में सामायिक और चौथी में प्रोषधोपवास निरतिचार होते हैं, पांचवीं में भोगोपभोग के अतिचार दूर होते हैं और ग्यारहवीं प्रतिमा तक क्रमशः भोगोपभोग घटाकर त्याग कर दिये जाते हैं। अष्टम प्रतिमा में आरंभ का सर्वथा त्याग होने से पंचाणुव्रत की पूरी-पूरी दृढ़ता होती है तथा दिग्व्रत, देशव्रत निरतिचार पलता है। दसवीं अनुमति त्याग में अनर्थदण्ड (त्याग) व्रत निरतिचार हो जाता है। इस तरह सप्तशील निरतिचार होने से अणुव्रत महाव्रत की परिणति को प्राप्त हो जाते हैं इसीलिये श्री तारण स्वामी ने पंचाणुव्रत की शुद्धि ग्यारह प्रतिमाओं के बाद कही है।
व्रतों को धारण करने वाला पुरुष मिथ्या, माया, निदान तीनों शल्यों से रहित होना चाहिये ।
तीन शल्यों का स्वरूप
१. मिथ्या शल्य- जो धर्म के स्वरूप का ज्ञाता नहीं अर्थात् संसार और