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ou श्री श्रावकाचार जी
गाथा-४५२-४५५ C O U ४. संस्थान विषय- लोक तथा उसके ऊर्ध्व, मध्य, तिर्यक् लोक संबंधी (भव्य लोकैक तारक) भव्य जीवों को तारने वाले हैं (सुद्धं लोकलोकांत) जो लोक में विभागों तथा उसमें स्थित पदार्थों का, पंच परमेष्ठी का, अपने आत्मा का चिंतवन और लोक के अंत में सिद्ध परमात्मा हैं ऐसा ही शुद्ध मैं हूँ (ध्यानारूढं च साधवा) ऐसे करते हुए इनके स्वरूप में उपयोग स्थिर करना संस्थान विचय धर्म ध्यान है। इस शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान में जो आरूढ़ रहते हैं वही साधु हैं। ध्यान के चार भेद हैं- पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत।
(मनंच सुद्ध भावंच) मन से और भावों से शुद्ध (सुद्ध तत्वं च दिस्टते) शुद्धात्म यद्यपि यह धर्म ध्यान चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक अर्थात् अव्रती स्वरूप को देखते हैं और (संमिक दर्सनं सुद्ध) शुद्ध सम्यक्दर्शन के धारी हैं (सुद्ध श्रावक से मुनियों तक होता है तथापि श्रावक अवस्था में आर्त-रौद्रध्यान के सद्भाव तिअर्थ संजुतं) शुद्ध रत्नत्रय से संयुक्त अर्थात् निश्चय सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में से धर्मध्यान पूर्ण विकास को प्राप्त नहीं होता; इसलिये इसकी मुख्यता मुनियों के ही लीन रहते हैं वे ही तारण तरण सद्गुरु सच्चे साधु हैं। होती है। विशेषकर अप्रमत्त अवस्था में इसका साक्षात फल स्वर्ग और परम्परा से विशेषार्थ- निर्ग्रन्थ वीतरागी साधुतारण तरण होते हैं। जैसे- नौका आप तो शुद्धोपयोग पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होती है।
तैरती है उसमें बैठने वालों को भी तार देती है, इसी प्रकार जो अपने आपको तो साधु स्वयं निर्दोष धर्म निज शुद्धात्म स्वरूप का साधन करते हैं वैसे ही वे तारते ही हैं और अपने उपदेश व शिक्षा से अनेक भव्य जीवों को शुद्ध धर्म मोक्ष के जगत के प्राणियों को शुद्ध धर्म का प्रकाश करते हैं, जिन वचनों पर उनका विश्वास मार्ग में लगा देते हैं, इस प्रकार साधु तारण तरण कहलाते हैं। है कि यह श्री सर्वज्ञ वीतराग अरिहन्त भगवान की परम्परा से कहा हुआ यथार्थ वस्तु सच्चे साधु अपने आत्मा का ध्यान करते हैं। जैसे लोक के अंत में सिद्ध स्वरूप है, उसी का वे उपदेश देते हैं। परम साम्य भाव से व मायाचार न करके जो परमात्मा विराजमान हैं और लोक में केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा हैं, वैसे ही मेरा जिनेन्द्र की आज्ञा है उसी के अनुसार कथन करते हैं वे ही जैन साधु हैं।
। शुद्ध स्वरूप है, इसके ध्यान में सदा लवलीन रहते हैं और ऐसे ही शुद्धात्म तत्व का निर्दोष साधु का चारित्र पालन करने वाले के भीतर बहिरंग और अंतरंग उपदेश समस्त भव्य जीवों को देते हैं। मन से और भावों से शुद्ध होकर शुद्धात्म मिथ्यात्व नहीं होता है, न वहां कोई मायाचार और न ही निदान का भाव होता है, वह स्वरूप को देखते हैं, शुद्ध सम्यक्दर्शन के धारी रत्नत्रय से विभूषित साधु ही कपट रहित व भोगों की इच्छा रहित होकर साधु धर्म पालते हैं। उनको कुमति, तारण तरण सद्गुरु कहलाते हैं। कुश्रुत, कुअवधि तीन कुज्ञान नहीं होते हैं। सम्यक्त्व के प्रभाव से उनका सम्पूर्ण रत्नत्रय से शद्ध अपने शद्धात्म स्वरूप के ध्यान में साधुलीन रहते हैं, जिससे ज्ञान सुज्ञान रूपहोता है। वे राग-द्वेषादिभावों को जीतते हुए अपने आत्मध्यान की मन: पर्यय ज्ञान प्रगट हो जाता है। जो संसार को तृण के समान समझकर आत्म साधना में रत रहते हैं वही सच्चे शुद्ध साधु हैं।
ध्यान में लीन रहते हैं वही सच्चे साधु हैं इसी बात को कहते हैंजो स्वयं तरते हैं और भव्य जीवों के तारणहार हैं, शुद्ध सम्यक्दर्शन, ज्ञान
रत्नत्रयं सुख संपून, संपून ध्यानारूढ़यं । और ध्यान रूप चारित्र में लीन रहते हैं, वे निर्ग्रन्थ साधु तारण तरण होते हैं, इसी
रिजु विपुलं च उत्पादंते,मनपर्जय न्यानं धुवं ॥४५४ ।। बात को आगे कहते हैंअप्पं च तारनं सुख, भव्य लोकैक तारकं ।
वैराग्यं त्रितियं सुख, संसारे तर्जति तुनं । सुख लोकलोकांत,ध्यानारूईच साधवा॥४५२॥
भूषन रयनत्तयं सुद्धं, ध्यानारूढ़ स्वात्म दर्सनं ।। ४५५॥ मनं च सुद्ध भावं च,सुद्ध तत्वं च दिस्टते।
अन्वयार्थ- (रत्नत्रयं सुद्ध संपून) जो साधुशुद्ध रत्नत्रय से परिपूर्ण हैं (संपून
ध्यानारूढ़यं) परिपूर्ण ध्यान में आरूढ़ हैं (रिजु विपुलं च उत्पादंते) उनके रिजुमति संमिक दर्सनं सुद्ध, सुखं तिअर्थ संजुतं ॥४५३॥
अथवा विपुलमति मन: पर्यय ज्ञान प्रगट हो जाता है (मनपर्जय न्यानं धुवं) इनमें अन्वयार्थ- (अप्पंच तारनं सुद्ध) जो निश्चय से अपने आपको तारते हैं और
विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान शाश्वत होता है।
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