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Our श्री बाचकाचार जी
गाथा-३७-३७. POO. पालन करते हैं, इनको ही इष्ट कल्याणकारी मानते हैं, यही सच्ची देवपूजा है, जो अंतरंग परिग्रह के पूर्ण त्यागी हों, राग-द्वेष रहित वीतरागी हों। जो मिथ्यात्व, माया, देवत्व पद प्रदान कराती है, इसमें कोई संशय नहीं है। यह जैनदर्शन का मूल आधार आदि शल्यों से रहित हों, रत्नत्रय से शुद्ध हों अर्थात् जिनका निश्चय और व्यवहार
है कि प्रत्येक जीव अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है। कोई पर परमात्मा , रत्नत्रय शुद्ध हो, जो जीव मात्र के प्रति समभावी, समदृष्टि हों। जो जाति-पांति, o किसी जीव का कुछ नहीं कर सकता, प्रत्येक जीव अपनी भावना लक्ष्य और पुरुषार्थ नीच-ऊँच, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर के भेदभाव से ऊपर उठ गये हों अर्थात् ७ में पूर्ण स्वतंत्र है, द्रव्य की स्वतंत्रता का यही प्रयोजन है।
२. साम्प्रदायिक बंधनों से मुक्त हों, हमेशा आत्मध्यान की साधना में लीन, धर्म ध्यान में शुद्ध षट्कर्म में सर्वप्रथम देवपूजा का पचहत्तर गुण सहित वर्णन किया, आगे रत, आर्त-रौद्र ध्यान से रहित, ज्ञान-ध्यान में युक्त रहने वाले रत्नत्रय से परिपूर्ण शुद्ध गुरू उपासना का स्वरूप कहते हैं
८.गुरू का सत्संग सेवा भक्ति करना चाहिये जिससे अपने भावों में ज्ञान वैराग्य का गुरस्य ग्रंथ मुक्तस्य, राग दोष न चिंतए।
। जागरण होता है। जो गुरू स्वयं तरते हैं और संसार से तरने का मार्ग बताते हैं वही रत्नत्रयं मयं सुद्धं,मिथ्या माया विमुक्तयं ।। ३६७ ॥
सद्गुरु तारण तरण हैं। ऐसे सद्गुरु की संगति,सेवा भक्ति ही सच्ची गरू उपासना
ॐ है, जिससे अपनी अंतरात्मा का जागरण हो, वीतराग मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले गुरं त्रिलोक वेदंते, ध्यान धर्म च संजुतं ।
और शुद्ध रत्नत्रय की प्राप्ति हो, अव्रत सम्यक्दृष्टि ऐसे गुरू की ही हमेशा श्रद्धा भक्ति तद्गुरं सार्थ नित्यं, रत्नत्रयं लंकृतं ॥ ३६८ ॥ करता है।
अन्वयार्थ- (गुरस्य ग्रंथ मुक्तस्य) यहां गुरू का स्वरूप बताया जा रहा आगे शुद्ध स्वाध्याय का स्वरूप कहते हैंहै कि जो समस्त पाप-परिग्रह बंधनों से मुक्त, रहित होते हैं ( राग दोष न चिंतए), स्वाध्याय सुद्धधुवं चिंते, सुख तत्व प्रकासकं । राग-द्वेषादि का चिंतन नहीं करते अर्थात् जो राग-द्वेष रहित निग्रंथ वीतरागी हैं
सुद्ध संपूर्न दिस्टं च,न्यानं मयं साधं धुवं ।। ३६९ ॥ (रत्नत्रयं मयं सुद्ध) जो रत्नत्रय के धारी हैं, जिनका सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान,
स्वाध्याय सुख चिंतस्य,मन वचन काय निरोधन। सम्यकचारित्र शुद्ध है (मिथ्या माया विमुक्तयं) जो मिथ्यात्व माया आदि शल्यों से रहित हैं।
त्रिलोकं तिअर्थ सुखं, स्थिरं सास्वत धुवं ।। ३७०॥ (गुरं त्रिलोक वेदंते) जो तीन लोक के यथार्थ स्वरूपको जानते हैं (ध्यानं धर्म अन्वयार्थ- (स्वाध्याय सुद्ध धुवं चिंते) शुद्ध स्वाध्याय अपने ध्रुव स्वभाव का च संजुतं) आत्म ध्यान में लीन और धर्म से संयुक्त होते हैं (तद्गुरं सार्धं नित्यं) ऐसे चिंतवन करना है (सुद्ध तत्व प्रकासक) शुद्ध तत्व का प्रकाश करने वाले, बताने वाले गुरू का हमेशा सत्संग और श्रद्धा सहित उपासना करना चाहिये (रत्नत्रयं लंकृतं) जो सत्शास्त्रों का स्वाध्याय करना जिससे (सुद्ध संपूर्न दिस्ट च) अपनी दृष्टि सम्पूर्ण रत्नत्रय से परिपूर्ण होते हैं।
शुद्ध हो जाये और (न्यानं मयं सार्धं धुवं) ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का श्रद्धान हो जाये। विशेषार्थ-शुद्ध षट्कर्म में देवपूजा के बाद गुरू उपासना का स्वरूप बताया (स्वाध्याय सुद्ध चिंतस्य) शुद्ध स्वाध्याय का चिंतवन करने से (मन वचन जा रहा है, सच्चे गुरू कैसे होते हैं ? उनका स्वरूप जानकर ही गरू उपासना. काय निरोधन) मन, वचन, काय का निरोध हो जाता है (त्रिलोकं तिअर्थ सुद्ध) तीन
सत्संग सेवा भक्ति करना चाहिये। सच्चे गुरू का स्वरूप यह है कि जो समस्त पाप लोक में जो द्रव्य, गुण, पर्याय अथवा सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से 9 एवं चौबीस प्रकार के परिग्रह से रहित निग्रंथ हों।
शुद्ध (स्थिरं सास्वतं धुवं) शाश्वत ध्रुव स्वभाव है उसमें स्थिर हो जाता है। २४ परिग्रह-क्षेत्र, मकान, सोना, चांदी, धन, धान्य, दासी, दास, कपड़े, विशेषार्थ- शुद्ध स्वाध्याय अपने ध्रुव स्वभाव का चिंतवन करना है तथा शुद्ध बर्तन आदि दस प्रकार के बाह्य परिग्रह तथा मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, तत्व का प्रकाश करने वाले सत्शास्त्रों को पढ़ना व्यवहार से स्वाध्याय है, जिससे । २ हास्य, रति, अरति,शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद इन चौदह अपनी दृष्टि सम्पूर्ण शुद्ध हो जाये, अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का सच्चा श्रद्धान हो
chuodiaen
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