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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-५० R OO चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं। इस प्रकार यहाँ फिर प्रश्न है कि आत्मा और पर को पहिचानने का क्या प्रयोजन है? आत्मा और पर को पहिचानता है अर्थात् आत्मा और कर्मों के स्वरूप को पहिचानता उसका समाधान हैं कि जो भेदज्ञानी है, वह अपने को और पर को दोनों को। है कि मैं सिद्ध के समान ध्रुव अविनाशी, परमब्रह्म परमात्मस्वरूपहूँ और यह शरीरादि पहिचानता है,तभी तो भिन्नता भासित होती है । जगत में दो द्रव्य सक्रिय हैंपुद्गल द्रव्य का सब परिणमन कर्म उदयाधीन चल रहा है। कर्म, अचेतन पुद्गल एक चेतन, एक अचेतन, अथवा जीव-पुद्गल या आत्मा और कर्म, यह शरीरादित अजीव तत्व हैं, मैं चेतन जीव तत्वहूँ. दोनों का भिन्न-भिन्न स्वरूप पहिचानता है पौद्गलिक पदार्थ जगत सब कर्मोदायिक पुद्गल की रचना है। इसमें चेतन तत्व तथा जिसे आत्म स्वभाव का परिचय शुद्धात्मानुभूति हो गई है वह अन्तरात्मा है,उसे जीव ज्ञान स्वभावी देखने जानने वाला है। स्वभाव सत्ता शक्ति अपेक्षा जीव और ही सम्यक्दृष्टि ज्ञानी कहते हैं।
पुद्गल एक-एक द्रव्य है, पर संख्या की अपेक्षा अनन्त हैं,तो भेदज्ञानी शरीरादि यहाँ कोई प्रश्न करे कि भेदविज्ञान जानने का उपाय क्या है?
है पुद्गल को तो पर जानता ही है; क्योंकि वह रूप,रस, गंध, वर्ण वाला अचेतन द्रव्य उसका समाधान करते हैं कि जैसे-संसार में किसी को डाक्टर बनना होता है तो वह है तथा अपने से भिन्न अन्य जो जीव हैं, वह भी पर ही हैं क्योंकि एक जीव का दूसरे विज्ञान का अध्ययन करता है, उसका अभ्यास करता है, तब डाक्टर बनता है। इसी जीव से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसकी सत्ता शक्ति स्वतंत्र भिन्न है, कर्म बन्धोदय प्रकार जिसे संसार के दु:खों से छूटना हो, मुक्त होना हो,परमात्मा बनना हो, तो आदि भी भिन्न है। एक शुद्ध सत्तामात्र स्वतंत्र जीव आत्मा मैं हूँ और बाकी जो कुछ उसे भेद विज्ञान जीव-अजीव की भिन्नता जानना होगी। बाहर पर में नहीं, अपने है वह सब पर ही है। ऐसा जानना ही भेदविज्ञान का जानना सच्चा है और इसी से इस शरीर में भेदज्ञान के द्वारा निर्णय करना होगा कि यह शरीर भिन्न है और इसमें मैं सम्यक्दर्शन अन्तरात्मपना होता है। जीव आत्मा चेतन तत्व भिन्न हूँ। यह भेदविज्ञान आध्यात्मिक शास्त्रों के स्वाध्याय जो अपने को नहीं जानता और पर प्रपंच में लगा है वह बहिरात्मा है। जो और ज्ञानी सत्पुरुषों की सत्संगति से प्राप्त होता है और इसे स्वयं के जीवन में प्रयोग अपने को जानता है और पर को भी जानता है अपने में लगा है, वह अन्तरात्मा है। करना पड़ता है।
जो अपने में ही लीन हैं, वह सिद्ध परमात्मा हैं तथा जो अपने में तो लीन हैं पर जिन्हें इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य जी ने समयसार कलश में कहा है
तीनों लोकालोक का ज्ञान है, वह अरिहन्त सर्वज्ञ परमात्मा हैं। सम्यकदृष्टि ज्ञानी को अयि कथमपि मृत्वा तत्व कौतूहली सन,
ही अन्तरात्मा कहते हैं। मिथ्यादृष्टि अज्ञानी को बहिरात्मा कहते हैं। अब यहाँ अनुभव भवमूर्त: पाचवी मुहूर्तम् ।
बहिरात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हैंप्रथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्ययेन,
बहिरप्पा पद्गलं दिस्टा,रचनं अनन्त भावना। त्यजसिमगिति मूर्त्या साकमेकत्व मोहम् ॥२३॥
परपंचं जेन तिस्टंते, बहिरप्पा संसार स्थितं ॥५०॥ हे भाई! तू किसी प्रकार महाकष्ट से अथवा मरकर भी तत्वों का कौतूहली होकर इस शरीरादि मूर्तद्रव्य का एक मुहूर्त (दो घड़ी) पड़ौसी होकर आत्मानुभव
अन्वयार्थ- (बहिरप्पा पद्गलं दिस्टा) बहिरात्मा पुद्गल को ही देखता है कर कि जिससे अपने आत्मा के विलासरूप, सर्व पर द्रव्यों से भिन्न देखकर, इस
(रचनं अनन्त भावना) अनन्त भावों को रचता रहता है अर्थात् नाना प्रकार की शरीरादि मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के साथ एकत्व के मोह को शीघ्र ही छोड़ देगा।
कल्पनायें किया करता है (परपंचं जेन तिस्टंते) जो जीव प्रपंच में ही लगा रहता है
कल विशेष - यदि यह आत्मा दो घड़ी पुद्गल द्रव्य से भिन्न अपने शुद्ध स्वरूप
(बहिरप्पा संसार स्थितं) ऐसा बहिरात्मा संसार में ही स्थित रहता है। का अनुभव करे (उसमें लीन हो) परीषह के आने पर भी डिगे नहीं तो घातियाकर्म
विशेषार्थ- यहाँ बहिरात्मा का स्वरूप बता रहे हैं कि बहिरात्मा कैसा होता का नाश करके केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष को प्राप्त हो। आत्मानुभव की ऐसी है। बहिरात्मा हमेशा पुद्गल को ही देखता है अर्थात् शरीर, स्त्री, पुत्र, परिवार,धन, महिमा है तब मिथ्यात्व का नाश करके सम्यक्दर्शन की प्राप्ति होना तो सुगम है। वैभव, महल, मकानादि बाह्य पदार्थों को ही देखता है तथा इनको ही बनाने करने
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