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७ श्री श्रावकाचार जी की अनन्त भावना नाना कल्पनायें करता रहता है, इन्हीं के लिये मायाचारी, झूठ, जाने है, इन्द्रिय द्वारनिकरि निरन्तर प्रवर्तन करे है, अपना स्वरूप की सत्यार्थपहिचान बेईमानी, छलकपट, पापादि प्रपंच में लगा रहता है। उसे संसार, पर पदार्थ, जाके नाहीं है, देह ही कू आत्मा माने है, देवपर्याय में आपकू देव, नरक पर्याय में । व्यवहारादि ही दिखता है और उसी में संलग्न रहता है। उसे अपने आत्म स्वरूप आपकू नारकी, तिर्यंच पर्याय में आपकू तिर्यच, मनुष्य पर्याय में आपकू मनुष्यजाति की खबर ही नहीं है, ऐसा बहिरात्मा हमेशा संसार में ही स्थित रहता है अर्थात् पर्याय के व्यवहार में तन्मय होय रहा है। पर्याय तो कर्म कृत पुद्गलमय प्रत्यक्ष चारगति चौरासी लाख योनियों के चक्कर लगाता रहता है।
ज्ञानरूप आत्मा से भिन्न दीखे है तो हू, कर्म जनित उदय में आपाधारि पर्याय में यहाँ कोई प्रश्न करे कि जब जीव अरस, अरूपी, ज्ञान चेतना वाला है, मात्र तन्मय हो रहता है। मैं गोरा हूँ, साँवला हूँ, अन्यवर्ण हूँ, मैं वैश्य हूँ,मैं राजा हूँ, मैं ज्ञाता दृष्टा है फिर वह ऐसा क्यों हो रहा है इनमें क्यों लगा रहता है?
. सेवक हूँ, मैं निर्बल हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ , मैं शूद्र हूँ, मैं मारने वाला हूँ, उसका समाधान करते हैं कि यही तो समझना है कि जीव अरस, अरूपी, जिवावने वाला हूँ,धनाढ्य हूँ, दातार हूँ, त्यागी हूँ, गृहस्थी हूँ, मुनि हूँ, तपस्वी ज्ञान चेतना वाला मात्र ज्ञाता दृष्टा है; पर वह अपने को ऐसा जानता मानता कब हूँ, दीन हूँ, अनाथ हूँ, समर्थ हूँ , असमर्थ हूँ , कर्ता हूँ , अकर्ता हूँ , बलवान हूँ, है? वह तो अपने आपको नाम रूप शरीरादि ही मान रहा है और सब संसार का कुरूपहूँ,स्त्री हूँ,पुरुष हूँ ,नपुंसक हूँ ,पण्डित हूँ,मूर्ख हूँ इत्यादिक कर्म के उदय कर्ता-धर्ता बना है। शरीर पांच इंन्द्रियों और उनके विषय भोगों में ही लिप्त तन्मयजनित पर पुद्गलनि की विनाशीक पर्यायनि में आत्म बुद्धि जाके होय सो बहिरात्मा हो रहा है और इनके निमित्त स्त्री, धन, पुत्र, परिवार, महल,मकानादि वैभव,परिग्रह मिथ्यादृष्टि है। जो शरीर में आत्मबुद्धि है सो इहाँ हुशरीर का संबन्धी जो स्त्री-पुत्र, की संभाल रक्षा और विस्तार करने में लगा है। इन सबसे भिन्न मैं जीव आत्मा हूँ, मित्र-शत्रुइत्यादिक तिनमें राग-द्वेष, मोह-क्लेशादि उपजाय आर्त-रौद्र परिणाम इसकी तो खबर ही नहीं है, अपने आपको भूला हुआ है इसीलिये बहिरात्मा है। से मरण कराय संसार में अनन्त काल जन्म-मरण करावे है तथा पुद्गल की पर्याय इसी बात को देवसेनाचार्य तत्वसार में कहते हैं
S में आत्मबुद्धि है सो पुदगल में जड़ रूपएकेन्द्रिय योनि में अनन्त काल भ्रमण करावे मुक्खो विणासरूवो,यण परिवज्जओ सया देहो।
है। तातें अब बहिरात्म बुद्धि कू छोड़ि अन्तरात्मपना अवलंबनकरि परमात्मपना तस्य ममत्ति कुणतो, बहिरप्पा होइ सो जीवो ॥४८॥ 23 पावने में यत्न करा।
शरीर सदा काल जड़ है, विनासरूप है,चेतना से रहित है,जो उसकी ममता बहिरात्मा अपने परमात्म स्वरूप को छोड़े बैठा है और क्या कर रहा है यह करता है वह बहिरात्मा है। निज आत्म तत्व से बाहरी विषय में जिसका आत्मा र आगे कहते हैंअर्थात् चित्त संलग्न हो वह बहिरात्मा कहलाता है।
बहिरप्पा परपंच अर्थ च, तिक्तते जे विचषना। इसी बात को स्वामी कार्तिकेय, कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहते हैं
अप्पा परमप्पयं तुल्यं, देव देवं नमस्कृतं ॥५१॥ मिच्छत परिणवप्पा, तिव्य कसाएण सद् आविडो। जीवं देहं एक्क,मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥ १९३॥
अन्वयार्थ- (अप्पा परमप्पयं तुल्यं) आत्मा परमात्मा के समान है (देव देवं जो जीव मिथ्यात्व कर्म के उदयरूप परिणत हो, तीव्र कषाय से अच्छी तरह नमस्कृत) जो देवों के देव इन्द्रों द्वारा वन्दनीय है (तिक्तते जे विचषना) ऐसी ९ आविष्ठ हो और जीव तथा देह को एक मानता हो वह बहिरात्मा है।
5 विलक्षण अनुपम अमूल्य निधि चिन्तामणि रत्न को छोड़कर (बहिरप्पा परपंच बहिरात्मा का स्वरूप रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पं. सदासुखदास जी
अर्थच) बहिरात्मा संसारी प्रपंच के प्रयोजन में लगा हुआ है। कहते हैं
विशेषार्थ- यहाँ बहिरात्मा अपने सच्चे देव परमात्म स्वरूप को छोड़कर क्या जिनमें जाके बाह्य शरीरादिक पुद्गल की पर्यायनि में आत्मबुद्धि है सो कर रहा है यह बता रहे हैं कि अपना आत्मा ही परमात्मा है, जो देवों के देव इन्द्रों 2 बहिरात्मा है। जाकी चेतना मोहनिद्रा करि अस्त हो गई.पर्याय ही कं अपना स्वरूप द्वारा नमस्कृत्य, वन्दनीय है, तीन लोक का नाथ अनन्त चतुष्टय का धारी रत्नत्रय
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