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Our श्री बाचकाचार जी करना अपने ब्रह्म स्वरूप आत्मा में ही लीन रहना ब्रह्मचर्य महाव्रत है।
का क्षयोपशम होता जाता है। जिससे अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान प्रगट हो जाते हैं, ५.अपरिग्रह महाव्रत-चौदह प्रकार के अन्तरंग और दश प्रकार के बाह्य
श्रुतकेवली हो जाते हैं। जिसमें संपूर्ण त्रिलोक का ज्ञान हो जाता है, यदि किसी को । परिग्रह से सर्वथा रहित होना परिग्रह त्याग महाव्रत है। पर के प्रति ममत्व और मूर्छा पूर्ण श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान या मन: पर्ययज्ञान न भी होवेंतो भी शुद्धात्मानुभव में वह भाव का अभाव होजाना अपरिग्रह महाव्रत है। इस प्रकार सम्यक्दर्शन की महिमा से शक्ति है कि एक मुहूर्त के ध्यान से सर्वघातिया कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट यह पांच महाव्रत स्वयं पलने लगते हैं।
* हो जाता है। केवलज्ञान के होते ही सर्वज्ञ अरिहंत परमात्म पद हो जाता है, जिसमें सम्यज्ञान की महिमा से पाँच समितियों का पालन होता है इसको आगे की अपने शद्धात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन परमानंद ही परमानंद हो जाता है। गाथाओं में कहते हैं
सम्यक्ज्ञान की शुद्धि होने के बाद इसका कभी अभाव नहीं होता, यह बिलाता न्यानं च संमिक्तं सुद्ध, संपूरनं त्रिलोकमुधर्म।
नहीं है, यह शाश्वत रहता है, वृद्धिगत होता हुआ केवलज्ञान रूप प्रगट होता है सर्वन्यं पंच मयं सुख, पद विंदं केवलं धुर्व ॥३१॥ इसलिये सम्यक्ज्ञान को सबसे श्रेष्ठ कहते हैं। इसके होने पर स्व-पर का यथार्थ श्रियं संमिक न्यानं च, श्रियं सर्वन्य सास्वतं ।
* ज्ञान होता है और यही सम्यक्चारित्र का कारण है। सम्यक्ज्ञान होने से वस्तु का
र स्वरूप स्पष्ट दिखने लगता है। अपने आत्म कल्याण की भावना से पापों से विरत लोकालोकंच मर्यसुद्ध, श्रियं संमिकन्यान उच्यते॥३२॥
होकर पाँच समिति का पालन होने लगता है, जिससे उसके जीवन में साधुता समता अन्वयार्थ- (न्यानं च संमिक्तं सुद्ध) सम्यक्दर्शन सहित जो ज्ञान है वही ८ शान्ति आ जाती है। शुद्ध है (संपूरन त्रिलोकमुद्यम) इसी से तीन लोक में संपूर्ण केवलज्ञान का उद्यम पाँच समिति निम्न प्रकार हैंहोता है (सर्वन्यं पंच मयं सुद्ध) जो पंच ज्ञानमयी शुद्ध सर्वज्ञत्व को प्रगट करता है, १.ईर्या समिति, २. भाषा समिति, ३. ऐषणा समिति, ४. आदान निक्षेपण जिससे (पदविंद केवलं धुवं) अपने केवल ध्रुव पद की अनुभूति होती है। ॐ समिति, ५. प्रतिष्ठापन या उत्सर्ग समिति।
(श्रियं संमिक न्यानं च) परम ऐश्वर्यशाली श्रेष्ठ सम्यक्ज्ञान (श्रियं सर्वन्य प्राणियों को पीड़ा पहुँचे, इस भावना से देखभाल कर प्रवृत्ति करने को समिति सास्वतं) अतिशय रूप सर्वपदार्थों का ज्ञाता और अविनाशी है (लोकालोकं च मयं कहते हैं। अहिंसा परमो धर्म: की साधना और संभाल का नाम समिति है। सुद्ध) लोकालोक को प्रकाशित करने वाला शुद्ध ज्ञानमयी सूर्य है (श्रियं संमिक न्यान. १.ईर्या समिति-प्रासुक स्थान से सूर्य के प्रकाश में चार हाथ जमीन देखकर उच्यते) इसलिये सम्यक्ज्ञान को सबसे श्रेष्ठ कहते हैं।
धीरे-धीरे चलना ईर्या समिति है। अपने आत्म स्वभाव में रमना ईर्या समिति है। विशेषार्थ- सम्यक्ज्ञान में केवलज्ञान की नोंध है अर्थात् जो केवलज्ञान में २. भाषा समिति-दस प्रकार की दुर्भाषाओं को छोड़कर हित-मित और लोकालोक का स्वरूप प्रत्यक्ष जाना जाता है, वह सम्यकज्ञान में परोक्ष में जाना संशय में न डालने वाले वचन बोलना भाषा समिति है। जाता है, इसमें और उसमें कोई भेद नहीं पड़ता। ज्ञान सम्यक्दर्शन के बगैर शुद्ध दस प्रकार की दुर्भाषा निम्न प्रकार है-१. कर्कराभाषा-तू मूर्ख है आदि कहना।
नहीं होता अर्थात् सम्यक्ज्ञान नाम नहीं पाता। वैसे क्षयोपशम ज्ञान में संपूर्ण आगम २.मर्म को छेदने वाली भाषा।३. कटुभाषा - तू अधर्मी है आदि कहना। ४. निष्ठुर ९और तीन लोक का ज्ञान हो जावे यहाँ तक कि साधु बनकर ग्यारह अंग नौ पूर्व का भाषा -मारने काटने आदि शब्द कहना। ५. परकोपिनी-तू निर्लज्ज है आदि,
ज्ञान भी होजावे परन्तु आत्मप्रतीति सम्यक्दर्शन के बिना वह मिथ्यात्व सहित होने कहना। ६.छेदकरा-झूठादोष लगाना।७. अतिमानिनी-अपना बड़प्पन बघारना, से मिथ्याज्ञान कहलाता है, जहाँ आत्मानुभूति जाग्रत हो जाती है, उसी ज्ञान को दूसरों की निंदा करना। ८. द्वेष उत्पन्न कराने वाले वचन कहना। ९. प्राणियों की सम्यक्ज्ञान कहते हैं, यह सम्यज्ञान दूज के चन्द्रमा समान होता है, इसी ज्ञान के हिंसा कराने वाले वचन कहना। १०. अत्यन्त गर्हित और अति गर्व से भरे वचन द्वारा जितना-जितना शुद्धात्मा का अनुभव किया जाता है, उतना ज्ञानावरण कर्म बोलना। अपने नि:शब्द स्वरूप में स्थित रहना भाषा समिति है।