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होता।
poun श्री श्रावकाचार जी ३. मिथ्यात्व आदि से होने वाले आस्रव का निरोधरूप भाव संवर होता का प्रकाश होने लगता है। है अर्थात् शुद्धात्मानुभूति रूप परिणाम होता है।
(श्रियं संमिक दर्सनं सुद्धं) इसलिये शुद्ध सम्यक् दर्शन ही श्रेयस्कर श्रेष्ठ ४. प्रतिसमय संसार से नये-नये प्रकार की भीरुता (वैराग्य) होता है। . है (श्रियंकारेन उत्पादते) इसी से मुक्ति का मार्ग उत्पन्न होता है अर्थात् पाप, ५. व्यवहार और निश्चय रूप रत्नत्रय में अवस्थिति होती है, उससे चलन नहीं 8 विषय-कषायों से विरक्ति होती है (सर्वन्यं च मयं सुद्ध) सर्वज्ञ अर्थात् अरिहन्तपरमात्मा
समान में भी शुद्ध आत्मा परमात्मा हूँ ऐसा दृढ़ निश्चय श्रद्धान ही (श्रियं संमिक ६. रागादि का निग्रह करने वाले उपायों में भावना होती है।
दर्सन) श्रेष्ठ सम्यक्दर्शन है, जिससे पांच महाव्रत पालने की भावना पैदा होती है। ७.पर को उपदेश देने की योग्यता प्राप्त होती है; अत: शास्त्र स्वाध्याय से विशेषार्थ- अष्टांग सम्यक्दर्शन, अष्टांग सम्यक्ज्ञान और मुनियों के पंच महाव्रत भेदज्ञान होता है, भेदविज्ञान से स्वानुभव सम्यकदर्शन होता है, स्वानुभव से ही रूप आचरण को व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं तथा अपने आत्मतत्व का परिज्ञान और केवलज्ञान सर्वज्ञ परमपद होता है इसलिये प्रथमानुयोग के- पद्मपुराण, हरिवंश आत्मतत्व में ही निश्चल होने को निश्चय रत्नत्रय कहते हैं। यहाँ सम्यक्दर्शन को पुराण, पार्श्वपुराण, महावीर पुराण,जम्बूस्वामी चरित्र, धन्यकुमार चरित्र, सुकुमाल श्रेष्ठ श्रेयस्कर इसलिये कहा है कि इसके बगैर कभी भी मुक्ति हो ही नहीं सकती। चरित्र आदि । करणानुयोग के-त्रिलोकसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, जय धवल, सम्यकदर्शन की शद्धि होने पर ही रत्नत्रय, पंच ज्ञान परमेष्ठी पद की शोभा है। महाधवल, त्रिलोक प्रज्ञप्ति आदि। चरणानुयोग के- मूलाचार, भगवती आराधना, शरीरादि से भिन्न निज शुद्धात्मानुभूति दृढ़ श्रद्धान होना ही शुद्ध सम्यक्दर्शन है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, धर्मामृत आदि । द्रव्यानुयोग के-द्रव्य सम्यकदर्शन,सम्यक्ज्ञान होने पर विवेक जाग्रत हो जाता है, पुरुषार्थ काम करने संग्रह, तत्वार्थसूत्र,पंचास्तिकाय,प्रवचनसार, समयसार,निमयसार, परमात्मप्रकाश लगता है. तब संसार बंधन के कारण पाप, विषय-कषायों से जीव स्वयं हटने बचने आदि ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिये। शास्त्र स्वाध्याय करना ही श्रुत की द्रव्यपूजा लगता है। पापों का एकदेश त्याग अणुव्रत और सर्वदेश त्याग महाव्रत कहलाता है। है और तद्प आचरण करना श्रुत की भावपूजा है, जो संसार से पार करने वाली सम्यकदष्टि के जीवन में यह सहजता से पलने लगता है क्योंकि उसे अपने सर्वज्ञ
४ स्वरूपी परमात्मपद का बोध जाग गया है अत: वह पंच महाव्रत रूप साधु पद की आगे पात्र जीव की विशेषता में रत्नत्रय धारण कर तेरह विधि चारित्र का पालन साधना करता है, इससे ही अरिहंत, सिद्ध पद होता है। करना,जो सच्ची देवपूजा का एक अंग है, इसका स्वरूप आगे गाथाओं में कहते हैं- पांच महाव्रत-१. अहिंसा महाव्रत, २. सत्य महाव्रत, ३. अचौर्य महाव्रत, श्रियं संमिक दर्सनं च, संमिक दर्सनमुद्यमं ।
४. ब्रह्मचर्य महाव्रत, ५. अपरिग्रह महाव्रत। संमिक्तं संपूर्न सुखंच, तिअर्थ पंच दीप्तयं ।। ३५९॥
१.अहिंसा महाव्रत-छह काय के जीवों की रक्षा करना और राग-द्वेष, मोह
S को मन से हटाना अहिंसा महाव्रत है। वीतराग दशा ही अहिंसा महाव्रत है। श्रियं संमिक दर्सनं सुख,श्रियंकारेन उत्पादते।
२. सत्य महाव्रत-कभी किंचित् भी झूठ न बोलना सत्य महाव्रत है, अपने सर्वन्यं च मयं सुद्धं,श्रियं संमिक दर्सनं ।। ३६०॥
सत्स्वरूप में निमग्न रहना ही सत्य महाव्रत है। (श्रियं संमिक दर्सनं च) सम्यक्दर्शन ही श्रेयस्कर श्रेष्ठ है, श्री
३.अचौर्य महाव्रत-बिना दिया जल मिट्टी और तृण तक न लेना अचौर्य । कहिये शोभनीक, मंगलीक, जय जयवंत, कल्याणकारी, महासुखकारी है (संमिक महाव्रत है। पर द्रव्य, पर भाव और अशुद्ध पर्याय को ग्रहण न करना अचौर्य महाव्रत दर्सनमुद्यम) सम्यक्दर्शन का उद्यम करना ही हितकारी है (संमिक्तं संपूर्न सुद्धं च) है। जहाँ सम्यक्त्व संपूर्ण शुद्ध हुआ अर्थात् भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति और ४.ब्रह्मचर्य महाव्रत-शील के अठारह हजार भेदों का पालन करते हुए स्त्री उसकी दृढ़ प्रतीति हुई कि (तिअर्थं पंच दीप्तयं) रत्नत्रय, पंचज्ञान और परमेष्ठी पद मात्र का त्याग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत है। अब्रह्म अर्थात् अनात्म वस्तु में रमण न
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