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P OOR श्री बावकाचार जी
गाथा-२०८ ROO साधना या सच्चे धर्म की श्रद्धा करना है, तो वह कैसा होता है, इसके स्वरूप का जस्य संमिक्त हीनस्य, उग्रं तव व्रत संजुतं । वर्णन किया जा रहा है। जिसको सच्चा सम्यक्त्व होता है वह हमेशा व्रत तप संयम
संजम क्रिया अकाऊंच, मूल बिना वृक्षं जथा॥२०८॥ की भावना रखता है और इससे उसमें अनेक गुण प्रगट हो जाते हैं। सदाचारी शांत सरल जीवन हो जाता है। क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि गुण प्रगट हो जाते हैं. सबके *
अन्वयार्थ- (जस्य संमिक्त हीनस्य) जो सम्यक्त्व से हीन है अर्थात् प्रति प्रेम वात्सल्य भाव आ जाता है। सब जीवों के प्रति करुणा अहिंसा भाव प्रगट हो। सम्यक्दर्शन से रहित है (उग्रं तव व्रत संजुतं) वह उग्र अर्थात् घोर तप तपता है, जाता है। इसी बात को समयसार नाटक में कहा है
व्रत सहित है (संजम क्रिया अकाऊंच) संयम सदाचार की क्रिया करता है परंतु वह करुणा वच्छल सुजनता, आतम निंदा पाठ।
४ सब अकार्यकारी है अर्थात् कोई कार्यकारी नहीं है (मूल बिना वृक्षं जथा) समता भगति विरागता,धरम राग गुन आठ॥
जैसे- बिना जड़ के वृक्ष नहीं हो सकता। १. करुणा, २. मैत्री, ३. सज्जनता, ४. स्वलघुता, ५. समता, ६. भक्ति, S विशेषार्थ- यहाँ मोक्षमार्गी जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि की पहली क्रिया ७. वैराग्य और ८. धर्मानुराग - यह आठ गुण प्रगट हो जाते हैं, तथा
सच्चे धर्म का श्रद्धान सम्यक्त्व है उसका वर्णन चल रहा है। सम्यकदर्शन होने पर चित प्रभावना भाव जुत,हेय उपादै वानि।
3 संयम तप के भाव होते हैं और उस रूप आचरण भी होने लगता है। यहाँ सदगुरु धीरजहरख प्रवीनता, भूषन पंच बखानि॥
कहते हैं कि यदि कोई जीव सम्यक्त्व से हीन है और वह मोक्ष के लिये उग्र तप करे १.धर्म की प्रभावना करने के मन में हमेशा भाव होना, २. हेय-उपादेय का व्रतों सहित हो, संयम आदि क्रियायें करे, वह सब अकार्यकारी हैं अर्थात उनसे कभी विवेक,३. धीरज, ४. प्रसन्नता और ५. तत्व चिन्तन में प्रवीणता यह पाँच विशेषतायें मुक्ति नहीं हो सकती। जैसे- बिना जड़ के वृक्ष कभी नहीं होता। पहले जड़ ही आ जाती हैं।
5 अंकुरित होती है, इसके बाद पत्ते पुष्प आदि होते हैं। इसी प्रकार मोक्षरूपी फल सम्यक्दृष्टि के यह पाँच दोष विला जाते हैं
चाहने वालों को पहले सम्यक्दर्शन मूल में होना अनिवार्य है। ज्ञान गरब मतिमंदता, निठुर वचन उद्गार।
इसी बात को योगीन्दुदेव योगसार में कहते हैंरुद्रभाव आलस दशा, नास पंच परकार ॥
वय तव संजम मूलगुण, मूढह मोक्ख ण वुत्त। ज्ञान का गर्व, बुद्धि की हीनता, कठोर वचन बोलना, रौद्रभाव कठोर परिणाम,
जावण जाणइ इक्क पर सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥२९॥ आलस्य, यह दोष नष्ट हो जाते हैं, तथा
जब तक एक शुद्ध पवित्र भाव निज शुद्ध स्वभाव का ज्ञान, अनुभूति नहीं होती लोक हासभय भोगतषि, अग्रसोच थिति मेव।
तब तक व्रत, तप, संयम, मूलगुण आदि से हे मूढ ! कभी मोक्ष होने वाला नहीं है। मिथ्या आगम की भगति, मृषादर्सनी सेव॥
वय तव संजमु सीलु जिय ए सव्वई अकयत्थु । लोक हास्य का भय अर्थात् मेरे धर्माचरण करने पर लोग क्या कहेंगे इसका
जाव ण जाणइक पर सुबउ भाउ पवितु ॥३१॥ भय, इन्द्रियों के विषय भोगने की रुचि, अब आगे क्या होगा इसकी चिन्ता करना, व्रत,तप, संयम शील हे जीव ! यह सब कोई कार्यकारी नहीं हैं, जब तक तू र कुशास्त्रों को पढ़ना, कुसंगति आदि.खेल. तमासे. नाटक, सिनेमा आदि देखने का 5 अपने एक परम शुद्ध पवित्र भाव को नहीं जानता, जब तक सम्यक्दर्शन अर्थात् ७
शौक। यह पाँच बातें सम्यक्दृष्टि की छूट जाती हैं, जबकि संसारी प्राणी बहिरात्मा निज शुद्धात्मानुभूति नहीं होती, तब तक यह व्रत संयम आदि कोई भी कार्यकारी इन्हीं कार्य कारणों में लगा रहता है।
नहीं है, मात्र इनसे मुक्ति मिलने वाली नहीं है। सम्यक्त्व सहित व्रत तप संयम मोक्षमार्ग के कारण हैं। सम्यक्त्व से हीन व्रत यहाँ कोई प्रश्न करे कि सम्यकदर्शन के बगैर व्रत, तप,संयम आदि से मुक्ति तप क्रिया सब जड़ के बिना वृक्ष के समान हैं। इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं- नहीं मिलती यह कोई कार्यकारी नहीं हैं तो फिर यह व्रत, तप, संयम करना ही नहीं