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श्री श्रावकाचार जी
गाथा-२०९,२१० SO0 चाहिये?
विशेषार्थ- पूर्व में बताया है कि जो सम्यक्त्व से हीन है, वह कितने ही व्रत, ___ उसका समाधान करते हैं कि भाई! बगैर सम्यकदर्शन के तो तीन काल में भी तप, संयम आदि करे, कोई कार्यकारी नहीं हैं। जैसे- बिना मूल के वृक्ष नहीं होता, मुक्ति होने वाली नहीं है। यह तो परम सत्य है, मात्र व्रत संयम तप आदि से मुक्ति . इसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना धर्म वृक्ष नहीं लगता। यहाँ बता रहे हैं कि जिसके मूल नहीं होती; परन्तु सम्यक्दर्शन होने पर यह भी आवश्यक हैं, इनके बगैर भी मुक्ति में सम्यक्त्व है उसके धर्म वृक्ष लगता है, उसमें व्रत संयम की शाखा डाल पत्र पुष्प नहीं होती तथा वर्तमान संसारी दशा में पाप-परिग्रह मे लगे रहो, संयम तपन करो होते हैं, अगणित गुणों का भंडार हो जाता है, जिसके हृदय में सम्यक्त्व होता है। तो नरक निगोद आदिदुर्गतियों में जाना पड़ेगा। संयम तपकरोगे तो देवादिसद्गति जहाँ सम्यक्दर्शन है वहाँ परिणामों में अनन्त गुणी विशुद्धता बढ़ती जाती जाओगे, अब कहाँ जाना चाहते हो? यह स्वयं अपना निर्णय अपने आप करो। है, जिससे कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होने लगती है, अनेक गुण प्रगट हो करले करले रे तू निर्णय आज, तुझे कहाँ जाना है।
जाते हैं। सम्यक्त्व के प्रभाव से सब बाहरी व्यवहार आचरण स्वयं ही उत्तम प्रकार स्वर्ग नरक तिर्यंच गति में, कई बार हो आया।
9 से होता है। इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यकदर्शन की महान विशेषता है, इसी से मनुष्य गति में भी आकर के,जरा चैन नहीं पाया ॥.....
* धर्म वृक्ष लगता है। सम्यक्त्व के बिना जीव कितना ही पढ़ा लिखा हो. व्रताचरण सबका निर्णय किया हमेशा,अपना नहीं किया है।
करता हो परन्तु वह मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं है। इसी बात को आगे गाथा में बिन निर्णय के पगले तेरा,लगान कहीं जिया है।.....
कहते हैंअपना निर्णय आज तू करले,तुझे कहाँ है जाना।
संमिक्त बिना जीवा,जाने अंगाई श्रुत बहुभेयं । चारों गति संसार में रुलना,या मुक्ति को पाना ।।.....
अनेयं व्रत चरनं, मिथ्या तप बाटिका जीवो॥२१०॥ इस संसार में सुख ही नहीं है,फिरो अनन्ते काल। मोक्ष मार्ग में सुख ही सुख है,करलो जरा ख्याल ||.....
अन्वयार्थ- (संमिक्त बिना जीवा) सम्यक्त्व के बिना जीव (जानै अंगाई श्रुत सम्यक्दर्शन ज्ञान चरण ही, है मुक्ति का मारग।।
बहुभेयं) ग्यारह अंग नौ पूर्व तक बहुत प्रकार शास्त्रों को जाने (अनेयं व्रत चरनं) पाप पुण्य शुभ अशुभ भाव सब, हैं संसारी कारक।।.....
35 अथवा अनेक व्रतों का आचरण करे (मिथ्या तप बाटिका जीवो) यह सब जीव का ज्ञानानन्द करो अब हिम्मत,शुभ संयोग मिला है।
5 मिथ्या तप का बगीचा लगाना है, इससे कोई लाभ नहीं है। अब के चूके फिरो भटकते, हाथ से जाये किला है।।.....
: विशेषार्थ- सम्यक्त्व के बिना जीव बहुत शास्त्र ग्यारह अंग नौ पूर्व तक पढ़ा जिसके मूल में सम्यक्त्व है, उसके धर्म वृक्ष लगता है और मोक्ष फल मिलता ९ हो, बहुत छन्द व्याकरणादि जानता हो अथवा अनेक व्रत तपाचरण करता हो परन्तु है इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं
ॐ वह सब मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं है। जैसे- कोई थूहर (कांटे वाला पेड़) का संमिक्तं जस्य मूलस्य, साहा व्रत डालनंतनंताई।
बगीचा लगावे अथवा सेमर के पेड़ लगावे, जिसमें फूल तो बहुत होते हैं परन्तु सुगन्ध अवरेवि गुणा होति, संमिक्तं जस्य हिदयस्य ।। २०९॥
नहीं होती, इसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना ग्यारह अंग तक पढ़ ले तो भी अज्ञानी ही
5 कहा जाता है अथवा महाव्रतों का साधन करके अन्तिम अवेयक तक के बन्ध योग्य 5 अन्वयार्थ- (संमिक्तं जस्य मूलस्य) जिसके मूल में सम्यक्त्व है (साहा व्रत
विशुद्ध परिणाम करे तो भी वह असंयमी ही कहलाता है तथा सम्यक्त्व सहित जितना डाल नंतनंताई) उसके धर्म वृक्ष की शाखा डाल, व्रत रूपी अनन्त पत्ते ऊगते हैं।
भी जानपना होवे उस सभी का नाम सम्यकज्ञान है और जो थोड़ा भी त्याग तप (अवरेवि गुणा होति) बहुत सारे गुण प्रगट हो जाते हैं (संमिक्तं जस्य ह्रिदयस्य)
ति) बहुत सार गुण प्रगट हा जातह (सामक्त जस्याहृदयस्य) प्रवर्तन करे तो उसे सम्यक्चारित्र कहा जाता है। जिसके हृदय में सम्यक्त्व होता है।
जिस प्रकार अंक सहित शून्य हो तो वह प्रमाण में आता है किन्तु अंक बिना १३८