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श्री आवकाचार जी
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भजन- ४५
लगना नहीं चाहिये, जो कुछ भी जैसा भी होवे ।।
लगती है छिदती है तुमको, तो तुम हो अज्ञानी ।
ज्ञान श्रद्धान नहीं हैं कुछ भी कर रहे हो मनमानी ॥
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जब अपना कुछ है ही नहीं हैं, फिर काहे को डरते । जब अपने को कुछ नहीं चाहिये, फिर काहे को मरते ।। जब जैसो होने हो रहो है, टाल फेर नहीं सकते।
समता शांति से सब देखो, फिर काहे को भगते ।
पाप पुण्य से क्यों डरते हो, जो होना हो होवे । अपने को कुछ करना ही नहीं है, करने वाला रोवे ॥ कर्म उदय जब तक वैसा है, तुम में शक्ति नहीं है। समता मय ज्ञायक रह भोगो, यही निर्जरा सही है ॥
हिम्मत हो ज्ञानानंद तुममें, मुनि दीक्षा को धारो ।
सब कर्मों से छूट जाओगे, मोह राग को मारो ॥
भजन- ४६
हे भवियन अनुभव ज्ञान प्रमाण ।
१. अनुभव हुआ विरक्तता आई, ज्ञान ही है प्रत्याख्यान । बातें करके मन समझाओ, लगे रहो तो अनजान २. सामने कोई सांप देखकर, कदम रखे नादान । जान बूझकर जो उलझा है, उसका सब मिथ्याज्ञान... हे. आग में कोई हाथ न डाले, डाले वह मूढ अज्ञान । तुम भी अभी तक फंसे मोह में, हुआ न सम्यक्ज्ञान.. हे .....
४. अनुभव चिंतामणि रतन है, अनुभव मोक्ष विमान ।
ज्ञानानन्द करो निज अनुभव, हो जावे कल्याण... हे.....
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हे..
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SY FAN FANART YEAR.
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आध्यात्मिक भजन भजन- ४७
तुम का चाहो नाथ, रत्नत्रय के धारी ॥
सुख शांति तुम्हरे ही भीतर, आनंद भरो पड़ी है।
अरस अरूपी ज्ञान चेतना, कर्मों को झगड़ो है ॥
तुम जग जाओ नाथ, कैसी मति तुम्हरी मारी..... जड़ पुद्गल नश्वर शरीर है, मल और मांस भरा है। इसके विषयों में भरमा रहे, ढोल की पोल धरा है ।
तुम हट जाओ नाथ, ज्ञान दर्श भंडारी... धन शरीर घर में क्या रक्खा, सब जड़ पुद्गल न्यारे । भूल स्वयं को भटक रहे हो, फिर रहे मारे मारे।। अब मत दाहो नाथ, भूल है अपनी ही सारी.. तीन लोक के नाथ कहाते, अनंत चतुष्टय वाले । ब्रह्म स्वरूपी चेतन लक्षण, ज्ञानानंद मतवाले ॥ अब रम जाओ नाथ, मुक्तिश्री तुम्हारी नारी..... भजन- ४८
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हे साधक ममल भाव रहिये ॥
पर पर्याय को अब मत देखो, पुद्गल को तजिये।
ज्ञायक स्वरूप रहो अपने में, शुद्धातम भजिये... हे..... निजानन्द में लीन रहो नित, समता को गहिये ।
इस शरीर का पीछा छोड़ो, पर में न बहिये ... हे....... भाव विभाव जे अपने नाहीं, ॐ नमः जपिये ।
दृढ़ता से ही काम चलेगा, वीतराग बनिये... हे ...... ज्ञानानन्द स्वभाव तुम्हारा, ब्रह्मानन्द रमिये । स्वरूपानन्द की करो साधना, अब कुछ न कहिये... हे..... सहजानन्द मगन नित रहिये, अब का है चहिये। तारण तरण का शरणा पाया, मोह राग तजिये ... हे .....
Sen