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TO श्री आचकाचार जी जाती हैं, नो कर्म के अभाव से शरीर रहित अशरीरी होते हैं, भावकर्म के अभाव से होने से यह पूर्णपने प्रगट हो जाते हैं,ऐसा जानकर अपनी स्वसत्ता शक्ति जाग्रतकर मोह,राग-द्वेषादि से रहित अपने पूर्ण शुद्ध स्वभाव में रहते हैं,द्रव्य कर्म का अभाव हम भी अपने में यह गुण प्रगट कर सकते हैं, ऐसा बोध और पुरुषार्थ का जागना ही। होने से सम्पूर्ण अनन्त गुण पूर्ण शुद्धपने प्रगट हो जाते हैं; परन्तु यहाँ आठ कर्मों के सिद्धों के आठ गुणों की पूजा है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी ऐसी ही देवपूजा करता है। नाश से जो आठ गुण प्रकाशमान होते हैं, उनका कथन किया है, जो सिद्ध के विशेष धर्म का सच्चा आचरण करने वाले आचार्य, उपाध्याय होते हैं,जो दश धर्मों गुण हैं।
का यथाविधि पालन करते हैं, जिससे देवत्व पद पाते हैं, इन दश धर्मों का आचरण १.मोहनीय कर्म के नाश से शुद्ध सम्यक्दर्शन,शुद्धोपयोग स्वरूपाचरण यथाख्यात करना ही सच्ची देवपूजा है, इसी बात को आगे गाथाओं में कहते हैंचारित्र प्रगट हो जाता है।
आचार्य आचरनं धर्म, तिअर्थ सुद्ध दरसन। २. ज्ञानावरणीय कर्म के नाश से अनन्तज्ञान केवलज्ञान सूर्य प्रगट रहता है।
उपाय देव उवदेसन कृत्वा,दस लण्यन धर्म धुवं ॥३३७॥ ३. दर्शनावरणीय कर्म के नाश से अनन्तदर्शन प्रगट हो जाता है, जिसमें सर्व द्रव्य, गुण पर्यायों सहित दिखते हैं।
साधं चेतना भावं,आत्म धर्म च एकयं । ४. अन्तराय कर्म के नाश से अनन्त वीर्य (बल) प्रगट हो जाता है।
आचार्य उपाय देवेन, धर्म सुखं च धारिना ॥ ३३८॥ ५.नाम कर्म के अभाव से सूक्ष्मत्व गुण प्रगट होजाता है.शरीरादि संयोग नहीं रहता। ते धर्म सुद्ध दिस्टीच,पूजितं च सदा बुध। ६. गोत्र कर्म के अभाव से अगुरुलघुत्व गुण प्रगट हो जाता है,समदर्शी साम्यभाव
उक्तं च जिनदेवं च, श्रूयते भव्य लोकयं ॥ ३३९ ।। भेद रहित अभेद दशा होती है। ७. आयु कर्म के अभाव से अवगाहनत्व गुण प्रगट हो जाता है,सबको समाहित
अन्वयार्थ- (आचार्य आचरनं धर्म) आचार्य धर्म का आचरण करते हैं (तिअर्थ करने की शक्ति प्रगट हो जाती है।
५ सुद्ध दरसन) रत्नत्रयमयी शुद्ध आत्मा का दर्शन करते और कराते हैं (उपाय देव ८. वेदनीय कर्म के अभाव से अव्याबाधत्व गण प्रगट हो जाता है।
४ उवदेसन कृत्वा) उपाध्याय उपदेश करते हैं (दस लष्यन धर्म धुवं) दशलक्षण मयी इस प्रकार सिद्ध परमात्मा सर्वगुणों से संयुक्त पूर्णशुद्ध परमानंदमयी परमात्मा
धर्म ही शाश्वत है। होते हैं, सिद्धों में कर्म जनित कोई भी विभावमल मिथ्यात्व आदि नहीं होता क्योंकि
(सार्धं चेतना भावं) अपने शुद्ध चैतन्य भाव का श्रद्धान और साधना करना ही सर्व कर्मों से रहित आत्मा को ही सिद्ध परमात्मा कहते हैं। उनके सम्यक्दर्शन आदि
(आत्म धर्म च एकयं) एकमात्र आत्म धर्म है (आचार्य उपाय देवेन) आचार्य उपाध्याय अनन्त गुण पूर्णपने विकाश को प्राप्त हो जाते हैं,वे निरन्तर आत्मानंद में लीन रहते .
हैं (धर्म सुद्धं च धारिना) इसी शुद्ध धर्म को धारण करते और कराते हैं। हैं। इनको ईश्वर,भगवान, परब्रह्म, परमेश्वर, निरंजन, ब्रह्म, परमात्मा, चिदानन्द,
(ते धर्म सुद्ध दिस्टी च) वह धर्म शुद्ध आत्मा का दर्शन ही शुद्ध दृष्टि और प्रभु आदि नामों से भव्य जीव ध्याते हैं। अपने आत्मा का सिद्ध स्वरूप शुद्ध स्वभाव
* (पूजितं च सदा बुधै) ज्ञानियों द्वारा हमेशा आदरणीय और पूज्यनीय है (उक्तं च ही साधने योग्य है। सम्यक्दृष्टि श्रावक,साधु, अरिहंत भी अपने ऐसे सिद्ध स्वरूपका
जिनदेवं च) इसी बात को जिनदेव अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है (श्रूयते भव्य ध्यान करते हैं। सब भव्य जीवों को ऐसे सिद्ध स्वरूप का स्मरण करके अपने आत्मा
लोकयं) हे भव्य जीवो ! इसे सुनो समझो और पालन करो।
का को सिद्ध समान ध्याना चाहिये।
विशेषार्थ-जो सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मयी निज शुद्धात्मा सम्यक्दर्शन सहित शुद्ध आत्मा का ध्यान ही सिद्ध बनने की विधि है और का दर्शन स्वयं करते हैं और इसी धर्म का आचरण अन्य साधुओं से कराते हैं उनको यही सच्ची देवपूजा है। यह आठ गुण सब जीवों में होते हैं परन्तु संसारी जीवों के
आचार्य परमेष्ठी कहते हैं, मुख्यता से निश्चय रत्नत्रय की एकता रूप मोक्ष का मार्ग 5 कर्मावरण होने से यह गुण अप्रगट अव्यक्त रहते हैं। सिद्ध जीवों को कर्मावरण न है,निज शुद्धात्मानुभूति करना और कराना ही आचार्य का कार्य है। उपाध्याय परमेष्ठी