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04 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-३४०-३४२
O O आकिंचन्य धर्म का प्रमाण श्री नमिनाथ स्वामी हैं।
है,इसी धर्म की जगत में गणधरादि संतों द्वारा पूजा की जाती है, उन्होंने इसी रत्नत्रय 6 १०. उत्तम ब्रह्मचर्य-समस्त अब्रह्म से विरक्त होकर अपने ब्रह्म स्वरूप में धर्म का उपदेश दिया है. इसको सुनकर भव्य जीव आनंद मगन हो जाता है। रमण करना उत्तम ब्रह्मचर्य है। उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म का प्रमाण श्री जम्बूस्वामी हैं।
जब तक आत्मज्ञान न होगा, तब तक शास्त्रों का ज्ञान उपकारी यह दश धर्म व्यवहार से दश भेद रूप हैं, निश्चय से सर्व एक आत्मा रूप ही नहीं होगा। सर्व शास्त्रों का सार अध्यात्म है,सब विद्याओं में श्रेष्ठ अध्यात्म हैं।जहाँ आत्मा की स्थिरता अपने स्वभाव में हुई, वहाँ क्रोधादि कषायों का विकारन विद्या है। सर्व कलाओं में उत्तम आत्मानुभव की कला है इसलिये जो होने से क्षमा मार्दव आर्जव शौच आदि स्वयं हो जाते हैं। सत्य पदार्थ एक आत्मा ही इसकी साधना-आराधना करते हैं,वही सच्चे साधक पुजारी। है,उसमें स्थिरता ही उत्तम सत्य है। आत्मा में संयम रूप रहना संयम, उसी में तपना ८
आगे साधक और साधु रत्नत्रय की साधना-आराधना पूजा करते हैं क्योंकि तप है। स्वयं अतीन्द्रिय आनंद में रहना त्याग है। पर से ममत्व न होना आकिंचन्य ! रत्नत्रय ही देव है अर्थात रत्नत्रयमयी आत्मा ही परमात्मा है और इसकी आराधना तथा अपने ब्रह्मस्वरूप में रमना जमना ही ब्रह्मचर्य है। इन दश धर्मों का एकदेश पूजा करने से देवत्व पद मिलता है, इसी बात को आगे गाथाओं में कहते हैंपालन गृहस्थ श्रावक भी करते हैं। पूर्ण साधन साधु ही कर सकते हैं। इस प्रकार
साधओ साधु लोकस्य,दर्सनं न्यान संजुतं । व्यवहार नय से भेदरूप धर्म का पालन संसारी सभी जीव करते हैं परन्त निश्चय से
चारित्रं आचरनं जेन, उदयं अवहिं संजुतं ।। ३४०॥ आचार्य और उपाध्याय शुद्ध ज्ञान चेतनामयी एक आत्मधर्म का ही आराधन करते हैं। व कराते हैं। यदि किसी आचार्य और उपाध्याय का ध्यान मात्र व्यवहार धर्म के
ऊर्थ आ मध्यं च, दिस्टितं संमिक दरसन । प्रवर्तने पर हो , निश्चय धर्म के चलने पर न हो तो वे यथार्थ आचार्य उपाध्याय । न्यान मयं च सर्वन्यं,आचरनं संजुतं धुवं ॥ ३४१॥ परमेष्ठी नहीं हो सकते । ज्ञानी जानते हैं कि साध्य के अनुसार ही साधन होना साधु गुनस्य संपून , रत्नत्रयं लंकृतं । चाहिये। साध्य निज शद्धात्म तत्व है, इसके अतिरिक्त जो अन्य भेद रूपधर्माचरण
भव्य लोकस्य जीवस्य, रत्नत्रयं पूजितं ।। ३४२ ।। है, वह आत्मध्यान के लिये निमित्त मात्र है। इस तत्व को सामने रखते हुए आचार्य उपाध्याय जिस तरह साध्य की सिद्धि हो उसी का स्वयं पालन आचरण करते हैं तथा
__ अन्वयार्थ- (साधओ साधु लोकस्य) लोक के साधक और साधु (दर्सनंन्यान अन्य शिष्यों से कराते हैं, अन्तरंग धर्म की दृष्टि करने पर ही इन दोनों परमेष्ठियों का संजुतं) सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान सहित (चारित्रं आचरनं जेन) जो सम्यक्त्वाचरन ध्यान रहता है क्योंकि कर्म की निर्जरा का मुख्य कारण शद्धात्मा का ध्यान है। और संयमाचरण का पालन करते हैं (उदयं अवहिं संजुतं) उनको अवधिज्ञान का आचार्य उपाध्याय जब तक अपने पदों पर हैं तब तक धर्म ध्यान ही होता है। शक्ल उदय हो जाता है, अवधिज्ञान सहित वे (ऊर्ध आर्धमध्यं च) ऊर्ध्वलोक,अधोलोक ध्यान श्रेणीमाड़ने के लिये इन पदों को त्यागकर साधु पद में आना पड़ता है तभी आगे और मध्यलोक तीनों लोक में (दिस्टितं संमिकदरसन) एक आत्मस्वरूप सम्यकदर्शन बढ़ सकते हैं।
* कोही देखते हैं (न्यान मयं च सर्वन्यं) और ज्ञान में अपने सर्वज्ञ स्वरूपको देखते हैं ज्ञानी सम्यकदृष्टि इस बात को जानते हैं और हमेशा अपने आत्म स्वरूप की (आचरनं संजुतं धुवं) और आचरण में अपने ध्रुव स्वभाव में लीन रहते हैं। ९ साधना-आराधना में रत रहते हैं। यही सत्य धर्म है जो पूज्यनीय है, इसी बात को 5 (साधु गुनस्य संपून) यही साधु के सम्पूर्ण गुण हैं (रत्नत्रयं लंकृत) जो रत्नत्रय , जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है, जो भव्य जीव ऐसे धर्म के स्वरूप को सुनते समझते
सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्र से अलंकृत शोभायमान रहते हैं (भव्य जानते मानते हैं वही सच्ची पूजा करते हैं, जो देवत्व पद प्रदान करती है।
लोकस्य जीवस्य) इसलिये लोक के भव्य जीवों को (रत्नत्रयं पूजितं) रत्नत्रय ही निश्चय धर्म निज शुद्धात्मा का अनुभव वही है जो वचन व मन से अगोचर है। पूजने योग्य है। आत्मा का आत्मा में ही स्थिर होना यही सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान,सम्यक्चारित्र विशेषार्थ- यहाँ शुद्ध षट्कर्म में शुद्ध देवपूजा के स्वरूप का वर्णन चल रहा
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