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७ श्री श्रावकाचार जी
गाथा-१३५-१४२ ) हमारी समझदारी विवेक है ? अरे ! यह सब शुभ संयोग पाया है, ऐसे सद्गुरू के मनादि काय विचलंति, इन्द्रिय विषय रंजितं । शरण में आ गये हैं जो धर्म का यथार्थ स्वरूप, मुक्ति का मार्ग बता रहे हैं : तो हमारी
व्रत पंड सर्व धर्मस्य, अनुत अचेत सायं ॥१४१॥ बुद्धिमानी और पुरुषार्थ तो यही है कि हम भी यह सब पाप-परिग्रह छोड़ें। संयम,तप
विषयं रंजितं जेन, अनृतानंद संजुतं । धारण करें और अपने आत्म स्वरूप की साधना में लीन हो जायें। यह व्यवहारिकता* निभाने से हमारा भी कभी भला नहीं हो सकता। यह तो भूमिकानुसार होती है,
पुन्य सद्भाव उत्पादंते, दोष आनंदनं कृतं ॥१४२॥ चलती है तो चलती रहे ; पर हमें भी अपने आत्म कल्याण करने का पुरुषार्थ करना अन्वयार्थ- (परदारा रतो भावं) पर स्त्री में आसक्त जिसका भाव है (परपंचं चाहिये । धर्म का यथार्थ स्वरूप समझ रहे हैं तो यह पुरुषार्थहीन बने न बैठे रहें। कृतं सदा) वह हमेशा प्रपंच करता रहता है अर्थात् मिलने के नाना प्रकार के जाल पाप-परिग्रह का त्याग कर महाव्रती साधु बनें और अपनी आत्म साधना में लीन । रचा करता है (ममतं असुद्ध भावस्य) उसकी ममता चाह, अशुद्ध भावों की रहती है होकर मुक्ति पावें। इसी में इस मानव जीवन की सार्थकता है।
(आलापं कूड उच्यते) और वह मायाचारी वार्तालाप करता है। च्यवहार धर्म संसार है, निश्चय धर्म मुक्ति मार्ग है, इसका हम भी ध्यान (अभं कूड सद्भाव) अब्रह्म का जिसका कुटिल क्रूर स्वभाव है (मन वचनस्य रखें। धर्म में निश्चय-व्यवहार लगा देने से ही बड़ी विडम्बना हो गई है, क्रीयते) मन से वैसा विचार करता है और वचनों से वैसा ही बोलता है (ते नरा व्रत इसका विवेक रखें। धर्म तो एक अपना निज शुख स्वभाव ही हाशेष जो भी हीनस्य) वह मनुष्य ब्रह्मचर्य व्रत से हीन है (संसारे दुष दारुनं) और संसार में वह सब पाप-पुण्य कर्म अधर्म ही है,जो संसार का कारण है।
दारुण दुःख भोगता है। आगे सातवाँ व्यसन पर स्त्री रमण के स्वरूप का वर्णन करते हैं
(कषायं जेन विकहस्य) जो कषाय सहित राग पूर्वक विकथायें करता है, परदारा रतो भावं, परपंचं कृतं सदा।
सुनता है (चक्र इन्द्र नराधिपा) चक्रवर्तियों की, इन्द्रों की, राजा-महाराजाओं की ममतं असुखभावस्य, आलापं कूड उच्यते ॥१३५॥
ॐ कथा करता है (भावन तत्र तिस्टंते) उसकी भावना उन्हीं में लगी रहती है, वह भी
3 वैसे ही भोगादि भोगना चाहता है (पर दारा रतो नरा) वह मनुष्य परदारा में ही रत अबंभ कूड सद्भाव, मन वचनस्य क्रीयते।
आसक्त है। ते नरा व्रत हीनस्य, संसारे दुष दारुनं ॥१३६ ॥
R (काम कथा च वर्नत्वं) काम भोग की कथाओं का वर्णन करना (वचनं आलाप कषायं जेन विकहस्य,चक्र इन्द्र नराधिपा।
रंजन) बड़ी रुचि पूर्वक आनंद से कहना, सुनना, बताना (ते नरा दुष साहंते) वह भावन तत्र तिस्टंते, पर दारा रतो नरा॥१३७॥
७ मनुष्य बड़े दुःख सहते हैं, हमेशा आकुल-व्याकुल रहते हैं (पर दारा रतो सदा)
वह हमेशा परदारा में आसक्त ही हैं। काम कथा च वर्नत्वं,वचनं आलाप रंजनं ।
(विकहा अश्रुत प्रोक्तं च) विकथाओं का वर्णन करने वाले कुशास्त्र नहीं, ते नरा दुष साईते, पर दारा रतो सदा ॥१३८॥
5 अशास्त्र कहे गये हैं (कामार्थं श्रुत उक्तयं) ऐसे काम भाव को पैदा करने वाले विकहा अश्रुत प्रोक्तं च,कामार्थ श्रुत उक्तयं ।
5 शास्त्रों का कहना पढ़ना सुनना (श्रुतं अन्यान मयं मूढा) ऐसे उपन्यास कथा पुराण 2 श्रुतं अन्यान मयं मूढा, व्रत पंड दारा रंजितं ॥१३९॥ आदि पढ़ना अज्ञान मय मूढता है (व्रत पंड दारा रंजितं) उसी से ब्रह्मचर्य व्रत परिणाम जस्य विचलंते,विभ्रम रूप चिंतनं ।
खंडित होता है, स्त्रियों में आसक्ति होती है।
(परिणामं जस्य विचलंते) जिससे परिणाम विचलित होवें (विभ्रम रूप आलापं श्रुत आनंदं, विकहा परदार सेवनं ॥१४०॥
चिंतन) ऐसे स्त्रियों के विलास रूपादि का चिन्तन करना (आलापं श्रुत आनंदं) कथा,
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