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श्री आवकाचार जी
मांस, मधु, वेश्या, चोरी, परस्त्री, हिंसादान, शिकार, त्रस की हिंसा, स्थूल झूठ, बिना छना पानी, रात्रि भोजन इनका आजीवन त्याग होता है।
नैष्ठिक श्रावक
जो धर्मात्मा पाक्षिक श्रावक की क्रियाओं का साधन करके शास्त्रों के अध्ययन द्वारा तत्वों का विशेष विवेचन करता हुआ पंचाणुव्रतों का आरम्भ कर अभ्यास बढ़ाने अर्थात् देशचारित्र धारण करने में तत्पर हो वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है अथवा जो सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र और उत्तम क्षमादि दश धर्म का पालन करने की निष्ठा (श्रद्धा) युक्त पंचम गुणस्थानवर्ती हो वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है। नैष्ठिक श्रावक के अप्रत्याख्यानावरण कषायों का उपशम होने से और प्रत्ख्यानावरण कषायों का क्षयोपशम, मंद उदय के क्रमशः बढ़ने से ग्यारहवीं प्रतिमा तक बारह व्रत पूर्णता को प्राप्त हो जाते हैं, इसी कारण श्रावक को सागार (अणुव्रती) कहा है, यह श्रावक की ग्यारह प्रतिमायें (पाप त्याग की प्रतिज्ञायें) ही अणुव्रतों को महाव्रतों की अवस्था तक पहुंचाने वाली नसैनी के समान हैं। इनको धारण करने का पात्र यथार्थ में वही पुरुष है जो मुनिव्रत (महाव्रत ) धारण करने का अभिलाषी हो। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि जितने त्याग, व्रत के योग्य अपने शरीर की शक्ति, द्रव्य, क्षेत्र, काल की योग्यता, परिणामों का उत्साह हो और जिससे धर्म ध्यान में उत्साह तथा वृद्धि होती रहे, उतनी ही प्रतिज्ञा धारण करना चाहिये ; अतएव इन प्रतिमाओं के स्वरूप तथा इनके द्वारा होने वाले लौकिक-पारलौकिक लाभों को यथावत जानकर जितना सधता दिखे और विषय कषाय मंद होते दिखें, उतना ही व्रत-नियम धारण करना कल्याणकारी है। कहा है
संयम अंश जग्यो जहां, भोग अरुचि परिणाम |
उदय प्रतिज्ञा को भयो, प्रतिमा ताको नाम ॥ (पं. बनारसीदास जी ) जब संयम धारण करने का भाव उत्पन्न हो, विषय भोगों से अंतरंग में उदासीनता उत्पन्न हो तब जो त्याग की प्रतिज्ञा की जाये वह प्रतिज्ञा प्रतिमा कहलाती है ।
श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज आगे ग्यारह प्रतिमाओं के नाम कहते हैं
दंसन वय सामाइ, पोसह सचित्त चिंतनं ।
अनुरागं बंभचर्य च, आरंभं परिग्रहस्तथा ॥ ३७९ ।।
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गाथा ३७९, ३८०
अनुमतं उदिस्ट देसं च, प्रतिमा एकादसानि च । व्रतानि पंच उत्पादते श्रूयते जिनागमं ॥ ३८० ॥
अन्वयार्थ - (दंसन वय सामाइ) दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा (पोसह सचित्त चिंतनं) प्रोषधोपवास प्रतिमा, सचित्त प्रतिमा (अनुरागं बंभचर्यं च ) अनुराग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा (आरंभं परिग्रहस्तथा) आरंभ प्रतिमा, परिग्रह त्याग प्रतिमा (अनुमतं उदिस्ट देसं च) अनुमति त्याग प्रतिमा, उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा, यहां तक देशव्रत हैं ( प्रतिमा एकादसानि च) यह ग्यारह प्रतिमायें हैं (व्रतानि पंच उत्पादंते) इससे पांच अणुव्रत प्रगट होते हैं अर्थात् शुद्ध होते हैं (श्रूयते जिनागमं) ऐसा जिनागम में कहा है।
विशेषार्थ १. दर्शन प्रतिमा, २. व्रत प्रतिमा, ३. सामायिक प्रतिमा, ४. प्रोषधोपवास प्रतिमा, ५. सचित्त प्रतिमा, ६. अनुराग भक्ति प्रतिमा, ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा, ८. आरंभ त्याग प्रतिमा, ९. परिग्रह त्याग प्रतिमा, १०. अनुमति त्याग प्रतिमा, ११. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा ।
यह ग्यारह प्रतिमा जैनागम में श्रावक के लिये कही गईं हैं, यहां तक देशव्रत होता है, इन प्रतिमाओं के पालन से अणुव्रत शुद्ध होते हैं। जिस प्रतिमा में जिस व्रत के पालन या पाप त्याग की प्रतिज्ञा की जाती है वह यथावत पालन करने तथा अतिचार न लगाने से ही प्रतिमा कहलाती है। जिस किसी प्रतिमा में अतिचार लगता हो तो नीचे की प्रतिमा जानना चाहिये, यदि नीचे की प्रतिमाओं का चारित्र बिल्कुल पालन न कर या अधूरा ही रखकर ऊपर की प्रतिमा का चारित्र धारण कर लिया जाये तो वह जिनमत से बाह्य कौतुक मात्र है उसका कुछ भी फल नहीं मिलता ; क्योंकि नीचे से क्रम पूर्वक यथावत साधन करते हुए ऊपर चढ़ते जाने से, क्रम पूर्वक चारित्र बढ़ाने से ही विषय कषाय मंद होने से आत्मीक सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है, जो कि प्रतिज्ञा और प्रतिमाओं के धारण करने का मुख्य उद्देश्य है।
इन ग्यारह प्रतिमाओं में छटवीं प्रतिमा तक जघन्य श्रावक (ग्रहस्थ), नवमीं 2 प्रतिमा तक मध्यम श्रावक (ब्रह्मचारी) और दसवीं ग्यारहवीं प्रतिमा वाले उत्कृष्ट श्रावक (भिक्षुक) कहलाते हैं।
यहां जो ग्यारह प्रतिमाओं के नाम आये हैं, इनमें छटवीं प्रतिमा का नाम अनुराग भक्ति जबकि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इसका नाम रात्रि भुक्ति त्याग है और