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04 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-२४२,२४३
Oo छोड़ देते हैं।
भय या चाह से किसी भी कुदेव-अदेव की पूजा भक्ति करते हैं, वह दुर्बुद्धि कभी आजकल लोग देवपूजा के नाम पर नाना रूप भेष बनाकर नाना प्रकार की सम्यकदष्टि नहीं हो सकते। जिन्हें अपने कर्मोदय का विश्वास नहीं है कि हमारे पुण्य क्रियायें करते हैं। लोगों को ठगने के लिये भी संसारी जीव नाना प्रकार की देवमूढता का उदय होगा तो हमारा कोई बाल बांका अहित नहीं कर सकता और पाप का उदय में फंसाते हैं। भूत-पिशाच, देवी-दहाड़ी आदियह तो सब प्रत्यक्ष कुदेव ही हैं। लोग * होगा तो कोई साथ नहीं दे सकता. हाथ नहीं बंटा सकता। जगत में सब जीवों का ७ इनके साथ अदेवादि को भी देव मानकर पूजते हैं जो घोर संसार का कारण है। अपने-अपने पाप-पण्य कर्मोदयानसार ही परिणमन चल रहा है, इसको मिटाने इसी देव मूढता का स्वरूप और उसकी मान्यता का फल यहां आगे गाथाओं में
S टालने में कोई भी समर्थ नहीं है, देव इन्द्रधरणेन्द्र यहां तक कि जिनेन्द्र परमात्मा भी तारण स्वामी बता रहे हैं
अपने या पर के, किसी के भी कर्मोदय को नहीं टाल सकते, सबको अपने कर्मोदय देव मूढ़ च प्रोक्तं च, क्रीयते जेन मूढ़यं । हैं का फल भोगना पड़ता है फिर कौन किसका भला-बुरा कर सकता है। चार प्रकार दुर्बुद्धि उत्पादते जीवा, तावत् दिस्टिन सुद्धये ॥ २४२ ॥ के देव-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी जो संसारी रागी द्वेषी देव हैं, अदेवं देव उक्तं च,मूढ़ दिस्टि प्रकीर्तितं ।
इनमें से किसी भी देवी-देव की पूजा भक्ति करना तो कुदेव की मान्यता है तथा
पाषाण, मिट्टी, लकड़ी,लेप, धातु आदि की मूर्ति को देव मानकर पूजा भक्ति अदेव अदेवं असास्वतं येन, तिक्तते सुख दिस्टितं ।। २४३॥
की मान्यता है। ऐसे कुदेव-अदेवों की पूजा भक्ति मान्यता देव मूढता कहलाती है अन्वयार्थ- (देव मूढं च प्रोक्तं च) देवमूढता का स्वरूप कहते हैं (क्रीयते ८ और सम्यक्दृष्टि इन सबको छोड़ देता है, वह तो अपने शुद्धात्म तत्व परमात्मस्वरूप जेन मूढयं) जो मूढ लोग किया करते हैं (दुर्बुद्धि उत्पादते जीवा) जब तक जीव को की ही श्रद्धा भक्ति करता है तथा इस पद को प्राप्त सच्चे वीतरागी अरिहंत, सिद्ध ऐसी दुर्बुद्धि पैदा होती रहती है (तावत् दिस्टिन सुद्धये) तब तक दृष्टि शुद्ध नहीं होती। परमात्मा के गुणों का आराधन करता है जिससे परिणामों में निर्मलता प्राप्त हो, अर्थात् वह सम्यक्दृष्टि नहीं होता।
में अपने शुद्धात्मा का दृढ श्रद्धान हो इस अभिप्राय को लेकर सच्चे देव की वन्दना (अदेवं देव उक्तंच) जो अदेवों को देव कहते हैं और (मूढ दिस्टि प्रकीर्तितं): भक्ति करता है। मूढदृष्टियों के साथ श्रद्धा भक्ति वंदना पूजा प्रार्थना और प्रसिद्धि करते हैं कि यह
यहां कोई प्रश्न करे कि कुदेव-अदेव की किसी संसारी कामना-वासना को देव हैं (अदेवं असास्वतं येन) इस प्रकार के अदेवों को जो नाशवान जड़ पदार्थों से लेकर वन्दना पूजा भक्ति करना देव मूढता है परन्तु क्या सच्चे देव अपने इष्ट की बनाये गये हैं (तिक्तते सुद्ध दिस्टितं) शुद्ध दृष्टि इनको त्याग देते हैं, इनकी श्रद्धा किसी पाषाण आदि प्रतिमा के माध्यम से पूजा भक्ति करना भी देव मूढता है? भक्ति नहीं करते।
उसका समाधान करते हैं कि धातु पाषाण आदि की प्रतिमा अजीव विनाशीक विशेषार्थ- संसारी प्रयोजनवश किसी कामना वासना को लेकर किसी को देव 3 वस्तु है, जिसमें सच्चा देवपना अर्थात् सर्वज्ञता वीतरागता हितोपदेशिता या अरिहंत मानकर पूजना देव मूढता है। इससे हमारा भला होगा, धन, वैभव, पुत्र परिवार सिद्धपना कुछ भी न झलके, कोई चैतन्य भाव ही प्रगट न हो, उसे देव मानना अदेव बढ़ेगा, रोग शोक दूर होंगे ऐसी मान्यता मानकर किसी भी कुदेव-अदेव की पूजा श्रद्धा है, मूढता है यह भी देव मूढता में गर्भित है। शुद्ध सम्यकदृष्टि तो शुद्धात्मा के भक्ति करना देव मूढता है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि संसारी जीव अपनी मूढता से ऐसे पद को प्राप्त जो अरिहंत सिद्ध भगवान हैं उन्हीं को सुदेव मानता है और उनकी ही, प्रपंचों में फंसे रहते हैं तथा इसकी प्रसिद्धि प्रभावना करते हैं कि अमुक देव को मानने भक्ति करता है, सो भक्ति भी इसलिये कि परिणामों में निर्मलता प्राप्त हो तथा अपने से यह लाभ हुआ, अमुक देवी की मान्यता करने से यह भला हुआ, उसने ऐसा नहीं शुद्धात्मा की स्मृति हो जावे। सम्यक्दृष्टि व्यवहार नय से सकल और निकल परमात्मा माना था इसलिये उसका ऐसा हो गया, इस प्रकार की बातें कर अन्य जीवों को जो अरिहंत और सिद्ध हैं उनकी गाढ श्रद्धा व भक्ति रखता है अन्य किसी कुदेव या 7 देवमूढता में फंसाते रहते हैं। जो जीव ऐसे मूढ लोगों की बातों में लगते हैं और किसी अदेव की नहीं।
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