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श्री श्रावकाचार जी
भोगना पड़ते हैं। पारधी शिकारी के जाल से मुक्त होना है अर्थात् इन अधर्म, विकथा, व्यसन और आर्त- रौद्र ध्यान तथा कुगुरुओं के जाल से मुक्त होना है तो जिनेन्द्र देव के कहे अनुसार अपने ध्रुव तत्व शुद्धात्म स्वरूप का श्रद्धान साधना करो। आचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शन पाहुड़ में कहा है
जिणवयममोसम विसयहविरेवणं अभिदमूर्द
जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ||१७||
जिन वचन महौषधि है । विषयसुख का विरेचन अर्थात् निकालने वाली अमृत के समान है । जन्म-मरण की व्याधियों को हरने वाली है तथा सर्व दुःखों को क्षय करने वाली है।
जीवादीसहहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥२०॥
जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि जीवादि पदार्थों का श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त्व है और अपने आत्मा के श्रद्धान को ही निश्चय सम्यक्त्व कहा है।
एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण ।
सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ||२१||
इस प्रकार जिनेन्द्र के कहे अनुसार सम्यक्दर्शन रत्न को भाव सहित धारण करो, यही सारभूत रत्नत्रय गुण मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है, शुद्ध तत्व और सच्चे देव गुरू धर्म की श्रद्धा है तो अपने आत्म स्वरूप को पहिचानों क्योंकि
सक्कइतं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सदहणं ।
के वलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ॥ २२॥ केवली जिनेन्द्र परमात्मा के वचनों का श्रद्धान करने वाले को सम्यक्त्व कहा है। जितना तुम कर सकते हो उतना करो अर्थात् जितना संयम तप चारित्र रूप अपने स्वरूप में रमणता कर सकते हो, अणुव्रती महाव्रती साधु हो सकते हो उतना करो। इतना नहीं कर सकते तो अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान तो करो।
अपना आत्म स्वरूप कैसा है, इसे समयसार में कहते हैं
अस्समरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसदं ।
जाण अलंगग्गह, जीवमणिदिट्ठ संठाणं ॥ ४९ ॥
हे भव्य ! तू अपने आत्म स्वरूप को अरस अरूपी गंधरहित अव्यक्त चेतना गुण सहित (अलिंगी) किसी चिन्ह से ग्रहण न होने वाला, जिसका कोई आकार नहीं
SYA GARAAN YAARA YE
है, जो मात्र ज्ञानानंद स्वभावी है ऐसा जान अनुभव करने श्रद्धान करने से यह अधर्म रूपी उपाय से मुक्त हो सकते हो।
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गाथा - १२४-१२८ अपने आत्म स्वभाव को पहिचानने शिकारी से पीछा छूट जायेगा, इसी
यहां कोई प्रश्न करे कि जब यह जीव आत्मा ऐसा है, टंकोत्कीर्ण अप्पा मात्र ज्ञानानंद स्वभावी है तो फिर यह बहिरात्मा संसारी अज्ञानी क्यों हो रहा है, यह अधर्म आदि में क्यों फंसा है ?
इसका समाधान करते हैं कि स्वभाव से तो यह जीव आत्मा ऐसा ही है परंतु यह अपने स्वभाव को नहीं जान रहा, भूला है और अनादि से कर्म का संयोग होने से यह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा हो रहा है और इसी भूल के कारण यह अधर्म आदि में फंसा है।
यहां पुनः प्रश्न करते हैं कि जब अनादि से ही जीव और कर्म का संयोग है और इसी कारण यह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा हो रहा है और इसी कारण यह अधर्म आदि में फसा है तो फिर यह भूल किसकी है ?
इसका समाधान करते हैं कि भूल तो किसी की नहीं है, यह तो जगत का स्वभाव ही है। यहां इतना समझना है कि जीव चेतन है, कर्म जड़ पुदगल हैं। यह जीव, मनुष्य भव में आया है, इसे बुद्धि विवेक आदि का शुभयोग मिला है तो इसे समझाया जा रहा है कि प्रभु ! तेरा सत्स्वरूप तो सिद्ध के समान शुद्ध बुद्ध अविनाशी ज्ञानानंद स्वभाव है। तू यह ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म, रागादि भाव कर्म, शरीरादि नो कर्म रूप नहीं है और न यह तेरे हैं। यह तेरे से सर्वथा भिन्न जड़ पुद्गल अचेतन हैं, इसमें फंसा होने के कारण और इन्हें अपना मानने के कारण तू संसारी सुखी - दुःखी हो रहा है। जन्म-मरण कर रहा है और अनंत संसार में रुल रहा है। अब जिस जीव की समझ में यह बात आ जावे, श्रद्धान कर लेवे तो उसका भला हो सकता है। वह इस संसार के चक्र से छूटकर मुक्त हो सकता है। इस अपेक्षा यह सब कहा जा रहा है अब इसमें भी जिस जीव की होनहार अच्छी हो, काललब्धि आ गई 5 हो वह समझकर सुलट कर मुक्ति के मार्ग में लग जाता है। सद्गुरु ज्ञानियों को तो शुभराग और करुणा होती है। इससे वह कहते, लिखते, बताते हैं। अपनी हम स्वयं देखें, जानें तो अपना भला हो सकता है। क्योंकि -
दौल समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवे। यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहीं होवे ॥