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श्री आवकाचार जी
से विमुख हो गया है, छूट गया है।
विशेषार्थ - यहां सम्यक दृष्टि जीव कैसा होता है, उसकी दृष्टि और लक्ष्य क्या होता है, इसका वर्णन चल रहा है। सम्यकदृष्टि जीव शुद्ध तत्व का प्रकाश करता है। अब यहाँ तत्व किसे कहते हैं इसे समझना है। सार वस्तु या शुद्ध द्रव्य को तत्व कहते हैं, रहस्य को भी तत्व कहते हैं। जो तत्व को जानता है, तत्व में भी शुद्ध तत्व को जानता है, यह शुद्ध तत्व क्या है ? सारभूत तो निज शुद्धात्मा है, सम्यकदृष्टि अपने शुद्ध आत्म तत्व को जानता है, वह कैसा है ? ब्रह्म स्वरूपी निरंजन चेतन लक्षण, मात्र ज्ञान स्वभावी है। यह ब्रह्म स्वरूप तारण स्वामी की विशेष उपलब्धि है, क्योंकि ब्रह्म अनादि अनंत है, सिद्ध सादि अनन्त है। जो त्रिकाल शुद्ध ध्रुव अविनाशी चैतन्य लक्षण वाला ब्रह्म स्वरूपी अर्थात् परमात्म स्वरूप है, वह मेरा सत्स्वरूप शुद्धात्म तत्व है, ऐसा जानता है और व्यवहार में सात तत्वों का यथार्थ निर्णय करता है । यह सात तत्व क्या हैं और इनका स्वरूप क्या है, यह लिखते हैं, तत्वार्थसूत्र में आया है- तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यक् दर्शनं ।
जीवाजीवासव बन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वं । (१/२, ३) जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष यह सात तत्व हैं
१. जीव तत्व- जिसमें चेतना ज्ञान-दर्शन शक्ति है, जो मात्र ज्ञायक स्वभावी
है जो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त बल का भण्डार है, जिसमें परम सुख, परमशान्ति, परम आनन्द रूप रत्नत्रय भरे हैं, जो केवलज्ञानमयी है, वह जीव तत्व है।
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२. अजीव तत्व जिसमें ज्ञान-दर्शन चेतना नहीं है, जो अचेतन है, जिसके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह पाँच भेद हैं, वह अजीव तत्व है। ३. आसव तत्व- जीव का अजीव की तरफ देखने से जो कर्मों का आना
होता है, वह आस्रव तत्व है।
४. बन्ध तत्व- जीव का अजीव की तरफ देखकर राग-द्वेष करना इससे
कर्मों का बन्ध होता है, वह बन्ध तत्व है।
५. संवर तत्व - जीव का अपने शुद्ध स्वरूप की तरफ देखना पर की तरफ
न देखना, इससे कर्मों का आना रुकता है, वह संवर तत्व है।
६. निर्जरा तत्व - जीव का अपने शुद्ध स्वभाव में रहने से बन्धे हुए कर्मों का क्षय होता है, वह निर्जरा तत्व है।
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गाथा-२६
७. मोक्ष तत्व- जीव और अजीव का अपने शुद्ध स्वभाव मय रहना मोक्ष तत्व है।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह आपने जीवादि तत्वों की परिभाषा बताई, ऐसा तो कोई नहीं बताता, वहाँ तो सामान्य परिभाषा ही बताई जाती है फिर इसमें यह अन्तर क्या है ?
इसका समाधान करते हैं कि पहले तो सम्यक्दृष्टि ऐसे शुद्ध तत्व को जानता है, उस अपेक्षा यह परिभाषा है। दूसरी जैनदर्शन में तत्व, द्रव्य, पदार्थ, अस्तिकाय इन चार भेदों से जीवादि के स्वरूप का वर्णन किया है, तो एक सामान्य परिभाषा में तो सब गड़बड़ हो जाता है, फिर तत्व, द्रव्य, पदार्थ, अस्तिकाय में क्या भेद है ? यह जीवादि को चार भेद रूप क्यों कहा ? यह समझने, विचार करने, चिन्तन में लेने की बात है क्योंकि तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यक्दर्शनं कहा है। इस बात को तारण स्वामी ने न्यान समुच्चय सार ग्रंथ की गाथा क्रं. ७६५ से ८३२ तक खूब खुलासा किया है। यहाँ तत्व की अपेक्षा परिभाषा बताई है। यह तत्व की भूल से ही जैन धर्म में पर की पूजा, वन्दना, भक्ति, पराश्रितपना आ गया है। सम्यक्दृष्टि के भावों में तो शुद्ध सम्यक्त्व अर्थात् अपना निज शुद्धात्म तत्व ही आता है। वह उसी की साधना-आराधना करता है। वह मिथ्यादृष्टिपने से विपरीत हो गया है अर्थात् अब पर से मेरा भला होगा, कोई दूसरा मेरा इष्ट परमात्मा है, ऐसी मान्यता छूट गई है। अब तो वह अपने निज शुद्धात्म तत्व को ही अपना इष्ट परमात्मा मानता है, अपने ही आश्रय से अपना भला होगा, ऐसा मानता है।
और सम्यकदृष्टि क्या मानता है, क्या करता है ? इसे आगे की गाथा में
कहते हैं
संमिक देव गुरं भक्तं संमिक धर्म समाचरेत् । संमिक तत्व वेदते मिथ्या विविध मुक्त ।। ३५ ।।
अन्वयार्थ- (संमिक देव गुरं भक्तं) सच्चे देव, गुरू की भक्ति करता है (संमिक धर्म समाचरेत्) सच्चे धर्म का ही आचरण पालन करता है (संमिक तत्त्व वेदंते) सच्चे तत्व का ही अनुभव करता है (मिथ्या त्रिविध मुक्तयं) तीनों प्रकार के मिथ्या देव, गुरू, धर्म से मुक्त हो गया, छूट गया है।
विशेषार्थ- यहाँ सम्यदृष्टि कैसा होता है, उसकी दृष्टि और लक्ष्य क्या होता