________________
७७७
Coc
श्री आवकाचार जी
उच्च कुल, दीर्घायु, इन्द्रियों की परिपूर्णता, आत्मज्ञान होने योग्य क्षयोपशम, पवित्र जिन धर्म की प्राप्ति, साधर्मियों का सत्संग आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ समागम प्राप्त हुआ : इसलिये जैसे बने तैसे आत्मज्ञान की उपलब्धि में यत्न करना चाहिये ऐसा चिंतवन करना बोधिदुर्लभ भावना है।
१२. धर्म भावना - दस लक्षण रूप दया अहिंसा मयी अथवा शुद्ध रत्नत्रय मयी शुद्धात्म स्वरूप धर्म, जो जिनेन्द्र देव ने कहा है उसकी प्राप्ति के बिना जीव अनादि काल से संसार में भ्रमण कर रहा है। धर्म अर्थात् निज शुद्ध स्वभाव के श्रद्धान से ही सच्चा सुख और मुक्ति की प्राप्ति होती है, धर्म की शरण ही जीव को कल्याणकारी है ऐसा चिंतवन करना धर्म भावना है।
बारह व्रतों का वर्णन - अब यहां पंचाणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का विशेष वर्णन किया जाता है तथा हर एक व्रत के पांच-पांच अतिचार और पांच-पांच भावनायें कही जाती हैं। यह भावनायें जिनके चिंतवन से व्रत दृढ़ होते हैं और निर्दोष पलते हैं। सर्वदेश महाव्रतों को और एकदेश अणुव्रतों को भावनायें लाभ पहुंचाती हैं । सूत्रकारों ने जहां व्रतों के अणुव्रत और महाव्रत दो भेद बताये हैं, वहीं यह पांच-पांच भावनायें भी कही हैं इसलिये इन भावनाओं का देशव्रत और महाव्रत दोनों से यथा संभव संबंध जानना चाहिये ।
(१) अहिंसाणुव्रत- 'प्रमत्त योगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' प्रमत्तयोग अर्थात् कषायों के वश होकर प्राणों का नाश करना हिंसा है। मिथ्यात्व, असंयम, कषायरूप परिणाम होना भाव हिंसा है और इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास, आयु प्राणों का घात करना द्रव्य हिंसा करना है। जिस प्रकार जीव को स्वयं अपनी भाव हिंसा के फल से चतुर्गति में भ्रमण करते हुए नाना प्रकार दुःख भोगने पड़ते हैं और द्रव्य हिंसा होने से अति कष्ट सहन करना पड़ता है, उसी प्रकार दूसरों के द्रव्य और भाव प्राणों की हिंसा करने से भी तीव्र कषाय और तीव्र बैर उत्पन्न होता है, जिससे जन्म-जन्मांतरों
SYA YA YA YA.
में महान दुःख की प्राप्ति होती है, यह जन्म तो दुःख रूप हो ही जाता है। जो जीव संसार परिभ्रमण से अपनी रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें सदा स्व और पर जीवों पर दया > दृष्टि रखना चाहिये । इस प्रकार हिंसा को महापाप तथा जीव का परम दुःखदाई बैरी जानकर त्यागने का दृढ़ संकल्प करना अहिंसाणुव्रत है।
हिंसा के चार भेद हैं- १. संकल्पी २ आरम्भी, ३. उद्योगी, ४. विरोधी । व्रती श्रावक संकल्पी हिंसा का पूर्णतया त्यागी होता है ।
२२५
गाथा- ४०५
अहिंसाणुव्रत के पांच अतिचार- १. वध - किसी को लाठी, मुक्का, कोड़ा आदि से मारना । २. बंध बांधना, रोकना, कैद करना। ३. छेद- नाक छेदना, पांव तोड़ना, अंग भंग करना । ४. अतिभारारोपण- गाड़ी घोड़ा, बैल आदि पर प्रमाण से अधिक बोझ लादना । ५. अन्न पान निरोध- किसी को भी समयानुसार खाने-पीने को न देना।
इन पांच अतिचारों को छोड़ने से अहिंसाणुव्रत निर्दोष पलता है अतएव अतिचार दोष भी नहीं लगने देना चाहिये ।
अहिंसाणुव्रत की पांच भावनायें - १. मनोगुप्ति- मन में अन्याय पूर्वक दुष्ट संकल्प-विकल्प नहीं करना । २. वचन गुप्ति - हास्य, कलह, विवाद आदि हिंसाकारी वचन न बोलना । ३. ईर्या समिति - त्रस जीवों की विराधना न हो इसके लिये हर कार्य विवेक पूर्वक देखभाल कर करना । ४. आदान निक्षेपण समिति - हर एक वस्तु पात्र आदि देखकर उठाना धरना जिससे आपको व पर को कोई पीड़ा कष्ट न हो । ५. आलोकित पान भोजन- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की योग्यता- अयोग्यता देखकर भली-भांति देख शोधकर आहार जल ग्रहण करना। इस प्रकार भली भांति अहिंसाणुव्रत के स्वरूप को जानकर अंतरंग कषाय भाव और बाह्य आरंभी त्रस हिंसा नहीं करते, वे ही सच्चे अहिंसाणुव्रत के पालक हैं।
(२) सत्याणुव्रत- 'प्रमत्तयोगादसदभिधानमनृतम्' कषाय भाव पूर्वक अयथार्थ भाषण करना असत्य कहलाता है ; पुनः ऐसे सत्य वचन को भी असत्य जानना जिसके बोलने से दूसरों का अपवाद, बिगाड़ या घात हो जाये अथवा पांच पापों में प्रवृत्ति हो जाये क्योंकि ऐसे भाषण करने वाले के सत्य वचन होते हुए भी चित्तवृत्ति पाप रूप ही रहती है। इस प्रकार सत्य-असत्य का स्वरूप भली-भांति जानकर उपर्युक्त प्रकार स्थूल असत्य का त्याग करना सत्याणुव्रत कहलाता है।
असत्य बोलने से लोक में निंदा होना, राज्य से दण्ड मिलना आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं और परलोक में दुर्गति होती है। सत्य बोलने से लोक में प्रामाणिकता, यश, बड़प्पन तथा लाभ होता है और परलोक में स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति होती है। सत्याणुव्रत के पांच अतिचार- १. मिथ्या उपदेश- शास्त्र विरुद्ध उपदेश देना । २. रहो भ्याख्यान किसी की गुप्त बात को प्रगट करना। ३. कूटलेख क्रिया- झूठी बातें लिखना, झूठी गवाही देना । ४. न्यासापहार- किसी की धरोहर रखी हो उसको कम बढ़ करके देना। ५. साकार मंत्र भेद किसी के अभिप्राय को
-
-