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श्री आवकाचार जी
विशेषार्थ परमइष्ट, परमज्योति स्वरूप शुद्धात्मा जो अनंत चतुष्टय अर्थात् अनंत दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त बल जिसकी निज सत्ता शक्ति है, जो निरन्तर उसमें ही रमण कर रहा है, जो पंच ज्ञानमयी शुद्ध है अर्थात् जिसमें पाँचों ज्ञान हमेशा वर्तते हैं। जिसका भाव, ज्ञान स्वभाव ही है ऐसे देवों के देव शुद्धात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि शुद्धात्मा कोई भिन्न स्वतंत्र सत्ता है जो त्रिकाल शुद्ध पंच ज्ञानमयी देवों का देव है, तो या तो यह तीर्थंकर केवली परमात्मा हो सकते हैं। या सिद्ध परमात्मा हो सकते हैं, क्या यह शुद्ध आत्मा कोई स्वतंत्र शक्ति है, क्योंकि वर्तमान में जो जीव है वह तो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोही, रागी-द्वेषी कर्म संयोगी दशा में बड़ा असहाय पराधीन है फिर यह निज शुद्धात्मा या शुद्ध आत्मा क्या है ?
इसका समाधान यह है कि वर्तमान में जो संसारी जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोही रागी -द्वेषी कर्माधीन है, निश्चय से यही सिद्ध के समान शुद्ध ध्रुव अविनाशी परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप है, यह अपने ऐसे निज शुद्ध सत्ता स्वरूप को भूलकर भटक रहा है और संसारी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोही रागी -द्वेषी कर्माधीन बना हुआ है।
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अब यहाँ जब यह जीव ऐसे अपने निज सत्ता स्वरूप का बोध करे और इसी की साधना, आराधना में रत रहे तो यह सब कर्मादि से मुक्त होकर स्वयं देवों का देव अरिहन्त सिद्ध परमात्मा हो जाता है। जिन जीवों ने ऐसी अपनी निज सत्ता शक्ति का श्रद्धान अनुभवन किया वही अरिहन्त सिद्ध परमात्मा हो गये तथा उन्हीं को परमात्मा आदि विभिन्न नामों से कहते हैं, यह शुद्ध आत्मा जीव की स्वसत्ता शक्ति ही है अलग से कोई स्वतंत्र सत्ता शक्ति नहीं है ।
यहाँ प्रश्नकर्ता पुन: प्रश्न करता है कि यह बात तो समझ में नहीं आई कि संसारी जीव की स्वसत्ता शक्ति ही परम ब्रह्म परमात्मा सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा देवों का देव अनन्त चतुष्टय का धारी पंच ज्ञानमयी भगवान आत्मा स्वयं है, अगर यह ऐसा है तो फिर इसे संसारी अज्ञानी कर्माधीन किसने बनाया- क्यों बना ? यदि कोई स्वतंत्र सत्ता परमात्मा अलग से नहीं है तो फिर इसको ऐसा करने वाले और इनसे छूटने का उपाय बताने वाले देव गुरू शास्त्र कहाँ से आये और यह जो भी जीव परमात्मा बने यह कहाँ से कैसे बने ?
इसका समाधान करते हैं कि भाई! यह परमतत्व की बात है, यह अध्यात्म की
SYA YAAN YAN A YEA
गाथा-४
जड़ है और इसको सत्यता से जान लेने पर ही धर्म का प्रारम्भ होता है अर्थात् जीवन में सुख शांति आती है, इस संसार और कर्म बन्धन से छूटने का मार्ग बनता है। जरा शान्त होकर सुनो, समझो, अनुभव में लो तो समझ में आ सकती है वैसे यह बहुत गूढ़ रहस्य है। मात्र शब्दों से न समझाया जा सकता है, न शब्दों से समझ में आ सकता। प्रश्नकर्ता कहता है कि बताइये, समझाइये हम शान्त होकर समझने की कोशिश करेंगे और अपने अनुभव से प्रमाण करेंगे।
तो पहले जीव की स्वतंत्र सत्ता की चर्चा करते हैं कि अनन्त जीव अलग-अलग हैं। सबकी सत्ता स्वतंत्र है या किसी एक सत्ता के आधीन है ? अब इसमें सबसे पहले जीव है और वह कैसा है, इसकी चर्चा करते हैं, यह बताओ कि वर्तमान में हम जो यह शरीर मनुष्य भव में हैं इसमें कितने द्रव्य हैं ? इसमें दो द्रव्य हैं- जीव और पुद्गल या चेतन और अचेतन। वह कैसे ? यह शरीर पुद्गल अचेतन है और इसके भीतर एक चैतन्य शक्ति जीव द्रव्य है। यह कैसे जानने में आया ? जब जीव इस शरीर में से निकल जाता है, तब यह शरीर निष्क्रिय निष्प्राण मुर्दा हो जाता है जिसे श्मशान में जला आते हैं तब यह प्रत्यक्ष अनुभव में आता है कि यह शरीर अलग है और चैतन्य शक्ति जीव आत्मा अलग है। जब जीव इस शरीर से निकल जाता है तब इस शरीर में क्या फर्क पड़ता है ? शरीर में ऊपरी तौर से कोई फर्क नहीं पडता, जैसे का तैसा रहता है। मात्र चैतन्य शक्ति निकल जाने से निष्प्राण हो जाता है।
अब यह बताओ कि वह जो चैतन्य शक्ति जीवात्मा इस शरीर में से निकल जाता है क्या वह देखने जानने में आता है ?
नहीं देखने में तो नहीं आता परन्तु जानने में आ जाता है कि वह चैतन्य शक्ति निकल गई।
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किसके जानने में आता है- चेतन के या अचेतन के ?
चेतन के जानने में आता है- अचेतन क्या जाने ।
अब यह बताइये कि वह चैतन्य तत्व जीव आत्मा कहाँ गया ?
इस शरीर से निकलकर किसी दूसरे भव में दूसरे शरीर में चला गया। यह बात कैसे और कहां से जानने में आई ?
यह बात देव गुरू और शास्त्र के माध्यम से जानने में आई क्योंकि इसका प्रत्यक्ष तो हमको अनुभव नहीं है।