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श्री आवकाचार जी आगे मंगलाचरण की दूसरी गाथा कहते हैं
उवं हियं श्रियं चिन्ते, सुद्ध सद्भाव पूरितं ।
संपूर्ण सुर्य रूपं, रूपातीत विंद संजुतं ॥ २ ॥ अन्वयार्थ (सुद्ध सद्भाव पूरितं) शुद्ध स्वभाव से भरा हुआ (संपून सुयं रूपं ) अपने स्वरूप में परिपूर्ण (रूपातीत विंद संजुतं) रूपातीत दशा में भाव मोक्ष में लीन ( उवं ह्रियं श्रियं चिन्ते) ऐसे ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप का चिन्तवन करता हूँ।
विशेषार्थ- शुद्ध निश्चय नय के साधक परम वीतरागी सन्त अपने निज शुद्धात्म स्वरूप का अनुभवन करते हुए यहाँ उसका वर्णन कर रहे हैं जो अपने शुद्ध स्वभाव से भरा हुआ है अर्थात् त्रिकाल शुद्ध है, अपने स्वरूप में परिपूर्ण है अर्थात् जिसमें कहीं से कोई कमीं नहीं है। जिसे पर के अवलम्बन की आवश्यकता नहीं है, जब वह अपने स्वरूपमय रूपातीत दशा में होता है तो भाव मोक्ष अर्थात् परमानंद में लीन रहता है । ऐसा ॐ शुद्ध सत्ता चैतन्य तत्व, ह्रीं केवलज्ञानमयी सर्वज्ञस्वभावी परमगुरू तीर्थंकर, श्री अर्थात् शोभनीक, मंगलीक जय-जयवन्त, कल्याणकारी महासुखकारी, मोक्षलक्ष्मी स्वरूप निज शुद्धात्मा जयवन्त हो, यही चिन्तवन करने योग्य है, मैं इसी का चितवन आराधन करता हूँ।
इसी क्रम में और गहरे डूबते हुए आगे कहते हैं
नमामि सततं भक्तं, अनादि आदि सुद्धये । प्रतिपूर्वं तिअर्थं सुद्धं, पंचदिप्ति नमामिहं ॥ ३ ॥
अन्वयार्थ- (पंचदिप्ति नमामिहं) पंच ज्ञानमयी ज्योति को नमस्कार करता हूँ (अनादि आदि सुद्धये) जो आत्मा अनादि से शुद्ध है (प्रतिपूर्वं तिअर्थं सुद्धं) जो द्रव्य गुण पर्याय से पूर्ण शुद्ध है (नमामि सततं भक्तं) हमेशा भक्ति पूर्वक उसको नमस्कार करता हूँ ।
विशेषार्थ - यहां बड़ी अपूर्व बात कह रहे हैं कि जो पंच ज्ञानमयी अर्थात् जिसमें पाँचों ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान वर्तमान में प्रत्यक्ष हैं; कहीं से लाना नहीं है, कहीं से आना नहीं है इसी समय अभी मौजूद हैं, उस शुद्ध तत्व को मैं नमस्कार करता हूँ। जो आत्मा अनादिकाल से शुद्ध है, जो कभी अशुद्ध हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं तथा जो द्रव्य गुण पर्याय से पूर्ण शुद्ध है, ऐसा निज शुद्धात्म तत्व उसे मैं हमेशा बारम्बार श्रद्धा भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूँ। यह है सम्यदृष्टि ज्ञानी का
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गाथा-२,३,४ GY
लक्ष्य, उसकी दृष्टि जो वर्तमान में कर्म संयोग, अशुद्ध दशा में रहता हुआ भी अपने को परिपूर्ण शुद्ध केवलज्ञानमयी देखता है। जैसा अमृतचन्द्राचार्य ने समय सार कलश में कहा है :
नमः समय साराय, स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावाय भावाय, सर्वभावांतरच्छिदे ॥
समय अर्थात् जीव नामक पदार्थ उसमें सार जो द्रव्य कर्म, भावकर्म, नो कर्म रहित शुद्ध आत्मा उसे मेरा नमस्कार हो । शुद्ध सत्ता स्वरूप वस्तु है, जिसका स्वभाव चेतना गुण रूप है अर्थात् अपने को अपने से ही जानता है, प्रगट करता है, स्वत: अन्य सर्व जीवाजीव चराचर पदार्थों को सर्व क्षेत्र काल संबंधी सर्व विशेषणों के साथ एक ही समय में जानने वाला है। इस प्रकार के विशेषणों से शुद्ध आत्मा को ही इष्टदेव सिद्ध करके नमस्कार किया है।
भावार्थ- यहाँ मंगल के लिये शुद्ध आत्मा को नमस्कार किया है, यदि कोई यह प्रश्न करे कि किसी इष्टदेव का नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? तो उसका समाधान इस प्रकार है- वास्तव में इष्ट देव का सामान्य स्वरूप सर्व कर्म रहित सर्वज्ञ वीतरागी शुद्ध आत्मा ही है इसलिये इस अध्यात्म ग्रन्थ में 'समयसार' कहने से इसमें इष्टदेव का समावेश हो गया। स्वावादी जैनों को तो सर्वज्ञ वीतरागी शुद्ध आत्मा ही इष्ट है, फिर चाहे भले ही इष्टदेव कहो, परमात्मा कहो, परमज्योति कहो, परमेश्वर, परब्रह्म, शिव, निरजंन, निष्कलंक, निराबाध, सिद्ध, सत्यात्मा, चिदानंद, सर्वज्ञ वीतराग, अर्हत, जिन, आप्त, भगवान, समयसार इत्यादि हजारों नामों से कहो, स्यादवादी को कोई विरोध नहीं है। (समयसार कलश)
इस प्रकार शुद्ध अध्यात्मवादी सन्तों की दृष्टि तो अपने पर रहती है। इसी क्रम में आगे और कहते हैं
परमिस्टी परंजोति, आचरनं नंत चतुस्टयं ।
न्यानं पंच मयं सुद्धं देव देवं नमामिहं ॥ ४ ॥
अन्वयार्थ - (परमिस्टी परंजोति) परम इष्ट परमज्योति (आचरनं नंत चतुस्टयं) जिसका आचरण अनंत चतुष्टय में हो रहा है तथा जो (न्यानं पंच मयं सुद्धं ) पंच ज्ञानमयी शुद्ध है (देव देवं नमामिहं) ऐसे देवों के देव शुद्धात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ।