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श्री आवकाचार जी
देखकर अपने में अपना निर्णय करें तभी मुक्ति का मार्ग बनता है। श्रावक के व्रत संयम तप पालना तभी सार्थक है जब मूल में सम्यक्दर्शन होवे । आत्मा के श्रद्धान बिना धर्म का मार्ग बनता नहीं है। अव्रत असंयम पापादि का सेवन करने से नरक तिर्यंच गति में जाना पड़ेगा। व्रत संयम पुण्यादि का सेवन करे और मूल में सम्यक्त्व न होवे तो उससे देवगति मनुष्य गति में ही चक्कर लगाना पड़ेंगे, मोक्ष नहीं मिल सकता। मोक्ष तो भेदज्ञान पूर्वक शुद्धात्मानुभूति के बगैर मिलता ही नहीं है। हमें इस मनुष्य भव में तीन शुभयोग मिले हैं- १. बुद्धि, २. औदारिक शरीर, ३. पुण्य का उदय, इन तीनों का सदुपयोग करें, तो हम विवेकवान मानव हैं, इनका सदुपयोग करने से ही सम्यक्दर्शन की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
१. बुद्धि से - तत्व का निर्णय, भेदज्ञान करें, इसी से सम्यक्दर्शन होता है। २. शरीर से - संयम तप का पालन करें इससे सद्गति मिलती है।
३. पुण्य के उदय से परोपकार दान आदि करें, जिससे संसारी ऐश्वर्य मिलता है। सम्यक्त्व का महात्म्य अपूर्व है। निश्चय सम्यक्दर्शन जिसको होता है उसे ही शुद्धात्मानुभूति होती है। आत्मीक आनंद अमृत स्वरूप है, विषय सुख विष स्वरूप है, ऐसा अनुभव उसकी श्रद्धा में हो जाता है। वह ज्ञान वैराग्य से परिपूर्ण होता है। उसका हर एक कार्य विवेक पूर्वक होता है। सम्यक्त्वी पच्चीस दोष रहित आचरण करता है इसलिये उसका निर्दोष व्यवहार होता है। वह बड़ा दयावान, परोपकारी, मिष्टवादी, शांत प्रकृति धारी, धर्म प्रेमी नास्तिकता रहित होता है। यथार्थ तत्व का वह स्वयं अनुभव करता है और दूसरों को वह तत्व ज्ञान के मार्ग में प्रेरक होता है। वह संसार की माया को नाशवंत समझकर इसके लिये अन्याय पापादि नहीं करता । मोक्षमार्ग पर चलता है परंतु जिसके यह आत्मानुभव रूप यथार्थ तत्व ज्ञानमय सम्यक्दर्शन नहीं होता वह जीव विषय वासना सहित व्यवहार धर्म व तप आदि का पालन करता है तो भी संसार से कभी पार नहीं हो सकता। स्वर्गादि जाकर भी फिर एकेन्द्रिय पशु पर्याय में जन्म ले लेता है। वह शरीर का मोही, शरीर को बार-बार धारण किया करता है; इसलिये जो सम्यक्दृष्टि है वही मोक्षमार्गी एवं मोक्षगामी होता 5 है इसी को आगे कहते हैं
JAAN YAN YASA AYU YES.
संमिक्त जस्य हृदयं सार्धं, व्रत तप क्रिया संजुतं ।
सुद्ध तत्वं च आराध्यं, मुक्ति गामी न संसयः ।। १९४ ।। अन्वयार्थ - (संमिक्त जस्य हृदयं सार्धं) जिसके हृदय में सच्चा श्रद्धान है
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गाथा- १९४
( व्रत तप क्रिया संजुतं) तथा व्रत तप क्रिया सहित है (सुद्ध तत्वं च आराध्यं) और शुद्ध आत्मीक तत्व का आराधन करता है (मुक्ति गामी न संसय:) वह मुक्तिगामी है, अवश्य मोक्ष जायेगा इसमें कोई संशय नहीं है ।
विशेषार्थ सम्यक्दर्शन की महिमा अपूर्व है, जिसे एक बार उपशम सम्यक्त्व हो गया वह निश्चय मोक्ष जायेगा; क्योंकि सम्यक्दर्शन होने का मतलब ही है कि अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल शेष रह गया, काल लब्धि आ गई है अर्थात् संसार की मौत होना निश्चित हो गया है। अब उस जीव को कोई शक्ति संसार में रोककर नहीं रख सकती। जैसे
दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार। मरती बिरिया जीव को कोई न राखनहार ॥
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वैसे ही राग द्वेष और मोहनीय, अन्तराय बलवान ।
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सम्यक् दर्शन होत ही, सबकी होत है हान । तत्वसार में देवसेनाचार्य यही कहते हैं
कालाइलद्धि नियडा जह जह संभवइ भव्वपुरिसस्स ।
तह तह जायइणूर्ण सुसव्वसामग्गि मोक्खटुं ॥ १२ ॥ जैसे-जैसे भव्य पुरुष की काल आदि लब्धियाँ निकट आती जाती हैं, वैसे-वैसे
ही निश्चय से मोक्ष के लिये उत्तम सर्व सामग्री प्राप्त हो जाती है।
यहाँ प्रश्न है कि वह उत्तम सर्व सामग्री कौन सी और किस प्रकार की है ? उसका उत्तर- आदि में सम्यक्त्व, पुनः पंच अणुव्रत, पुनः पंच महाव्रत, पुनः धर्म ध्यान और अन्त में शुक्ल ध्यान की प्राप्ति होना उत्तम सामग्री है।
यहाँ कहते हैं जिसके हृदय में सच्चा श्रद्धान है अर्थात् मैं आत्मा हूँ और मुझे मुक्त होना है। कर्मों को क्षय करने के लिये, पुनः कर्म बन्ध से बचने के लिये जो व्रत, संयम, तप आदि की साधना करता है; क्योंकि द्रव्य संयम के बिना भाव संयम नहीं होता तथा पापों से हटे बचे बिना कर्म बन्धन नहीं रुकता।
तो
पापों का एकदेश त्याग अणुव्रत और पापों का सर्वदेश त्याग महाव्रत है : जिसे धर्म की उपलब्धि हो गई वह पापों से न हटे न बचे ऐसा हो ही नहीं सकता। यहाँ कोई प्रश्न करे कि जब जीव त्रिकाल शुद्ध है, उसमें यह कर्मादि हैं ही नहीं और जब वह पर में कुछ करता ही नहीं है, कर ही नहीं सकता तो फिर यह व्रत संयम तप करने का प्रश्न ही नहीं है; क्योंकि यह सब क्रिया तो शरीर की होती है ?