________________
PO4 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-३७,३८ POOO मिथ्याचारित्र है क्योंकि इससे मुक्ति का मार्ग नहीं बनता और न आत्मा में सुख शांति निर्भय निद आनंद में रहना ही एकमात्र लक्ष्य है और इसके लिये जैसी अनुकूलता होती है तथा सम्यकदर्शन निज शुद्धात्मानुभूति होते ही भले ही वह कितना ही मूढ परिस्थिति देखता है. अपनी पात्रतानुसार वैसा परिणमन करता है। अज्ञानी हो अनपढ़ हो, कुछ भीनजानता हो,मोह,राग-द्वेष में लिप्त हो फिर भी वह यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसा तो सभी कहते हैं और करते हैं परन्तु देखने में तो उतने समय सम्यकज्ञानी है और बाहर में भले ही वह पापों में विषय-कषायों में लिप्त सब विपरीत आता है। संयम.तप.साधना के नाम पर और अधिक विकल्प आकुलता हो, पर वह उतने समय सम्यक्चारित्र वाला है; क्योकि उसने अपने शुद्ध शुद्धात्म में ही रहते हैं. कषाय करते हैं तथा दूसरों को भी आकुलता-विकल्प के कारण बनते स्वरूप को देख लिया है. जान लिया है, मान लिया है। एक समय का स्वरूपाचरण हैं फिर यह सब क्या है? हो गया है और मोक्षमार्ग में यही सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र कार्यकारी
इसका समाधान करते हैं कि यहाँ सम्यकदृष्टि की दशा का वर्णन चल रहा है है। इसी से आत्मा में सुख शांति आनंद की उपलब्धि होती है।
यह बात ध्यान में रखना है। यहाँ यह बताया जा रहा है कि सम्यकद्रष्टि ज्ञानी ऐसा __ अब यहाँ एक बात जो महत्वपूर्ण समझने की है वह यह कि सम्यक्दर्शन में
होता है, उसका एक मात्र लक्ष्य निराकुल, निर्विकल्प आत्मीय आनंद में रहने का भले ही उपशम सम्यक्त्व होवे, उसमें और सिद्ध परमात्मा के सम्यक्त्व में कोई भेद होता है। वह संकल्प-विकल्प के कारणों से बचता है सब बन्धनों से दूर रहता है, नहीं है, श्रद्धा दोनों की एक सी अपने ध्रुव तत्व की बराबर होती है। ज्ञान और चारित्र क्योंकि जिसे एक बार अमृत रस पीने को मिल जाये, फिर क्या वह जहर पियेगा? में क्रमश: विकास होता है क्योंकि इनके बाधक कारण ज्ञानावरणीय, मोहनीय
शः विकास हाताह क्याकि इनक बाधक कारण शानावरणाय, माहनाय मजबूरी, कर्मोदायिक परिस्थिति में रहना और करना पड़ता है। परन्तु वह तो फिर अभी मौजूद हैं तथा बाहर के ज्ञान और चारित्र को सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र नहीं संसार में एक समय के लिये भी नहीं रहना चाहता, सब बन्धनों से छूटने का नाम ही कहते। यह कर्मों के क्षयोपशम से होता है, उस भूमिका, पात्रतानुसार बाहर में वसा मक्ति है। जो पाप परिग्रह रूप ग्रन्थियाँ खोल देता है उसे ही निर्ग्रन्थ साधु कहते हैं आचरण अपने आप होता है, न होवे ऐसा तो होता नहीं है, हो ही नहीं सकता। इसी और जो सब कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है वह सिद्ध परमात्मा कहलाता है। यहाँ बात को आगे की गाथा में कहते हैं
सम्यक्दृष्टि की बात समझना है और अपने को देखना है, इसके अतिरिक्त कौन संमिक संजमं दिस्टा, संमिक तप सार्द्धयं ।
क्या कर रहा है, कैसा रह रहा है, उसकी वह जाने; क्योंकि यह तो संसार है। यहाँ परिनै प्रमानं सुद्ध, असुद्ध सर्व तिक्तयं ॥३७॥
धर्म के नाम पर जीव क्या-क्या नहीं कर रहे, क्या-क्या नहीं हो रहा,यह सब अन्वयार्थ- (संमिक संजमंदिस्टा) सम्यक संयम देखने में आता है (संमिक प्रत्यक्ष ही है तो फिर बिचारे संयम-तप के नाम पर जो कुछ कर रहे हैं. उसका तप सार्द्धयं) सम्यक् तप की साधना करता है (परिनै प्रमानं सुद्ध) उसका परिणमन ! पार
परिणाम तो वह भोग रहे हैं और भोगेंगे।
यहाँ तारण स्वामी सम्यक्दृष्टि की बात कर रहे हैं, अपनी ओर देखने के लिये प्रामाणिक शुद्ध होता है (असुद्धं सर्व तिक्तयं) सर्व अशुद्ध परिणमन को छोड़ देताहै। '
ई कह रहे हैं। इसी क्रम में सम्यक्दृष्टिको और क्या होता है, इसे आगे कहते हैं - विशेषार्थ- सम्यक्दर्शन सहित ज्ञान, सम्यक्ज्ञान और चारित्र तो सम्यक्चारित्र हो ही जाता है। सम्यक्दर्शन सहित संयम भी सम्यक संयम होता है और तप भी
षट् कर्म संमिक्तं सुद्धं,संमिक अर्थ सास्वतं। सम्यक् तप होता है। उस सम्यक्दृष्टि का सब परिणमन प्रामाणिक शुद्ध होता है
संमिक्तं धुर्व साद्ध, संमिक्तं प्रति पूर्नितं ॥३८॥ अर्थात् जिस भूमिका, गुणस्थान में होता है उस रूप ही सारा परिणमन होता है, वह अन्वयार्थ- (षट् कर्म संमिक्तं सुद्ध) शुद्ध षट्कर्म भी सम्यक्दृष्टि को होते हैं स्वच्छन्दता-मनमानी नहीं करता, लौकिक सामाजिक रूढ़ियों का बंधा नहीं होता। (संमिक अर्थ सास्वतं) सम्यक्त्व ही प्रयोजनवान शाश्वत है (संमिक्तं धुवं सार्द्ध) देश, काल, परिस्थिति के अनुसार निराकुल, निर्विकल्प रहने का नाम ही संयमतप सम्यक्त्वी ही शुद्ध ध्रुव स्वभाव की साधना करता है (संमिक्तंप्रति पूनितं) सम्यक्त्व है। बाह्य आडम्बर को ओढ़ता नहीं है, सहजता में निराकुल, निशल्य, निश्चित, ही यथार्थ परिपूर्ण होता है।
३४