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श्री आचकाचार जी
भजन-५५ जा रही जा रही रेजा मोक्षपुरी को रेल ।
चलो तो जामें बैठ चलो। १. चलने है तो करो तैयारी, छोड़ो मोह और ममता।
धर्म ध्यान में चित्त लगाओ, मन में धारो समता...जा..... ब्रह्मचर्य की दीक्षा ले लो, पाप परिग्रह छोड़ो।
विषय कषाय से दूर हटो खुद, घर को बंधन तोड़ो...जा..... ३. खर्चा पानी कछु नहीं चहिये, आत्म जागरण होना।
निर्भयता निर्मोहिता चहिये, कछु होय नहीं रोना...जा..... ४. चलने है तो नाम लिखाओ, करो तैयारी ऐसी।
संयम तप की करो साधना, ढील ढाल फिर कैसी...जा..... ५. ज्ञानानन्द तो पास है अपने, निजानन्द जगा लो। सहजानन्द तो साथ चलेंगे, ब्रह्मानन्द सजा लो...जा.....
भजन-५६ उलझो मत चेतन कही मानो, अपनी सत्ता को पहिचानो। १. तुम हो एक अखंड अविनाशी, ज्ञानानन्द शिवपुर के वासी।
सहजानन्दी हो सुखदानो ..... उलझो..... २. ध्रुव तत्व हो सिद्ध स्वरूपी, ममलह ममल हो अरस अरुपी।
ध्रुव धाम को आगओ परवानो ..... उलझो.. ३. जड़ शरीर से न्यारे हो गये, कर्म कषायें भी सब खो गये।
फिर क्यों इनको अपनो जानो..... उलझो ४. अशुद्ध पर्याय सब तुमसे न्यारी,फिर तुम्हरी कैसी मतिमारी।
दृढता धर पुरुषार्थ ठानो..... उलझो ..... ५. निर्भय मस्त रहो अपने में, बिल्कुल मत बहको सपने में।
ब्रह्मानन्द बनो स्यानो ..... उलझो.....
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आध्यात्मिक भजन
भजन-५७ पीछे की न सोचो, न आगे की कछु चाहो।
वर्तमान को उन दोनों के चक्कर में मत दाहो। १. पीछे जो कुछ होना था, वह गुजर चुका।
अच्छा बुरा पुण्य पाप, सब गुजर चुका।। वर्तमान में देखो, तुम कैसे हो और का हो ..... धन वैभव की मूर्छा है, तो बोलो तुम क्या करते हो। काम दाम और नाम के पीछे, कुढ़ कुढ़ कर ही मरते हो। समता हीअब धर लो, तो सच्चो सुख तुम पा हो ..... जैसा तुम्हारा कर्म उदय था, वैसा ही सब पाया है। इष्ट अनिष्ट संयोग मिले सब, वैसा ही सब खाया है। अब भी मूढ़ बने हो अंधा, दुरगति में ही जाहो ..... आगे जैसा होना होगा, वैसा ही सब होवेगा। कौन जानता है कैसा हो, व्यर्थ चाहकर रोवेगा।। ज्ञानानन्द मय रहो निरन्तर, जीवन सफल बनाओ..... अरस अरूपी ज्ञान चेतना, तुम हो जीव अकेले। यह शरीर धन कुछ नहीं अपना, मान रहे हो भेले।। भेदज्ञान अब कर लो, तो जय जयकार मचाओ..... ज्ञानानन्द स्वभावी हो तुम, ज्ञानानन्द में लीन रहो। पर की तरफन देखो बिल्कुल, और किसी से कछन कहो।। निर्भय होकर अब तो, तुम अपने में रम जाओ.....
सम्यकदर्शन सहित जीव का नरकवास भी श्रेष्ठ है परन्तु सम्यकदर्शन रहित जीव का स्वर्ग में रहना भी शोभा नहीं देता; क्योंकि आत्मज्ञान बिना स्वर्ग में भी वह दु:खी है, जहां आत्मज्ञान है वहीं सच्चा सुख है।