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श्री आवकाचार जी
४. प्रोषधोपवास प्रतिमा
प्रोषध शिक्षाव्रत में प्रोषधोपवास की विधि वर्णन की गई, वही क्रिया यहां समझना चाहिये; परन्तु उपवास क्या है और उसकी सार्थकता, विशेषता क्या है ? वह यहां कहते हैं
पोसह प्रोषधस्चैव, उववासं जेन क्रीयते ।
संमितं जस्य हृदयं सुद्धं, उववासं तस्य उच्यते ॥ ४०८ ॥ संसारं विरतिते जेन, सुद्ध तत्वं च सार्धयं ।
सुद्ध दिस्टी स्थिरी भूतं, उववासं तस्य उच्यते ॥ ४०९ ।। उववासं इच्छनं कृत्वा, जिन उक्तं इच्छनं जथा ।
भक्ति पूर्व च इच्छंते, तस्य हृदय समाचरेत् ॥ ४१० ॥ उववासं व्रतं सुद्धं, सेसं संसार तिक्तयं । पछितो तिक्त आहार, अनसन उववास उच्यते ।। ४११ ।।
अन्वयार्थ - (पोसह प्रोषधरचैव) जो पर्व के दिन पोषह रूप प्रोषध एकासन ( उववासं जेन क्रीयते) उपवास करते हैं (संमिक्तं जस्य हृदयं सुद्धं) जिसके हृदय में शुद्ध सम्यक्दर्शन होता है (उववासं तस्य उच्यते) उसको ही उपवास कहते हैं।
(संसारं विरतिते जेन) जिसने संसार से राग छोड़ दिया है (सुद्ध तत्वं च सार्धयं) जो अपने शुद्धात्म तत्व की साधना करता है (सुद्ध दिस्टी स्थिरी भूतं) जिसकी दृष्टि • अपने शुद्धात्म स्वरूप में स्थिर हो गई है (उववासं तस्य उच्यते) उसको ही उपवास कहते हैं।
(उववासं इच्छनं कृत्वा) उपवास रखने की इच्छा करना (जिन उक्तं इच्छनं जथा) जैसा जिनेन्द्र ने कहा है वैसा ही अपने स्वरूप में रहने की इच्छा करना (भक्ति पूर्वं च इच्छंते) क्योंकि भक्ति पूर्वक जिस ओर की रुचि होती है (तस्य हृदय समाचरेत्) उसी ओर का पुरुषार्थ काम करता है, वैसा ही हृदय से आचरण होता है।
(उववासं व्रतं सुद्ध) उपवास में पांच पापों के त्याग रूप व्रत शुद्ध होना (सेसं संसार तिक्तयं) शेष संसार का ममत्व भाव भी छोड़ना (पछितो तिक्त आहारं) इसके पश्चात् आहार का त्याग करना (अनसन उववास उच्यते) इसको अनशन उपवास कहा जाता है, इसी का नाम प्रोषधोपवास प्रतिमा है।
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SYARAT YAAAAN FAN ART YEAR.
गाथा- ४०८-४१४ AUX विशेषार्थ दूसरी प्रतिमा में प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत में अष्टमी, चतुर्दशी को उपवास करने का अभ्यास था, कभी कोई कारण से नहीं भी करता था, एकासन करता था और अतिचार भी नहीं बचाता था तथा पापारंभ भी नहीं छोड़ता था। यहां चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमा में माह में दो अष्टमी, दो चतुर्दशी को सोलह प्रहर का उत्कृष्ट उपवास करता है। जिसके हृदय में शुद्ध सम्यक्दर्शन होता है जो अपने आत्मा में वास करता है उसी को उपवास कहते हैं। जहां संसार, शरीर और भोगों से उदासीन होकर अपने आत्मा के अनुभव में तल्लीन रहा जावे, अपने शुद्धात्म स्वरूप में लीन रहे उसको ही उपवास कहते हैं। रुचि अनुगामी पुरुषार्थ होता है, रुचि इच्छा पूर्वक उपवास करना तथा जैसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है वैसे ही भक्ति पूर्वक • अपने शुद्धात्म स्वरूप में स्थित रहना और बाह्य में समस्त आरंभ परिग्रह के त्याग पूर्वक आहार जल का त्याग करना, यही सच्चे हृदय से प्रोषधोपवास का आचरण है। उपवास करने वाला पहले अपने मन में यह दृढ़ संकल्प करे कि आज मुझे पांचों पापों के त्याग रूप शुद्ध व्रतों का पालन करना है तथा शेष संसार का ममत्व भाव भी छोड़कर अपने आत्म स्वरूप में लीन रहना है इसी के लिये समस्त आहार का त्याग करना है, यही अनशन रूप उपवास प्रोषधोपवास प्रतिमा कहलाती है। सम्यकदृष्टि ज्ञानी तो निरंतर साधु रूप में रहने की भावना रखता है परन्तु कषाय के शमन न होने से गृह का त्याग नहीं कर सकता तब वह प्रोषधोपवास धारण कर नियमित काल के लिये साधु समान आचरण करता है, परमानन्द के लाभ में आसक्त रहता है, मोक्षमार्ग में चलकर अपने समय और जन्म को सफल बनाता है।
शुद्ध प्रोषधोपवास का फल मोक्ष है परन्तु बिना सम्यक्त्व के कितने ही व्रत तप किये जायें, सब संसार के कारण हैं, सम्यक्दर्शन सहित व्रताचरण मोक्षमार्ग है इसी को कहते हैं
उववासं फलं प्रोक्तं मुक्ति मार्ग च निस्वयं ।
संसारे दुष नासंति, उववासं सुद्धं फलं ॥ ४१२ ।। संमिक्त बिना व्रतं जेन तपं अनादि कालयं । उदवासं मास पावं च संसारे दुष दारुनं ॥। ४१३ ।। उववासं एक सुद्धं च, मन सुद्धं तत्व सार्धयं ।
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मुक्ति श्रियं पंथं सुद्धं प्राप्तं तत्र न संसया ।। ४१४ ॥
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