________________
Our श्री बाचकाचार जी
गाथा-१.४. १०५
७ पैदा होने लगते हैं (अनर्थ सो संगीयते) जो बड़े अनर्थकारी और दुष्ट होते हैं (असुद्ध तरफ दृष्टि हो तो पाप परिग्रह करने धरने के भाव होने लगते हैं। देश की परिनाम तिस्टते) अशुद्ध भावों में ठहरने पर (धर्म भाव न दिस्टते) धर्म भाव दिखाई तरफ देखो तो राजनीति बंद-फंद, लड़ने-मरने के भाव होने लगते हैं। नहीं देता।
, अपनी तरफ देखो तो समता शान्ति आनंद में रहो। (चौरस्य भावनं दिस्टा) चोरी की भावना करने से (आरति रौद्र संजुतं) आर्त* यह जीवन में स्वयं के अनुभव की बातें हैं क्योंकि इन्हीं के कारण तो यह जीव ७ रौद्र ध्यानों में लीन हो जाते हैं (स्तेयानंद आनंद) और ऐसे चोरी करने के भावों में संसार में फंसा कर्मों से बंधा पराधीन हो रहा है। इनसे बचने छूटने का पुरुषार्थ ही आनंदित हो गये, आनंद मानने लगे (संसारे दुष दारुनं) यही संसार के दारुण दु:ख ज्ञानी का आचरण है और यही मुक्ति का मार्ग, सुख-शान्ति, आनंद में रहने का भोगने का कारण है।
८. कारण है। जैसे कारण में रहो, वैसा कार्य होता है। इसी बात को प्रशमरति प्रकरण विशेषार्थ- विकथा अधर्म ही है और इनका परिणाम क्या होता है, इसका। में उमास्वामी देव कहते हैंवर्णन चल रहा है। विकथा कोई क्रिया नहीं. मात्र चर्चा है। जिससे भावों में अशुभता
आक्षेपणी विक्षेपणी विमार्गवाधन समर्थ विन्यासा। निकृष्टता आती है। संक्लेश परिणाम होते हैं। आर्त-रौद्र ध्यानरूप भाव चलते हैं*
श्रोतुजन श्रोत्र मनः प्रसाद जननी यथा जननी॥१८२॥ जिससे नरक निगोदादि जाना पड़ता है। यहाँ चोर कथा का स्वरूप बताया जा रहा
संवेदनी च निवेदनी च धा कथा सदा कुर्यात् । है कि जब चोरों की चोरी करने की कथा कहते सुनते हैं तो वैसे भाव पैदा होने लगते
स्त्रीभक्त चौरजन पद कथाश्च दूरात्परित्याज्याः॥१८३॥ हैं जो बड़े अनर्थकारी और दुष्ट होते हैं और उन्हीं अशुद्ध भावों में ठहरने पर फिर
उन्मार्ग का उच्छेद करने में समर्थ रचना वाली और श्रोताजनों के कानों और धर्म भाव, अपना आत्म स्वरूप दिखाई नहीं देता; क्योंकि जब तक यह आर्त-रौद्र, मन को माता की तरह आनंद देने वाली आक्षेपणी, विक्षेपणी. संवेदनी और निवेदनी रूप भाव चलते हैं, तब तक जीव को अपनी सुध-बुध नहीं रहती।
S धर्म कथा सदैव करनी चाहिये तथा स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा को स्त्री कथा कहने सुनने से अब्रह्मानंद के भाव चलते हैं. भोजन कथा दूर से ही छोड़ देना चाहिये। कहने सुनने से विषयानंद के भाव चलते हैं। राजकथा कहने सुनने से 8 जो कथा जीवों को धर्म की ओर अभिमुख करती है उसे आक्षेपणी कहते हैं। हिंसानंद, अनृतानंद के भाव चलते हैं,चोर कथा कहने सुनने से चौर्यानंद जो कथा जीवों को काम भोग से विमुख करती है उसे विक्षेपणी कहते हैं। जो कथा के भाव चलते हैं।
2 जीवों को संसार से भयभीत करती है उसे संवेदनी कहते हैं तथा संसार शरीर भोगों जब ऐसे भाव चलते हैं तब उपयोग इन्हीं में लिप्त तन्मय हो जाता है,भयभीत से वैराग्य उत्पन्न कराती है उसे निवेदनी कहते हैं। जैसे-नरक गति में सर्दी-गर्मी होने लगता है, अशान्त होने लगता है, घबराहट मच जाती है क्योंकि यह विभावों का बड़ा कष्ट है। एक क्षण के लिये भी उस कष्ट से छुटकारा नहीं होता, कम से कम का तूफान बहुत तीव्र होता है। ऐसे में अपने स्वभाव की खबर ही नहीं रहती, धर्म 8 दस हजार वर्ष तक और अधिक से अधिक तैंतीस सागर तक वहाँ का कष्ट भोगना भाव दिखाई ही नहीं देता। संसारी जीव के साथ यही तो समस्या है और यह बड़ा पड़ता है। तिर्यंच गति में भी सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास और अतिभार के दु:ख के साथ गुप्त रहस्य है, जिसे सुलझाना सहज नहीं है। बुद्धि पूर्वक व्यर्थ चर्चा करने का सवारी में जुतना, डंडे वगैरह से पीटा जाना, नासिका वगैरह का छेदा जाना आदि का ९ परिणाम क्या होता है, इसका वर्णन चल रहा है। बुद्धिपूर्वक क्रिया कितनी घातक दु:ख भोगना पड़ता है। बाधक होती है, वह वर्णन आगे आयेगा । बुद्धि पूर्वक पर की तरफ देखने मात्र से
मनुष्य गति में भी काना, लँगडा, बौना, नासमझ, बहरा, अंधा, कुबड़ा और कैसे भाव होने लगते हैं, इसे कहते हैं
कुरूप होने के सिवाय ज्वर, कोढ़, यक्ष्मा, खांसी, दस्त तथा हृदय के रोगों का कष्ट घर परिवार की तरफ देखने से मोह माया के भाव चलने लगते हैं। भी उठाना पड़ता है तथा प्रियजन का वियोग अप्रियजन का संयोग, इच्छित वस्तुओं शरीर की तरफ देखने से विषय विकार के भाव होने लगते हैं। धन वैभव की कान मिलना, गरीबी, अभागापन,मन की खेद-खिन्नता और बध-बंधन आदि के
७४