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________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-४२-४५ करता है। पर के प्रति हमेशा अशुभ भाव करता रहता है। किसी का भला विचारता जो मुनि राग अर्थात् अभ्यंतर पर द्रव्यों से प्रीति वही हुआ संग अर्थात् परिग्रह है, किसी का बुरा विचारता है। जो सेवा सत्कार आदि करता है, उसे आशीर्वाद देता उससे मुक्त हैं और जिन भावना अर्थात् शुद्ध स्वरूप की भावना से रहित हैं, वे द्रव्य है। जो सेवा सत्कार, सम्मान आदि नहीं करता, उसके प्रति अशुभ भाव करता है। निग्रंथ हैं, तो भी निर्मल जिन शासन में जो समाधि अर्थात् धर्म शुक्ल ध्यान और माया, संसारी पदार्थ धन, वैभव, पद, प्रतिष्ठा, नाम आदि तो सब नाशवान झूठे हैं, बोधि अर्थात् सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग को नहीं पाते हैं। सब मिट जाने वाले हैं लेकिन कुगुरु इन्हीं संसारी प्रपंचों में स्थित लिप्त रहता है। ऐसे वेषधारी ही कुगुरु होते हैं जो स्वयं संसार में परिभ्रमण करते हैं तथा अन्य __अशुभ झूठे कुबोल बोलता है। कटुक कठोर अपशब्द बोलता है। आर्त-रौद्र जीवों को भी पतन के कारण होते हैं। इनके संग से कितना अहित होता है, इसको ध्यान में लीन रहता है। उसे निरन्तर आर्त भाव-इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ा उदाहरण सहित आगे कहते हैंचिन्तवन, निदान बंध रूप परिणाम चलते रहते हैं तथा रौद्र भाव-हिंसानंदी, कुगुरुं पारधी संजुक्तं, संसारे वन आश्रयं । मृषानंदी, चौर्यानंदी, परिग्रहानंदी रूप परिणाम चलते रहते हैं। क्रोध, लोभ, माया, लोक मूढस्य जीवस्य, अधर्म पासि बंधनं ॥८२॥ मान रूप चारों कषायें सिर पर चढ़ी रहती हैं, इन्हीं में लिप्त रहता है। ऐसा कुलिंगी, झूठा वेषधारी कुगुरु होता है। इसी बात को भाव पाहुड में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने आरंडते वनं जीवा, वृष डाल पारधी करें। कहा है विस्वासं अहं बंधे, लोकमूहस्य किं पस्यते॥८३॥ अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण । कुगुरुं अधर्म पस्यंतो, अदेवं कृत ताड़की। पेसुण्णहासमच्छरमाया बहुलेण सवणेण ॥६९॥ विकहा राग दंड जालं,पास विस्वास मूत्यं ।। ८४॥ हे मुने! तेरे ऐसे नग्नपने से तथा मुनिपने से क्या साध्य है? कैसा है-पैशून्य अर्थात् दूसरे के दोष कहने का स्वभाव, हास्य अर्थात् दूसरे की हंसी करना, मत्सर वन जीवा गणं रुदनं, अहं बंधति जन्मयं । अर्थात् अपने बराबर वाले से ईर्ष्या रखकर दूसरे को नीचा करने की बुद्धि, माया अगुरुं लोक मूढस्य,बंधते जन्म जन्मयं ॥८५॥ अर्थात् कुटिल परिणाम यह भाव उसमें प्रचुरता से पाये जाते हैं, इसीलिये पाप से अन्वयार्थ- (कुगुरुं पारधी संजुक्त) कुगुरु पारधी शिकारी के समान होते हैं मलिन है और अयश अर्थात् अपकीर्ति का भाजन है। धर्म की हंसी कराने वाला (संसारे वन आश्रय) संसार वन में आश्रय निवास करने वाले (लोक मूढस्य जीवस्य) है। आगे इसी को और कहते हैं लोकमूढता वाले जीवों को (अधर्मं पासि बंधन) अधर्म रूपी जाल में फांसकर बांध धम्मम्मिणिप्पवासो दोसा वासोय उच्छफल्लसमो। - लेते हैं। णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण ॥७१॥ (आरंडते वनं जीवा) घोर भयानक संसार रूपी वन में जीव (वृष डाल पारधी धर्म अर्थात् अपना स्वभाव तथा दस लक्षण स्वरूप में जिसका वास नहीं है। करं) कुगुरु रूपी पारधी के द्वारा चारों तरफ फैलाये गये अधर्म रूपीजाल में (विस्वासं वह जीव दोषों का आवास है अथवा जिसमें दोष रहते हैं, वह इक्षु के फूल समान अहं बंधे) विश्वास करके खुद बंध जाते हैं (लोक मूढस्य किं पस्यते) लोक मूढ़ता र है। जिसमें न तो कुछ फल ही लगते हैं और न उसमें गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं; वाला जीव कुछ नहीं देखता है। इसलिये ऐसा मुनि तो नग्न रूप धारण करके नटश्रमण अर्थात् नाचने वाले भाँड़ के (कुगुरुं अधर्म पस्यंतो) कुगुरु अधर्म बताते हैं (अदेवं कृत ताड़की) स्वाँग के समान है। आगे इसी को और कहते हैं अदेवों-कुदेवों के भय बताकर जीवों को भयभीत करते हैं (विकहा राग दंड जालं) जे राय संगजुत्ता जिणभावण रहिय वव्वणिगंथा। झूठी कथायें मनगढंत बातें बताकर कि ऐसी मान्यता करने से उसका ऐसा हो गया, ण लहंति ते समाहि बोहिं जिणसासणे विमले ॥७२॥ उसने ऐसा नहीं माना तो उसका ऐसा अहित हो गया। ऐसे राग का और दंड का
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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