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७ श्री आवकाचार जी
इन्द्रियानां मनोनाथा, पसरंतं प्रवर्तते ।
विसयं विषम दिटं च ममतं मिथ्या भूतयं ।। ७९ ।। अनृतं उत्साहं कृत्वा, अभावं असुहं परं । माया अनृत असत्यस्य, कुगुरुं संसार स्थितं ॥ ८० ॥ आलापं असुहं वाक्यं, आरति रौद्र संजुतं । क्रोध लोभ अनंतानं, कुलिंगी कुगुरुं भवेत् ॥ ८१ ॥
अन्वयार्थ - (कुगुरुं कुन्यानं प्रोक्तं) कुगुरु कुज्ञानमयी झूठी-सच्ची अनर्गल बातें कहता है (सल्यं त्रि दोष संजुतं) और तीन शल्यों-माया, मिथ्या, निदान के दोष सहित होता है (कसायं बर्धनं नित्यं) हमेशा कषाय के वातावरण को ही बढ़ाता रहता है (लोक मूढस्य मोहितं) लोकमूढ़ता में स्वयं मोहित रहता है तथा मूढ़ लोगों को मोहित करता रहता है अर्थात् इधर-उधर की बातों में भ्रमाता रहता है ।
(इन्द्रियानां मनोनाथा) मन, इन्द्रियों का राजा होता है (पसरंतं प्रवर्तते) वह हमेशा फैलता और दौड़ता रहता है (विसयं विषम दिस्टं च) व्यसन और विषयों को ही देखता है (ममतं मिथ्या भूतयं) ममत्व का मिथ्या भूत लगा रहता है।
(अनृतं उत्साहं कृत्वा) क्षणभंगुर, नाशवान पौद्गलिक जड़ पदार्थों के बनवाने, करवाने में बड़ा उत्साहित रहता है (अभावं असुहं परं) पर के प्रति हमेशा अशुभ भाव करता रहता है (माया अनृत असत्यस्य) माया-संसारी पदार्थ तो सब नाशवान झूठे हैं लेकिन (कुगुरुं संसार स्थितं) कुगुरु इन्हीं संसारी पदार्थों में लिप्त रहकर संसार में स्थित रहता है।
(आलापं असुहं वाक्यं) अशुभ झूठे कुबोल बोलता है (आरति रौद्र संजुतं) आर्त, रौद्र ध्यान में लगा रहता है, इन्हीं में लीन रहता है (क्रोध लोभ अनंतानं) अनन्तानुबन्धी क्रोध, लोभ, माया और मान चारों कषायें उसके सिर पर चढ़ी रहती हैं (कुलिंगी कुगुरुं भवेत् ) ऐसा कुलिंगी, झूठा वेषधारी कुगुरु होता है।
विशेषार्थ - यहाँ कुगुरु कैसे होते हैं, और क्या करते हैं, यह बताया जा रहा है। कुगुरु, धर्म के विपरीत झूठी-सच्ची कुज्ञानमयी बातें कहता है। मिथ्या, माया, निदान इन तीन शल्यों के दोष सहित होता है। अब क्या होगा ? ऐसा न हो जाये ? ऐसा करो तो ऐसा हो जायेगा। इन्हीं शल्यों में निरंतर लगा रहता है। लोगों को
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गाथा - ७८.८१
लड़ाना, बैर-विरोध पैदा करना, सामाजिक वातावरण को दूषित करना, आपस में मन मुटाव पैदा करना, इधर की उधर लगाना, इन्हीं बातों में लगा लोगों को उलझाता रहता है। स्वयं लोक मूढ़ता में रत रहता है और लोकमूढ़ता का ही पोषण करके लोगों को फंसाता रहता है।
इन कुगुरुओं का जाल संसार में फैला है। इनका कोई वेष, रूप नहीं होता। जो संसार के गर्त में डालें, संसारी व्यवहार का उपदेश देवें, पाप विषय कषायों में फंसावें वह कुगुरु होते हैं और संसार में इस जीव को इन पांच कुगुरुओं का संग मिला हुआ है, वे हैं - १. माता, २ . पिता, ३. पत्नि, ४. मित्रबन्धु, ५. धर्म के गुरु, इनसे जो बचे छूटे और सद्गुरु का सत्संग करे वही मुक्त हो सकता है ।
मन, इन्द्रियों का नाथ होता है, वह हमेशा फैलता और दौड़ता रहता है। व्यसन और विषयों को ही देखता है। कुगुरु मन के आधीन होता है, मन का संचालन माया और मोह के द्वारा होता है। इसको ममता का मिथ्याभूत लगा रहता है इसलिये सबको अपना मानता है। मन वाले प्राणियों के मन ही मुख्य होता है। मन की प्रेरणा से इन्द्रियाँ काम करती हैं। यह मन ऐसा चंचल या अनर्थ काम करने वाला है कि बड़ेबड़े कठिन इन्द्रियों के विषयों की तरफ अपनी दृष्टि डालता है। उनको प्राप्त करने की व उनको भोगने की चाहना किया करता है। यदि इस चंचल घोड़े (मन) पर संयम रूपी लगाम न हो, तब तो यह कहाँ-कहाँ जाता है, क्या-क्या चाहता है, इसकी कोई मर्यादा सीमा नहीं है।
वृहत् सामायिक पाठ में श्री अमितगति आचार्य मन का चारित्र कहते हैंभजसि दिविजयोषा यासि पाताल भंग |
भ्रमसि धरणिष्ट, लिप्स्यसे स्वांत लक्ष्मीम् ॥
अभिलषसि विशुद्धां व्यापिनी कीर्तिकांतां । प्रशम मुख सुखाग्धि, गाहसे त्वं न जातु ॥२८॥
हे मन ! तू देवियों को भोगना चाहता है, कभी पाताल में जाता है, कभी सारी पृथ्वी पर घूमता है, मनमानी लक्ष्मी चाहता है, जगत व्यापिनी निर्मल कीर्ति चाहता है, तू चाह की दाह में ही जला करता है किन्तु सुख शान्तिमय निज आत्म स्वरूप अमृत समुद्र में कभी भी गोता नहीं लगाता है।
संसारी नाशवान क्षणभंगुर पौद्गलिक पदार्थों को बनवाने, करवाने में बड़ा उत्साहित रहता है। मंदिर, तीर्थ, क्षेत्र, धर्मशाला आदि धर्म के नाम पर पापारम्भ