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श्री आवकाचार जी
कि देखो, यह शरीर कितनी अपवित्र गन्दी वस्तुओं का बना और भरा हुआ है, यह हड्डी का ढाँचा, मांस और खून से भरा हुआ पुतला है, जिसमें से नवद्वारों से मल निकलता रहता है।
शरीर की रचना
१. यह शरीर दुर्गन्ध और ऐसी ही वस्तुओं से भरा हुआ है। दुर्गन्ध स्वेद-मूत्रादि पदार्थ निकलते रहते हैं, यह शरीर विष्ठा से व्याप्त तृण की झोंपड़ी के समान है। २. इस मनुष्य के शरीर में तीन सौ हड्डियाँ दुर्गन्ध मज्जा धातु से भरी हैं, इसमें तीन सौ संधियां हैं।
३. शरीर में नौ सौ स्नायु, सात सौ शिरा और पाँच सौ मांसपेशियाँ हैं।
४. शिराओं के चार जाल, सोलह कंडरा, छह शिराओं के मूल, शरीर में दो मांस रज्जु (आतें हैं।
५. शरीर में सात त्वचा, सात कालेयक, अस्सी लाख कोटि रोम हैं।
६. पक्वाशय और आमाशय में सोलह आतें और शरीर में दुर्गन्ध मल के सात आशय हैं।
७. देह में तीन स्थूल, एक सौ सात मर्म स्थान, नौ व्रण मुख हैं, जिनसे नित्य दुर्गन्ध निकलती है।
८. शरीर में मस्तिष्क एक अंजुली प्रमाण है, मेद और ओज (शुक्र) दोनों स्व अंजुली प्रमाण समझना चाहिये ।
९. वसा धातु शरीर में तीन अंजुली प्रमाण है, पित्त छह अंजुली प्रमाण और कफ भी इतना ही है और रुधिर आधा आढक प्रमाण है।
१०. मूत्र का एक आढ़क, विष्ठा छह प्रस्थ प्रमाण, नख की संख्या बीस, दाँत की संख्या बत्तीस यह प्रमाण स्वभाव से ही होते हैं।
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११. जैसा व्रण कीटाणुओं से भरा होता है, वैसा ही शरीर भी सर्वत्र कृमियों से भरा
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गाथा-१६
(रस) यह मल मुख में और मूत्र विष्ठा और वीर्य यह उदर में उत्पन्न होते हैं। शरीर के सम्पूर्ण रोम रंधों से चर्मकार के सचिक्कण पदार्थ के समान स्वेद निकलता है, इससे युकालिक्षा और चर्मयूका उत्पन्न होती है। जैसे- विष्ठा से भरे हुए घड़े के चारों तरफ से दुर्गन्ध निकलता है, क्रमियों से भरा हुआ व्रण सड़कर गलता है, उसी प्रकार इस शरीर से सदैव दुर्गन्ध मल मूत्रादिक पदार्थ निकलते रहते हैं।
जितनी गन्दी अपावन चीजें, बस्ती में न वन में । वे सब भरी हुई हैं सारी, पुद्गल पिण्ड इस तन में ॥ हाड़ का पिंजरा बना, खूं इसकी रग-रग में भरा । मैल बदबूदार आठों पहर, जारी वरमला ॥ है नहीं ये जिस्म, बल्कि है गिलाजत का घड़ा। साफ ऊपर से किया, चन्दन लगाया क्या हुआ । जो न होती इसके ऊपर, चाम की चादर मढ़ी। तब तो इसको काग-कुत्ते, नोचते हर-हर घड़ी ॥
शरीर क्षणिक, नाशवान है, जब तक की आयु है, तब तक ही रहने वाला है। आयु समाप्त होते ही यह गल जायेगा, जल जायेगा। आयु का कोई पता नहीं है, अगली स्वास आये, न आये। बचपन, जवानी, बुढ़ापा रूप तो इसका परिवर्तन हो ही रहा है, यह अनेक रोगों का घर है, पाँच इन्द्रिय और मन के कारण यह नाटक घर बना हुआ है, पाँच इन्द्रियों की विषयाशक्ति और मन की चाह के कारण यह जीव दुःखी हो रहा है।
स्पर्शन इन्द्रिय के वशीभूत हाथी । रसना इन्द्रिय के वशीभूत-मछली । घ्राण इन्द्रिय के वशीभूत-भौंरा । चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत- पतंगा और कर्ण इन्द्रिय के वशीभूत- हिरण मारा जाता है फिर जो पाँचों इन्द्रिय के वशीभूत हैं उनका क्या
है और शरीर पाँच वायुओं से घिरा रहता है।
१३. मख्खी के पंख के समान पतली त्वचा से शरीर ढँका है, यह त्वचा न होती तो इस दुर्गन्ध युक्त शरीर को कोई भी स्पर्श न करता ।
१२. पूर्वोक्त प्रकार से शरीरांगोपांग अशुभ पुद्गल परमाणु से निर्मित हैं, इसमें होगा ? तथा पाँचों इन्द्रियों का राजा मन, जिसके कारण यह मानव, दानव बना हुआ कोई भी अवयव पवित्र नहीं है। है, क्योंकि कहा है- मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः । जो मन के आधीन है वह मनुष्य है, जिसने मन को जीत लिया वह मानव है, वही भगवान बनेगा। इस शरीर संयोग के कारण ही इस जीव की दुर्दशा हो रही है और जब तक इस शरीर की आसक्ति लगाव रहेगा, तब तक निरन्तर चिंतित, दुःखी, भयभीत रहेगा। जो जीव
नाक का मल, थूक, पित्त, कफ, वमन, जिह्वा का मल, दन्त मल और लाला
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पंचेन्द्रिय के विषयों में फैंस, जीवन होत दुधारो । हाथी, मछली, भ्रमर, पतंगा, हिरन जात है मारो ॥