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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-३०७- २०१
७ मंदता होती है, परिणाम उदार होते हैं। यह षट्कर्म दो प्रकार के शुद्ध और अशुद्ध है इसी कारण उसके जितने अंश वीतरागता होती है उतने अंश कर्मों की निर्जरा देखे जाते हैं। कोई शुद्ध रीति से पालते हैं, कोई अशुद्ध रीति से पालते हैं। मिथ्यात्व होती है और जितने अंश सरागता होती है उतने अंश कर्म का बन्ध होता है परंतु सहित सर्व कर्म अशुद्ध हैं,सम्यक्त्व सहित सर्व कर्म शुद्ध हैं। जहाँ पर यह आशय या . उसका मुक्ति का मार्ग निश्चित हो गया है। मिथ्यादृष्टि जीव इस रहस्य को नहीं अभिप्राय है कि मुझे पुण्य का लाभ हो जिससे धन,पुत्र, राज्य, स्वर्ग के भोग आदि * जानता, वह लोगों की देखा-देखी कुदेव-अदेवादि की पूजा करता है, कुगुरुओं के प्राप्त हों तथा सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे शास्त्र कौन हैं? कैसे हैं? इसका कोई जाल में फंसता है और कपोल-कल्पित शास्त्रों को पढ़कर उनके अनुसार संयम.. विचार ही नहीं है, लोकमूढ़ता से जो इनका पालन करते हैं, वह अशुद्ध कहे जाते हैं तप, दान करने लगता है, जिससे संसार में ही रुलता रहता है। मिथ्यात्व सहित जो और इनका पालन करने वाले अभव्य जीव होते हैं,इसमें कोई संशय नहीं है। राषट्कर्मों का सेवन है वह अशुद्ध है,अशाश्वत, कल्पित है ,वह अनादि का सनातन
जो सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे शास्त्र के स्वरूप को समझकर यथाविधि। मार्ग नहीं है,मनो कल्पना से चलाया हुआ है, अशुद्ध षट्कर्म पालन का फल कुगति पालन करते हैं वे भव्यजीव मोक्षगामी सम्यक्त्वी होते हैं, जिनको शुद्ध आत्मा की में भ्रमण है। अशुद्ध षट्कर्म का पालन करने वाला अभव्य जीव कैसा है ? इस बात रुचि है, परमात्म पद मोक्ष प्राप्त करने की भावना है, वह भव्य होते हैं, जो सदा शुद्ध को कुन्दकुन्दाचार्य समयसार में कहते हैंषट्कर्म के पालन करने में रत रहते हैं। जिन्हें अपने आत्म स्वरूप का भान ही नहीं
वद समिदी गुत्तीओ, सील तवं जिणवरेहि पण्णत्त। है.उस ओर की रुचि ही नहीं है,जो मिथ्या आडम्बरों में उलझे रहते हैं, वह अभव्य
कुटवंतो वि अभव्यो, अण्णाणी मिच्छदिट्टी दु॥२७॥ होते हैं जो अशुद्ध षट्कर्म का पालन करते हैं । अशुद्ध षट्कर्मशाश्वत नहीं हैं,कल्पित जिनेन्द्र देव के द्वारा कथित व्रत, समिति, गुप्ति,शील और तप करता हुआ हैं यह मिथ्यात्वियों द्वारा बनाये गये हैं जो इनका पालन करते हैं वह दुर्गति के पात्र भी अभव्य जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है। बनते हैं और जो शुद्ध षट्कर्म का पालन करते हैं वह मोक्षगामी होते हैं।
वह अभव्य अज्ञानी क्यों है? इसका उत्तर आगे की गाथा में कहते हैं - भव्यजीव देवपूजादि छहों कार्यों का यथार्थ स्वरूप समझता है क्योंकि सच्ची
मोक्ख असदहतो,अभवियसत्तो दुजो अधीएज्ज। देवपूजा तो पूजा पूज्य समाचरेत् सच्ची पूजा पूज्य के समान आचरण करना है।
पाठो ण करेदि गुणं, असदहंतस्स गाणं तु ॥२७४॥ जैसे देव के गुण हैं वह अपने में प्रगट हों इसलिये निज शुद्धात्मा का ध्यान मनन मोक्ष की श्रद्धान करता हुआ जो अभव्य जीव है, वह शास्त्र तो पढ़ता है परंतु चिन्तन आराधन कर वह अपने भावों को शुद्ध बनाता है। जब उपयोग शुद्ध गुणों के ज्ञान का श्रद्धान न करने से उसका शास्त्र पढ़ना कार्यकारी नहीं है इसलिये वह मनन से तन्मय हो जाता है तो तुरन्त स्वात्मानुभव होकर शुद्ध भाव जाग जाता है. अज्ञानी ही है। यही देवपूजा है। गुरु भक्ति करते हुए आत्म ज्ञानी ध्यानी गुरू की संगति से भावों में प्राचीनकाल में साधु और श्रावक दोनों के छह आवश्यक समान थे, छह आत्मध्यान जाग उठता है, शास्त्र स्वाध्याय में मुख्यतः अध्यात्म के ग्रंथों का आवश्यकों का सर्वप्रथम उल्लेख मूलाचार में मिलता है - स्वाध्याय करने से भावों में आत्मानुभव झलकने लगता है। संयम का विचार करते
समदाथवोय वंदण, पाडिक्कमणं तहेवणादव्यं । हुए, नियम लेते हुए ज्ञानी को आत्म संयम का भाव आ जाता है। इच्छाओं के निरोध
पच्चक्खाण विसग्गो करणीया वासया छप्पि॥२२॥ करने से तप होने लगता है, जिससे निराकुल आनंद की अनुभूति होती है तथा 5 सामायिक,स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा व्युत्सर्ग यह छह १ सत्पात्रों को दान देने से परिणामों में निर्मलता, रत्नत्रयमयी वीतरागीधर्म का बहुमान आवश्यक करने योग्य जानना चाहिये। उत्साह आता है, पुरुषार्थजागता है और रत्नत्रयमयी निजशुद्धात्म स्वरूप में तन्मय सिद्धान्ताचार्य स्व. पं. कैलाशचंद्र शास्त्री के शब्दों में- आचार्य जिनसेन X हो जाता है। भव्य जीव पुण्य की प्राप्ति का आशय बिल्कुल नहीं रखता, केवल (नवीं शताब्दी) के महापुराण की रचना से श्रावक धर्म का विस्तार होना प्रारम्भ शुद्धोपयोग के अभिप्राय से इन छह कर्मों को साधता है; क्योंकि अभी अव्रत दशा में हुआ। पाक्षिक,नैष्ठिक और साधक उसके भेद हए, पूजा के विविध प्रकार हुए।
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