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श्री आवकाचार जी
शांति करना । ५. काम तीव्राभिनिवेश- स्व स्त्री में भी काम सेवन की अति लंपटता रखना। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का विचार किये बिना काम सेवन करना ।
इन पांच अतिचारों के लगने से ब्रह्मचर्य अणुव्रत मलिन होता है तथा बार-बार लगने से क्रमश: नष्ट हो जाता है।
ब्रह्मचर्य अणुव्रत की पांच भावनायें - १. स्त्री राग कथा श्रवण त्याग - अन्य की स्त्रियों में राग उत्पन्न करने वाली कथा, वार्ता, गीत सुनने पढ़ने कहने का त्याग करना । २. तन्मनोहरांग निरीक्षण त्याग अन्य की स्त्री के मनोहर अंगों को राग भाव पूर्वकन देखना । ३. पूर्वरतानु स्मरण - अणुव्रत धारण करने के पहले अव्रत अवस्था
भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करना । ४. वृष्येष्ठ रस त्याग- कामोद्दीपक पुष्ट एवं भरपेट तथा गरिष्ठ भोजन न करना । ५. स्व शरीर संस्कार त्याग- कामी पुरुषों जैसे कामोद्दीपन करने योग्य शरीर को नहलाने, तेल, उबटन आदि लगाने, वस्त्रादि पहिनने, श्रृंगार करने का त्याग करना, सादा पहनावा रखना।
इन पांच भावनाओं का ब्रह्मचर्याणुव्रती को हमेशा चिंतन करना चाहिये । (५) परिग्रह परिमाण अणुव्रत- 'प्रमत्तयोगान्मूर्छा परिग्रहः' आत्मा के सिवाय जितने मात्र राग-द्वेषादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, औदारिक आदि नोकर्म तथा शरीर संबंधी स्त्री-पुत्र, धन-धान्य, गृह क्षेत्र, वस्त्र - बर्तन आदि चेतन-अचेतन पदार्थ हैं वे सभी पर हैं, इन्हें ग्रहण करना और इनमें ममत्व भाव रखना परिग्रह है। इस परिग्रह का आवश्यकतानुसार परिमाण करना परिग्रह परिमाण अथवा इच्छा परिमाण अणुव्रत है।
यद्यपि अंतरंग मूर्च्छा घटाने के लिये बाह्य परिग्रह घटाया जाता है तथापि बाह्य परिग्रह घटाने पर भी जो मूर्च्छा न घटाई जाये तो प्रमत्त योग के सद्भाव से यथार्थ परिग्रह परिमाण व्रत नहीं हो सकता ।
बाह्य परिग्रह के दस भेद इस प्रकार हैं- खेत, मकान, सोना, चांदी, अनाज, पशु, दासी, दास, बर्तन, वस्त्र ।
परिग्रह परिमाण अणुव्रत के पांच अतिचार- इन दस परिग्रह के पांच जोड़ 5 में से किसी को बढ़ा लेना, किसी को घटा देना । १. प्रयोजन से अधिक सवारी रखना। २. आवश्यकीय वस्तुओं का अति संग्रह करना । ३. दूसरों का वैभव देखकर आश्चर्य अथवा इच्छा करना । ४. अति लोभ करना । ५. मर्यादा से अधिक कार्य करना ।
परिग्रह परिमाण अणुव्रत की पांच भावनायें
बहुत पाप बंध के कारणभूत
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गाथा- ४०५
अन्याय, अभक्ष्य रूप पांचों इन्द्रियों के विषयों का जीवन पर्यन्त के लिये त्याग करना । कर्मयोग से मिले हुए मनोज्ञ विषयों में अतिराग व असक्तता नहीं करना तथा अमनोज्ञ विषयों में द्वेष, घृणा नहीं करना ।
इन भावनाओं के सदा स्मरण रखने से परिग्रह परिमाण व्रत में दोष लगाने रूप प्रमाद उत्पन्न नहीं होता तथा व्रत में दृढ़ता रहती है। सम्यक्त्वी ग्रहस्थ हिंसादि पांचों पापों को मोक्षमार्ग के साधनों का विरोधी एवं विघ्नकर्ता जानता है; परन्तु ग्रहस्थाश्रम में फंसे रहने के कारण विवश होकर इनको सर्वथा त्याग नहीं सकता, केवल एकदेश त्याग कर सकता है, इस त्याग से लौकिक-पारलौकिक दोनों प्रकार के लाभ होते हैं।
सर्वजन ऐसे पुरुष को धर्मात्मा प्रामाणिक पुरुष समझते हैं, उसकी इज्जत करते हैं, सर्व प्रकार सेवा सहायता करते और आज्ञा मानते हैं। उसका लोक में यश होता है, न्याय प्रवृत्ति के कारण उसका धन्धा अच्छा चलता है, जिससे धन-सम्पदा आदि सुखों की प्राप्ति होती है। कषाय जनित आकुलता - व्याकुलतायें घट जाती हैं, पापबंध नहीं होता और शुभ कार्यों में विशेष प्रवृत्ति होने से सातिशय पुण्य का बंध होता है जिससे आगामी स्वर्गादि सुखों की और परम्परा से शीघ्र ही मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है।
सप्त शील का वर्णन
सप्त शीलों में तीन गुणव्रत तो अणुव्रतों को दृढ़ करते हैं, उनकी रक्षा करते हैं और चार शिक्षाव्रत मुनिव्रत की शिक्षा देते अर्थात् अणुव्रतों को महाव्रतों की सीमा तक पहुंचाते हैं।
तीन गुणव्रत
(१) दिग्व्रत- पाप, सावद्ययोग की निवृत्ति हेतु चारों दिशा- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण । चार विदिशा - आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान। ऊपर और नीचे । इस प्रकार दसों दिशाओं में गमनागमन का प्रमाण- वन, पर्वत, नगर, नदी, देश आदि चिन्हों द्वारा करके उसके बाहर सांसारिक विषय-कषाय संबंधी कार्यों के लिये न जाने की यावज्जीवन प्रतिज्ञा करना दिव्रत है।
दिग्वत के पांच अतिचार- १. प्रमादवश मर्यादा से अधिक ऊंचाई पर चढ़ जाना। २. प्रमादवश मर्यादा से अधिक नीचे उतर जाना। ३. प्रमादवश समान भूमि में दिशा-विदिशाओं की मर्यादा के बाहर चले जाना। ४. प्रमादवश क्षेत्र की मर्यादा