________________
w
श्री आचकाचार जी
गाथा-६०.६४ DO. वाला, रक्षा करने वाला, संहार करने वाला और सब जीवों के दुःख-सुख मुक्ति
मोक्षमार्गस्य नेतार, भेत्तारं कर्म भूभृताम्। आदि का नियन्ता मानते हैं इसीलिये वह उनकी पूजा प्रार्थना करते हैं। उनके यहाँ
शातारं विश्वतत्वाना, वंदे तद्गुण लब्धये ॥ भगवान परमात्मा अवतार लेकर समय-समय पर प्रगट होते हैं और वर्तमान समय इस सम्बंध में विरधीलाल सेठी जयपुर वालों ने बहुत स्पष्ट लिखा हैमें अधर्म का उन्मूलन, दुष्टों का संहार और धर्म की स्थापना करते हैं ऐसी उनकी अन्य धर्मों वाले महानुभाव जो संसार की कर्ता-धर्ता. ईश्वर जैसी शक्ति में मान्यता है।
विश्वास करते हैं वे उस शक्ति से प्रार्थना भी करते हैं; परंतु जैन धर्म के अनुसार तो , जैन दर्शन प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता मानता है। सबमें परमात्म शक्ति ऐसी कोई शक्ति ही नहीं है जो कुछ दे सके। हमारी आत्मा में ही इतनी शक्ति है कि है। प्रत्येक जीव आत्मा ही अपनी शक्ति जाग्रत कर परमात्मा होता है। कोई परमात्मा , हम उसे जगाकर अपने ही पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकते हैं, इसके लिये संकल्प स्वतंत्र शक्ति जगत की नियन्ता कर्ता नहीं है। जगत का परिणमन स्वतंत्र है। अपने । पूर्वक भावना करने का ही महत्व है। किसी दूसरी शक्ति से प्रार्थना करने का आशय क्रम से स्वयं अपने आप चल रहा है और देव भी वीतरागी, हितोपदेशी, सर्वज्ञ, है कि हमें अपनी शक्ति में विश्वास नहीं है, हममें हीनता की भावना है। ऐसी स्थिति अरिहंत परमात्मा को माना गया है। पूर्ण शुद्ध सच्चे देव तो सिद्ध परमात्मा हैं,जो में तीर्थंकरों की प्रार्थना से हमारे अंतर की सुप्त शक्ति कभी नहीं जाग सकती। वह सर्व कर्म मलों से मुक्त, अशरीरी, अपने परमानंदमय हैं और यही प्रत्येक जीव तो अपनी आत्म शक्ति में विश्वास रखकर उसे जगाने की बार-बार भावना करने आत्मा का अपना निज स्वभाव है तथा जैन दर्शन में एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ पर ही जाग सकती है; परन्तु भक्ति के नाम पर हमने तीर्थंकरों को अलौकिक बना नहीं करता सबकी स्वतंत्र सत्ता है। पर के आश्रय, परावलंबन से कभी धर्म होता ही दिया और उससे हममें हीनता की धारणा पैदा हो गई, हम अपनी आत्मशक्ति के प्रति नहीं है। अपनी स्वयं की शक्ति जाग्रत करें, अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान, ज्ञान तथा श्रद्धाहीन हो गए। तद्रूप आचरण करें तो स्वयं परमात्मा हो सकते हैं। अपने ही शुभाशुभ भावों से 5 ईश्वरवादी धर्मों का मार्ग भक्ति और समर्पण का है कि वे अपने को नगण्य पुण्य-पापबन्ध होता है तथा अपने ही सदाचार संयम, दस धर्मों का पालन करने से इ मानकर सब कुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ देते हैं; परन्तु जैन धर्म का मार्ग ठीक इसके जीवन में समता शान्ति आती है, सद्गति और मुक्ति का मार्ग बनता है, आत्म विपरीत है, वह पुरुषार्थ का मार्ग है, वह कहता है कि कोई हाथ नहीं जो तुम्हें ऊँचा शक्ति जाग्रत होती है आत्मा परमात्मा बनता है।
उठा सके, तुम्हें अपने ही पुरुषार्थ के बल पर आगे बढ़ना होगा। जैसा करोगे वैसा विषय, कषाय, पापादि अन्याय अत्याचार करने से आत्मा का पतन होता फल भी भोगोगे, तुम्हारे पापों को कोई माफ नहीं कर सकता। इस मार्ग में ईश्वरवादी है। दुःख भय चिन्ता रहती है और नरकादि दुर्गतियों के दुःख भोगना पड़ते हैं। जैसी भक्ति और प्रार्थना का कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार जैन तीर्थंकरों ने तो वीतरागी देव हमारे आदर्शमार्गदर्शक हैं। इष्ट सच्चा देव तो अपना निज शुद्धात्मतत्व ईश्वर कर्तृत्व के विरुद्ध क्रांति की थी; परन्तु उनके अनुयायियों ने कर्तृत्व उन ही है। उसके ही श्रद्धान से धर्म का प्रारंभ होता है। अब स्वयं निर्णय करें कि देवपूजा तीर्थंकरों में ही थोप दिया। वे उनसे प्रार्थनायें करके तरह-तरह की मांगें करने लगे, करने का क्या औचित्य हैक्योंकि पूजा का अर्थ कुछ न कुछ चढाना है और उसके पाप की माफी मांगने लगे, इस विचार के साथ कि ईमानदारी का जीवन न होने मूल में कुछ न कुछ कामना, वासना होती है तो जब वीतरागी देव न कुछ लेते हैं और पर भी केवल भक्ति से ही उनके पाप माफ हो जायेंगे । अधिकांश हिन्दी के न किसी का भला-बुरा करते हैं तो किसी प्रकार की मूर्ति बनाकर पूजन करने का पूजा-पाठ में यही लेने-देने का भाव भरा है। उदाहरण के लिये- पूजा के अन्त में 9 क्या प्रयोजन है ? इसी से तो हमारी आत्म शक्ति हीन होती है, पराधीनता आती प्रार्थना की जाती हैहै तथा मिथ्यात्व आदि ही बढ़ता है।
सुख देना दुख मेटना, यही तुम्हारी बान। देव की स्तुति आराधना उनके गुणों की प्राप्ति के लिये की जाये तो उससे
मो गरीब की वीनती, सुन लीजे भगवान ॥ आत्मशक्ति जागती है, भावना शुभ होती है। जैसा तत्वार्थ सूत्र का मंगलाचरण है
आलोचना पाठ में पढ़ते हैं कि
CLAG