Book Title: Ritthnemichariu
Author(s): Sayambhu, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानपीठ भूतिदेवी प्रन्यमाला : अपभ्रंश प्रन्यांक १६ __..-.--. -.. --.-- कराय-सयंभूएव-किउ रिट्ठणेमिचरिउ (कविराज स्वयंभूदेव कृत अरिष्टनेमिचरित) यादव-काण्ड सम्पादन-अनुवाद (स्व०) डॉ देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर AN CHERE प भारतीय ज्ञानपीठ वीर नि० सं० २५१२ : विक्रम सं० २०४२ : सन् १९८५ प्रथम संस्करण : मूल्य ४०.५० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादकीय स्वयंमदेव (आठवीं शताब्दी) अविवाद रूप से अपभ्रंश के सर्वश्रेष्ठ कवि माने गये हैं। सनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए अपभ्रंश के ही परवतां करि पुष्पमत में उन्हेयास, मास, कालिदास, भारवि, बाण आदि प्रमुख कवियों की श्रेणी में विराजमान कर दिया है। भारतीय संस्कृति और साहित्य के जाने माने समीक्षक राहुल सांकृत्यायन ने अपभ्रंश भाषा के काव्यों की आदिकालीन हिन्दी काव्य के अन्तर्गल स्थान देते हुए कहा है- "हमारे इसी युग में नहीं, हिन्दी कविता के पांचों युगों के जितने कवियों को हमने यहां संगृहीत किया है, यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि उनमें स्मयंभू सबसे बड़े कवि थे। वस्तुत: वे भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक थे।" ये 'महाकवि', 'कविराज', 'कविराज-चत्रावर्ती आदि अनेक उपाधियों से सम्मानित थे। स्वयंभूदेव ने अपभ्रंश में 'परमचरित' लिखकर जहाँ रामकथापरम्परा को समृद्ध बनाया है वहीं 'रिटमिचरिउ' प्रबन्धकाव्य लिखकर कृष्ण-काव्य की परम्परा को आगे बढ़ाया है। चूसरे पाब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रबन्धकान्य के क्षेत्र में स्वयंभू अपभ्रंश के आदि कवि हैं। वह अपभ्रंश के रामकथात्मक काव्य के यदि 'वाल्मीकि हैं तो कृष्ण काव्य के 'व्यास' हैं। अपभ्रंश का कोई भी परवर्ती कवि ऐसा नहीं है जो स्वयंभू से प्रभावित न हुआ हो। स्वयंभू ने अपनी रचनाओं में अपने प्रदेश या जन्मस्थान वा स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। स्व. डॉ. हीरालाल जैन का मत था कि हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन तथा आदिपुराण के कर्ता जिनसेन की तरह कवि स्वयंभू भी दक्षिण प्रदेश के निवासी रहे होंगे क्योंकि उन्होंने अपने काव्यों में धनंजय, घवलइया और वन्दइया आदि जिन आश्रयदाताओं का उल्लेख किया है चे नाम से दक्षिणाश्य प्रतीत होते हैं। स्व. पं. नायराम प्रेमी का विचार था कि स्वयंभू कवि पुष्पदन्त की तरह ही बरार की तरफ के रहे होंगे और वहाँ से थे राष्ट्रकूट की राजधानी में पहुंचे होंगे। जो भी हो, स्वयंभू की कृतियों में ऐसे अनेक अन्तरंग साक्ष्य मिलते हैं जिससे उन्हें महाराष्ट्र मा गोदावरी के निकट के किसी प्रदेश का माना जा सकता है। स्वयंभू की प्रस्तुत कृति 'रिट्ठणेमिपरिज' का दूसरा नाम 'हरिवंशपुराण' भी है। अठारह हजार श्लोक प्रमाण यह महाकाव्य ११२ सन्धियों (सगों) में पूर्ण होता है। इसमें तीर्थकर नेमिनाथ के चरित्र के साथ श्रीकृष्ण और पाण्डवों की कथा का विस्तार से वर्णन है । कथा का आधार सामान्यत: 'महाभारत' और 'हरिवंशपुराण' रहा है लेकिन समसामयिक, राजनैतिक और सामाजिक चित्रांकन हेतु घटनाओं में यथास्थान अनेक परिवर्तन भी किये हैं । उससे प्रस्तुत काव्य में मौलिकता आ गयी हैं। काव्य में घटना बाहुल्य तो है ही, काव्य का प्राचर्य भी जमकर देखने को मिलता है। इसमें कृष्ण-जन्म, कृष्ण की बाललीलाएँ, कृष्ण-विधाकथा, प्रद्युम्न की जन्म-कथा और तीर्थंकर नेमिनाथ के चरित्र का विस्तार से घर्णन किया गया है। साथ ही, कौरवों एवं पाण्डवों के जन्म, बाल्यकाल, विक्षा, उनका परस्पर वैमनस्य, युधिष्ठिर द्वारा द्यूत Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीड़ा और उसमें सब कुछ हार जाना तथा पाण्डवों को बारह वर्ष का वनवास आदि अनेक प्रसंगों का विस्तार से मित्र है। कौरवों ओर पागदोहे यन्त का मानना सजीव बन पड़ा है। ___ कवि ने पद्धडिया छन्द के रूप में ऐसे अनेक पद्यों की रचना की है जिनसे न केवल कवि को जिनधर्म के प्रति भक्ति प्रकट होती है अपितु जिननाम के स्मरण की महिमा का भी पता चलता है। एक पद्य में वे लिखते हैं कि जिनदेव के नाम के स्मरण से मद गल जाता है, अभिमान चूर हो जाता है । सर्प काटता नहीं। जाज्वल्यमान अग्नि भी शान्त हो जाती है। ममुद्र भी स्थान दे देता है। अटवी में जंगली व्याघ्र आदिप्राणी भी नहीं सताते । सभी सांसारिक बन्धन टूट जाते हैं और क्षण भर में ही जीव मुक्ति प्राप्त कर लेता है। जिस जिन के नाम का इतन! माहात्म्प है वह जिन कया है, उसे कैसे पहचाना जाए आदि अनेक प्रश्नों के समाधान हेतु कवि ने एक स्थान पर उल्लेख किया है कि जो देव न रुष्ट होते हैं और न द्वेष करते हैं और जो न मा भी करते वे जिन हैं, जिनपर हैं। रिट्ठणेमिचरिउ' का सम्पूर्ण कथानक तीन काण्डों में विभाजित है—यादव, कुरु और युसकाण्ड । प्रस्तुत कृति की कथावस्तु (तेरह सन्धियों में निबद्ध यादवकाण्ड तक सीमित है । ग्रन्थ के सम्पादव एवं अनुवादक डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन के आकस्मिक निधन के कारण यह कार्य एकाएक बीच में रुक गया। इसके पोष भाग के शीघ्न प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ प्रयलशील है। १६ दिसम्बर, १९८५ -कैलाशचन्द्र शास्त्री Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन ' रिणेमिचरित' (अरिष्टनेमिचरित) महाकवि स्वयंभू का दूसरा अपभ्रंश काव्यग्रन्थ है। संस्कृत में इसका नाम 'हरिवंशपुराण' है । इसका मूल और मुख्य कथानक महाभारत के कथानक के समानान्तर है जिसमें घटनाओं, पात्रों, चरित्रों और प्रसंगों में उल्लेखनीय साम्यवैषम्य है। कवि के पहले मान्य-ग्रन्ग मरित' (पल्पनपिन के सम्पादन का श्रेय डॉ. एच. सी. भायाणी को है । १९५४ में मैंने उसका हिन्दी अनुवाद किया था, जो कई उलझनों को पारकर, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा पाँच खण्डों में प्रकाशित हुआ है। 'पउमचरिर' की तरह 'रिद्रणेमि चरिउ' स्वयंभू की महत्त्वपूर्ण कृति तो है ही, साथ ही वह भारतीय कृष्ण-काव्यधारा की भी महत्त्वपूर्ण कायरमना है.--ऐसी रचना जो कृष्ण काव्यपरम्परा के ऐतिहासिक और बैज्ञानिक अध्ययन के लिए अनिवार्य है। पता नहीं, अभी तक किसी ने इतने महत्त्वपूर्ण काव्य-ग्रन्थ के सम्पादन-प्रकाशन की दिशा में पहल क्यों नहीं की। अवश्य हो, जर्मन विद्वान् डॉ. लुडविग आल्लडोर्फ ने पुष्पदन्त के महापुराण के अन्तर्गत उत्सरपुराण के एक खण्ड का (जो १ से श्वी संधि तक है और जिसमें बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाय की सीर्थकर-प्रकृति के बन्ध से लेकर उनके निर्वाणगमन तक का चरिरा आता है, उसमें कृष्ण का चरित भी है) सम्पादन किया जो जर्मनी में ही प्रकाशित हुआ। लेकिन 'महापुराण' स्वयंभू के बाद की रचना है और उसके रचयिता अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदन्त हैं। उसकी तुलना में रिट्ठमिचरित' में कथा का विस्तार है। फिर भी, इसका अभी तक प्रकाशन संभव नहीं हो सका। ___रिठणेमिचरित' का प्रस्तुत संस्करण उपसम्म तीन प्रतियों के आधार पर तैयार किया गया है। इसमें पहली प्रति जयपुर से डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल के सौजन्य से प्राप्त हुई। यह प्रति शेष दो प्रतियों की तुलना में प्राचीन और कलात्मक है। शास्त्राकार पन्नों में लिखित है । अक्षर मोटे हैं और प्रत्येक पृष्ठ के बीचों-बीच कुछ स्थान खाली छोड़ा गया है। इसमें कल ५०८ पन्ने है यानी १०१६ पृष्ठ । पुरानी होने से पन्ने जीर्ण-शीर्ण हैं । कहीं-कहीं पक्तियों की पंक्तियाँ कट गयी हैं, बीच में नाक्य या शब्द गायब हैं। उनमें पूर्वापर सम्बन्ध बैठाना बहुत कठिन काम है । सुविधा के लिए इस प्रति को हम 'जमपुर' से प्राप्त होने के कारण 'ज' प्रति कहेंगे। _शेष दोनों पाण्डुलिपियाँ स्व० ऐलक पन्नालाल सरस्वती भण्डार की क्यावर शाखा से उपलब्ध हुई । 'जयपुर' प्रति की तरह इन प्रतियों को उपलब्धि की कहानी मनोरंजक और समयसाध्य सिद्ध हुई जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है। बहरहाल यही बताना पर्याप्त है कि इन पाण्डुलिपियों के कारण आलोच्य ग्रन्थ के सम्पादन को वैज्ञानिक, प्रामाणिक और अधिक-से-अधिक शुद्ध बनाना सम्भव हो सका । सच तो यह है कि यदि ये पाण्डुलिपियों नहीं Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलतीं, तो पायद रिट्ठणेमिपरिउ' का सम्पादन, प्रकाशन संभव ही नहीं होता। दोनों पाण्डुलिपियाँ किन्हीं दो प्राचीन पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियां हैं जो बहुत अधिक प्राचीन नहीं हैं । लगता है सरस्वती-भवन के व्यवस्थापकों को अपने मंडार में 'हिणेमिचरित' जैसे महाकाव्य का अभाव खटका होगा और उन्होंने किाहीं प्राचीन पाण्डुलिपियों के आधार पर उक्त प्रतिया तयार करायी होंगी । दोनों प्रतियों के प्रारम्भिक मिलान से यह स्पष्ट हो जाता है, फि ये दोनों भिन्न-भिन्न पाण्डुलिपियों से प्रतिलिगि की गई हैं। लिपिकार भी अलग-अलग हैं। दोनों अपभ्रंशभाषा की रचना प्रक्रिया से अपरिचित हैं । अतः प्रतिलेखन में अशुद्धियां और भूलें होना स्वाभाविक है। परन्तु इससे एक लाभ यह हुआ वि. कम-से-कम पाठ-संशोधन और मूलपाठ की प्रामाणिकता की जांच करने में पर्याप्त सहायता मिली । प्रस्तुत यादवकाण्ड का सम्पादन करते समय मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है कि व्यावर वाली दोनों प्रतियों में 'अ' प्रति का आधार 'ज' प्रति है। अभी तक मुझे तीनों स्थानों से सम्पूर्ण ग्रन्थ का आधा भाग ही सम्पादन के लिए मिला है । सम्पादन कर इमे लोटाने के बाद दूसरा आधा भाग मिलेगा, ऐसा वचन दिया गया । अतः में यह कहने की स्थिति में नहीं हूँ कि न्यावर की प्रति का आधार 'ज' प्रति ही है। परन्तु यह निश्चित है कि बह जिस भी प्रति के आधार पर संयार की गई हो, 'ज' प्रति के अधिक निकट है । पाठकों को यह तथ्य पटान्तरों के मिलान से स्वत: स्पष्ट हो जाएगा जहाँ तक 'ब' प्रति के आधार का सम्बन्ध है, वह निश्चित रूप से 'ज' प्रति से भिन्न है । इस प्रकार, मुख्यत: सीन पाण्डुलिपियों के स्थान पर दो ही पाण्डुलिपियां माननी पाहिए। ऐसा है भी। परन्तु कभी-कभी ब्यावर की 'अ' प्रति के कुछ पाठ, वर्तनी आदि बातें 'ज' प्रति से भिन्न हैं और व्यायर की 'ब' प्रति से मिलती हैं। अतः सम्पादन में उसके महत्व को भी कम नहीं किया जा सकता, खासकर अपना जैसी लचीली झापा में लिखित रचना के सम्पादन में । ___महाकवि स्वयंभू के इस बृहद् ग्रन्थ 'रिट्ठणेमिचरिउ' में ११२ सर्ग हैं। इसमें तीन काण्ड है-यादव, कुरु और युद्ध । पादरकाण्ड में १३, कुरु में १६ और युद्ध में ६० सर्ग है। सर्ग की यह गणना युद्धकाण्ड के अन्त में अंकित है। यह भी बताया गया है कि प्रत्येक काण्ड कब लिखा गया और उसकी रचना में कितना समय लगा। प्रस्तुत पुस्तक मात्र 'यादवकाण्ड' से सम्बन्धित है (शेष दोनों खण्ड अगले भागों में क्रमशः प्रकाशित होंगे)। यादव-काण्ड इस रचना का सबसे पहला और छोटा है। आलोच्य संस्करण 'ज' प्रति को आधार मानकर चला है, क्योंकि वह अपेक्षाकृत प्राचीन है, वह पहले प्राप्त हुई है, तथा दूसरी (ग्यावर) प्रति भी उससे मिलती-जुलती है । 'ज' प्रति के पाठों को जहाँ काथ्य संदर्भ और व्याकरण की दृष्टि से उपयुक्त नहीं समझा गया, वहीं दूसरी प्रलियों के पाठों को मूल में रखते हुए, अन्य प्रतियों के पाठ नीचे फुटनोट में दे दिये गये हैं सया प्रतियों का उल्लेख भी कर दिया गया है। पाण्डुलिपियों के विषय में निम्नलिखित संकेतों का उपयोग किया गया है 'ज'-अयपुर प्रति। –ब्यावर की प्रसि (जो जयपुर की प्रति से मिलती है।) 'छ'---प्रति (जिसबा आधार 'ज' प्रति से भिन्न कोई अन्य प्रति है)। इसमें सन्देह नहीं है कि मालोच्य साहित्य का विपुल भण्डार है । है पर एक ऐसे अल्पसंख्यक समाज के संरक्षण में जो मुख्यतः व्यवसाय से सम्बद्ध रहा है । फिर भी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) I उसने तीर्थंकरों की वाणी को (चाहे यह किसी भी भाषा में हो) आध्यात्मिक मूल्यों की अमूल्य धरोहर के रूप में सुरक्षित रखना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझा। संयोग से उनके पास ऐसे विद्वान् नहीं थे जो बृहत्तर भारतीय भाषा और साहित्य के संदर्भ में उसका वस्तुनिष्ठ अध्ययन करते और बताते कि आलोच्य भाषा और साहित्य केवल साम्प्रदायिक साहित्य नहीं है, बल्कि देश की मुख्यधारा से जड़ा हुआ साहित्य है। वह एक ऐसी भाषा में है जहाँ आर्यभाषा एक से अनेक बनने की प्रसववेदना से व्याकुल हो उठी थी, राजनैतिक सत्ता के बिखराव और भौगोलिक इकों के ध्रुवीकरण के कारण जनमानस और जनव्यवहार में अनेक भाषाएं कल रही थीं। इस प्रक्रिया के नमूने इस भाषा में सुरक्षित हैं। वैसे भाषा-परिवर्तन के बीज उसकी उत्पादन प्रक्रिया में हो रहते हैं, तभी भाष्यकार पंतजलि ने कहा था "एकैकस्य शब्दस्य बहवोऽ पणा" (एक-एक शब्द के बहुत से अपभ्रंश होते हैं) । परिवर्तन की यह प्रवृत्ति आलोच्यकाल में भी सक्रिय थी। इतना ही नहीं, भाष्यकार के समय जो परिवर्तन एक शब्द को अनेक शब्दों में काल रहा था, आगे चलकर उसने एक से अनेक भाषाओं को मूर्त रूप दे दिया । भाषा सम्बन्धी परिवर्तन की इस प्रक्रिया के नमूने दिस पापा में सुरक्षित है वह है जिन्होंने सुरक्षित रखा, ये है जैन कवि वे कोई भी जैन हों, दिगम्बर या श्वेताम्बर अथवा उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय, उन्होंने जहाँ स्थानीय बोलियों के साहित्य को सुरक्षित रखा, वहीं दूसरी ओर मुख्यधारा की भाषा के साहित्य को भी अंगीकार कर विपुल साहित्य रचा। यह सत्य है कि नदी से नदी नहीं निकलती पर नहर तो निकाली जा सकती है। लेकिन आर्यभाषा एक ऐसी नदी है जिससे कई नदियाँ निकलीं और वह उन्हें प्राण ही नहीं देती, आकार भी देती है। इस देश में ऐसे भी लोग रहे हैं जो भाषारूपी मुख्य नदी के साथ उसकी धाराओं के साहित्य को भी बिना किसी लौकिक स्वार्थ के सुरक्षित रखते रहे हैं। ऐसे लोगों में जैन भी हैं। जैन एक सम्प्रदाय है । सम्प्रदाय का मूल अर्थ है, जो सम्यक् प्रकार ( भली भाँति ) प्रदान करे। किसी आध्यात्मिक सद्-विचार की व्यवहार की दृष्टि से युक्तियुक्त बनाकर आचरण में ढालकर संगठित होनेवाला मानव समाज सम्प्रदाय कहलाता है । मनुष्य सामूहिक प्राणी है, इसलिए उसमें समूह होंगे ही। अपनी स्थिति, सामाजिक रीति नीति और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार समूह बनाने और तोड़ने की स्वतन्त्रता उसे है । बनाने और मिटाने की यह प्रक्रिया सहज है, और इसी में से व्यापक या बृहतर संस्कृति का विकास होता है। अतः सम्प्रदाय में रहना बुरा नहीं है, साम्प्रदायिक होना बुरा है। इससे सिद्ध है कि अपभ्रंश जनों की ही भाषा नहीं थी । यह कहना भी गलत है कि संस्कृत ब्राह्मणों को ही भाषा थी या पालि बौद्धों की प्राकृत भी किसी एक सम्प्रदाय की भाषा नहीं थी । भाषाएं सम्प्रदायों की नहीं, जनता को होती है आरम्भ में ब्राह्मण ब्रह्मविद्या के अगुआ थे । वे विचारों की स्थिरता के साथ, भाषा की स्थिरता के पक्ष में थे। लेकिन विचार भी आगे बढ़ना है और उसे अभिव्यक्ति देनेवाली भाषा भी आगे बढ़ती है। उसके आधार पर मुख्यधारा से जुड़े रहकर नये समूह बनते हैं, साहित्य बनता है, उसे सुरक्षित रखने की व्यवस्था की जाती है, जो एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह श्रेय जैन समाज को है। उसने संस्कृत के साथ प्राकृत, अपभ्रंश और परवर्ती प्रान्तीय भाषाओं के सृजन को न केवल प्रेरणा देकर महत्त्व प्रदान किया, प्रत्युत उसे सुरक्षित भी रखा । 1 बृहत्तर भारतीय संस्कृति और उसके गतिशील मूल्यों का समग्रतर अध्ययन उक्त तीनों भाषाओं के साहित्य के अध्ययन के बिना संभव नहीं है। यदि नवीं और बसवी सदी में स्वयंभू Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पुष्पदन्त अपने समय की काव्य भाषा में नहीं लिखते, तो सम्भवत: 'पृथ्वीराज रासो', 'सूरसागर' और 'रामचरितमानस' का सृजन लोकभाषाओं में संभव नहीं होता। नानापुराणनिगमागम' के वैचारिक उच्च शिनरों को जब तुलसी की अनुभूति छूती है और उससे उनकी भावधारा प्रवाहित होती है, तो वह 'देशी भाषा में निबद्ध होती है । इसी देशी-अभिव्यक्ति के कारण ही तुलसी जनमन को छु सके, उसके अपने बन गये। श्री बल्लभाचार्य की प्रेरणा से 'श्रीमद्भागवत' की ज्ञानमूलक भक्ति को प्रेम भक्ति में परिवर्तित करने में 'सूर' इसलिए सफल हो सके, क्योंकि उन्होंने अजभाषा में अपने सगुण-लीला पदों का गान किया । मनुष्य बहुत कुछ निर्माण कर सकता है, वह जिस किसी भी चीज का आविष्कार कर सकता है। परन्तु वह विचार और भाषा को सीधे उत्पन्न नहीं कर सकता। प्राचीन विचार-चेतना और अभिव्यक्ति तथा नवीन आवश्यकताओं और अनुभवों के घात-प्रतिधात से नयी विचार-चेतना और उसका अभिव्यक्ति-शिल्प फटता है । जन कवियों, आचार्यों ने क्या किया और क्या नहीं किया, यह सब मुला भी दिया जाए, तो भी उक्त भाषात्रों के साहित्य सृजन, संवर्धन और उसकी प्रामाणिक सुरक्षा उनका बहुत बड़ा योगदान है। इसे इस देश की बृहत्तर संस्कृति, समाज और इतिहास कभी भुला नहीं सकते, उपेक्षा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यह होते हुए भी यह सच है कि उसकी उपेक्षा हुई है और यही कारण है कि हिन्दी भाषा (खड़ी बोली) की उत्पत्ति और उसके साहित्य की विधाओं के स्रोत का प्रश्न दिग्भ्रम में पड़ा हुआ है । प्रत्येक प्रश्न का हल नया प्रश्न बन जाता है । ___ महाकवि तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' की प्रस्तावना में यह स्वीकार किया है कि इस देश में दो प्रकार के बाद हुए---आर्ष कवि और प्राकृत कवि । 'आकवि' से उनका अभिप्राय संस्कृत कवि से न होकर वाल्मीकि और ब्यास से है जो जीवन को सहज प्रवृत्तियों के दबाव से मुक्त थे तथा उन्होंने जो कुछ लिखा अनुभूति में उसका साक्षात्कार कर लिया। कालिदास आदि भी संस्कृत के कवि थे, परन्तु वे आर्ष कवि नहीं थे, दरबारी या राज्याश्रयजीबी कवि थे। उनमें अनुभूति की कलात्मक व्यंजना है, कान्ता-सम्मत उपदेश है, परन्तु उनमें वह अन्तं दृष्टि और तेज वही है जो वाल्मीकि और व्यास को प्राप्त था। 'आदि रामायण' और 'महाभारत' केवल याव्य नहीं हैं, वे भारतीय जीवन, इतिहास और संस्कृति के आकर ग्रन्थ हैं। उनमें भारत के सन्दर्भ में समधी मानवीय चेतना और संस्कृति का चित्र अंकित है। उसके बाद आवार्य विमलमूरि हुए, जिन्होंने प्राकृत में 'पउमरियम्' के नाम से रामकाव्य की रचना की। उनके बाद संस्कृति में जैन पुराण-काव्यों का सिलसिला चलता है। उसी के समानान्तर अपभ्रंश में तीर्थंकरों एवं राम और कृष्ण के जीवन को आधार बनाकर प्रबन्धकाव्यों की रचना की गयी । इनमें महाकवि स्वयंभू के 'एउमचरिउ' और 'रिट्टमिचरित' तथा पुष्पदन्त के (महापुराण के अन्तर्गत) राम और कृष्ण काव्य प्रमुख हैं। इनकी रचनाओं को हम श्रमण संस्कृति के आकर ग्रन्थ कह सकते हैं। उसके बाद केवल 'सूरसागर और 'रामचरितमानस' के नाम आते हैं । तुलसीदास ने रामकाव्य के रचयिता उन प्राकृत ३.वियों को भी नमन क्रिया है जिन्होंने भाषा में राम के चरित का बखान किया है “जिन्ह भाषा हरिचरित बखाने" | तुलसी के अनुसार भाषा में 'हरिचरित' की व्याख्या करनेवाला नमन करने योग्य है जबकि सस्कृत जैसी देववाणी में प्राकृतजनों का गान करनेवाला बवि सामान्य प्रशंसा का भी अधिकारी नहीं है । स्वयंभू और पुष्पदन्त सामान्य कवि नहीं थे। उन्होंने अपभ्रंका भाषा में रामकाव्य और Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {१३) कृष्णकाव्य की रचना की । इसके पहले और बाद में भी, एक भी कवि ऐसा नहीं हुआ कि जिसने दोनों पर समान रूप से काव्य-रचनाएँ लिखी हौं । इस प्रकार इनमें सम्पूर्ण रामकाव्य और कृष्णकाव्यधारा की निश्चित और अविच्छिन्न परम्परा मिलती है। भारतीय काव्य-रचना के लगभग दो हजार वर्ष के इतिहास में राम-कथा और कृष्ण-कथा को आधार मानकर काव्य रचनेवाले कुल सात कवि हुए-वाल्मीकि, व्यास, विमलसूरि, स्वयंभू, पुष्पदन्त; सूर और तुलसी। इनमें भी राम कथा और कृष्ण कथा पर एक साथ काव्यरचना करनेवाले कवि यदि कोई है तो वे हैं- स्वयंभू और पुष्पदन्त । इन दोनों में भी स्वयंभू ने 'पसमचरिउ' के समानान्सर 'रिटणेमिपरिट' को महस्व दिया । यतः समूची राम-काव्य और कृष्ण-काध्य परम्परा में वे पहले कवि हैं जिन्होंने दोनों के चरितों पर समानरूप से अधिकारपूर्वक काव्य-रचना की। उनके रामकाव्य उमचरित' का सम्पादन-प्रकाशन लगभग २५ वर्ष पहले हो चुका है, परन्तु 'रिटवणेमिचरिउ' अभी तक अप्रकाशित है। १६७५ में मैंने सोचा था कि क्यों न 'रिट्ठणेमिचरिउ' के सम्पादन को हाथ में लिया जाए । कारण यह कि इसके अप्रकाशन से न केवल कृष्णकाव्य-परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी शेष रह जाती है, अपितु स्वयंभु जैसे कवि के सम्पूर्ण काव्यसाहित्य का भी प्रकाशन अपूर्ण रह जाता है। जहाँ ये कदि संस्कृत राम-कृष्ण काव्य-परम्परा के अति कवि है, यही अपलिका वादाओं के आदि कवि हैं। इनकी रचनाओं के वस्तुनिष्ठ अध्ययन के बिना परवर्ती रामकाव्यों और कृष्ण काव्यों का सम्पूर्ण और वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव नहीं है। यह लिखते हुए मैं इन काव्यों की सोमाओं से भलीभांति परिचित हूँ । वैज्ञानिक अध्ययन से मेरा अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि सारा परवीं राम-कृष्ण-काव्य इन कवियों की रचनाओं के आधार पर लिखा गया । परन्तु भाषा और कविता पर किसी एक सम्प्रदाय, प्रदेश या भाषा का एकाधिकार नहीं होता। वे जनमात्र की संपत्ति होती हैं । ये माध्यम हैं जिनके द्वारा विभिन्न जातियों और समुह रूढ़ियों से बंधते हैं और मुक्त होते हैं। भाषा जाति के व्यवहार को गतिशील और मुक्त बनाती है, जबकि कान्य उसके मानस को गतिशील और तनावों से मुक्त करता है। सदियों से मुक्ति की गावांक्षा ही मानवता का विस्तार करती है। यदि ऐमा न होता तो मनुष्य शरीर की जड़ आवश्यकताओं (आहार, निद्रा, भय और मैथुन) बाली तात्कालिक और अल्पकालिक पूर्ति वाली पशु-संस्कृति का ही प्रतिनिधि होता, जिसका न तो अतीत होता है और न ही भविष्य । वह वर्तमान में ही जीवित रहता। जब नयी भाषा और कविता अस्तित्व में आती है, तो उनमें पुरानी रूढ़ियों से मुक्त होने की तीव्रतर आकाक्षा होती है। वे अपनी जन्मदात्री परिस्थितियों तक सीमित नहीं रहतीं, उनका दूरगामी प्रभाव होता है। जब वाल्मीकि ने वैदिक ऋचाओं की जगहें, 'भा निष्पाद' अनुष्टुप छन्द में क्रौंच-वध को देखने से उत्पन्न शोक को व्यक्त किया तो वह नयी युग-संस्कृति का स्पन्दन बन गया । वाल्मीकि उसके संवाहक बने । इसीलिए लोकभाषा (संस्कृत) के कवि होने पर भी उन्हें 'आर्ष कवि' माना गया । अभी तक ऋषियों की संज्ञा उन कवियों को प्राप्त थी जो मन्त्रद्रष्टा (ऋषयो मन्त्र-द्रष्टारः) थे, जबकि वाल्मीकि मन्त्रद्रष्टा नहीं, छन्दस्रष्टा थे। जिस सत्य की अभिव्यक्ति उन्होंने काव्य में को, वह आत्मसृष्ट या आत्मदृष्ट न होकर अनुभूतिदृष्ट यी । वह विराट् और शाश्वत सत्य नहीं था, अपितु अल्प और क्षणिक अस्तित्व के अपघात-दर्शन से उपजा अनुभवसाक्ष्य सत्य था। यदि अनुश्रुति को सही माना जाए, तो वाल्मीकि अपने प्रारम्भिक जीवन में तमसा तीरवासी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक साहसिक (डाक थे। उनके लिए नर-हत्या करने में संकोच करने का प्रश्न ही नहीं था । अपने जीवन में भोगे गए सत्य (करता) से वह जितने परिचित थे, उतना परिचित उनसे दूसरा कोन हो सकता है ? उस मृगयाजीवी ग्रुग में क्रौंचवध जैमी घटना सामान्य घटना थी । उसे देखकर विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मेरे विचार में आदि कवि साक्षर ही नहीं, शिक्षित भी रहे होंगे। यह कहना भी बहुत कठिन है कि वे सचमुच डाक थे या उनके दस्युजीवन और कविजीवन के बीच कितना अन्तराल था। जो भी हो, परन्तु इतना तो सच है कि आदिकवि को काव्य-सृजन की मूल प्रेरणा झाँचवष के दर्शन से उस समय मिली होगी जब मादा काँच की काम-मोहित अतृप्त पीड़ा को अनुभूति उन्हें हुई होगी। अनुभूति होने को' अनुक्रिया है । "भव' 'भूति' 'भूत' आवि शब्द 'मू' धातु से बने शब्द हैं जिनका अर्थ है घटित होना । दृश्य जगत् में किसी होने (घटित होने) की प्रतीति जब मन को होती है तो वह अनुभूति का रूप ले लेती है। अनुभूति के लिए भाषा भी चाहिए, क्योंकि अनुभूति मन की क्रिया है जो भाषा के बिना संभव नहीं है । कवि कल्पना के द्वारा जब अनुभूत सत्य की पुनर्रचना करता है और उसे अभिव्यक्ति देता है, तो यह कविता का रूप ले लेता है । आदिकवि की अनुभूति पुनर्रचित स्थिति में कौंच के यथार्थ तक सीमित नहीं रहती, अपितु देश कालव्यापी यथार्थों से जुड़ जाती है । भोगा हुआ सत्य, चाहे अपना हो या दूसरे का दृष्ट, कल्पना में पुनर्रचित होकर सबका सत्य बन जाता है । निषाद सामान्य स्थिति में नर-मादा में से किसी एक को मारता तो शायद उतनी बुरी बात नहीं थी, (हालांकि मारना बरी बात तो है ही) परम्सु रराने नर-मादा में से एक को उस समय मारा जब दे काममोहित थे। प्राणी मात्र की इच्छाओं के मूल में काम है। कामतृप्ति का सुख सर्वोत्तम इसलिए माना गया है कि उसका सम्बन्ध प्रजनन से है । सक्रिय काम-वेदना की अतृप्ति में मावा छटपटा रही है और आहत नर-पक्षी खून से लथपथ मृत पड़ा है। इस प्रकार निषाद की क्रूरता सृष्टि के भावी विकास के लिए विराम-चिल्ल बन जाती है। और यही आदिकवि अपनी अनुभूति की पुनर्रचना में दूसरी अनुभूतियों से जुड़ते हैं। उनके प्रातिभज्ञान में निषाद रावण बनकर उभरता है, मादा सीता का रूप ग्रहण करती है। रावण सीता का अपहरण उस समय करता है जब यह राम के प्रति समग्रभाव से समर्पित थी। रावण का अहं एक व्यवस्था को ही नहीं तोड़ रहा था, अपितु एक बसी हुई गृहस्थी को भी उजाड़ रहा था। राम मर्यादित कामवाली सस्कृति के पुरस्कर्ता थे, रावण अमर्यादित काम-संस्कृति का प्रतीक था । जब आदिकषि ने कोचवध देखा, तब उनके समकालीन यथार्थ में शीता-अपहरण की घटना घट चुकी थी। उसको कसक उनके मन में थी। क्रौंचवध के दृश्य ने दो अनुभूतियों को जोड़ दिया। मादा क्रौंच का शोक कवि का बोझ बन गया जो सीता की वेदना से जुड़कर मानवीकरण में परिवर्तित हो गया, फिर वह एक छन्द के बजाय समूचे महाकाव्य में ढल गया ! कुछ लोग यविता के अन्त होने के काल्पनिक संकट से खिन्न और भयभीत हैं। उन्हें लगता है कि समाज को कविता की भाषा की जरूरत है । पर प्रश्न है कि जब कविता नहीं जन्मो भी और भाषा बनने में थी, तब किसने उसे जन्म दिया था। आज भी क्रूरताएं हैं । सभ्यता के विकास के साथ उनका रूप बदला है, उनकी मूल प्रवृत्तियाँ नहीं। एक स्थापित समाज-व्यवस्था में जैसे-जैसे क्रूरताएं मंडराने लगती हैं, उसकी प्रतिक्रिया एक ओर समाज-स्तर पर होती है तो दूसरी ओर भावना के स्तर पर । कषिता का जन्म महीं होता है। उसमें या तो प्रतीक बदलते हैं या प्रतीकों के अर्थ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविता की तरह दर्शन भी कल्पनाशीस होता है। अन्यथा इतने दर्शनों के उत्पन्न होने को क्या उपयोगिता है ? गीता जब कहती है "स्वधर्म निधनं थेयः" तो तात्कालिक संदर्भ में उसका अर्थ है कि अपने धर्म यानी वर्ण-व्यवस्था द्वारा निश्चित कर्म करते-करते मर जाना अच्छा है, परन्तु दूसरे के कर्म को करना भयावह है। यह बात एक स्वीकृत और स्थापित समाज-व्यवस्था के संदर्भ में कही गई है। आखिर, वर्णव्यवस्था का सत्य भी मानव-सत्य से जुड़ा हुआ है । यदि यह उससे टकरासा है या उसे खण्डित करता है तो उसे बदला जा सकता है। वह समाज व्यवस्था का शाश्वत मूल्य नहीं है। गीताकार प्रारम्भ में ही कह देता है : “जब-जब धर्म की ग्लानि होती है, तब-तब मैं जन्म लेता हूँ।" और धर्म की ग्लानि अधर्म से नहीं, धर्म से भी हो सकती है, होती है। जो उस धर्मग्लानि को हटाकर नये मानव-मूल्य की स्थापना करता है वह अवश्य ही विशिष्ट व्यक्ति है (वह जो भी हो) । कहने का अभिप्राय यह है कि जीवन वी गतिशील प्रक्रिया में नये-पुराने से जुड़ने-टूटने का क्रम अनिवार्य है। किसी युग के फाम्प के मूल्यांकन में देखा यह जाना चाहिए कि कवि अपने सूजन में कितना नये मूल्यों को पहचान सका है और वह कितना उनके प्रति समर्पित है तया कितने शक्तिशाली ढंग से उन्हें अभिव्यक्ति दे सका है। ये सारी बातें उस समय लागू होती हैं जब कविता उपलब्ध हो। अपभ्रंश कविता का पूरा उपलब्ध होना अभी शेष है। महाकवि के 'रिवणेमिचरित' के सम्पादन की प्रबल इक्छा का एक कारण अपभ्रंश भाषा के उस काव्य को समझना था जिससे खड़ी बोली जनमी, उसकी दूसरी बोलियो तथा अन्य आधुनिक प्रादेशिक भारतीय आर्यभाषाए' भी जनमी। किसी प्राचीन युग-प्रतिनिधि रचना के सम्पादन का अर्थ मूल काव्य के सृजन से भी अधिक रचनात्मक होता है। सम्पादन और अनुवाद में अन्तर है, बल्कि कहिए कि उनमें बिल्कुल भी साम्य नहीं है। सम्पादन के लिए पहली बात है कि किसी काव्य-रचना की भाषा की पकड़ हो । दूसरी शर्त है उस कवि की भाषा को पकड़ हो। भाषा के बाद उसकी रचना-शैली आती है। अर्थों और पाठों का निर्णय करते समय समचे संदर्भो को देखकर भाषा की पुनर्रचना करनी पड़ती है। विभिन्न प्रतियों में उपलब्ध पाठान्तरों में सही पाठ और प्रयोग का चयम भी एक समस्या है। छन्द और व्याकरण की दृष्टि से किस पाठ को महत्त्व दिया जाए--यह भी कम सिर-दई नहीं है । कहने का अभिप्राय यह है कि सम्पादन का अर्थ कवि और उसके रचना-संसार को आत्मसात् करना है। प्रतिलिपिकारों ने वर्तनी और वाक्य-रचना में जो परिवर्तन किये हैं उनमें ताल-मेल बैठाना भी टेढ़ा काम है। इसके बाद उसके मूल्यांकन का प्रश्न उठता है । सम्पादित 'रिट्ठणेमिचरिउ' का मुद्रण और प्रकाशन उसना कठिन नहीं था, जितना कि पाण्डुलिपियों को प्राप्त करना। सबसे पहले, लम्बे पत्राचार के बाद, जयपुरवाली प्रति सितम्बर-अक्तूबर १९७७ में मिली। इसको उपलब्ध कराने में डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल और डॉ० कुमचन्द भारिल्ल ने जो श्रम क्रिया उसके लिए मैं उनका हृदय से अनुगृहीत हूं। यह पाण्डुलिपि बीच-बीच में कटी-फटी है। अतः मूल पाट की अन्विति बैठाने में बड़ी कठिनाइयो थीं। कभी-कभी एक-एक शब्द के लिए कई दिन लग जाते, फिर भी संगति बैठाना कठिन रहा। इसी बीच डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच वालों ने मुझे सूचित किया कि इसकी दो प्रतियां श्री ऐलक पन्नालाल दिग जैन सरस्वती भवन में हैं। उनके कमांक भी उन्होंने भेजने का कष्ट किया। उक्त सरस्वती भवन बम्बई से स्थानान्तरित होकर इस समय तीन शाखाओं (ब्यावर, झालटापाटन और उज्जैन) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) में स्थापित है तीनों जगह मैंने पत्र लिखे, परन्तु लगातार इस नाम के ग्रन्थ के उपलब्ध न होने की सूचना मिली। जुलाई १९७८ में मैं पुनः स्थानान्तर की चपेट में आ गया। १६७८ की दशहरा दीपावली के अवकाश में मैंने स्वयं ब्यावर जाने का कार्यक्रम बनाया और इसकी सूचना वहाँ के व्यवस्थापक श्री अरुणकुमार शास्त्री का दी। उन्होंने अपने विस्तृत पत्र मे दोनों पाण्डुलिपियों के विद्यमान होने की सुचना देते हुए लिखा- "हमारे संदर्भ - विवरणों में उक्त ग्रन्थ का नाम रिमिचरिउ' न होकर 'हरिवंशपुराण' अंकित है। विवरण पंजिका की इस अपूर्णता के कारण आपको हर बार ग्रन्थ की अनुपलब्धि की सूचना देता रहा। ग्रन्थ के प्रारम्भ में भी अब हरिवंश पुराण लिख्यते' लिखा है और प्रन्ध प्राकृत भाषा में बतलाया गया है।' ?? आवश्यक प्रक्रिया पूरी कर श्री अरुणकुमार शास्त्री ने नवम्बर ७८ में दोनों पाण्डुलिपियों का आधा-आधा भाग भेज दिया। मैं अनुगृहीत हैं- श्री पन्नालाल दिग० जैन सरस्वती भवन की तीनों शाखाओं से सम्बद्ध विद्वानों (सर्वश्री पं० दयाचन्द शास्त्री उज्जैन, श्री श्रीनिवास शास्त्री झालरापाटन श्री अरुणकुमार शास्त्री) का उनके सौजन्यपूर्ण सहयोग के लिए। तीनों पाण्डुलिपियों में जयपुर वाली प्रति ( ज ) अत्यन्त जीणें है । यदि सरस्वती भवन से उक्त दो पाण्डुलिपि न मिलतीं, तो प्रस्तुत संस्करण के सम्पादन में संदेह बना रहता । यह भी संयोग की बात है कि जब मैं पुष्पदन्त के 'महापुराण' का अनुवाद कर रहा था, तब मेरा स्थानान्तर, इन्दौर से खंडवा हुआ था और अब जब मैंने 'रिट्टणेमिचरित' के सम्पादन में हाथ लगाया तब पुनः स्थानान्तरित होकर खंडदा आया । अन्तर इतना ही है कि पहले इन्दौर से खंडवा सीधे आया था और अब भोपाल होकर आया । सत्ता की राजनीति में स्थानान्तरों की भूमिका नया मोड़ ले चुकी है। खंडवा के इस दूसरे प्रवास (सितम्बर १६७८ से अगस्त १९८ तक ) में मैंने महावीर ट्रेडिंग कम्पनी, पंधाना रोड में रहकर यह खण्ड तैयार किया, इसके लिए मैं हमड़ बन्धुओं का हृदय से आभारी हूँ । मैं भारतीय ज्ञानपीठ के अध्यक्ष समादरणीय साहू यांम प्रसादजी का एवं मैनेजिंग ट्रस्टी श्री अशोक कुमार जैन का भी अत्यन्त अनुगृहीत हूँ कि उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठ से इसे प्रकाशित करने की स्वीकृति दी। साथ ही, में भाई लक्ष्मीचन्द्रजी का भी अनुगृहीत हूँ, उनकी इस उदारता के लिए। अपभ्रंश साहित्य के प्रकाशन में भारतीय ज्ञानपीठ के माध्यम से साहू परिवार ने जो प्रयत्न किया है वह चिरस्मरणीय और स्तुत्य है। प्राच्य विद्या के शोध अनुसंधान से सम्बन्ध रखनेवाले लोग इसके लिए उनके कृतज्ञ हैं । इस अवसर पर मैं जैन तत्त्वज्ञान के ममेश श्रद्धेय पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और सिद्धान्ताचार्य पं कैलाशचन्द्रजी शास्त्री तथा इतिहासमनीषी डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ । १५-८-१६८० (स्वतन्त्रता दिवस) --- देवेन्द्र कुमार जैन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका महाकवि स्वयंभू और उनका समय "महाकवि स्वयंभू अपभ्रंश-साहित्य के ऐसे कवि हैं जिन्होंने लोकरुचि का सर्वाधिक ध्यान रखा है। स्वयंभू की रचनाएँ अपभ्रंश की आख्यानात्मक रचनाएं हैं, जिनका प्रभाव उत्तरवर्ती समस्त कवियों पर पड़ा है । काव्य-रचयिता के साथ स्वयंभू छन्दशास्त्र और व्याकरण के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। ___ कवि स्वयंभू के पिता का नाम मारुतदेव और माता का नाम पपिनी था। मारुतदेव भी भी कवि थे। स्त्र द में तह र भाउमेरा' कालर ना निलिखित दोहा उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया है मद्धउ मित्त भमतेण रअणा अरचदेण । सो सिज्जते सिज्जह वि तह भरइ भरण' ।। स्वयंभूदेव गृहस्थ थे, गुनि नहीं ! 'पउमपरिउ' से अवगत होता है कि इनकी कई पलियां थीं, जिनमें से दो के नाम प्रसिद्ध हैं—एक अइन्धबा (आदित्यम्बा) और दूसरी सामिअंबा। ये दोनों ही पस्नियाँ सुशिक्षिता थीं। प्रथम पत्नी ने अयोध्याकाण्ड और दूसरी ने विद्याधरकाण्ड की प्रतिलिपि की थी। कवि ने उक्त दोनों काण्ड अपनी पत्नियों से लिखवाये थे। __ स्वयंमदेव के अनेक पुत्र थे, जिनमें सबसे छोटे पुत्र त्रिभुवनस्वयंभू थे। श्री प्रेमीजी का अनुमान है कि त्रिभुवनस्वयंभू की माला का नाम सुअब्बा था, जो स्वयंमूदेव की तृतीय पस्नी थी। श्री प्रेमीजी ने अपने कथन की पुष्टि के लिए निम्नलिखित पद्य उद्धृत किया है सम्वे वि सुझा पंजरसुअख्न पनि अक्खि राई सिक्सति । कइरामस्स सुओ सुअन्व-सुइ-गन्भ संमूओ ॥ अपभ्रंश में 'सुअ' दाब्द से सुत और शुक दोनों का बोध होता है। इस पद्य में कहा है कि सारे ही सुत पिंजरे के सुओं के समान पड़े हुए ही अक्षर सीखते हैं, पर कविराजसुत त्रिभुवन 'श्रुत इव श्रुतिगर्मसम्भूत' हैं । यहाँ श्लेष द्वारा सुअच्चा के शुचि गर्म से उत्पन्न त्रिभुवन अर्थ भी प्रकट होता है । अतएव यह अनुमान सहज में ही किया जा सकता है कि त्रिभुवनस्वयंभू की माता का नाम सुअब्बा था। स्वयंभू शरीर से बहुत दुबले-पतले और ऊंचे कद के थे। उनकी नाक चपटी और दांत विरल थे। स्वयंभू का ब्यक्तित्व प्रभावक था। वे शरीर से क्षीण काम होने पर भी ज्ञान से पुष्टकाय थे । स्वयंमू ने अपने वंश, गोत्र आदि का निर्देश नहीं किया, पर पुष्पदन्त ने अपने - डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य की कृति 'तीर्थकर महावीर और उनकी आनायं-परम्परा' भाग ३ से जीवन-परिचय, प्रकानया द्वारा साभार । १. अनेकान्त, वर्ष ५, किरण ५-६, पृ. २६६ २. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृ० ३७४ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) महापुराण में इन्हें आपुलसंघीय बताया है । इस प्रकार ये यापनीय सम्प्रदाय के अनुयायी जान पड़ते हैं। स्वयंभू ने अपने जन्म से किस स्थान को पवित्र किया यह कहना कठिन है, पर यह अनुमान सहज में ही लगाया जा सकता है कि ये दाक्षिणात्य थे। उनके परिवार और सम्पर्क व्यक्तियों के नाम दक्षिणात्य हैं । मारुतदेव धवलइया, बन्दइया, नाग, आइचचना, सामिब्बा बादि नाम कर्नाटकी हैं। अतएव इनका दाक्षिणात्य होना अबाधित है। स्वयंभूदेव पहले धनन्जय के आश्रित रहे और पश्चात् घदलइया के 'पउमचरिउ' की रचना में कवि ने धनञ्जय का और रिट्ठमिचरिउ' की रचना में धवलइया का प्रत्येक सन्धि में उल्लेख किया है। स्वितिकाल कवि स्वयंभूदेव ने अपने समय के सम्बन्ध में कुछ भी निर्देश नहीं किया है, पर इनके द्वारा स्मृत कवि और अन्य कवियों द्वारा इनका उल्लेख किये जाने से इनके स्थितिकाल का अनुमान किया जा सकता है। कवि स्वयंभूदेव ने 'पउमचरिउ' और 'रिमिचरिउ' में अपने पूर्ववर्ती कवियों और उनके कुछ ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इससे उनके समय की सीमा निश्चित की जा सकती है। पाँच महाकाव्य, पिंगल का छन्दशास्त्र, भरत का नाट्यशास्त्र, भामह और दण्डी के अलंकारशास्त्र, इन्द्र के व्याकरण, व्यास बाण का अक्षराडम्बर, श्रीहर्ष का निपुणर और रविषेणाचार्य की रामकथा उल्लिखित है। इन समस्त उल्लेखों में रविषेष और उनका पद्मचरित ही अर्वाचीन है। पचचरित की रचना वि० सं० ७३४ में हुई है । अतएव स्वयंभू के समय को पूर्वावधि वि० सं० ७३४ के बाद है । स्वयंभू का उल्लेख महाकवि पुष्पदन्त ने अपने पुराण में किया है और महापुराण की रचना वि० सं० २०१६ में सम्पन्न हुई है। अतएव स्वयंभू के समय की उत्तरसीमा वि० सं० १०१६ है। इस प्रकार स्वयंभूदेव वि० सं० ७३४ १०१६ वि० सं० के मध्यवर्ती हैं। श्री प्रेमीजी ने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है- 'स्वयंभूदेव हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन से कुछ पहले ही हुए होंगे, क्योंकि जिस तरह उन्होंने 'पउमचरिउ' में रविषेण का उल्लेख किया है, उसी तरह 'रिटुमिचरिउ' में हरिवंश के कर्त्ता जिनसेन का भी उल्लेख अवश्य किया होता यदि वे उनसे पहले हो गये होते । इसी तरह आदिपुराण, उत्तरपुराण के कर्ता जिनसेन, गुणभद्र भी स्वयंभूदेव द्वारा स्मरण किये जाने चाहिए थे। यह बात नहीं जँचती कि बाण, श्रीहर्ष आदि अर्जन कवियों की तो चर्चा करते और जिनसेन आदि को छोड़ देते। इससे यही अनुमान होता है कि स्वयंभूदेव दोनों जिनसेनों से कुछ पहले हो चुके होंगे। हरिवंश की रचना वि० सं० ८४० में समाप्त हुई थी। इसलिए ७३४ से ८४० के बीच स्वयंभू का समय माना जा सकता है। डॉ० देवेन्द्र जैन ने इनका समय ई० ७८३ अनुमानित किया है । यह अनुमान ठीक सिद्ध होता है।' 38 रचनाएँ कवि को अभी तक कुल तीन रचनाएं उपलब्ध हैं और तीन रचनाएँ उनके नाम पर और मानी जाती है- १. पउमचरिउ, २. द्विमिचरिउ ३ स्वयंभू छन्द ४. सोद्धयश्वरिव ५. पंचमिचरिउ, ६. स्वयंभूच्याकरण ।" १. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पू० ३८७ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भागवत : कृष्ण-कथा श्रीमद्भागवत में परीक्षित के पूछने पर आचार्य शुकदेव बताते हैं—प्राचीन काल में यदुवंशी राजा शूरसेन मथुरापुरी में रहकर माथुर मण्डल और शूरसेन मोडल का शासन करने लगे। उनके पुत्र बसुदेव देवकी से विवाह कर उसके साथ घर जाने को तैयार हुए। देवकी कंस की चचेरी बहन थी । उसे प्रसन्न करने के लिए वह घोड़ों की रास पकड़ लेता है और स्वर्ग रथ होकता है। इतने में मह आकाशवाणी होती है कि देवकी के आठवें गर्म से जो सन्तान होगी वह कंस की मृत्यु का कारण होगी । कंस भोजकवंशी है। वह देवकी को ही मार डालना चाहता है। न होगा बांस और न बजेगी बांसुरी। वसुदेव के यह वचन देने पर कि प्रत्येक सन्तान उसे सौंप दी जाएगी, कंस अपना विचार बदल देता है । पहला पुत्र होता है और वसुदेव उसे लेकर कंस के पास पहुंचते हैं। कंस उनकी सत्यनिष्ठा देख कर तथा ग्रह सोचकर कि उमजी मौत आठवी सन्तान के हाथ में है, नवजात शिशु को वापस कर देता है। इस बीच देवपि नारद कंस को बताते हैं कि पटुवंशी देवता हैं और कंस की मुत्यु की तैयारी निश्चित रूप से हो रही है। कंस हथकड़ियों और बेड़ियों से जकड़कर वसुदेव-देवकी को बन्दीघर में डाल देता है । छह पुत्रों की हत्या के बाद, विष्णु भगवान् योगमाया को वृन्दावन भेजते हैं और कहते हैं कि देवकी के गर्म में स्थित 'शेष' के अंश को रेवती के गर्भ में रख पाओ। वह स्वयं देवकी के गर्भ में आते हैं और योगमाया मशोदा के गर्भ में स्थित होती है। कृष्ण का जन्म होते ही बन्दीगृह के लोहे के दरवाजे स्वतः खुल जाते हैं। शेषनाग अपने फनों से शिशु को वर्षा से बचाते हैं। वसुदेव कृष्ण के बदले में नन्द की कन्या लेकर व्रज से वापस लौटते हैं। कंस को संतान होने की सूचना दी जाती है। कंस आकर कन्या को पछाड़ता है । वह योगमाया बनकर आकाश में चली जाती है, यह कहते हुए कि, "हे केस, तेरा मारने वाला कहीं पैदा हो गया है।" कंस वसुदेव-देवकी को बन्धनमुक्त कर उनसे क्षमा-याचना करता है। कस के दैत्य मंत्री नगर-गाँवों के बच्चों के वध की योजना बनाते हैं। शिशु धीरे-धीरे बढ़ता है । नन्द वार्षिक कर चुकाने के बहाने मथुरा जाते हैं और वसुदेव से मिलकर वापस आते हैं। पूतना राक्षसी शिशु का वध करने जाती है। वह बालक को दूध पिलाती है । लेकिन बालक दूध के साथ उसके प्राण भी पीने लगता है ! वह प्राण छोड़ देती है । नन्द को मथुरा से लौटने पर इस घटना का पता चलता है। करवट बदलने के उत्सव में शिशु छकड़े के नीचे सो रहा है, यशोदा व्यस्तता के कारण दूध पिलाना भूल जाती है । बालक के पाँव से छकढ़ा उलट जाता है। आहट पाकर यशोदा आती है और शिशु को उठा लेती है। तुणायत वर्वडर बनकर आता है, और धूल फलाकर शिशु को आकाश में ले जाता है। बालक गला दबाकर उसे मार डालता है । यदुवंश के आचार्य गर्ग नन्द से मिलने आते हैं और चुपचाप बालक का नामकरण संस्कार करते हैं । कृष्ण बलराम के साथ क्रीड़ाएँ करते हैं। वे घुटनों; हायों के बल चलते हैं, कभी घिसटते हैं, पाव के धुंच बज उठते हैं। वे माताओं के पास आते हैं । बड़े होने पर, वे दोनों ब्रज के बाहर लीलाएं करते हैं । ये व्रजबालाओं को निहास कर तरहतरह के खेल खेलते हैं । ब्रजबालाएँ यशोदा से शिकायत करती हैं : वह दुहने के पहले बछड़ा छोड़ देता है, डोटने पर हसता है । बन्दरों को दूध-दही खिलाकर मटके फोड़ देता है। छीके पर रखा दही पाने के लिए यह क्या-क्या नहीं करता? पीड़े पर पीड़ा रखता है, ऊखल पर चढ़ता है, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२०) किसी बालक के कन्धे पर चढ़ता है। अंधेरे में रखी चीज़ों को यह मणिमय आभूषणों के प्रकाश में पहचान लेता है । कहने पर बिठाई वारता है। नन्द और यशोदा पूर्वभव में द्रोणयसु और धरा थे । ब्रह्मा के आशीर्वाद से वे इस जन्म में नन्द और यशोदा हुए। एक बार दही मथती हुई यशोदा के पास बालक कृष्ण आता है। यह दही मथना छोड़कर दूध पिलाने लगती है । फिर उफनते दूध को उतारने जाती है । बालक को क्रोध आ जाता है और वह दही का मटका फोड़कर दूसरे कक्ष में चला जाता है। पूर्वभव के कुबेरपुत्र (नलकूबर और मणिग्रीव) को नारद ने वृक्ष बनने का अभिशाप दिया था। श्रीकृष्ण ऊखल घसीटते हुए यमलार्जुन वृक्ष के पास पहुंचते हैं, जो अभिशप्त नरक बर थे। वह उनके बीच से निकलते हैं और वे दोनों वृक्ष तड़तड़ करके टूट जाते है । उत्पातों के बर से नन्द गोकुल से वृन्दावन जाने का फैसला करते हैं । वृन्दावन में बसने के माद, एक देस्य वहां मछाड़ा बनकर आता है। श्रीकरण इसकी पकड़कर मैथ वृक्ष पर पछाड़ देते हैं । फिर बकासुर का नाश करते हैं। उसके बाद अघासुर का । अघासुर अजगर का रूप छनाकर लेट जाता है । कृष्ण उसके मुंह में घुसकर उसे फाड़ देते हैं। एक बार वह बन में बछड़ों को ढूंढने जाते हैं । इधर ब्रह्म। कुतुहलवश ग्यालवालों को छिपा देता है। ब्रह्मा को छकाने के लिए वे स्वयं बछड़ा बन जाते हैं। वह ब्रह्मा को मोहित करते हैं । उन्हें सभी बालक और बछड़े कृष्ण स्वरूप दिखाई देते हैं । ब्रह्मा उनकी स्तुति करते हैं । छह बर्ष के होने पर दोनों भाई गायें चराने जाते हैं । श्रीकृष्ण बलराम की स्तुति करते हैं। श्रीदामा और स्तोक कृष्ण से पड़ोस के वन में चलने का आग्रह करते हैं। वहाँ के गधे रूप में आये हुए दैत्य का संहार करते हैं । धेनुकासर, भाई के मारे जाने पर, उनपर आक्रमण करता है। वे उसे परिवार के लोगों सहित ताड़ के वृक्ष पर पछाड़ देते हैं। घर लौटते हैं। यमुना के कुफ्ड में रहनेवाले कालियानाग को नाथ देते हैं। नाग और उसकी पलियां भगवान् की स्तुति करती हैं। शुकदेव परीक्षित को कालियानाग का पूर्व वृतान्त बताते हैं। श्रीकृष्ण दिव्य माला गन्ध, वस्त्र, महामुल्य मणि और स्वर्ण आभूषणों से अलंकृत होकर निकलते हैं। नन्द को चिन्ता। दावानल से स्वजनों का उद्धार । दोनों ग्यालबालों के साथ वन में कीड़ा करते हैं। एक राक्षस ग्वालबाल बनकर आता है, वह मित्र बनता है । ग्वालबाल भांडीर वट वृक्ष के पास पहुंचते हैं । प्रलम्बासुर बलराम को पीठ पर लाद कर भागना चाहता है परन्तु वह ऐसा कर नहीं पाता। बलराम उसे मार देते हैं । गायें गुजाटवी (सरकंडों के वन) में घुस जाती हैं। वे पता लगाकर उस वन में पहुंचते हैं। तभी वन में आग लग जाती है। वह योगमाया से आग पी लेते हैं और गायें लेवार वापस आ जाते हैं । विभिन्न ऋतुओं में वह वन में क्रीड़ा करते हैं। शरदऋतु में वेणुगीत का आयोजन होता है । मुरली की तान सुनकर गोपियाँ व्याकुल हो उठती हैं, वे युन्दावन की हर चीज की सराहना करती हैं, उन्हें प्रेम की व्याधि लग जाती है। वे प्रतिदिन लीलाओं का स्मरण करती हैं। हेमन्त ऋतु में कात्यायनी देवी की पूजा करती हैं । सवेरे-सवेरे समूह में लीलागान करती हुई यमुना में स्नान करती हैं। कृष्ण वस्त्र ज्या लेते हैं और अकेले या सामूहिक रूप में पाकर वस्त्र लेने की बात करते हैं । (चीरहरण का अभिप्राय अत्तियों का आवरण नष्ट हो जाना है और उनका, वृत्तियों का, आत्मा में रम जाना 'रास' है । गीता में धर्म से अविरुद्ध काम को परमात्मा का स्वरूप माना गया है।) भूख मिटाने के लिए ग्वालबाल आंगिरस यज्ञ में पहुंचते हैं, जो वेदपाठी ब्राह्मणों द्वारा आयोजित था। ग्वालबाल कहते हैं- "हमें बलराम और श्रीकृष्ण ने भूख मिटाने आपकी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) यज्ञशाला में भेजा है अतः थोड़ा भात दे दीजिए।" बेदवादी ब्राह्मण उन्हें मना कर देते हैं । खाना वापस जाते हैं।यों के पास भेजते हैं, वे उन्हें अशन- वसन से संतुष्ट कर देती हैं। वे भगवान के दर्शन करती हैं। श्रीकृष्ण उनके प्रेम का अभिनन्दन करते हैं । वेदपाठी ब्रह्मण पछताते हैं। इसी प्रकार के 'इन्द्रयज्ञ' का विरोध करते हैं, और जब इन्द्र कुपित होकर वर्षा करता है तो गोवर्धन उठाकर, उसका घमण्ड चूर-चूर कर देते हैं । स्वर्ग से आकर कामधेनु बधाई देती है और इन्द्र भी क्षमा मांगता है। वरुण का सेवक एक असुर नन्द को पकड़कर ले जाता है, कृष्ण उन्हें छुड़ाकर लाते हैं। वरुण आकर उनकी स्तुति करता है। शरद ऋतु में रासलीला प्रारम्भ होती है। वंशी की धुन सुनकर, गोपियाँ चल देती हैं। वे प्रियवियोग से विकल हैं। ये कृष्णमय हो उठती हैं०: पप्रच्छुराकाशवदन्तरं बहिः भूतेषु सन्तं पुरुषं वनस्पतीन् ।' अर्थात् जो आकाश के समान भीतर-बाहर सब जगह स्थित हैं उनके बारे में गोपियों पेड़ पौधों से पूछने लगती हैं । श्रीकृष्ण थोड़ी दूर ही थे । से कृष्ण की लीलाओं का अभिनय करती हैं, कृष्ण की खोज में निकलती हैं। उन्हें किसी गोपी के चरणचिह्न के साथ भगवान् के चरणचिह्न दीख पड़ते हैं । उस गोपी को वे कृष्ण की आराधिका समझती हैं, वे कृष्णमय हो उठती हैं, व्याकुल होकर कृष्ण के आने की प्रतीक्षा करती हैं। वे श्रीकृष्ण के पिछले कार्यो का पुण्य स्मरण करती हैं। अमृत के पान से जीवनदान की प्रार्थना करती हैं और फूट-फूट कर रो पड़ती हैं। श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं, गोपियाँ भिन्न-भिन्न मुद्राओं में उनका प्रतिग्रहण करती हैं। श्रीकृष्ण ब्रजबालाओं को साथ लेकर यमुना तीर जाते हैं । यहाँ गोपियों के पूछने पर प्रेम की विभिन्न स्थितियों का उल्लेख करते हुए कहते हैं—ये स्थितियाँ चार हैं- एक, जो अपने स्वरूप में मस्त रहते हैं, उन्हें द्वंस नहीं भासता । दूसरे, वे हैं जिन्हें द्वैल की प्रतीति है, परन्तु वे कृतकृत्य हो चुके हैं। तीसरे, वे है जो यह नहीं जानते कि कौन हमसे प्रेम करता है। चौथे, वे हैं जो हित मा प्रेम करनेवालों से भी ब्रोह करते हैं। कृष्ण कहते हैं- "मैं प्रेम करनेवालों से इसलिए प्रेम नहीं करता क्योंकि मैं चाहता हूँ कि प्रेम करनेवालों की वृत्ति मुझ में लगी रहे। इसीलिए मैं मिलमिलकर छिप जाता हूँ ।" यमुना के किनारे वे रासलीला करते हैं। वे स्वयं दो-दो गोपियों के बी प्रगट हो जाते हैं। प्रत्येक गोपी समझती है कि उनका प्रिय उनके साथ है। रास के मूल में रस दशब्द है 'रसो वं सः' । रस स्वयं श्रीकृष्ण हैं। जिस दिव्य क्रीड़ा में एक ही रस अनेक रसों के रूप में परिणत हो जाए वह रास है । इस में वंशीध्वनि गोपियों का अभिसार, श्रीकृष्ण से उनकी बातचीत, रमण राधा के साथ अन्तर्धान, पुनः प्राकट्य गोपियों द्वारा दिए गए वतनासन पर बैठना, कूट प्रश्नों का उत्तर, रासनृत्य, जलकेलि और बन-विहार जैसी अनेक क्रियाएँ सम्मिलित है। श्रीकृष्ण के इस चिन्मय रामविलास का जो श्रद्धा से बार-बार श्रवण और मनन करता है, उसे पराभक्ति प्राप्त होती है । नन्दबाबा अन्य गोपी के साथ जाकर शिवरात्रि के दिन पशुपतिनाथ शंकर और अम्बिकाजी का भक्तिपूर्वक पूजन करते हैं। एक अजगर नन्द को निगलना चाहता हैं कि तभी भगवान् उसे Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) भस्म कर देते हैं । यह पूर्वभव में सुदर्शन नामक विद्याधर या जो शाप के कारण अजग र योनि को प्राप्त हुआ था। वह श्रीकृष्ण की अनुज्ञा लेकर चला जाता है । एक बार श्रीकृष्ण और बल - राम गोगियों के साथ, पास के यन में स्वच्छन्द विहार करते हैं । कुबेर का अनुचर पांखचूड़ 'पक्ष' गोपियों का अपहरण करता है। दोनों भाई शालवृक्ष लेकर दौड़ते हैं। श्रीकृष्ण पीछा कर एक चूंसे में उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं । वह उसका चमकीला मणि लेकर आ जाते हैं और बलराम को वे देते हैं। 'युगलगीस' में गोपियों की वह प्रतिक्रिया व्यक्त है जो उस समय उनके मन में उत्पन्न होती है जब कृष्ण प्रतिदिन वन में गाय चराने जाते हैं। इनमें कृष्ण का सौन्दर्य, चेष्टाएँ, अलंकरण आदि बातें समाहित हैं। एक दिन कृष्ण के व्रज में प्रवेश करने के समय अरिष्ट दैत्य पाता है। कृष्ण उसका वध करते हैं । अरिष्टासुर के वध के बाद नारद कंस को वस्तुस्थिति बताते हैं। कंस ऋद्ध होकर बसुदेव को मार डालना चाहता है। नारद मना करते हैं। कंस वसुदेव और देवकी को बन्दीगृह में फिर से भिजवा देता है। यह केशी से वृन्दावन जाकर दोनों को मार डालने का आदेश देता है । मंचों और अखाड़ों का निर्माण होता है। कंस फष्ण को लाने के लिए यदुवंशी अक्रूर को भेजता है । अक्रूर धनुषयज्ञ का निमंत्रण लेकर जाते हैं । केशी दैत्य अश्व के रूप में आता है। श्रीकृष्ण उसे परास्त करते हैं। देवता फूल बरसाते हैं। नारद आकर श्रीकृष्ण की स्तुति करते हैं तथा भावी घटनाओं और वधों का पूर्व उल्लेख करते हैं । गोचारण के समय, वह भामासुर का वध करते हैं। अक्रूर ब्रज' की यात्रा करते हैं। नाना कल्पनाएं करते हुए वे माते हैं । बजभूमि में पहुंचकर वह रथ से उतरकर व्रज की धूलि में लोट जाते हैं। दोनों भाई उन्हें घर के भीतर ले जाते हैं । नन्दबाबा यह मुनादी करवा देते हैं कि कल वे मथुरा मेला देखने जाएंगे और राजा को गोरस देंगे। गोपियों पर इसकी गहरी प्रतिक्रिया होती है। अक्रूर को भला-बुरा कहती हैं। यमुना किनारे पहुंचकर अफर स्नान करते हैं, वे दोनों भाइयों को रथ पर छोड़ आये थे, परन्तु उन्हें जल में देखकर वह आश्चर्यचकित रह जाते हैं । जल में उनका विष्णु रूप प्रतिबिम्बित है । अक्रूर उनकी स्तुति करते हैं । बजवासी गोप और नन्द पहले से ही मथुरा के बाहर उपवन में ठहरे हुए हैं। कृष्ण और बलराम अक्रूर को मथुस भेज देते है और स्वयं वहाँ ठहर जाते हैं। अक्रूर कंस को कृष्ण के आने की सूचना देते हैं। कृष्ण के मथुरा में प्रवेश करने पर वहां की वनिताओं की प्रतिक्रिया। धोबी से कपड़े लूटते हुए, दर्जी से प्रसन्न होते हुए, सुदामा माली के घर जाते हैं। वह उनकी पूजा करता है। रास्ते में चमकी कुब्जा से मेंट होती है, जो चन्दन का पात्र लेकर जा रही भी । वह अंगभंग के साथ, अपने को समर्पित कर देती है । श्रीकृष्ण उसके अंगों को सीधा कर देते हैं । बह एक सुन्दर स्त्री बन जाती है । बह घर चलने का भाग्रह करती है। कृष्ण बाद में आने का आश्वासन देकर आगे बढ़ जाते हैं। रंगशाला में धनुष चढ़ाकर और सेना को परास्त कर कृष्ण-बलराम आगे बढ़ते हैं। यह समाचार सुनकर कंस आग-बबूला हो जाता है । दूसरे दिन मल्लयुद्ध का आयोजन होता है जिसमें दोनों भाग लेते हैं । कुवलयपीड का उद्धार कर वह अखाड़े में मल्लों को पराजित करते हैं—कृष्ण चाणूर को और बलराम मुष्टिक को । कृष्ण कंस का काम तमाम कर देते हैं । कंस Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) की अन्तेष्टि के बाद, वे माता-पिता (वसुदेव-देवकी) को बन्धन-मुक्त करते है और कहते है कि हम आपके पुत्र हैं, परन्तु बाल्य और किशोरावस्था के सुख नहीं दे सके । वे नाना उग्रसेन को यदुवंशियों का राजा बना देते हैं, क्योंकि ययाति के शाप के कारण यदुवंशी राज. सिंहासन पर नहीं बैठ सकते । वसुदेव दोनों का यज्ञोपवीत संस्कार कराते हैं । वहाँ से वे काश्यपगोत्रीय सान्दीपिनी मुनि के आश्रम में उज्जयिनी आते हैं। गुरुदक्षिणा के रूप में प्रभासक्षेत्र के समुद्र में डूबकर मरे हुए गुरुपुत्र को वे दोनों शंखासुर को मारकर यम के पास से ले आते हैं। विद्याध्ययन के पश्चात् वे मथुरापुरी लौट आते हैं। कृष्ण के अनुरोध पर उद्धव (वृष्णिवश के प्रमुख पुरुष) व्रज की यात्रा करसे हैं। यहाँ उनका सम्मान होता है । आगतस्वागत और कुशन-मंगल के बाद, उद्धव ब्रज का कण के प्रति अनुराग देखकर मानन्दमग्न हो जाते हैं। फिर वे मथुरा के सारे समाचार देकर बताते हैं कि श्रीकृष्ण शीघ्र व्रज में आयेंगे। दूसरे दिन नन्द के द्वार पर स्वर्गरथ देखकर गोपियां आशंकित हो उठती है। उन्हें उद्धध कृष्ण के समान दिखाई पड़ते हैं। उद्धव से उलाहने के स्वर में कहती हैं, "कृष्ण ने मां-बाप के समाचार के लिए आपको भेजा है, उन्हें गोकुल से क्या लेना-देना ? दूसरे से प्रेम सम्बन्ध का स्वांग स्वार्थवश होता है, वैसे ही जैसे कि भ्रमरों का फूलों से ।" इस प्रकार एक के बाद एक आरोप लगाती हुई वे यह भूल जाती हैं कि उन्हें किसके सामने क्या कहना चाहिए । वे आत्म-विस्मृत हो उठती हैं । एक गोपी को भ्रमर देखकर ऐसा लगता है कि जैसे प्रिय ने समझाने के लिए दूत भेजा हो । उस समय उसे मिलन-स्त्रीला की याद आ रही होती है । वह उस भ्रमर से कहती है "तू कपटी का सखा है, इसलिए तू भी कपटी है। तू मेरे परों को मस छु। झूठे प्रणाम कर अनुनय-विनय मत कर । मेरी मौतों की मली गयी वनमाला सामनेटरी गोट पट जगा है । तू फूल से स्वयं प्रेम नहीं करता । यहाँ-वहां उड़ा करता है। जैसे तेरे स्वामी वैसा ही तू । उन्होंने तुझे व्यर्थ भेजा। तू काला वह काले। "वे लक्ष्मी के प्रति सहानुभूति दिखाती हैं जो कृष्ण की चिकनी बातों में आकर सेवा में लगी रहती हैं। "तुम जो उनकी ओर से चापलूसी कर रहे हो वह व्यर्थ है। घरबार विहीन हमारे सामने कष्ण का गुणगान किस काम का? तू यहाँ से जा, वे हमारे लिए पुराने हैं। सू मथुरावासिनियों के आगे उनका गुणगान कर । वे नयी हैं और उनकी लीलाओं से अपरिचित हैं। उन्होंने उनकी पीड़ा मिटा दी है, वे तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करेंगी और मुंहमांगी वस्तुएँ देंगी।" वे स्वीकार करती हैं कि ऐसा कौन है जो उनके प्रति आकृष्ट न हो, परन्तु यथार्थत: वे उदात्त हैं तो दोनों पर उनकी कृपा होनी चाहिए । 'हे भ्रमर, तू मेरे पैर मत पड़ । सेरी दाल यहाँ नहीं गलेगी। ___ कृष्ण के पौराणिक कृत्यों की आलोचना करती हुई गोपियाँ कहती हैं कि काली वस्तु से प्रेम करना खतरनाक होता है। वह यह भी कहती हैं कि कृष्ण-कथा का बस का छोड़ना उनके लिए असंभव है। फिर भी तुम प्रिय के सना हो, हमें मनाने के लिए तुम्हें भेजा गया है, तुम हमारे लिए माननीय हो, जो चाहिए हो वह ले लो।" अन्त में बह आर्यपुत्र की कुशल-मंगल पूछती हैं। वे जानना चाहती हैं कि क्या कभी उनसे मिलने का अवसर आएगा? उत्तर में उद्धव कहते हैं- "तुम्हारा जीवन सफल है। तुम पूज्य हो क्योंकि तुमने अन्य साधनों को छोड़कर प्रेमाभक्सि से प्रभु का साक्षात्कार किया है। स्वजनों की उपेक्षा कर तुम ने श्रीकृष्ण को पति रूप में वरण किया है। वियोग में तुमने प्रेमाभक्ति की उच्च भूमिका को प्राप्त कर लिया है। तुम्हारे लिए कृष्ण का यह सन्देश है : 'मैं सबका उपायान कारण हूँ, सब में Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) अनुगत हूँ, भत्तः वियोग का प्रश्न ही नहीं बटन्स बारे हैं जिस प्रकार समुद्र में नदियों में तुमसे मिलूंगा, निराश होने का कोई कारण नहीं । उन यह सुनकर गोपियाँ संतुष्ट हो जाती हैं। वे कृष्ण की एक-एक लीला का स्मरण करती हैं। कृष्ण की सामाजिक और राजनैतिक सफलताओं पर वे हर्ष प्रकट करती हैं। वे जानना चाहती है कि क्या मथुरा की स्त्रियों के प्रति भी उनका ऐसा ही प्रेम है। दूसरी सखी कहती है, "ये प्रेममोहिनी कला के विशेषज्ञ हैं अतः ऐसी कौन होगी जो उन पर नहीं रोकेगी ?" तीसरी गोपी पूछती है, "नागरिक स्त्रियों से कभी उनकी बात चलती है या नहीं ? क्या कृष्ण उन रात्रियों का स्मरण करते हैं जिनमें हमने रासलीला की थी ? क्या वे फिर हमारी सुध लेंगे ?" एक गोपी को यह आशंका है कि राजा बनने पर उन्हें कई राजकुमारियाँ मिल सकती हैं, फिर वे हमारी याद क्यों करने लगे? अपना काम पूर्ण होने से, उन्हें किसी से क्या प्रयोजन ?" एक पिंगला वेश्या की यह बात दुहराती है कि "आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है ( परं सौख्यं हि नैराश्यं स्वरियह पिंगला) फिर भी उनकी आशा छोड़ना सम्भव नहीं । गोपियां उद्धव को सारे स्थान दिखाती हैं जिनसे कृष्ण का सम्बन्ध था। वे वियोग में कृष्ण से अपनी रक्षा चाहती हैं। लेकिन उद्धव के माध्यम से प्रिय का सन्देश सुनकर गोपिय शान्त हो रहती हैं। उद्धव महीनों व्रज में रहते हैं। प्रिय में गोपियों की निष्ठा देखकर उद्धव प्रसन्न हो उठते हैं। वह प्रेममय fter महाभाव बड़े-बड़े मुनियों को दुर्लभ है। भगवान् की लीलाकथा का रस जिसने चल लिया वह भूल नहीं सकता । उद्धव वृन्दावन में रह जाना चाहते हैं जिससे गोपियों की चरणधूल मिल सके। वे ब्रजरज को प्रणाम करते हैं । पश्चात् उद्धव मथुरा के लिए प्रस्थान करते हैं । कुब्जा अपने घर पर कृष्ण और उद्धव की पूजा करती है । उद्धव आसन से उठकर जमीन पर बैठते हैं। वह कुब्जा के साथ क्रीड़ा करते हैं। फिर वे उद्धब के साथ लौटते हैं । वे और बलराम अक्रूर से उनके घर भेंट करते हैं। अक्रूर उनकी सेवा करते हैं, उनकी स्तुति करते हैं । श्रीकृष्ण अक्रूर को पाण्डवों की कुशलता पूछने हस्तिनापुर भेजते हैं क्योंकि पाण्डु की मृत्यु के वाद धुतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी में ले आये हैं। अकूर जाकर सबसे मिलते हैं और स्थिति का अध्ययन करने के लिए महीनों वहाँ रहते हैं। अक्रूर धृतराष्ट्र का कुल गोरव बढ़ाने की बात कहते हैं। वृतराष्ट्र स्वीकार करते हैं कि पुत्रों की ममता के कारण उनका चित्त विपम हो उठा है । बाद में अक्रूर मथुरा आकर श्रीकृष्ण को वहाँ का सारा समाचार सुनाते है । शुकदेव परीक्षित से बहते हैं— कंस की दो रानिम थीं, अस्ति और प्राप्ति। पति की मृत्यु के बाद वे अपने पिता जरासन्ध के पास चली जाती हैं। वह अपने दामाद के वध क्रुद्ध होकर अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को घेर लेता है। कृष्ण और बलराम जरासन्ध का सामना करते हैं । बलराम उसे ललकारते हैं। जरासन्ध सेना के साथ उन्हें घेर लेता है। मथुरा की वनिताओं में इसकी गहरी प्रतिक्रिया होती है। उन दोनों के प्रहार से जरासन्ध की सेना धराशायी हो जाती है । देवता फूल बरसाते हैं। कई बार यह क्रम चलता है । अठारहवीं बार कालयवन युद्ध करने आता है और म्लेच्छों की तीन करोड़ सेना के साथ मथुरा नगरी को घेर लेता है । कृष्ण और बलराम परामद कर पश्चिमी समुद्र में जलदुर्ग बनवाने का फैसला करते हैं । वास्तुकला के अनुसार सुन्दर नगरी बसाई जाती जाती है । श्रीकृष्ण माथा के द्वारा सबको वहाँ पहुँचा देते हैं । बलरामजी मथुरा में रहने लगते हैं और श्रीकृष्ण सादे Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) देश में द्वारिका आ जाते हैं । कालमन उनका पीछा करता है । श्रीकृष्ण उसको खूब छकाते हैं। श्रीकृष्ण पर्वत की गुफा में घुस जाते हैं । जरासन्ध गुफा में घुसता है। उसकी ठोकर से मुसुकन्द उठता है, उसकी कोषाग्नि अत्यन्त प्रबल हो उठती है। मुचुकुन्द वस्तुतः मान्धाता का पुत्र था। श्रीकृष्ण उसे दर्शन देते हैं। फिर वे ग्लेच्छरोना का नाश कर सबका धन छीनकर द्वारिका आ जाते हैं। जरासन्ध पुनः आक्रमण करता है। दोनों भाई भागते हैं, जरासन्ध उनका पीछा करता है। वे प्रवर्षण पर्वत पर चढ़ जाते हैं। ढूंढने पर जब वे नहीं मिलते तो वह आग लगवा देता है और मान लेता है कि वे जल गये। पश्चात् जरासन्ध मगध देश लौट माता है। I रुक्मिणी विदर्भ देश के राजा भीष्मक की कन्या है। बड़े भाई का नाम रुक्मि है। चार छोटे भाई भी हैं --- वक्मरथ, रुम्ममालि; रुक्मबाहु और रुक्मकेश । दक्मिणी श्रीकृष्ण में अनु रक्त है। रुक्मि कृष्ण से द्वेष रखता है। वह अपनी बहिन का विवाह शिशुपाल से कराना चाहता है । रुक्मिणी एक विश्वासपात्र ब्राह्मण श्रीकृष्ण के पास द्वारिकापुरी भेजती है । वह जाकर श्रीकृष्ण को सब वृत्तान्त सुनाता है। वे ब्राह्मण से कहते हैं, "मैं भी विदर्भकुमारी को चाहता हूँ ।" रुक्मिणी का संकेत था कि विवाह के एक दिन पूर्व होनेवाली देवी की कुलयात्रा में दुहिन को जाना पड़ता है, इसलिए वहाँ नगर के बाहर गिरिजा के मन्दिर के सामने वह उनके चरणों की धूल प्राप्त करना चाहेगी। इधर म के जोर देने पर भीष्मक शिशुपाल से अपनी कन्या का विवाह करने की तैयारी कर रहे होते हैं । गिरिजा मन्दिर से श्रीकृष्ण रुक्मिणी का हरण कर ले जाते हैं । रुक्मि प्रतिरोध करता है, परन्तु रुनिमणी के भाई के प्राणों की भीख मांगने पर कृष्ण उसे विरूप बनाकर बन के दुपट्टे से बाँध द्वारिका ले आते हैं । बलराम उसे मुक्त कर देते हैं । रुक्मि अपमान और लज्जा के कारण कुण्डिनपुर नहीं जाता, वह भोजकटक नगरी बसाकर उसमें रहने लगता है, इस प्रतिज्ञा के साथ कि वह कृष्ण को मारकर रुक्मिणी के साथ कुण्डिनपुर में प्रवेश करेगा। श्रीमद्भागवत के अनुसार, कामदेव वासुदेव का ही अंग है। वह पहले स्तदेव की कोधाग्नि में भस्म हो गया था, जो अब रुक्मिणी के पुत्र के रूप में प्रद्युम्न के नाम से उत्पन्न हुआ । कामरूपी शम्बरासुर उन्हें उठाकर समुद्र में फेंक देता है। उसे एक मछ निगल लेता है। घूमफिरकर वहीं मच्छ शम्बरासुर के रसोईघर में पहुंच जाता है। फाड़ने पर उसमें शिशु प्रम्न निकलता है, जिसे दासी मायावती को दे दिया जाता है। मायावती पूर्व जन्म की रति है । यह दाल भात बनाती है। वह शिशु को प्यार से पालती है। है । प्रद्युम्न के पूछने पर वह अपना परिचय देती है । शम्बरासुर को मारने के लिए वह प्रद्युम्न को माहामाया नाम की विद्या सिखाती है। प्रद्युम्न शम्बरासुर से युद्ध करता है । विजयी प्रद्म मनको मायावती रति आकाशमार्ग से द्वारिकापुरी ले जाती है। अपन को देखकर मणी को अपने पुत्र की याद आ जाती है। नारद वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हैं । मायावती उस पर मुग्ध हो उठती सत्राजित ने पहले कृष्ण को कलंक लगाया था लेकिन अब वह स्यमंतक मणि सहित अपनी कन्या सत्यभामा श्रीकृष्ण को दे देता है। यह मणि उसे सूर्य ने उपासना से प्रसन्न होकर दिया था । 'मणि' को देव मन्दिर में स्थापित कर दिया जाता है। वह मणि प्रतिदिन आठ भार' सोना भार का परिणाम ४ बीहि = १ गंजा, ५ गुंजा = १ पण, म पण = १ धरण, ८ धरण - १ कर्ष, ४ कप - १ पल, १०० पल - १ तुला, २० तुला १ भार । म Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) देता है। श्रीकृष्ण वह मणि उग्रसेन को देने के लिए कहते हैं, जिसे बह अस्वीकार कर देता है। सत्राजित का भाई प्रसेन वह मणि पहिनकर जंगल में जाता है। एक सिंह उसे मारकर मणि छीन लेता है, उससे यक्षराज जाम्बवान छीन लेता है । मत्राजित् कृष्ण पर शंका करता है। श्रीकृष्ण यमराज की गुफा से उस मणि को ईलकर लाते हैं। श्रीकृष्ण जाम्बवान को घूसों से मार डालते हैं। श्रीकृष्ण बारह दिनों तक जब गुफा से नहीं निकले तो लोग घर चले जाते हैं। श्रीकृष्ण के न लौटने पर वारिफा में कुहराम मच जाता है। लोग सत्राजित् को बुरा-भला कहने लग जाते हैं। द्वारिकावाले दुर्गादेवी की उपासना करने लग जाते हैं। श्रीकृष्ण आकर सत्राजित् की मणि सीप दत है । अन्त में श्रीकृष्ण उससे सत्य भामा स्वीकार कर लेते हैं, साथ ही कह स्यमंतक मणि न लेकर उसके बदले में उससे निकलने वाला सोना लेते रहना स्वीकार कर लेते हैं। लाक्षागृह में पांडवों के जल मरने की बात सुन कर, श्रीकृष्ण और बलराम हस्तिनापुर जाते हैं और भीष्म पितामह आदि से मिलकार सान्त्वना प्रबन्ट करते हैं। इधर द्वारिका में अक्रूर और कृतवर्मा शतधन्धा से कहते हैं, "तुम सत्राजित् से स्यमंतक मणि छीन लो, क्योंकि उसने हमसे छलकर सत्यभामा श्रीकृष्ण को म्याह दी।" पिता के वध को देख कर सत्यभामा जोर से विलखती है, फलतः श्रीकृष्ण शतधन्वा को मार डालते हैं। अक्रूर और कृतवर्मा द्वारिका से भाग खड़े होते हैं । अक्रूर श्वफल्क के पुत्र थे । अवर के द्वारिका से चले जाने पर यहाँ बहुल उत्पात होते हैं । श्रीकृष्ण अक्रूर को बुलयाते हैं और स्यमंतक मणि के बारे में पूछते हैं और एक बार उसे दिखा देने के लिए कहते हैं जिससे बलराम, सत्य'भाभा और जाम्बवती का सन्देह दूर हो जाए। समका सन्देह दूर कर श्रीकृष्ण वह मणि अऋर को लौटा देते हैं । इसके बाद श्रीकृष्ण के कई विवाह हुए। वह पाण्डयों से मिलने के लिए इन्द्रप्रस्थ जाते हैं । वर्षाकाल वहीं बिताते हैं । वे अर्जुन के साथ शिकार खेलने जाते हैं । सूर्यपुत्री कालिन्दी, जो यमुना में रहती है, कृष्ण से विवाह करती है। वे युधिष्ठिर के पास जाते हैं। श्रीकृष्ण विश्वकर्मा से कहकर पाण्डयों के लिए सुन्दर भवन का निर्माण करा देते हैं। खांडव वन अग्निदेव को दिलवाने के लिए वे अर्जुन के सारथी बन जाते हैं । खांडव वन में भोजन मिल जाने पर अग्निदेव प्रसन्न होकर गांडीव धनुष, चार श्वेत घोड़े, एक रथ, दो अटूट बाणों वाले तरक्रस और अभेद्य कवच देते हैं । कृष्ण द्वारिका लौटते हैं। वहाँ कालिन्दी का पाणिग्रहण करते हैं । अवन्ती के राजा बिन्द और अनुविन्द दुर्योधन के पक्षधर हैं, उनकी बहन मित्रवन्दा कृष्ण को चाहती है । वह उनकी बुआ की कम्या है। कृष्ण कोसस देश के राजा की कन्या सस्या से भी विवाह सात बैलों को परास्त कर करते हैं । यह द्वारिका आ जाते हैं । कृष्ण की बुआ श्रुतकीर्ति केकय देश में रहती है। उसकी कन्या भद्रा है। उसका भाई सन्तदैन उसे कृष्ण को दे देता है। मद्रदेश के राजा की कन्या सुलक्षणा का कृष्ण स्वयंवर में हरण करते हैं । भौमासुर का वधकर कृष्ण उसकी सोलह हजार कन्याओं का उद्धार करते हैं और उनसे विवाह कर लेते हैं । पश्चात् श्रीकृष्ण गदा के प्रहार से मुर राक्षस का अन्त करते हैं। भौमापुर के वध पर श्रीकृष्ण के गले में पृथ्वी घेजयन्ती माला डास देती है। वह कुण्डल, वरुण का छत्र और महामणि भी देती है। भगवान् की स्तुति के स्वर निकलते हैं। भौमासुर के पुत्र भगदस को अभयदान मिलता है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) श्रीकृष्ण इन्द्र के उपवन से कल्पवृक्ष उखाड़ कर लाते हैं और द्वारिका के उपवन में उसे लगा देते हैं। राजकुमारियां श्रीकृष्ण की सेवा करती है । रुक्मिणी श्रीकृष्ण की सबसे प्रिय पत्नी है। रुक्मि की कन्या क्मिवतो स्वयवर में प्रद्युम्न का वरण करती है। रुक्मिणी की कन्या चारुमती का विवाह कृतव मां के पुत्र बाल से होता है । रुक्मि अपनी पोती रुक्मिणी के पोले (नाती) अनिरुद्ध को ब्याह देता है, यद्यपि यह विवाह धर्म के अनुकल नहीं होता। विवाहोत्सव में क्मि बलराम से जुआ खेलता है और मारा जाता है। वाणासुर महात्मा बलि का पुत्र है । ताण्डवनृत्य में बाध बजाकर उसने शिव को प्रसन्न कर लिया है। उसकी कन्या ऊषा स्वप्न' में प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध को देखकर मोहित हो जाती है। उसकी सहेली चित्रलेखा कई चित्र बनाती है। उनमें से वह अनिरुद्ध को अपना प्रिय बनाती है। चित्रलेखा आकाशमार्ग से अनिरुद्ध को अन्तःपुर में ले जाती है । दोनों रमण करते हैं। खा को गर्म रह जाता है। पहरेदारों से पता चलने पर, वाणासुर अन्तःपुर में जाता है। वह अनिरुद्ध को नागपाश से बाँध लेता है । नारद से अनिरुद्ध का पता पाकर श्रीकृष्ण शोणितपर पर हमला करते हैं। शंकर वाणासुर की सहायता करते हैं। अन्त में शंकर के अनुरोध पर श्रीकषण बाणासर के हाथ काटकर उसे छोड़ दते हैं । अनिरुद्ध और ऊषा का विवाह होता है। बलराम नन्द और गोपियों से मिलने के लिए ब्रज जाते हैं, नन्द व यशोदा को प्रणाम करते हैं। बालबाल, गोपियां उनसे श्रीकृष्ण के समाचार पूछती है और जानना चाहती हैं कि क्या बे हमारी याद करते हैं? क्या वे नन्द और यशोदा को देखने के लिए यहाँ आएंगे? क्या वे हमारी सेवा का स्मरण करते हैं ? वे हमें छोड़कर परदेश चले गये। वे अपने ग्राम्य परिख के ईज्य को स्वीकार करती हुई नार की स्त्रियो पर व्यग्य करती हैं। उन्हें विश्वास किनार वनिताएँ चतुर होने से कृष्ण की मीठी-मीठी बातों में नहीं फेंसी होंगी। वे अतीत को समति कर रोने लगती हैं । बलराम उन्हें सान्त्वना देते हैं । वे चैत और वैशाख के महीने वहीं बिताते है। गोपियों के साथ यमुना में जलकाड़ा करते हैं । इधर बलराम की अनुपस्थिति में पौं ड्रया वासुदेव होने का दावा करता है। कृष्ण पौड़क और काशीनरेश पर आक्रमण कर युद्ध में उनके सिर धड़ से अलग कर देते हैं। काशीराज का पुत्र सुदाक्षिण, पिता का वध करनवाले श्रीकृष्ण के वध के लिए, शंकर के उपदेश से दक्षिणाग्नि की अभिचार विधि से आराधना करता है। वह कृष्ण के लिए अभिचार (मारण का पुरश्चरण) करता है। मूर्तिवान अग्निदेव यज्ञ-कुण्ड से उठता है और द्वारिका को भान करने के लिए पहुंचता है । श्रीकृष्ण इस माहेश्वरी कुत्य को पहचान जाते हैं, सुदर्शन चक्र से वे उसकी हत्या कर देते हैं । बलराम भौमासुर के मित्र द्विविद वानर के उत्पात को शान्त करते हैं। जाम्बवती का पुत्र शाम्ब दुर्योधन की कन्या लक्ष्मणा को स्वयंवर से हरकर ले आता है। कौरव उसका पीछा करते हैं । वे शाम्ब को बांधकर लक्ष्मणा को हस्तिनापुर से आते हैं। इसकी यवंशी पर गहरी प्रतिक्रिया होती है । यदुवंशी आक्रमण करना चाहते हैं, परन्तु बलराम रोक देते हैं। वह हस्तिनापुर जाकर एक उपवन में ठहर जाते हैं और उद्धथ' को धृतराष्ट्र के पास भेजते हैं । कौरव उनकी अगवानी करते हैं। वे नववधू के साथ शाम्ब को वापस करने की मांग करते हैं। कौरव यह सुनकर तिलमिला उदते हैं। कोरवों के अपशब्दों से बलराम को क्रोध आ जाता है। वे हल की नोक से हस्तिनापुर को उबाड़ देते हैं । कौरव क्षमा मांगकर शाम्ब और लक्ष्मणा को लौटा देते हैं। भारी दहेज के साथ बलराम वापस लौटते हैं। नारद श्रीकृष्ण की Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) दिनचर्या देखने जाते हैं। वे पाते हैं कि योगमाया से श्रीकृष्ण सब जगह मौजूद हैं। जरासंध के द्वारा बन्दी राजाओं का दूत श्रीकृष्ण के पास आता है। वह कृष्ण की सुधर्मा सभा में मिलता है। सभी नारद वहां आ जाते है । यादवों के इस विचार पर कि आक्रमण करके जरासंघ को जीत लिया जाए, उद्धव परामर्श देते हैं कि राजसूय यज्ञ बोर शरणागतों की रक्षा के लिए जरासंध पर विजय प्राप्त करना जरूरी है लेकिन भीम ही उसे द्वन्द्रयुद्ध में हरा सकते हैं । दूसरे वह बड़ा ब्राह्मण-भक्त है। श्रीकृष्ण जरासंध के पास गिरिव्रज दूत भेजते हैं। श्रीकृष्ण द्वारिका से इन्द्रप्रस्थ प्रस्थान करते हैं। राजसूय यज्ञ के अवसर पर भीमसेन, अर्जुन और कृष्ण गिरिव्रज जाते हैं। वे ब्राह्मण के देष में जाते हैं । दैत्यराज जरासंध इस तथ्य को जानते हुए भी उन्हें युद्ध की भीख देता है । वह भीम से द्वन्द्वयुद्ध में मारा जाता है। जरासंघ की मृत्यु के बाद, बंदी राजाओं को मुक्त कर कृष्ण इन्द्रप्रस्थ वापस आ जाते हैं। राजसूय यज्ञ में 'अग्रपूजा' के प्रश्न को लेकर विवाद खड़ा हो जाता है । श्रीकृष्ण इसके लिए सबसे अधिक उपयुक्त समझे जाते हैं । शिशुपाल सहदेव के प्रस्ताव का न केवल विशेष करता है, प्रत्युक्त श्रीकृष्ण को भलाबुरा कहता है । उनके भक्त शिशुपाल पर आक्रमण करना चाहते हैं परन्तु श्रीकृष्ण ही चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं। शिशुपाल के निधन के बाद, युधिष्ठिर अवभृथ स्नान ( यज्ञान्त स्नान ) करते हैं । लोला-वर्णन का मुख्य स्रोत 'रिमिचरिउ' के यादवकाण्ड में यादवों और कृष्ण से सम्बन्धित जिस वृत का वर्णन है, उसका महाभारत में उल्लेख नहीं है । महाभारत में जिस वृत्त का उल्लेख है वह मालोच्य कृति के कुरुकाण्ड और युद्धकाण्ड में आता है। प्रश्न है कि कृष्ण के जन्म से लेकर बाल्यकाल तक की जिन घटनाओं का वर्णन 'रिटुणेनिचरित' में है और जिनका प्रभाव हिन्दी साहित्य की कृष्णभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि 'सूर' के सगुण-लीला गान में देखा जाता है, उनका स्रोत क्या है ? पउमचरिउ' में स्वयंभू स्पष्टरूप से स्वीकार करते हैं कि उन्होंने आचार्य रविषेण के प्रसाद से, परम्परा से आयी हुई रामकथा रूपी नदी में अवगाहन किया। परन्तु ऐसा कोई उल्लेख 'रिट्ठभिचरित' की प्रारम्भिक प्रस्तावना में उपलब्ध नहीं है। आचार्य रविषेण का समय है ६७४ और 'हरिवशपुराण' का ७८३ ई० । पुष्पदन्त ने स्वयंभू का उल्लेख किया है । वह १०वीं सदी में हुए। इससे यह अनुमान सहज ही किया जा सकता है कि स्वयंभू का आवि र्भाव वीं वीं शती में हुआ। लेकिन दो सौ वर्षों की यह लम्बी अवधि, किसी कवि के जीवनवृत्त और रचनाकाल का निश्चित बिंदु निर्धारित करने में कोई अर्थ नहीं रखती। ई० ७७८ में उद्योतनसूरि की 'कुवलयमाला' में यह उल्लेख है "बुहजण सहस्स-दइयं हरिवं सुम्पत्तिकारयं पढमं । बंदामि बंदियं पिहुं हरिवंसं जेव विमलपयं ॥ " आचार्य जिनसेन द्वारा रचित 'हरिवंशपुराण' की भूमिका में, सम्पादक- अनुवादक पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य ने उक्त श्लोक का यह अर्थ किया है— 'मैं हजारों बुधजनों के लिए प्रिय हरिवंशोत्पत्तिकारक प्रथम वन्दनीय और विमलपद की वन्दना करता हूँ ।' यहाँ दलेष से बिमलपद के ( विमलसूरि के चरण, और बिमल हैं पद जिसके Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) ऐसा हरिवंश) को अर्थ घटित होते हैं । मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के सम्पादक स्व. ग. हीरालाल जैन के उक्त अवतरण पर यह टिप्पणी है। उन्होंने (पं० पन्नालालजी ने) 'कुवलयमाला' में विमलकृत हरिबंशपुराण या चरित के उल्लेख का कथन किया है किन्तु उन्होंने उक्त अंश के उस पाठ को सर्वथा मुला दिया है जिसे 'कुवलयमाला' के सम्पादक (डॉ० उपाध्ये) ने अपने संस्करण में स्वीकार किया है। उसमें हरिवंस' की जगह 'हरिवरिस' पाठ होने से कुछ अन्य अर्थ भी निकाला जा सकता है। उन्होंने रविषेणाचार्य कृत 'पद्मपुराण' का प्रस्तुत रचना में, तथा 'महापुराण' में इस रचना का अनुकरण किये जाने का उल्लेख किया है, किन्तु इन महत्वपूर्ण मतों का जितनी सावधानी और गम्भीरता से प्रमाणीकरण वांछनीय था, वह यहाँ नहीं पाया जाता। प्रश्न है। क्या 'कुवलयमाला' के 'विमलपद' में प्राकृत 'पउमचरित' के रचयिता विमलसूरि का उल्लेख है या किसी दूसरे विमलसूरि का ? सथ्य यह है कि जिनसेन के पूर्व लिखित 'हरिवंशपुराण या चरित' अभी तक उपलब्ध नहीं है। अत: इस विषय में कुछ कहना अटकल लगाना मात्र है 1 'पजमचरिउ' के रचयिता विमलसूरि जैन चरित काव्य-परम्परा के आदि कवि हैं फिर भी स्वयंभू ने भाषामों की लम्बी परम्परा में उनका उल्लेख नहीं किया। वह अपने रामकाव्य का सम्बन्ध सीधा रविषेण से जोड़ते हैं। यह भी एक विचारणीय प्रश्न है कि रामकाव्यपरम्परा की तरह 'रिटणेमिचरित' में पूर्ववर्ती कृष्णकाव्य-परम्परा का प्रारम्भ में उल्लेख करना कवि ने क्यों नहीं उचित समझा ? जबकि उद्योतनसुरि का सन्दर्भ और आचार्य जिनसेन का हरिवंशपुराण उनके सम्मुख था। ___ यहाँ यह भी उल्लेख है कि हरिवंशपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन (महापुराण के रचयिता जिनसेन से भिन्न) ने ६६वें सर्ग में भगवान महावीर से लेकर लोहाचार्य तक की आचार्यपरम्परा दी है। फिर वीर-निर्वाण के ६५३वर्ष के बाद की अपनी गुरुपरम्परा का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है-बिनयघर, श्रुतिगुप्त, ऋषिगुप्त, शिवगुप्त, मन्दरार्य, मित्रवीर्य, बलदेव, चलमित्र, सिंहबल, वीरयित्, पद्मसेन, व्याघ्रस्ति, नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, धरसेन, धर्मसेन, सिंहसेन, नदिषेण, ईश्वरसेन, नन्दिषण, अभयसेन, सिद्धसेन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन, पान्तिषेण, अयसेन, अमितसेन, कोतिषेण और जिनसेन (हरिवंश के रचयिता) । लोहाचार्य का अस्तित्व वि० सं० २१३ माना जाता है । इन नामों में विमलसूरि का नाम नहीं है। कुवलयमाला के उक्त श्लोक का एक अर्थ यह भी हो सकता है (मूल पाठ में किसी प्रकार का परिवर्तन किये बिना) "हजारों बुधजनों के प्रिय और वन्दित, हरिवंश के उत्पत्तिकारक को प्रथम वन्दना करता हूं और फिर विमलपद विशाल हरिवंश को।" हरिवंश से यह स्पष्ट नहीं है कि यह वंश का नाम है या अन्य का । जो भी हो, यदि यह पुराण का नाम है तो उसके और उसके रचयिता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । जिनसेन के हरिवंशपुराण का रचनाकाल ७८३ ई है। उद्योतन सूरि ७७८ में हुए । अतः यह निश्चित है कि यदि संदभित श्लोक में 'हरिवंश' पाठ ही है तो जिनसेन आचार्य के पहले एक और हरिवंश लिखा जा चुका था जो अभी तक अनुपलब्ध है । वह उपलब्ध भी हो जाए तो भी वस्तुस्थिति में अन्तर नहीं पड़ता। यह प्रश्न तब भी अनुत्तरित रहता है कि 'हरिवंशपुराण' या रिट्ठमिचरित' में वर्णित कृष्ण की बाल Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीलाओं का मुख्य स्रोत क्या है । बहुत-सी चमत्कारी लीलाएँ श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव करते हैं. श्रीकरण का बेटा प्रद्युम्न करता है, परन्तु जिस तरह की लीलाएं श्रीकृष्ण के बचपन और मौवन से जुड़ी हुई हैं, वे नयी हैं और ऐसी हैं कि जिनकी उपेक्षा करना जन पुराणकारों के लिए सम्भव नहीं था । जराकि कहा जा चुका है, और जैसाकि पाठक देखेंगे कि चाहे स्वयंम हो या पुष्पदन्त, दोनों कृष्ण की बाल देवी-लीलाओं का जो विस्तार से वर्णन करते हैं, दूसरे कारणों के अलावा, इसका एक कारण लोकरुचि भी रहा होगा । चूंकि जिनसेनाचार्य के 'हरिवंशपुराण' और महाकवि स्वयंभू के रिडणेमिचरित' में वर्णित उक्त लीलामों और दूसरी बातों में कतिपय असमानताशों के बावजुद काफी कुछ समानताएँ है, अत: तुलनात्मक अध्ययन के लिए 'हरिवंगपुराण' के घटनाक्रम का संक्षिप्त विवरण यहाँ देना उचित होगा । हरिवंश की उत्पत्ति का विवरण देते हुए हरिवंश-पुराण के रचयिता उसका सम्बन्ध कौशाम्बी के राजा मुमुख और वनमाला से जोड़ते हैं। इसका उल्लेख पिछले पृष्ठों में किया जा चुका है। जहाँ तक प्रारम्भ से लेकर समुद्रविजय द्वारा राज्य की बागडोर सम्हालने तक का सम्बन्ध है यह घटनाक्रम दोनों में बहुत कुछ समान है। यादव-काण्ड के तीन नाथक 'रिष्णेमिचरित' के यादव कापड में तीन लीलानायक हैं- वसुदेव, श्रीकृष्ण और प्रद्युम्न । शम्बुकूमार प्रद्युम्न के बाद आता है, वैसे वह भी कम करामाती और शौर्य सम्पन्न नहीं है, परन्तु कषियों ने बिस्तार-भय से उसके ब्यक्तित्व को अधिक नहीं उभारा । ये तीनों पदुवंशी है। उन्हें लीलाविलाम पूर्वभव के पुण्य के प्रभाव से मिला या यह आदिपुरुष 'हरि' के रक्त का प्रभाव था, मह शोध का विषय है। वसुदेव और प्रद्युम्न की लीलाओं के वर्णनक्रम में रिदणेमिचरिउ' क लीला वर्णन क्रम से थोड़ी भिन्नता है, जिसकी चर्चा अन्यत्र प्रसंग आने पर की जाएगी। बहरहाल श्रीकृष्ण के बाल्यकाल की लीलाओं से लेकर कंसवध का (कंस भी यवंशी था) जो रूप 'हरिवंशपुराण' में मिलता है, वह यहां दिया जाता है। जिनसेन लिखते हैं जैसे-जैसे धवकी का गर्भ बढ़ रहा था वैसे-वैसे कंस उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, परन्तु फष्ण सातवे ही माह में उत्पन्न हो गये, इसलिए कंस को इसका पता नहीं चल सका। उनके जन्म पराभ चिहप्रकट हुए धनघोर वर्षा के कारण वसदेव ने छत्र तान लिया और बलराम ने बालक को उठा लिया। रात में वे घर से निकले, गोपुर के द्वार चालक के पैरों के स्पर्श से खुल गये। वे प्युपचाप नगर के बाहर आ गये। बालक की नाक में पानी की बूंद चली गयी और यह जोर से छींका, उसका स्वर गम्भीर था । गोपुर के ऊपर उग्रसेन रहते थे। उन्होंने असीस वी, "तू निविघ्न रूप से चिरकाल तक जीवित रह ।" बलदेव और वसुदेव ने उग्रसेन से यह रहस्य किसी को न बताने का अनुरोध किया। नगर के बाहर एक बैल अपने सींग के प्रकाश में उन्हें ले गया। श्रीकृष्ण के प्रभाव से पमना का असण्ड प्रभाव स्वहित हो गया। वे नदी पारकर वृन्दावन पहुँचे । अत्यन्त विश्वसनीय सुनंद गोप और यशोदा की पुत्री से बदलकर वे वापस आ गये । प्रसव की खबर लगने पर कंस देवकी के कमरे में गया, यह सोचकर कि कहीं इसका पति मरी मृत्यु का कारण न बन जाए, उसने नवजात कन्या की नाक चपटी कर दी। उधर वृन्दावन में बालक का नाम कृष्ण रखा गया। यह अत्यन्त सुन्दर श्रेष्ठ चिह्नों तथा रेखाओं से युक्त थे। इस बीच कंस का भला चाहने वाला वरुण ज्योतिषी उससे कहता है कि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारा शत्र बढ़ रहा है उसकी खोज की जानी चाहिए । कंस ने दिन का उपवास किया, जिसमें पूर्वजन्म में सिद्ध देवियां उसकी सहायता के लिए आयीं। एक देवी उम्र मयंकर पक्षी बनकर गयो, बालक ने उसकी चोंच तोड़ दी। दूसरी प्रपूतना भूतनी का रूप बनाकर पहुंची और स्तन से विषपान कराने लगी। बालक के काटने से वह चिल्लाती हुई भाग गयी । बालक कभी सोता है, कभी बैठता है, कभी छाती के बल रेंगता है। कभी दौड़ता है, कभी मधुर अलाप करता है, कभी मक्खन खाता है, इस प्रकार दिन-रात व्यतीत करता है। तीसरी देवी शकट का रूप धारण कर आती है । बालक लात मारकर उसे नष्ट कर देता है। यशोदा कृष्ण का पैर उलखल से बांध देती है। दो देवियाँ यमल और अर्जुन वृक्ष का रूप पारण करके आती हैं, कृष्ण उन्हें गिरा देते हैं। छठी देवी बैल के रूप में आती है, कृष्ण उसे परास्त करते हैं। सातवीं देवी तीन वर्षा बनकर आती है, कृष्ण गोवर्धन उठाकर उसे रोकते हैं। देवकी को इन घटनाओं का पता चलता है तो वह बलराम के साथ चुपचाप कृष्ण को देखने के लिए उपवास के बहाने गोकुल जाती हैं और देखती हैं कि श्रीकृष्ण बनखण्ड में मुरली बजा रहे हैं, गोप गा रहे हैं, गायें चर रही हैं। वह प्रसन्न होती है। नन्दगोप यशोदा के साथ, उनका स्वागत करते हैं । पुत्र को देखकर देवकी के स्तन पनहा उटते हैं । भेद खुलने के भय से, बलराम दूध के बड़े से मां का अभिषेक कर देते हैं । देवकी मथुरा वापस आती है । बलदेव श्रीकृष्ण को चुपचाप विद्याओं में पारंगत करते हैं । यह बालक्रीड़ाओं के साथ प्रस्फुटित स्तनोंबाली गोपियों को रासलीला कराते हैं, और स्वयं निविकार रहते हैं। जिनसेनाचार्य का कहना है कि जिस तरह संयोग में अतिशय अनुराग होता है उसी तरह वियोग में विरह-वेदना बढ़ जाती है। कंस कृष्ण को लोकोत्तर लीलाओं से बहुत चितिस है। वह उन्हें खोजने गोकुल आता है । आत्मीयजन बालक को बाहर भेज देते हैं। रास्ते में जब वह लकड़ी के बड़े-बड़े खम्भे उठाते हैं तो मां यशोदा को पूरी तरह से विश्वास हो जाता है कि उसका बेटा अद्भुत शक्तिशाली है। उन्हें गोफूल वापस बुला लिया जाता है । कंस की घोषणा के अनुसार, करुण नागशय्या पर चढ़ते हैं, धनुष को होर सहित कर उसके दो टुकड़े करते हैं और शंख फूंक देते हैं। बल राम कंस की चालाकी ताड़ लेते हैं और कृष्ण को गोकुल भेज देते हैं। कंस के आदेश पर यमुना-सरोवर में कालिय सर्प का दमन करते हैं और कमल तोड़कर लाते हैं। कंस चिन्ता से व्याकुल हो उठता है । वह मथुरा में पहलवान इकट्ठे करता है । वसुदेव अपने पुत्र अनावृष्टि से परामर्श फर अपने बड़े भाइयों को फौजफाटे के साथ मथुरा बुला लेते हैं। कंस को यह बताया जाता है कि वे अपने भाई को देखने मथुरा आये हैं । एक दिन बलराम यशोदा को झूठमूठ खूब डांटते हैं। यह रो पड़ती है। श्रीकृष्ण को यह अच्छा नहीं लगता। वह बलराम से यशोदा के प्रति इस अकारण अविनय का कारण पूछते हैं। बस राम जीबंजसा (जीवद्यशा) के कटुवचन से लेकर अब तक की समूची घटनाएं सुनाते हैं और बताते हैं कि कंस द्वारा मल्लयुद्ध का आयोजन उसी षड्यन्त्र का एक अंग है । यह सुनकर कृष्ण आगबबूला हो उठते हैं । वस्तुत: बलराम यही चाहते थे। वे मथुरा के लिए कूच करते हैं। रास्ते में तीन असुर ऋमशः नाग, गधा और घोड़े का रूप बनाकर कृष्ण को डराते हैं परन्तु बह उनको मार भगाते हैं। चम्पक और पादामर हाथी भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाते। बलराम और कृष्ण का चनसे मल्लयुद्ध होता है। उसमें कृष्ण कंस के दोनों प्रमुख महलों का Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम-तमामकर, तलवार लेकर आक्रमण करते हुए कंस को पटककर मार डालते हैं। श्रीकृष्ण हंस पड़ते हैं। वह अनावृष्टि के साथ वसुदेव के पास जाते हैं। उग्रसेन-पपावती को बन्धनमुक्त करते हैं। इधर जीवद्याशा अपने पिता जरासंध के पास पहुंचती हैं। __कृष्ण के पास राजा सुकेतु का आता है और सबमार से विवाह करने का निवेदन करता है । कृष्ण निवेदन स्वीकार कर लेते हैं । बलराम सत्यकेतु के भाई रतिमाल की कन्या रेवती का पाणिग्रहण करते हैं। इपर जीवद्याशा से पूरी बात सुनकर जरासंध यम के समान भयंकर अपने पुत्र कालयवन को भेजता है। शत्रुओं से सत्रह बार युद्धकर वह अतुल मालावत पर्वत पर वीर- गति को प्राप्त होता है। पश्चात् जरासंघ का भाई अपराजित जाता है। तीन सौ छयालीस बार युद्ध कर वह भी अन्त में श्रीकृष्ण के बाण का लक्ष्य बनता है। शौर्यपुर में, तीर्थकर नेमिनाथ के गर्भ में आने के पहले ही समुद्रविजय के घर पन्द्रह माह तक रत्नों की वर्षा होती है। शिवादेवी स्वप्न देखती है । इन्द्र के आदेश पर कुबेर माता-पिता का अभिषेक करसे हैं । नेमि जन्म लेते हैं । सुमेर पर्वत पर उनका अभिषेक होता है । कुबेर शौर्यपुर की शोभा बढ़ाता है । इन्द्र जिनेन्द्र की स्तुति करता है। शौर्यपुर में शिशु मेमि बढ़ने लगते हैं। घह जब कुछ बड़े होते हैं तो इन्द्र 'महानन्द' नाटक का अभिनय करता है जिसमें ताण्डव नृत्य सम्मिलित है। ___ अपराजित की मृत्यु सुनकर जरा संघ संतप्त हो उठता है। वह मित्र-राजाओं को युद्ध में पहुंचने का निमन्त्रण देकर कूच करता है । वृरिण और भोजकवंश के लोग विचार विमर्श कर शौयपुर से बाहर निकलते हैं, पश्चिम दिशा में कहीं आथप की खोज में । उन्हें विध्याचल मिलता है। जरासंध पीछा करता है 1 भाग्य के नियोग से अर्घभरत क्षेत्र में निवास करने वाली देवियां अपनी विक्रिया से बहुत-सी चिताएँ रचकर यादवों को उनमें जलता हुआ दिखाती हैं। एक बुढ़िया से यह जानकर कि यादव आग में जल मरे, वह लौट जाता है। दशाई, महाभोज, वृष्णि और कृष्ण समुद्रतट पर पहुंचते हैं, उसमें प्रवेश करना सम्भव नहीं देखकर कृष्ण और बलराम तीन दिन का उपवास करते हैं। इन्द्र के आदेश से समृद्र हट जाता है। कुबेर द्वारिका नगरी की रचना करता है। बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी। सब लोग वहाँ रहने लगते हैं । नेमिकुमार का भी बचपन वहाँ बीतने लगता है। नारय मुनि, कृष्ण की अनुशा से उनके अन्तःपुर में प्रवेश करते हैं। सत्यभामा दर्यण में मुंह देखने के कारण, उन्हें नहीं देख पाती है। नारद इसे अपनी अवज्ञा समझते हैं। मन में गोठ बांधकर, बह राजा भीष्म के रनिवास में जाते हैं। उनकी दृष्टि विदर्भराजकमारी रुत्रिमणी पर पड़ती है। वह उसके हृदय-पटल पर कृष्ण का सौन्दर्य चित्रांकित कर देते हैं और उसका चित्रपट बनाकर द्वारिका में कृष्ण को दिखाते हैं। इधर रुक्मिणी की बुआ उसे मुनि अति मुबतक के भविष्य कथन की याद दिलाती है जिसके अनुसार उसे श्रीकृष्ण की पट्ट रानी होना है । रुक्मि अपनी बहिन का विवाह शिशुपाल से करना चाहता है। बुझा रुक्मिणी का अभिप्रायः जानकर श्रीकृष्ण को लेखपत्र पहुँचाती है जिसमें उल्लेख है कि रुक्मिणी नागदेव की पूजा के दिन बाहर उद्यान में मिलेगी । श्रीकृष्ण वहां पहुंचकर उसका अपहरण करते हैं। वह अपने हाथों उसे रथ पर बैठाते हैं । शिशुपाल और श्रीकृष्ण में जबर्दस्त भिड़त होती है । पहले तो रुक्मिणी को विश्वास नहीं होता कि श्रीकृष्ण और बलराम रुनिम की भारी सेना से निपट Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) केगे । बाद में उसे विश्वास हो जाता है और वह उनसे अपने भाई के प्राणों की भीस मांगती है। युद्ध जीतकर श्रीकृष्ण रुक्मिणी के साथ द्वारिका आते हैं। एक दिन कृष्ण रुक्मिणी के द्वारा उगला हुआ पान वस्त्र के छोर में बांधकर सस्पभामा के पास जाते हैं। वह उसे सुगन्धित द्रव्य समझकर, पीसकर अपने शरीर पर मल लेती है। कृष्ण उसकी खूब हंसी उड़ाते हैं। सस्पभामा रुक्मिणी को देखने का आग्रह करती है। बह रुक्मिणी को मणिमय बावड़ी के किनारे खड़ाकर, सत्यभामा के पास माते हैं। और बोलते हैं, "तुम उद्यान में चलो, मैं रुक्मिणी को लेकर आता हूँ।" सत्यभामा आगे जाती है और कृष्ण पीछे-पीछे जाकर झाड़ी की ओट में छिपकर खड़े हो जाते हैं। पत्रिमणी आम्र की शाखा के सहारे पंजों के बल खड़ी हुई है, आंखें फलों पर हैं। सत्यभामा उसे देवी समझती है और अंजली से फूल बखेर देती है। वह अपने सौभाग्य की भीख मांगती है और सौत के लिए दुर्भाग्य । इतने में कृष्ण आ जाते हैं । रुक्मिणी सत्यभामा को प्रणाम करती है। दोनों में सुलह हो जाती है । हस्तिनापुर से दुर्योधन कृष्ण को खबर भेजता है जिसमें यह उल्लेख है—यदि मेरे कन्या हुई, तो दोनों रानियों-सत्यमामा और रुक्मिणी में से जिसके पुत्र होगा, वह उसका पति होगा। यह समाचार पाकर, रुक्मिणी और सत्यभामा में यह तय हो जाता है कि जिसके पुत्र न होगा उसकी कटी हुई केशलता को विवाह के समय परों के नीचे रखकर बरवधू स्नान करेगे । दोनों के एक साथ युन हुए परन्तु रुक्मिणी के पत्रजन्म की सूचना पहले मिलने पर वह बड़ा घोषित किया जाता है। धूमकेतु नामक असुर साक्मणीपुत्र प्रद्युम्न को उठाकर ले जाता हैं, और खदिरवन में तक्षशिला के नीचे उसे रखवार चला जाता है । मेचकूट नगर का राजा कालसंबर अपनी पत्नी फनकमाला के साथ उसे अपने घर ले जाता है। कनकमाला बालक को इस शर्त पर स्वीकार करती है कि उसे युवराज बनाया जाएगा। जागने पर पुत्र को न पाकर रुक्मिणी खूब विलाप करती है। श्रीकृष्ण उसे खोजने का आश्वासन देते हैं। वह जैसे ही शिशु को खोजने का प्रयत्न करते हैं वैसे ही नारद आ जाते हैं, और उन्हें पत्र मिलने की आशा बंधाते हैं । नारद रुक्मिणी को खुद ढाढस बंधाते हैं। वह यहाँ से सीमधर स्वामी के पास (पुष्कलावती देश के पुण्डरी किणी देश में) जाते हैं। चक्रवर्ती पद्मरथ के पूछने पर, सीमंधर स्वामी प्रद्युम्न के पूर्वभवों का वर्णन करते हैं जो मधु और कंटम के पयार्यों तक चलती है । मधु का जीव पक्मिणी की कोख से प्रद्युम्न के रूप में जन्मता है जब कि कैटभ का जीव जाम्बवती की कोख से शम्ब के नाम से जन्म लेगा। यह वृतान्त जानकर नारद मेघकूट नगर जाते हैं । वहाँ से द्वारिका जाते हैं और रुक्मिणी को शुभ सूचना देते हैं कि प्रद्युम्न प्रज्ञप्ति विद्या प्राप्त कर सोलहवें वर्ष में अवश्य आएगा। एक समय. नारद कृष्ण की सभा में आते हैं, और जाम्बवती के बारे में कहते हैं । कृष्ण जाम्ब विद्याधर की कन्या जाम्बवती से विवाह करते हैं। जाम्बवती का भाई विश्वक्सेन भी उनके साथ आता है । इसके बाद श्रीकृष्ण और भी अनेक कन्याओं से विवाह करते हैं। उनमें से कुछेक के नाम इस प्रकार हैं १. श्लक्षगरोम की कन्या लक्मणा. २. राष्ट्रबधन की कन्या सुसीमा, ३. मेक की कन्या गौरी, ४. हिरण्यनाभ की कन्या पद्यावती, और ५. इन्द्रगिरि की कन्या गान्धारी। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) इस प्रकार सत्यभामा, रुक्मिणी और जाम्बवती को मिलाकर उनकी कुल आठ पट्टरानियाँ होती हैं 1 रिट्टणेमिचरित और हरिबंशपुराण fighter के यादवकाण्ड की कुछ घटनाएं और कथाएं 'हरिवंशपुराण' में नहीं हैं । ऐसा होना सहज है । 'हरिवंशपुराण' पुराण है, और पुराण विस्तार चाहता है। इस कारण अन्तर होना स्वाभाविक है। 'हरिवंदापुराण के अनुसार नेमिनाथ का जन्म शौर्यपुर में होता है जबकि रिभिवरिज के अनुसार उनका जन्म द्वारिका में होता है । यह अन्तर तथ्यात्मक अन्तर है, जो विस्तार से विचार की अपेक्षा रखता है। स्व० डॉ० हीरालाल जैन तथा स्व० डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये (ज्ञानपीठ मुर्तिदेवी ग्रन्थमाला के प्रधान सम्पादक य) ने 'हरिवंशपुराण' ( डॉ० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित ) की भूमिका में लिखा है- "पुराण विषयक जैन ग्रन्थों की संख्या संकड़ों में है और वे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा तमिल, कन्नड़ आदि सभी भारतीय भाषाओं में मिलते हैं। इन विविध रचनाओं में वर्णनभेद पाया जाता है जिसका परस्पर तथा वैदिक पुराणों के साथ तुलनात्मक अध्ययन अनुसंधान एक रोचक और महत्त्वपूर्ण विषय है। जैन 'हरिवंशपुराण' में उक्त प्रकार से विषय प्रतिपादन के साथ-साथ हरिवंश की एक शाखा यादवकुल और उसमें उत्पन्न हुए दो शलाकापुरुषों का चरित्र विशेष रूप से वर्णित हुआ है। एक बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ और दूसरे नवे नारायण श्रीकृष्ण । ये दोनों चचेरे भाई थे। इनमें से एक ने अपने विवाह के समय निमित पाकर संन्यास ले लिया और दूसरे ने कौरव - पाण्डव युद्ध में अपना बल कौशल दिखलाया। एक ने आध्यात्मिक उत्कर्ष का आदर्श प्रस्तुत किया, दूसरे ने भौतिक लीला का एक ने निवृत्तिपरायणता का मार्गे प्रदास्त किया, दूसरे ने प्रवृत्ति का महाभारत का कथानक सम्मिलित पाया जाता है। इस विषय की संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश की प्राचीन रचनाएँ बहुसंख्यक हैं। 'हरिवंशपुराण' के नाम से संस्कृत में धर्मकीति श्रुतकीर्ति, सकलकीर्ति जयसागर जिनदास व मंगरस कृत काव्यग्रन्थ हैं । इसी प्रसंग से 'हरिवंशपुराण' में 'पाण्डवपुराण' नाम से श्रीभूषण, शुभचन्द्र वादिचन्द्र जयानन्द, विजयगणि, देवविजय, देवप्रभ, देवभद्र और शुभवर्धन कृत काव्यग्रन्थ हैं । निर्धारित के नाम से सूराचार्य, उदयप्रभ, कीर्तिराज, गुणविजय, हेमचन्द्र, भोजसागर, तिलकाचार्य, विक्रम नरसिंह, हरिषेण नेमिदत्त आदि कृत रचनाएं ज्ञात हैं। प्राकृत में रत्नप्रभ, गुणवल्लभ और गुणसागर द्वारा रचित रचनाएँ हैं । तथा अपभ्रंश में स्वयंभू, धवल, मश: कीर्ति, श्रुतकीर्ति, हरिभद्र, रयधू द्वारा रचित पुराण व काव्य ज्ञात हो चुके हैं। इन स्वतन्त्र रचनाओं के अतिरिक्त जिनसेन, गुणभद्र व हेमचन्द्र तथा पुष्पदंत कृत संस्कृत एवं अपभ्रंश महापुराणों में भी यह कथानक वर्णित है एवं उसकी स्वतन्त्र प्राचीन प्रतिमां भी पाई जाती हैं। हरिवंशपुराण, अरिष्टनेमि या नेमिचरित पाण्डवपुराण व पाण्डवचरित आदि नामों से न जाने कितनी संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश रचनाएँ अभी भी अज्ञात रूप से भण्डारों में Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ी होनी सम्भव है। प्राचीन हिन्दी और कन्नड़ में रचित ग्रन्थ भी अनेक हैं। अत: प्रस्तुत ग्रन्थ (हरिवंशपुराण) के सम्पादक ने अपनी प्रस्तावना के पृष्ठ दो पर, प्रस्तुत रचना के अतिरिक्त एक संस्कृत और एक अपभ्रंश रचनामात्र का जो उल्लेख किया है उससे इस विषय पर जैन साहित्य-रचना के सम्बन्ध में भ्रम नहीं होना चाहिए।" उक्त विद्वानों ने 1962 में जैन पुराण-साहित्य के सम्पादन, प्रकाशन और तुलनात्मक अध्ययन की जो आवश्यकता प्रतिपादित की थी, उसमें अभी तक विशेष प्रगति परिलक्षित नहीं हुई है । कोई भी पुराण साहित्य हो वह भारतीय जीवन और संस्कृति का सन्दर्भ ग्रन्थ है, क्योंकि उसमें समा जीवन का प्रतिदिन अंकित होता है, पुरानता के बावजूद उसमें समकालीनता का बोध होता है । यह सच है कि सारा पुराणसाहित्य मौलिक, प्रामाणिक और जीवनबोध से भरपूर नहीं है, फिर भी ऐतिहासिक स्रोत का पता लगाने के लिए चुनी हुई पुराण-कृतियों का, सघन वस्तुनिष्ठ विश्लेषण के साथ, सम्पादन-प्रकाशन पहली और महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। संस्कृत, प्राकृत अथवा अपभ्रंश किसी सम्प्रदाय या प्रदेश की भाषाएं न होकर, एक ही राष्ट्रीय अभिध्यक्ति की माध्यम रही हैं। उन भाषाओं में लिखित पुराण साहित्य का जितना सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व है, उससे कहीं अधिक उसका भाषिक महत्व है और जब तक हरिवंश पुराण' से सम्बन्धित प्राचीन स्रोतों और साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं का ऐतिहासिक अनुक्रम में अध्ययन नहीं होता. तब तक तथ्य सम्बन्धी मतभेदों का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण सम्भव नहीं है । हमके लिए जरूरी है कि आचार्य जिनसेन और गुणभद्र, और स्वयंभू के पूर्ववर्ती हरिवंश साहित्य की खोजकर उसे प्रकाश में लाया जाए। उक्त सामग्री के अभाव में यह कहमा कठिन है कि जिनसेन के हरिवंदापुराण का प्रभाव 'रिट्ठणेमिचरिउ' पर कितना है, या है हो नहीं; या 'रिट्ठणेमिचरिउ' की कथावस्तु, रचना-प्रेरणा और संदर्भ का उपजीव्य क्या है। रिठणेमिवरित : यादवकाण्ड परिदुमिचरिध' (अरिष्टनेमिचरित) का दूसरा नाम 'हरिवंशपुराण' है। अरिष्टनेमि जनों के बाईसवें तीर्थकर है. उनका सम्बन्ध हरिवंस से है। जन्म से लेकर मोक्ष-प्राप्ति तक उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं और कार्यों की सही जानकारी के लिए हरिवंश की उत्पत्ति, उसकी प्रमुख शाखाओं और पात्रों के प्रमुख जीवन-कायों का उल्लेख जरूरी है। यही कारण है कि ' रिणेमि चरिउ' का प्रारम्भ यादरकाण्ड से होता है, जिसको संक्षिप्त कथा इस प्रकार है परम्परागत मंगलाचरण, आस्मविनय और हरिवंश के महत्त्व का कथन कर चुकने के बाद, कवि सबके आशीर्वाद से कथा प्रारम्भ करता है । मगधराज श्रेणिक अन्तिम तीर्थंकर महाबीर स्वामी से पूछता है, जिनमत में हरिवंश किस प्रकार है ? दूसरों के मस में यह कथा उल्टी है ।" राजा श्रेणिक के मन में भ्रान्ति है जिसे वह दूर करना चाहता है । ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो हमारे पास यह जानने का कोई प्रमाण नहीं है कि वस्तुत: भगवान महावीर के समय जैन मत और दूसरे मत में हरिवंश की कथा का स्वरूप क्या था । राजा श्रेणिक दूसरे मत की जिस हरिवंश-कया की आलोचना करता है वह वस्तुत: व्यास द्वारा रचित 'महाभारत' की कथा है जो भगवान महावीर के समय लोगों को ज्ञात थी या नहीं यह कहना कठिन है Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर भी जब राजा श्रेणिक कहता है कि दूसरे मत में हरिवंशकया उल्टी-उल्टी सुनी जाती है, जैसे नारायण नर की सेवा करते हैं, बलराम लेती करते हैं, घोड़ों का संवरण करते हैं। धृतराष्ट्र और पाण्डु का जन्म नियोग से हुआ, द्रौपदी के पाँच पसि बताये जाते हैं। इस प्रकार असत्य कथन किया जाता है । भीष्मपितामह के बारे में श्रेणिक को शंका है कि यदि उन्हें इच्छा-मरण का वर प्राप्त था तो उन्होंने कालगति क्यों की? द्रोणाचार्य धनुर्विद्या में अजेय थे तो उनकी मृत्यु क्यों हुई? कर्ण यदि कान से जन्म लेता तो उसे जन्म देने वाली कुन्ती क्यों नहीं मर जाती? क्या मनुष्य घड़े से उत्पन्न होता है ? फिर कुरुकुलगुरु अगस्त घड़े से कैसे पैदा हुए ? भाई आपस में कितने ही लड़ें, वे एक-दूसरे का खून नहीं पी सकते । यस्तुत: ये शंकाएं स्वयं के समय की हैं, जिनका समाधान खोजने के लिए अन्य अन पुराणकारों की तरह कवि ने भी रिटठणेमिचरित' की रचना की । गौतम गणधर, राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में, जो कुछ कहते हैं उसका सार इस प्रकार है... हरिवंश में दो प्रमुख पुरुष हुए शूर और सुवीर' जो क्रमशः शौरीपुर और मथुरा के राजा थे। पर से अंधकवृष्णि जनमे और सुधीर से नरपति वृष्णि । अंधकवृष्णि का विवाह पाराशर की पुत्री और व्यास की बहिन सुभद्रा से हुआ जिससे उसे दस पुत्र उत्पन्न हुए.-१. समुद्रविजय, २. अक्षोभ्य, ३. प्रजापति स्तिमितसागर, ४, हिमगिरि (हिममान), ५. अचल ६. विजय, ७. धारण, ८. पूरण, ६. अभिचंद और १०. वसुदेव। ये दस चर्मों के समान थे और 'दशाह' (दस योग्य) के नाम से प्रसिद्ध थे। इनके अतिरिक्त दो कन्याएँ थीं-कुन्ती और मद्री। मथुरा के राजा नरपतिवृष्णि को पत्नी पद्मावती से तीन पुत्र (जग्रसेन, महासेन और देवसेन) तथा एक कन्या (गांधारी) थी। इसी समय मागधमण्डल में राजा जरासंध अत्यन्त समझ और शक्तिशाली हो उठा था । उसके पिता का नाम वृहद रथ था जो राजगृह नगर का स्वामी था। वृहद रथ, राजा वसु के पुत्र सुबसु की परम्परा में हुआ। जिसने नागपुर में राजधानी की स्थापना की। जरासंघ की पट्टरानी कालिन्दीसेना थी। जरासंघ के अपराजित आदिकई भाई थे। उसका प्रभाव दूर-दूर तक था। एक दिन शौर्यपुर के गन्धमादन पर्वत पर सुप्रतिष्ठ मुनि प्रतिमायोग में ध्यान - लीन थे । १. जैन परम्परा के अनुसार पहला वंश इक्ष्वाकुवंदा था। उससे सूर्यवश और चन्द्रवंश उत्पन्न हुए। इसी समय कुरुवंश और उग्रवंश तथा अन्य दूसरे वंदा उत्पन्न हुए। तीर्थकर शीतलनाथ के समय हरिवंश की उत्पत्ति हुई । जम्बूद्वीप के वत्सदेश की कौशाम्बी नगरी का राजा सुमुख था। वह वीरक सेठ की सुन्दर पत्नी वनमाला का अपहरण कर लेता है। विरह से व्याकुल सेठ दीक्षा ग्रहण कर तप करता है और मरकर प्रथम स्वर्ग में देव होता है। राजा सुमुख-दम्पती भी बाद में जैन धर्म धारण कर, दूसरे जन्म में विजयाच पर्वत पर. 'आर्य और मनोरमा नामक दम्पप्ती होते हैं। पूर्वभव के बैर के कारण देव (सेठ का जीव विद्याओं को भेदकर उन्हें चम्पापुर में छोड़ देता है। आर्य अपनी पत्नी के साथ वहीं का राजा बन जाता है। उसका पुत्र 'हरि' हुआ। इसी राजा की परम्परा में कुशाग्रपुर (राजगृह) में राजा सुमित्र हुआ। उसकी पत्नी का नाम पद्मामती था। इन्हीं से मुनिसुदत (बीसवें) तीर्थंकर का जन्म हुआ। मुनिसुव्रत तीर्यकर का पुत्र सुन्नत था । उसका पुत्र दक्ष । जसके इला नाम की पत्नी से ऐलेय नामक पत्र और मनोहारी कन्या थी। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) पूर्वबंर के कारण सुदर्शन नामक यक्ष मुनि पर उपसर्ग करता है। उपद्रव शान्त होने पर मुनि धर्मोदेश देते हैं। उनसे अपने पूर्व एव सुनकर अंधकवृष्णि और नरपतिवृष्णि जिनदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। समुद्रविजय शरिर की बागडोर संभाल लेते हैं और उग्रसेन मथुरा की। अंधकवृष्णि के सबसे छोटे पुत्र वसुदेव के सौन्दर्य की नगर की स्त्रियों पर व्यापक प्रतिक्रिया होती है। नागरिकों की विपत पर जानकी ने घर में ही खेलने के लिए कहते हैं। वसुदेव भाई की बात मान लेते हैं। लेकिन उबटन ले जाती हुई घाय से सही बात जानकर वह अपने एक अनुचर के साथ घोड़े पर बैठकर चुपचाप घर से निकल जाते हैं । यहाँ से वसुदेव की रोमांचक और साहसी यात्राएँ शुरू होती हैं। मरघट में पहुँचकर वह सहचर को दूर खड़ा करते हैं तथा सारे आभूषण चिंता में डालकर घोड़े की पीठ पर पत्र बाँधकर चले जाते हैं। सहचर घर जाकर इसकी सूचना देता है। घर के लोग आकर पत्र और गहनों को देखकर निश्चय कर लेते हैं कि सचमुच वसुदेव की मृत्यु हो गयी । नेक लीलाओं और यात्राओं में सफलता सने के बाद, जिस समय वसुदेव अरिष्टनगर में रोहिणी के स्वयंवर में भाग लेते हैं, उस समय उसके साथ कई सुन्दर युवतियाँ थीं और वह सात सौ नाल पूरे कर चुका था। रोहिणी पटह-वादक के रूप में उपस्थित वसुदेव के गले में वरमाला डाल देती है ? यह देखकर कुलीनता का दावा करनेवाला सामन्तवर्ग भड़क उठता है। समुद्रविजय और वसुदेव की नाटकीय ढंग से भेंट होती है। इस प्रसंग भिड़ंत होती है । अन्त में वसुदेव का रोहिणी से विवाह हो जाता है । घमासान लड़ाई के बाद, में उसकी जरासंघ से भी वसुदेव शौर्यपुर में धूमधाम से प्रवेश करते हैं। कालान्तर में रोहिणी से बलराम का जन्म होता है । वसुदेव धनुर्वेद विद्या के आचार्य भी हैं। कंस उनकी शिष्यता ग्रहण करता है । गुरु-शिष्य में खूब पटती है। इस बीच मगधनरेश जरासंघ घोषणा करता है कि जो सिंहरथ को बाँधकर लाएगा, उसे मनचाहा राज्य और कन्या दी जाएगी। गुरु-शिष्य जाकर सिंहरथ को बंधकर ले आते हैं । सुदेव जरासंध से कहते हैं कि कंस ने सिंहरथ को पकड़ा है अतः कन्या उसे दी जाए। यह विश्वास हो जाने पर कि कंस कुलीन है, जरासंध उसे अपनी कन्या जीवंजसा के साथ मथुरा देश दे देता है। मथुरा का राज्य मिलते ही कंस अपने माता-पिता उग्रसेन और पद्मावती को बन्दी बना लेता है । पश्चात् वह शौर्मपुर से गुरु वसुदेव को बुलाकर अपनी चचेरी बहन देवकी का विवाह उनसे कर देता है। वे दोनों मथुरा में ही रहने लगते हैं। एक दिन जीवजसा देवकी का रमण वस्त्र मुनि यतिमुक्तक को दिखाती है। मुनि कुपित होकर कहते हैं- तुम्हारे पिता (भगधराज ) की मृत्यु इसके पास है। जीवंजसा डर जाती है । वह सारा वृतान्त अपने पति कंस को सुनाती है । वह वसुदेव से यह प्रतिज्ञा करा लेता है कि 'देवकी के गर्भ से जो भी पुत्र होगा, उसे मैं चट्टान पर पछाड़ेगा ।' उन्हें 'ह' कहने के सिवाय दूसरा कोई चारा नहीं रहता । जैन मुनि अतिमुक्त वसुदेव-दम्पती को अश्वस्त करते हैं कि उनके पहले छह पुत्र चरमदारीरी हैं, उनका पालन अन्यत्र होगा। सात पुत्र नारायण के हाथों दोनों (कंस और जरासंघ ) की मृत्यु होगी । दोनों निश्चिन्त हो जाते हैं। वसुदेव-दम्पती के एक-एक कर छह पुत्र उत्पन्न होते हैं, जिन्हें कंस के हवाले कर दिया जाता है। ये नैगमदेव के द्वारा बचा लिये जाते हैं । अनन्तर देवकी की यशोदा से भेंट होती है। दोनों गर्भवती हैं। यशोदा प्रस्ताव करती है कि वह देवकी के बच्चे का पालन करेगी और उसके बच्चे का देवकी । देवकी इसे स्वीकार Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर लेती है। कृष्ण का जन्म होता है। वसुदेव उसे उड़ाते हैं और तभी बलराम छत्र धारण करते हैं । वे उसे नन्द-यशोदा को सौंपकर उनकी कन्या लेकर आ जाते हैं। बालक धीरे-धीरे बढ़ने लगता है। इसकी गोकुल में अच्छी प्रतिक्रिया होती है और मथा में बरी। कंस के मन में आशंका हो उठती है। कंस के पास पूर्व जन्म में सिद्ध हुई देवियां आती हैं । वह उन्हें आज्ञा देता है कि नन्द के घर जाकर शिशु कुष्ण को मार डालें। आदेश के अनुसार, देवियाँ वहाँ पहेमली हैं लेकिन पराजिल होकर लौट आती हैं।। एक दिन देवकी और बलराम कृष्ण को देखने के लिए गोकूल जाते हैं। देवकी बालक को देखकर प्रसन्न हो उठती है । वह गोपियों की उन बातों को सुनती है, जो वे शिशु कृष्ण से कहती हैं । दुग्धकलश से अभिषेक कर वे दोनों सौट जाते हैं। कंस कृष्ण को मारने के लिए तरह-तरह के षड्यन्त्र रचता है परन्तु हर बार वह असफल रहता है । कंस के बुलावे पर बलराम और कृष्ण मथुरा पहुँचते हैं। वहीं युद्ध में श्रीकृष्ण केस को पछाड़ देते हैं । उग्रसेन की धरती उन्हें हो सौप दी जाती है । बलराम का रेवती, और श्रीकृष्ण का सत्यभामा से विवाह सम्पन्न होता है। नन्द और वशोदा को भी वहाँ बलवा लिया जाता है। वे जाकर शौर्यपुर में रहने लगते हैं। अपने पति कंस की मृत्यु से दुःखी जीवंजसा जरासंध के पास जाकर सारा वृतान्त सुनाती है। जरासंध सचला लेने के लिए अपने भाई को वहां भेजता है। कृष्ण और उसको सेना का आमना-साना होता है। अन्त में पराजित होकर वह लौट जाता है। जरासंघ क्रुद्ध होकर इस बार अपने भाई के निर्देशन में सम्पूर्ण सेना भेज देता है। इस प्रकार तीन सौ छयालीस बार युद्ध होता है । जरासंध के भाई कालयवन के भयंकर आक्रमण देखकर, यादवसेना उस समय पश्चिमी तट पर हट जाना उचित समझती है। देवियां कृत्रिम धुओं और आग दिखाकर यह भ्रम उत्पन्न कर देती हैं कि यादवसेना और कृष्ण का परिवार जलकर खाक हो गया। शत्रु का अन्त समझकर कालयवन लोट जाता है। यादव-सेना गिरनार पर्वत पर पहुंचती है । वहाँ से वह समुद्र की ओर कूच करती है। कृष्ण और बलराम समुद्र में रास्ता पाने के लिए दर्भासन पर बैठकर उनवास करते हैं। तभी इन्द्र के आदेश से एक देव आता है और समुन्न को सन्देश देता है । समुद्र बारह योजन हट जाता है । इन्द्र के ही आदेश से वहाँ कुबेर द्वारिका नगरी का निर्माण करता है। दोनों भाई नगरी में प्रवेश करते हैं। इधर शिवादेवी सोलह सपने देखती हैं। सत्रह देवियाँ गर्मशोषन करने आती हैं । नेमि तीपंकर का जन्म होता है । इन्द्र नेमिजिन की स्तुति करता है । श्रीकृष्ण रुक्मिणो का हरण करते हैं, रुक्मिणी का पता उन्हें नारद मुनि देते हैं। इस कार्य में बलराम उनकी मदद करते हैं। शिशुपाल इसका विरोध करता है । युद्ध होता है। रुक्मिणो भयभीत होती है। दोनों भाई रुक्मिणी के साथ द्वारिका में प्रवेश करते हैं । नारद मुनि जम्बूवती कन्या का पता देते हैं। दोनों भाई उपवास कर हरिवाहिनी और खङ्गवाहिनी विद्याएँ प्राप्त करते हैं और कृष्ण जम्बूवती से विवाह कर लेते हैं। एक दिन श्रीकृष्ण सत्यभामा के भवन के उद्यान में रुक्मिणी का प्रवेश कराते हैं । सौतिया शाह का सुन्दर द्वन्द्व रचा जाता है । रुक्मिणी और सत्यभामा में ठन जाती है। दोनों में यह सम होता है कि पहले जिसके पुत्र का कुवराज की कन्या से विवाह होगा, दूसरी के सिर के बाल Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) स्नान करते हुए के पैर केली दोनों के एक साथ पुत्र होते हैं । चूंकि रुक्मिणी के पुत्र की सूचना पहले मिलती है अत: उसका पुत्र प्रद्यम्न बड़ा मान लिया जाता है और सत्यभामा का छोटा । दैवयोग से प्रद्युम्न को उसके पूर्व भव का बेरी धूमकेतु उठा ले जाता है और खदिरबन में शिला के नीचे दबाकर पला जाता है । विद्याधर. दम्पती मंवर-कांचनमाला उसे पाल-पोसते हैं। बालक कई लीलाओं का केन्द्रबिन्दु और अनेक सिद्धियों का धारक बनता है । कंचनमाला उसके रूप पर मुग्ध हो जाती है। इच्छा पूरी न होने पर लांछन लगाती है । अन्त में वह बालक कालसंवर और उसके सैकड़ों पत्रों को पराजित करता है। द्वारिका में रुक्मिणी पुत्र-वियोग में दुःखी है। श्रीकृष्ण उसे ढाढस बंधाते हैं । नारद बालक की खोज में निकलते हैं । वह बालक के साथ विमान से जब लौटते हैं तो उन्हें भानुकुमार की बरात द्वारिका जाती हुई दिखाई देती है । प्रद्युम्न आकाश में विमान खड़ाकर, नीचे उतरकर, अपनी लीलाओं का प्रदर्शन करता है। पाण्डवों के स्कंधावार को अवरुद्ध कर लेता है। वहीं से वह द्वारावती जाता है। सत्यभामा को तरह-तरह से तंग करता है, उसका उद्यान उजाड़ देता है। तभी रुक्मिणी सुन्दर निमित्त देखती है। प्रद्युम्न मां से मेंट करता है । इसी समय नाई आता है सत्यभामा का सन्देश लेकर । प्रद्युम्न अपमानित कर भगा देता है। कृष्ण और प्रघुम्न की परस्पर भेंट होती है। दुर्योधन की पुत्री से प्रद्युम्न का विवाह होता है । सत्यभामा यह सबूत चाहती है कि यह युवा उसी का पुत्र है । नारद विस्तार से सारी घटना का उल्लेख करते हैं। यह मालूम होने पर कि मनु का दूसरा भाई कैटभ भी स्वर्ग से अवतरित होकर कृष्ण का पुत्र होगा, सत्यभामा चाहती है कि रजस्वला होने के चौथे दिन कृष्ण उससे समागम करें जिससे वह यशस्वी पुत्र की माता बन सके। परन्तु प्रद्युम्न विद्या की सहायता से जम्बुवती को उसके रूप में भेज देता है, उससे शम्बुकुमार का जन्म होता है । रुक्मिणी विदर्भराज से दूसरी कन्या माधवी अपने पुत्र के लिए मांगती है। विदर्मराज दूत को डांटकर भगा देता है । प्रद्युम्न और शम्यूकुमार कुण्डनपुर जाते हैं । कन्या के बाप के यह काहने पर कि चण्डालकुल में कन्या दे देना अच्छा परन्तु जिसने अपनी मां और भाई का अपमान किया है उसको कन्या देना अच्छा नहीं--दोनों उत्पात मचा देते हैं । कन्या स्वयं विद्रोह कर बैठती है और अपनी सखी से कहती है कि मैंने स्वयंवर माला से इनका वरण कर लिया, कहां का बाप और कहा की मां ? मेरी इमछा इन पर है, जो कुछ हुआ सो हो गया अब फुल से क्या ? वे दोनों कन्या को वधू बनाकर ले आते हैं। वंशों का विकास जैन पौराणिक परम्परा जन पौराणिक मान्यता के अनुसार, मूल वंश दो है-ध्याकुवंश और विद्यापरवंश । इनमें इक्ष्वाकुवंश मानव वंश है । मानववंदा और विद्याधर वंश के मेल से राक्षस-वंया कीउत्पत्ति हुई। आगे चलकर इक्ष्वाकुवंश के दो भेद हुए-सूर्यबंश और चन्द्रवंश । चन्द्रवंश का विकास बाहुबलि के पुत्र सोमयश से हुआ । जहाँ तक यादववंश के विकास का सम्बन्ध है वह हरिवंश का ही एक परवर्ती विकास है। तीर्थकर शीतलनाथ के समय, वासुदेश का राजा सुमुख कौशाम्बी नगरी में रहता था। उसने अपने ही नगर के सेठ वीरक की परली वनमाला का अपहरण कर लिया था, दोनों जैनधर्म में निम्या के कारण आगामी जन्म में विजया पर श्रार्यक और मनोरमा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) नाम से विद्याधर और विद्याधरी उत्पन्न हुए। वीरक सेट का जीव मरकर देव होता है और उन दोनों (विद्याधर- दषस्ती) को चम्पानगर में फेंक देता है। वे वहीं रहने लगते हैं, जहाँ वे 'हरि' नामक बालक को जन्म देते हैं। यहीं से हरिवंश इस प्रकार शुरू हुआ- आर्यक मनोरमा हरि कई पीढ़ियों के बाद राजा सुमित्र - पद्मावती सर्वे तीर्थंकर मुनिसुव्रत शर सुप्र दक्ष- इला दक्ष अपनी ही कन्या मनोहारी को पत्नी बना लेता है । इला रूठकर, अपने पुत्र ऐलेय के साथ दुर्गम वन में चली जाती है और इलावर्धन नगर बसाती है। राजा होने पर ऐलेय ताम्रलिप्ति और नर्मदा के तट पर माहिष्मती नगर की स्थापना करता है। यहां से हरिवंश की दूसरी स्वतन्त्र शाखा फूटती है, जिसमें अरिष्टनेमि और मत्स्य नामक राजा प्रमुख थे । राजा मत्स्य हस्तिनागपुर और भद्रपुर नगरों को जीत लेता है। उसके सौ पुत्रों में आयोधन सबसे प्रतापी था । आयोधन के आगे के वंश की परम्परा इस प्रकार मिलती है बायोषन सूर्य (तीसरी पीढ़ी) अभिचन्द्र (सातवीं पीढ़ी ) T वसु (नारद और पर्वतक का सहपाठी ) दस पुत्र ( वसु के पतन के बाद एक के बाद एक आठ पुत्रों की मृत्यु, नौवाँ पुत्र सुवसु नागपुर चला गया तथा दसव बृहद्रथ मथुरा में जा बसा । ) बृहद्रथ की परम्परा में यदु राजा हुआ । नरपति वीर Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'रिट्ठणेमिचरित' में हिरवंश का प्रारम्भ इन्हीं दोनों भाइयों (शूर और वीर) से होता है जो इस प्रकार है शुर और मुन्नार इतनी) अंधकवृष्णि-सुभद्रा (पत्नी) १० पुत्र (समुद्रविजय आदि) २ पुनिया मद्री और कुन्ती वीर और पद्मावती (पत्नी) भोजकवृष्णि-~-सुमुखी ३ पुष (उग्रसेन, देवसेन, महासेन) १ पुत्री (गान्धारी) वसुदेव-देवकी उग्रसेन – पद्मावती (पत्नी) कंस तथा देवकी (वसुदेव की पत्नी) सात पुत्र उनमें से कृष्ण अन्तिम) कई पस्नियां थीं जिनमें रेवती से बलराम राजा बसु का जो पुत्र (सुवसु) नागपुर जा बसा था, उसकी परम्परा में वृहदय हुआ जो जरासंध का पिता था । जरासंध और कालिन्दीसेना से जीवंजसा कन्या हुई। जरासंघ के कई भाई और पुत्र थे । उक्त वंशवृक्ष और उसकी शाखाओं से स्पष्ट है कि यादबकुल का मूलपुरुष यदु हरिवंश की उम शाखा से हुआ जो दक्ष के समय स्वतन्त्र हो गयी थी। यदु के पोसों (शूर और बीर) में बदुवंदा दो पाम्राओं में फैलता है, परन्तु उनमें सौहाई है। दूसरी पीढ़ी में, एक शाखा में वसुदेव हुए और दूसरी में देवकी ओर कंस। इस प्रकार ये सगोत्री ये परन्तु कंस अपनी बहिन देवकी का विवाह वसुदेव से कर देता है । मगध का राजवंश और विदर्भ का राजवंश भी हरिवंश की विच्छिन्न हुई (इन्चा-ऐलेय) शाखा के पत्ते थे। पाण्डवकुल अलग पा । परन्तु यदुकुल की कन्याएँ कुन्ती, मद्री और गान्धारी उन्हें न्याही थीं। तीपंकर नेमिनाथ समुद्रविजय-विधादेवी से उत्पन्न हुए । समुद्रविजय वसुदेव के बड़े भाई थे । इस प्रकार कृष्ण और नेमि दोनों पचेरे भाई थे । वसुदेव और कंस में एक पीढ़ी का अन्तर है । कंस और कृष्ण में भी एक पीढ़ी का अन्तर है । परन्तु अपनी बहिन देवकी का विवाह वसुदेव से करने के कारण वह बहनोई बने और कृष्ण मानजे। कंस के विद्रोह का प्रत्यक्ष कारण माता-पिता (उग्रसेन और पद्मावती) का कर व्यवहार है। वास्तविकता का पता चलने पर वह विद्रोह ग्रंथि बन जाता है। जीवंजसा देवकी का रमणवस्त्र दिखाकर आग में घी का काम करती है। जन पुराणकारों का मुख्य उद्देश्य यह बताना है कि राग की क्रिया-प्रतिक्रिया से एक ही कुल के लोग न केवल एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं, बल्कि उनमें भयंकर पुर इन जाते हैं । चूंकि जैन पुराणकार दूसरे मत (वैदिक मत) में प्रचलित हरिवंश परम्परा से जैन हरिवंश-परम्पग का अन्तर बताने के लिए ही पुराण की रचना करते हैं अत: यहाँ हिन्दू पुराणों की हरिवंश परम्परा का जानना आवश्यक है जिससे सही स्थिति का पता लग सके। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) महाभारत : वंश-परम्परा महाभारत के अनुसार' सूर्यवंषा और चन्द्रवंश की परम्परा इस प्रकार है--- १. नारायण २. ब्रह्मा सुर्यवंश चन्द्रवंश ३. मरीचि ३. अधि ४. कश्यप ४. चन्द्र ५. विवस्वान् (सूर्य) ५. बध ६. ववस्वत् मनु ६. पुरुरवा ७. इला (सुद्युम्न) ७. आयुग चन्द्रवंश की आगे की वंशावलि इस प्रकार है ८. नहुष, ६. यमाति, १०. पुरु, ११. जनमेजय, १२. प्राचिन्वान, १३, संपाति, १४. अहंयाति, १५. सार्वभौम, १६. जयसेन, १७. अवाचीन, १८. अरिह, १६. महाभौम, २०. अयुतनायी, २१. अक्रोधन, २२. देवातिथि, २३, अरिह, २४. ऋक्ष, २५. मतिर, २६. तंसु, २७. इलिन, २८, दुष्यन्त, २६. भरत, ३०, सुमन्य, ३१ सुद्रौत्र, ३२. हस्ती, ३३. विकुण्ठन, ३४. अजमीढ, ३५. संवरण, ३६. कुरु, ३७. विदुर, ३६. अनश्वा, परीक्षित, ४०, भीमसेन, ४१. प्रतिथवा, ४२. प्रतीप, ४३. शंतनु, ४८, विचित्रवीर्य, ४५, धृतराष्ट्र. ४६. धृतराष्ट्र के पुत्र । इस प्रकार पाण्डव आदिनारायण की ४६वीं पीढ़ी में आते हैं। चन्द्रवंश और पाण्डववंश स्व. डॉ. चिन्तामणि राघ वद्य के अनुसार मनु की पुत्री इला और चन्द्र से चन्द्रवंश की उत्पत्ति हुई। पहला राजा पुरुरवा हुआ । पुरुरवा और उर्वशी की प्रेमकथा ऋग्वेद में भी है। दूसरे राजा ययाति हैं। ययाति नहुष के दूसरे पुत्र थे। इनके बड़े भाई यतियोग का आश्रय लेकर ब्रह्मीभूत हो गए थे। ययाति की दो पत्नियां थीं—देवयानी और शर्मिष्ठा। दोनों से पांच पुत्र हुए : ययातिदेवयानी से यदु और तुर्वसु तथा ययाति-शर्मिष्ठा से गुह्य , अनु और पुरु।। देवयानी शुक्राचार्य की कन्या श्री, अतः ययाति मुनिकोप के डर से उससे विवाह नहीं करते। लेकिन बाद में स्वीकृति मिल जाने पर वह विवाह कर लेते हैं। शर्मिष्ठा के पुत्रों का पता चलने पर देवयानी अपने पिता के पास जाली है और उन्हें सारी बात बताती है । शुक्रा१. यल्याण, वर्ष ३, संख्या ११, सितम्बर १९५८ २. कल्याण, वर्ष ३, संख्या, १०, अगस्त १९५८ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) चार्य इन्हें जयग्रस्त होने का शाप देते हैं । पुरु अपना यौवन पिता को दे देता है, क्योंकि शुक्राचार्य के अभिशाप का निवारण एकमात्र यही था कि यदि पुत्र अपना योवन दे दे तो राजा ययाति युवा हो सकता है। हजारों वर्षों तक विषय सेवन करने पर भी तृप्ति नहीं होने पर, ययाति पुरु को यौवन यापस देकर और उसका राज्याभिषेक कर वन के लिए प्रस्थान करता है। इतिहासविदों का मत है कि यदु से यादव, पूर्व से यवन, दूसरा ये भोजपुर से कौरव और अनू से म्लेच्छ हुए । र ययाति की दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा वृषपर्वा की पुत्री थी। श्री वैद्य का मत है कि पुरु के वंश में पहला राजा दुष्यन्त हुआ । भरत के वेदाज हस्ति ने हस्तिनापुर बसाया । हस्ति के प्रपौत्र कुछ ने गंगा और यमुना के दोआब के ऊपरी क्षेत्र में कुरुक्षेत्र का विस्तार किया। गंगा के पूर्व और दक्षिण में बसने वालों को ब्राह्मण-ग्रन्थों में उन्नत और प्रतापी बताया गया है । चन्द्रवंशी राजा सिन्धुनदी के तट पर राज करते थे। राजा बुषपर्वा ( ईरान के राजा) का राज्य मयाति के राज्य से लगा हुआ था । 'उक्त दोनों कथनों की तुलना से हम इस समान निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महाभारत के अनुसार, चन्द्रवंशी यवातिपुत्र यदु से जिस समय यादव हुए उसी समय, ययाति के दूसरेदूसरे पुत्रों से अन्य अनेक क्षत्रियवंशों का विकास हुआ। चन्द्रवंश और सूर्यवंश के आदि पुरुष नारायण हैं। जैन परम्परा के अनुसार भी यादवों का आदिपुरुष यदु था। यह मूलतः हरिवंश का था तथा हरिवंश का मूल पुरुष 'हरि' था जो विद्याधर दम्पती आर्यक और मनोरमा की सन्तान था। जैन परम्परा सूर्यवंश और चन्द्रवंश की उत्पत्ति इक्ष्वाकुवंश से मानती हैं । नर-नारायण और नरोत्तम महाभारत में वेदव्यास का यह मंगलाचरण है "अरे नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् ।" I इसमें पहले नारायण को नमस्कार है। फिर नर को और तब नरोत्तम को विद्वानों का मत है कि 'नर-नारायण' मूल उपास्य देव हैं। ये 'नर नारायण' ही अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतार लेते हैं। महाकवि स्वयंभू ने 'अर्जुन' के अर्थ में 'नर' का प्रयोग किया है। महाभारत के अनुसार नर और नारायण एक ही तत्त्व के दो रूप हैं। नर और नारायण की स्तुति के बाद नरोत्तम को नमस्कार किया गया है। यह नरोत्तम श्रीकृष्ण है, ये नारायण ऋषि के अवतार नहीं | नरोत्तम कृष्ण ही सबके मूल, सर्वव्यापी, सर्वातीत, सच्चिदानन्दघन, स्वयं भगवान्, परात्पर ब्रह्म हैं । अवतार रूप में वह परमब्रह्म स्वरूप वासुदेव भगवान् श्रीकृष्ण हैं । 'रिमिरि' में श्रीकृष्ण की जिन बाललीलाओं का वर्णन और योवनलीलाओं का संकेत है। उनका स्रोत महाभारत नहीं है। महाभारत में श्रीकृष्ण पहले पहल आदिपर्व में राजा द्रुपद की राजधानी में द्रौपदी के स्वयंवर के अवसर हमारे सामने आते हैं। लक्ष्यभेद के फलस्वरूप द्रौपदी अर्जुन के गले में जयमाला डाल देती है । इस पर कौरव युद्ध प्रारम्भ कर देते हैं। श्रीकृष्ण तब पाण्डवों का पक्ष लेते हैं और कर्ण को परास्त करते हैं । पाण्डवों को ब्राह्मणवेप में देखकर उपस्थित राजा सामूहिक युद्ध की बात सोचते हैं परन्तु कृष्ण सबको समझा-बुझा देते हैं। दूसरी बार बलराम के साथ श्रीकृष्ण उस समय उपस्थित होते हैं जब पाण्डव माँ कुन्ती और द्रौपदी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) के साथ हस्तिनापुर जाते हैं । वह भीष्म, द्रोण, मिदुर आदि के साथ धृतराष्ट्र को समझाकर इस बात के लिए राजी करते हैं कि पाण्डवों को उनका न्यायसम्मल आधा राज्य दिया जाए। उन्हें 'खाण्डवप्रस्थ' मिलता है। उनके आदेश पर इन्द्र खाण्डवप्राय में इन्द्रपुरी के समान 'इन्द्रप्रस्थ नगरी की रचना करता है। वे धूमधाम से नगर में प्रवेश करते हैं। तीसरी बार, वह सब सामने आते हैं जब बारह वर्ष के वनवास काल में तीपों का पर्यटन करते हुए पाण्डन प्रभास तीचं पहुंचते हैं। वे चिरसखा अर्जुन से मिलने आते हैं। अर्जुन के साथ वे द्वारिका नगरी जाते हैं। चौथी बार वह सायवन दाह के प्रसंग में दिखाई देते हैं । पाँचवीं बार, युधिष्ठिर द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ के समय आते हैं । वह बड़ी कुशलता से जरासंध का वध करवाते हैं। इसके बाद राजसूय यश शुरू होता है। उसमें ब्राह्मणों के पैर पसारने का काम श्रीकृष्ण स्वयं अपने कपर लेते हैं। श्रीकृष्ण की प्रशंसा शिशुपाल को सहन नहीं होती । वह भड़क उठता है। वह युद्ध के लिए उन्हें ललकारता है। सो अपराध क्षमा करने के बाद, श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं। छठी बार, वह द्रोपदी के नीरहरण प्रसंग पर उपस्थित होते हैं और वस्त्रावतार धारण कर अपनी भगवत्ता प्रकट करते हैं। सातवी बार वह पाण्डवों के वनवास प्रसग पर, उनसे वन में मिलने जाते हैं और आवेश में कहते हैं- लगता है कि यह धरती दुयोधन, कर्ण, दानि और दुःशासन के रक्त का पान करेगी। वह कृष्णा (द्रौपदी) से कहते है--शिशुपाल के भाई शाल्ब ने द्वारिका पर आक्रमण कर दिया था। उसे परास्त करने में समय लग गया अतः मैं नहीं आ सका ! यदि आ सकता टोष्ठिर को जुआ खेलने से रोक देता ।' पाण्डेयजी युधिष्ठिर से कहते हैं कि, मुझे पुरातन प्रलय के समय जिन देवता भगवान् (बालमुकुन्द)का दर्शन हुआ था वही थे कृष्ण हैं । आठवीं बार वह दुबईमा के कोप से द्रौपदी की रक्षा करते हैं। दुर्वासा युधिष्ठिर के अतिथि बनकर आते हैं । युधिष्ठिर उनसे भोजन का आग्रह करते है । परन्तु द्रौपदी भाजन कर चुकी होती है। वह संकट में पड़ जाती है। उस समय श्रीकृष्ण उसकी सहायता करते हैं। नौवीं बार वह विराट की सभा में अभिमन्यु-उत्तरा के विवाह में सम्मिलित होते हैं। वहां यह प्रश्न उठाया है कि पाण्डवों का राज्य किस प्रकार वापस दिलाया जाए । युद्ध में सहायता करने के लिए अर्जुन और दुर्योधन श्रीकृष्ण के पास द्वारिका पहुंचते हैं। उनमें से एक (अर्जुन) पैरों को पास बैठता है और दूसरा सिहराने । अर्जुन दस करोड़ सेना के विकल्प में श्रीकृष्ण को अपने पक्ष में रखना पसन्द करता है, भले ही वह युद्ध में न लडें । दुर्योधन इस बात से प्रसन्न है कि कृष्ण की दस करोड़ सेना उसकी ओर से लड़ेगी। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय अनुक्रम पहला सर्ग मंगलाचरण । तीर्थकर नेमिनाथ का स्तवन । ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य ! गौरीपूर और मथुरा के राजा 'शूर' और 'वीर' से क्रमशः अन्वय वृष्णि और नरपतिपरिण का जन्म । अन्धकवृष्णि और सुभद्रा से समृद्रविजय आदि दम पुत्रों की उत्पत्ति । दसवें पुत्र वसुदेव । दो पुत्रियां भी-कुन्ती और मद्री। मथुरा के राजा ना पतिवृष्णि और उनकी पत्नी पपावती से उग्रसेन आदि तीन पुत्र तथा गान्धारी नाम की एक कन्या की उत्पत्ति । मगधगरेश जरामन्ध की अनुपम दल-ऋद्धि । सुप्रनिष्ठ मुनि के उपदेश से अन्धकवृष्णि और मरपतिवृष्णि द्वारा दीक्षा ग्रहण । गोरीपुर में समुद्रविजम का तथा मथुरा में उग्रसेन का शासन । वसुदेव की कुमार अवस्था का वर्णन । वसुदेव के सौन्दर्य की नगर की युवतीजन पर व्यापक प्रतिक्रिया । समुद्रविजय द्वारा वसुदेव पर अनुशासन । वसुदेव का राजप्रासाद से चुपचाप निष्क्रमण । श्मशान में पहुंचकर एक चिता में आभूषणों को डालकर तथा घोड़े की पीठ पर पत्र बांधकर वहां से चल देना। पत्र और चिता में पड़े गहनों से परिवार और नगरवासियों द्वारा वसुदेव की मृत्यु हो जाने का अनुमान । उपर वसुदेव का विजयखेट नगर पहुँचना और सुग्रीव की कन्याओं के साथ पाणिग्रहण। दूसरा सर्ग वसुदेव का महायन' में प्रवेश । महावन का वर्णन । सलिलावतं सरोवर में अचगाह्न । महागज का सामना । महागज को वश में कर लेना । अचिमाली और वायुधेग से मेंट । विजयाधपर्वत पर विद्याधर अशनिवेग की कन्या क्यामा में विवाह । रात्रि में अंगारक द्वारा विमान में वसुदेव का अपहरण । इमामा द्वारा ससन्य अनुसरण। विमान का पाहत हो जाना । वसुदेव का 'चम्पानगरी में प्रवेश । वासुपूज्य जिनेन्द्र की वन्दना । चम्पानगरी का वर्णन । वीणावादन में विजय प्राप्त कर नगर श्रेष्ठी चारुदत्त की काया गन्धर्वसेना से विवाह । विद्याधरवाला नीलजसा, सोमलक्ष्मी और मदनयेगा से पाणिग्रहण। सात सौ वर्ष पूरे होने पर अरिष्टनगर में लोहिताक्ष राजा की कन्या रोहिणी के स्वयंसर में वसुदेव का पहुँचना । १३-२३ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा सर्ग स्वयंवर में पटहवादक के रूप में वसुदेव का द्वार पर स्थित होना । स्वयंवर का वर्णन । रोहिणी द्वारा वसुदेव का वरण । स्त्रयंवर में आये हुए विरोधी राजाओं से युद्ध। विजय-प्राप्ति। पुनः जरासन्ध की सेना से युद्ध। वसुदेव द्वारा सभी को पराजित करना । युद्ध में एकाएक अपने बड़े भाई समुद्रविजय को देखकर आक्रामक वृत्ति का त्याग । बाद में दोनों भाईयों का स्नेहमिलन । २४-३६ चौथा सर्ग राजा वसुदेव द्वारा धनुविद्या की शिक्षा। केस द्वारा शिष्यत्व ग्रहण करना। मगधनरेश जरासन्ध की घोषणा के अनुसार गुरु-शिष्य द्वारा सिंहरय को बांधकर लाना । परिणामस्वरूप जरासन्ध की पुत्री जीवंजसा से केस का विवाह । कंस द्वारा भी वसुदेव के साथ अपनी बहिन देवकी का विवाह । एक दिन अतिमुक्तक देवषि का चर्या के लिए मथुरा में प्रवेश। जीवंजसा द्वारा कुतूहलवश देवकी का रमण वस्त्र देवर्षि को दिखाना । देवर्षि का कोष । जरासन्ध और कंस की मृत्यु की भविष्यवाणी। भयभीत कंस का बसुदेव से वचन प्राप्त कर लेना कि देवकी के गर्भ से जो भी उत्पन्न होगा वह उसे चट्टान पर पछाड़कर मार डालेगा। चिन्तित देवकी और वसुदेव का अतिमुक्तक के पास जाना 1 देवधि से यह जानकर कि उनके छह पुत्र चरमशरीरी होंगे, उनकी मृत्यु नहीं होगी तथा सातवा पुत्र मथुरा और मगध के नरेगा के क्षय का कारण बनेगा, दम्पती को आत्मसन्तुष्टि । देवकी के कम से छह पुत्रों का जन्म, नंगमदेव द्वारा मलयगिरि पर ले जाकर उनका लालन-पालन । देवकी के सात पुत्र के रूप में कृष्ण का जन्म । शिशु के शुभ लक्षण । रात्रि में वसुदेव द्वारा शिशु को उठाकर ले जाना और यशोदा को देकर उनकी समाजात पुत्री लाकर केस को सौंप देना । गोकुलपुरी में हर्ष। ३५-४० पांचवा सर्ग मन्द के घर शिशु का लालन-पालन । कंस को सुचना । उसका शंकित हो उठना। कंस द्वारा सिद्ध देवियों को कृष्ण-बघ का आदेश । मायामयी पूतना द्वारा कृष्ण को विषपूर्ण स्तनपान कराना और पीड़ित होकर भाग जाना। कृष्णवध के लिए और भी अनेक विद्यादेवियों द्वारा रचे गये षड्यन्त्रों का असफल होना। कालान्तर में देवकी और बलराम का बालक कृष्ण को देखने के लिए गोकुल-गमन । देवकी की प्रसन्नता । इधर कंस का भय उत्तरोत्तर बढ़ते जाना । कंस के आदेश से बालक कृष्ण का नाग-शय्या पर लेटना। कृष्ण को मारने के लिए कंस द्वारा अनेक उपाय। ४९-६० छठा सर्ग यमुना के महादह सरोवर में कृष्ण का प्रवेश। कालियानाग का दमन । कंस के पक्ष Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के घाणूर और मुष्टिक महामल्लों का कृष्ण और बलभद्र द्वारा पराजित करना । कंस-वछ । अन्त में बलराम से रेवती का और कृष्ण से सत्यभामा का पाणिग्रहण। ६१.७३ सासवा सर्ग कंस की मृत्यु पर जीवंजसा का पिता जरासंघ के समक्ष विलाप । जरामंध के आदेश से कालवयन का यादघसेना पर आक्रमण । दोनों ओर से भयंकर युद्ध । परिस्थितिवता यादवसेना का पश्चिमी तट की ओर हट जाना । समुद्रवर्णन। आठवा सर्ग समुद्र में मार्ग पाने के लिए कृष्ण और बलराम का दर्भासन पर बैठवर उपवास । समुद्र का बारह योजह जाना । द माश नारी | शिवादेवी बो सोलह स्वप्न। सत्रह देवियों द्वारा शिंवादेवी के गर्भ का शोधन । शुभ लग्न में तीर्थंकर (नेमि) का जन्म । इन्द्र का आगमन । ऐरावत हाथी का वर्णन । इन्द्र द्वारा जिन-स्तुति। सुमेरु पर इन्द्रादि देवों द्वारा शिशु का जन्माभिषेक । शिशु का 'नेमि' नामकरण । नौवा सर्ग महर्षि नारद का द्वारिकापुरी आगमन । शृगार में दत्तचित्त सत्यभामा द्वारा नारद मुनि को न देख पाना । नारद वा क्रोध और संकल्प । वलभद्र और नारायण द्वारा महर्षि नारद का सरकार । नारद के परामर्श से कृष्ण द्वारा रुक्मिणी का अपहरण । शिशुपाल द्वारा विरोध । युद्ध-वर्णन । २६-११४ दसर्वा सर्ग रुक्मिणी से विवाह कर श्रीकृष्ण का बलराम के साथ द्वारिका में प्रवेश । देवर्षि नारद का पुन: आगमन । जम्मुपुर के राजा की कन्या जम्बुवती के साथ परिणय हेतु श्रीकृष्ण को उकसाना। बलराम और कृष्ण द्वारा णमोकार मंत्र का जाप । यक्षदेव का सन्तुष्ट होना और उन्हें आकाशतलगामिनी आदि विद्याओं का दान। . श्रीकृष्ण का जम्बुयती से विवाह । एक दिन सत्यभामा के प्रासादोद्यान में कृष्ण के आग्रह पर रुक्मिणी का प्रवेश । सत्यभामा का सौतिया डाह । एक-दूसरे को नीचा दिखाने का निश्चय । कालान्तर में दोनों को एक ही दिन पुष-लाभ । रुक्मिणी के गर्म से प्रद्युम्न का जन्म । दैवयोग से विद्याधर धूमकेतु का आकाशमार्ग से वहाँ से होकर निकलना। विभंग अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव का शत्रु जानकर उसके द्वारा शिशु प्रद्युम्न का अपहरण और सदिरवन में ले जाकर एक शिला के नीचे दबा देना। विद्याधर कालसंबर का वहां से निकलना। शिला का हिलना, बालक को उठाना और अपनी पत्नी कंचनमाला को सौंप देना ।इवर रुक्मिणी का पुत्रबियोग से दुःली होना । नारद का आगमन और धीरज बैधाना। ११५-१२५ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ सर्ग कंचनमाला के घर प्रद्युम्न का यौवनावस्या को प्राप्त होना । कंचनमाला द्वारा प्रद्युम्न को प्रज्ञप्ति-विद्या का दान । प्रशुम्ब के रूप-सौन्दर्य पर उसका मोहित होना। कंचनमाला की कामवेदना । प्रणय-माचना । इच्छा पूर्ण न होने से पति कालसंवर के समक्ष प्रधुम्ग पर लांछन लगाना । प्रद्युम्न को मारने के लिए कालसंबर के अनेक असफल षड्यन्त्र । तगी महामुनि नारद का आगमन और कालसंवर को वस्तुस्थिति से अवगत कराना । १२६-१३७ बारहवाँ सर्ग नारद के साथ कुमार प्रद्युम्न का आकाशमार्ग से जाना। मार्ग में कुरुराज की नगरी का आकाश से अवलोकन ! नगर-वर्णन । भानुकुमार की बारात को जाते हुए देखना । प्रद्युम्न का विमान से उतरकर नगर में प्रवेश । उसकी अनेक लीलाओं का वर्णन । पश्चात् आकाशमार्ग से द्वारिका पहुँचना । अनेक लीलाओं का प्रदर्णन। माता रुक्मिणी से मिलाप। अपरिचय की स्थिति में कृष्ण का प्रद्युम्न में युद्ध । नारद के द्वारा परिचय पाने पर पिता द्वारा पुत्र का आलिंगन । १३८-१५० तेरहवां सर्ग कुरुराज की पुत्री उदधिमाला का प्रद्युम्न से विवाह। रुक्मिणी और सत्यभामा के बीच परस्पर आक्षेप । सत्यभामा द्वारा प्रमाण मांगना कि यह युवा रुक्मिणो का पत्र प्रधुम्न ही है । नारद द्वारा विस्तार से सारी घटना का उल्लेख । कालान्तर में यह ज्ञात होने पर कि मधु का भाई कैटभ स्वर्ग से अवतरित होकर कृष्ण का पुत्र होगा, यशस्वी गुत्र की माँ बनने की अभिलाषा से सत्यभामा द्वारा कृष्ण से समागम की याचना । प्रद्युम्न की युक्ति । जम्बुवती से शम्बु कुमार का जन्म । रुक्मिणी द्वारा अपने पुत्र के लिए विदर्भ राज से उसकी कन्या माधवी को मांगना । मना करने पर प्रद्युम्न और अम्बुकुमार द्वारा विदर्मराज की नगरी में उत्पात। विदर्भराज का क्रोधित होना । नारद द्वारा स्थिति स्पष्ट होने पर हर्ष । विवाहोत्सब । परिशिष्ट Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहराज-सयंभूएष-किउ रिट्ठणेमिचरिउ पढमो सग्गो सिरिपरमागमगातु सयलकला-कोमलदसु । करहु विहसणु कण्णे जायबरुव-कम्पप्पलु' ॥ पणमामि मितियारहो। हरिबल-कुल-णयल-ससहरहो।। तइलोय-समिछ-संछिय-उरहो। परिपालिय-प्रजरामरपुरहो । कल्लाण-णाण-गुण-रोहणहो। पंचिदियगाम-गिरोहणहो।। भामंडलमंजिय-अवयवहो। परिपक्क-मोक्सहल-पाययहीं॥ तहलोपकसिहर-सिहासणहो । णिणिव मचामर-वासनहो॥ जसु तण तित्ये उप्पण्णाहा । जिह छणचंदुग्गमें विमलपहा ।। श्री परमागम जिसका नाल है, जो समस्त कलाओं रूपी कोमल दलोंबाला है, ऐसे यादवों और कौरवों के काव्यरूपी कमल को कान का आभूषण बनाओ। मैं नेमि तीर्थकर को प्रणाम करता हूँ जो नारायण और बलभद्र के कुलरूपी आकाशतल के चन्द्र हैं, जिनका वक्षस्थल घिलोक की लक्ष्मी से शोभित है, जिन्होंने अजरामापुर (मोक्षपुर) का परिपालन किया है, जो कल्याणों, ज्ञानी और गुणस्थानों में आरोहण करनेवाले हैं, जिन्होंने पांच इन्द्रियों के समूह का निरोध किया है, जिनके शरीर के अंग भामंडल से मंरित हैं, जो ऐसे वृक्ष हैं जिनका मोक्ष रूपी फल पक चुका है, जिनके चामर और छत्र अनुपम हैं, जिनके तीर्थ में उत्पन्न हुई आभा ऐसी प्रतीत होती है जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा के उदित होने पर स्वच्छ प्रभा हो। १. अ-कुडुप्पलु 1 प्र-कुहुप्पलु । व-कुहुप्पलु । वस्तुतः कव्वुप्पलु पाठ उचित है, ५०० में पाठ है-'सयंभूकम्वुप्पस जयज' अर्थात् स्वयंभू के काव्यरूपी कमल की जय हो। २. न मोहफलपायवहो। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ । [ सयंभूएषकए रिटुणेमिचरिए धत्ता-सास्य-सुक्ख-णिहाण अमरभाव-उपायणु । कण्णंगलिहिं पिएह जिणवर-वयण-रसायण ॥१॥ चिसषद सर्यभु काई करमि। हरियस-मारण्या केम लरभि ।। गुरुवयण-तरंज लय भावि। जम्महो वि मोहउ कोधि गति :, णउ पायउ बाहरि कल। एक्कु वि ण गंथु परिमोक्कल ॥ तहि अवसरि सरत धोरवइ । करि कम्य विण्ण माई बिमलमा इदेण समप्पियउ वाधरण। रसु भरहेण वास बित्थरणु ॥ पिंगलेण छंद-पय-परथारु । संभहें दक्षिणिहिं अलंकार । बाणेण समप्पियत घणघण। तं अक्खरवंबर प्रापणउ ॥ सिरिहरिसे गियउ णिउत्तणउ। अवरेहि मि कहिं कइत्तपत्र ।। छड्डणि-दुबई-धुवइहि अडिय। घउमहेण समप्पिय पद्धडिय ॥ जणणयणाणंद जरिए । प्रास्पेसिए सव्वहुं फेरिए॥ पारंभिय पुणु हरिवंसकह । ससमय-परसमय-विचार-सह ।। यसा--जो शाश्वत सुख का निधान है तथा अमरभाव को उत्पन्न करनेवाला है; जिनवर के ऐसे वचन रूपी रसायन (अमृत) का कानों की अंजलि से पान करो॥१॥ कवि स्वयंभू विचार करता है कि क्या को? हरिवंशरूपी महासमुद्र को किस प्रकार पार कसे? मैंने गुरुवचन रूपी नाव प्राप्त नहीं की और न जन्म से किसी कवि के काव्य को देखा । मैंने बहत्तर कलाओं को नहीं जाना। एक भी ग्रन्थ को खोलकर नहीं देखा। उस अवसर पर सरस्वती धीरज थाती है--'तुम काव्य की रचना करो। मैंने तुम्हें विमल मति (प्रतिमा) दी। तब इन्द्र ने व्याकरण दिया, भरत ने रस और व्यास ने विस्तार करना दिया। पिंगलाचार्य ने छंद और पदों का प्रस्तार दिया, भानह और दंडी ने अलंकार-शास्त्र दिया, नाण ने वह अपना सघन अक्षराडंबर दिया। श्रीहर्ष ने अपना निपुणत्व दिया । दूसरे कवियों ने अपना कवित्व दिया। छड्डणी, दुवई ओर ध्रुविकाओं से जडित पशिया पतुर्मुख ने प्रदान किया । लोगों के नेत्रों को आनन्द देनेवाली सबकी असीस से मैंने तब यह हरिमंश-कथा प्रारण की जो स्वस्त और परमत के विचारों को सहन करनेवाली है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमो सरपो। पत्ता---पुच्छई मागणाह भव-अर-मरण-वियारा। विउ जिपसासणि केम कहि हरिवंसु भगरा ॥२॥ पउ छिट्ठा मामवि अखि मणे । विवरेरक सुबह सव्वजगे। णारायणु णरहो सेव करइ। र खेड्डा घोडा संजर। क्यरट्रपंडदार जणिया। कोहि भसार-पंचभौगया। पंचालिहि पंडन पंच जहि। योहलेपन समचु-असाचु ताहि ।। दुच्चरित जि सोयहे मंडणउ । गज चितवंति जस खंडप सच्छेवमरण गंगेउ जई। तो तेण का किय कारगर ।। समावेण सरेण विजा प्रजउ । तो बोणु काई. रखें खयहो गउ ।। कप्पेण फण्ण जह जोसरह । तो कोंतिः वियंति किण्ण मरइ॥ घत्ता-"माणुस कलसेण होइ कुरुगुरु फलस-समग्भः । जवि विरुवा सुट्ट हिर पियंति ण बंधव ॥३॥ वत्ता—मगधनाथ (थेणिवा) पूछता है--- जन्म, जरा और मृत्यु का नाश करनेवाले हे आदरणीय! बताइए, जिन-मासन में हरिवंश की कशा का क्या स्वरूप है ? ॥२॥ ____ आज भी मन से प्रति नष्ट नहीं होती । सब लोगों में यह उल्टी बात सुनी जाती है कि नारायण नर की सेवा करता है, रथ होकता है, घोड़े की देखभाल करता है, धृतराष्ट्र और पंछु अदारमानित----अन्य स्त्री से उत्पन्न हैं (नियोग प्रथा के अनुसार, व्यास द्वारा, राजा विचित्र वीर्य की विधवाओं से उत्पन्न हैं।), जहां पांचाली के पांच पांडव कहे जाते हैं, वहां आप बतायें कि सत्य और असत्य यया है ? दुश्चरित्र ही जिन लोगों का मग्न है, वे यश के खंडित होने की चिप्ता नहीं करते। यदि भीष्म पितामह का मरण स्वच्छंद था, तो उन्होंने कालगति क्यों की? यदि धनुष और तीर से द्रोणाचार्य अजेय थे तो वह युद्ध में विनाश को क्यों प्राप्त हए? कर्ण यदि कान से निकले तो उन्हें जन्म देनेवाली कुन्ती की मौत क्यों नहीं हुई ? पत्ता-भले ही मनुष्य घट से उत्पन्न होता हो, कौरवों के कुलगुरु अगस्त का जन्म घष्ट से हुआ हो; भाई अपने भाई से कितना ही विरुद्ध क्यों न हो जाए, वे एक दूसरे का रक्तपात नहीं करते ।।३।। १. जा...अपरे जणिया । २. अब-बोलबउ सच्च समश्च तहिं । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ × 1 [ सयंमएकए रिटुमिचरिए धता तं सुणिवि वयणु मुनिमणीहरु । सुणि सेजिय साहास गणहरु । सूरवीर हरिवंस पहाणा । सजरी - महुरा-पुरवर- राणा ।। अंधविट्टि जाणिज्जइ एक्के । णरवखिट्टि पुर्ण प्रोक्कें ॥ सूरसुयहो तो रज्ज करतहो । सउरीपुरहो परिपातहो ।' सत्तावीस जोजण महिहो । वासह सह परासर बुहियहो । पुत्त सुहद्द बस उप्पण्णा । णं बलोवाल प्रवइण्णा तेत्बु समुविज पहिलार । पुणु लोह रणमर- बृरधारउ ॥ चिमिय पयावइ सय उप्पज्जइ । हिमगिरि-अचलु-विजउ जागिज्जइ ॥ धारणु पूरण सह हिचंवें । पुणु वसुएज जाउ आनंदे ॥ -ताहं सहोयरियाज कोंति मविवे कष्णउ । णं वधम्म-हुधा संति दयाउ उप्पण्णउ ॥४॥ मुनियों के लिए सुन्दर उन वचनों को सुन कर गणधर (गौतम) कहते हैं - हे श्रेणिक ! सुनो, हरिवंश के प्रमुख सूर और वीर श्रेष्ठ नगरों शौर्यपुरी और मथुरा के राजा थे । एक ( सूर) से अंधकवृष्णि का जन्म हुआ और दूसरे से नरपतिवृष्णि का । राज्य करते हुए और सताईस योजन आयाम वाली चीर्यपुरी का परिपालन करते हुए सूर के पुत्र अंधकवृष्णि के व्यास की बहन, और पाराशर की पुत्री सुमद्रा से दम पुत्र उत्पन्न हुए, मानो दस लोकपाल ही अवतीर्ण हुए हों। उनमें समुद्रविजय पता था। दूसरा अक्षोभ्य युद्ध के भार की धुरी को धारण करनेवाला था। फिर स्तमित, प्रजापति और सागर उत्पन्न हुए। फिर हिमवान, अचल और विजय ( नाम से) जाने जाते हैं। अभिचन्द के साथ धारण और पूरण का जन्म हुआ, फिर आनन्दपूर्वक वसुदेव उत्पन्न हुए। धत्ता- उनकी कुन्ती और माद्री नाम की दो कन्याएं सगी बहनें थीं जो ऐसी जान पड़ती र्थी मानो दस धर्मों से शान्ति और क्षमा का जन्म हुआ हो । ॥४॥ १. ज – जाणिज्जइ । २. ज, अ, ब - - सजरीपुरवर परिपात हो । ३. ३ में दुरियहे पाठ सही है, परन्तु तुक के कारण दुहियहो पाठ रखा गया। ८. व- हुवाउ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहमो सम्गो 1 'णरवह-विट्ठएं रन्जु करतें। महुरापुरवा परिपालते॥ बासहो-सणिय वहिणि पउमावह । परिणिय च रोहिणी णावइ ।। जाहेका गी'जमार। उगासेण उग्गाह मि उमगउ । पुषु महासेणु महारणे उज्ज। बेवसेण देवाहं भि पुस्मउ ।। पुणु गंपारिकण्ण-बलवंतहो ।। मगहामंडल परिपाललहो। दुसरसमर-भरोढियकंघहो। णिरुवम रिख जाप जरसंघहो। मंब तिखंज वसुंधरी सिहो। रयण-गिहाणान-समिद्धी। जायब-पंडल-कुरुव-हाणी। रावण रिद्धिहे अणुहरमाणो।। पत्ता-ताम सिलोय-पईड भिलिय-सुरामर-विंदहो। सतरीपुरि उप्पण्णु केवलमाणु मुणिवहो ॥५॥ तो परमरिसिहे सुपइट्ठहो । सम्माणि गंधमाणि ट्ठियहो । सउरिपुर-सीमा-वासियहो। णरणाय-सुरिंव-णमंसियहो । सयलामल-केबल-कुलहरहो। राज्य करते हुए और मश्रा नगर का परिपालन करते हुए नरपतिवष्णि ने व्यास को बहन पपावती से वैसे ही विवाह किया, जैसे चन्द्रमा रोहिणी से करता है । उसका पुत्र सूर्य की तरह उत्पन्न हुआ । उग्रसेन तयों में भी उग्र था। फिर महासेन हुआ जो महायुद्ध में उद्यत रहता था। देवसेन देवों में भी पुज्य था। फिर उस बलवान के गंधारी कन्या उत्पन्न हुई। मागधमंडल का परिपालन करते हुए तथा दुर्धर पुद्धभार से ऊंचे कंधों वाले जरासंध की अनुपम ऋद्धि हो गई। बलपूर्वक उसे तीन खंड घरती सिद्ध हो गई, जो आधे-आधे रत्नों और खजाने से समृद्ध यादवों और कौरवों के लिए हानिस्वरूप तथा रावण की ऋद्धि के समान थी। घत्ता-इतने में, शौरीपुर में, जिनके लिए सुरों और देवों का समूह मिला है, ऐसे मुनीन्द्र सुप्रतिष्ठ को त्रिभुवनप्रदीप केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ||५|| जो गन्धमादन उद्यान में स्थित हैं, शौर्यपुर की सीमा के निवासी हैं, मनुष्यों, नागों और देवों १. ज—रवइ विट्ठए रज्जु करते। २. ज. अ, ब -दिणमणि व समुग्गव । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ छज्जीव-णिकश्य दयाव रहो । भावतयालिथियविग्गहो । सियल परिग्गहो । दरिसाविध परमममपहहो' । सुरवंदण भक्तियप्राय हो । हि अंधयविद्वि-राविद । स परवड - विट्ठएं एक्कम ॥ णिसुर्णेपिणु यिभवंतर यिनामुपत्ति परं परई ॥ पण मई गरइ पतु घरे । तब चरणग्ग्रहणे पसाज करे || बता-सरणे अधिरे असारे एत्यु लेते ण रम्मइ । जहि अजरामर लोउ तो येस हो करि मग्गइ ॥ ६ ॥ १. ज अ मोक्खपथहो ।. तो परमभाव सम्भावरया । विकिय सूरवीरतणया ॥ सहि समुविज भियत । महराहि उम्गसेणु किय ॥ अति जाम जति घर । | सयंभूएवकए रिटुमिचरिए वसुए ताम अणंगसर || परिपेसिय पायरियामणहो । कावि हरु समप्पइ अंजनहो ॥ के द्वारा वंदनीय हैं, जो संपूर्ण पवित्र केवलज्ञान के कुल-गृह हैं. छहीं जीव- निकायों की दया करनेवाले हैं, जिनकी देह भावरूपी लता से अनिति है, जिन्होंने समस्त परिग्रहों को दूर छोड़ दिया है, जो परम मोक्ष-पथ को दिखाने वाले हैं, जो देवों की वंदना - भक्ति से स्व-वश हैं ऐसे- सुप्रतिष्ठ मुनि से, वहाँ का नराधिपति अंधकवृष्णि नरपतिवृष्णि के साथ, एक मति होकर अपने भवान्तर सुनकर अपनी उत्पत्ति, नाम और परम्परा को सुनकर कहता है-नरक में पड़ते हुए मुझे बचाओ, तपाचरण ग्रहण करने में मुझ पर प्रसाद कीजिए । घत्ता अशरण अस्थिर इस क्षेत्र ( मत्यलोक) में रमण नहीं किया जाता। जहाँ अजर-अमर लोक है उस देश का वर मांगा जाए । तब परम भाव और सद्भाव में लीन शूरवीर के पुत्र अंधकवृष्णि और नरपतिवृष्णि ने दीक्षा ग्रहण कर ली। शौरीपुर में समुद्रविजय स्थापित हुआ । उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया गया । इस प्रकार घरती का उपभोग करते हुए जब वे रह रहे थे कि इतने में वसुदेव ने नगर वनिताओं के मनों में कामदेव के तीर प्रेषित कर दिये । कोई अपना अपर Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो सपो] काधिबे बलतज गियणयणे। मुच्छिा जइ खिलाई खणि जिसणे। का विछंडणीवि-बंध। हिल्लारउ करइ पधणज ।। काधि बाल लेह विपरीय-तणु । मुई अण्णहि अण्णहि धेरपणु । एस्केपकावयवे विलीग कवि। पसएस असेसु विविठण वि॥ पत्ता-जाहे महि जि गप चिट्ठी ताहे सहि णि वि थाइ। दुबल ढोर इव पंके पहिय ण उढिवि सस्कइ ॥७॥ जुवे निक्कलसि विकलह का वि। पइससे पइसा तत्ति वि ॥ काउ विम यणगि मुलिविकयउ। कह कह विण पाहि मुक्कियत ।। घरे कम्मु ण लगइ तियरहिं । वसुएउ-हद मोहिय-महहि ॥ जबाउ किन्नइ घरि जिधरे। मेलाब' जस्ण-वउत्ति करे ।। कानेपी जी भरमहार: काहे वि णिरूलाड पसे इयर ॥ अंजन को देती है । कोई अपनी आँख में अलवतक लगाती है। कोई क्षण-क्षण में मी को प्राप्त होती और कोई स्त्रीमती है। कोई नीवी की गाँठ खोलती है और परिधान (साड़ी) ढीली करती है। कोई शरीर उलटकर चालक लेती है, वह मुंह दूसरी ओर होता है, और स्तन दूसरी ओर देती है। वसुदेव के एक-एक अंग में विलीन हो जाती हैं, इसलिए उन्हें वसुदेव समग्न रूप से दिखाई नहीं देते। ___घता –जिसकी दृष्टि जहाँ (जिस अंग पर) गयी उसकी दृष्टि उसी अंग पर महर गयो। कीचड़ में फंसे हुए दुबैल ढोर की तरह वह उठ नहीं सकी ।।७।। युवा वसुदेव के निकलने पर कोई निकल पड़ती, प्रवेश करने पर प्रवेश करती, परम् तृप्ति नहीं होती। कामदेव की ज्वाला में दब कोई किसी प्रकार अपने को प्राणों से मुक्त नहीं कर पा रही थी। जो स्त्रियाँ वसुदेव के रूप पर मोहित मति थीं उन्हें घर का काम नहीं भा रहा था । घर-घर में मौसी की बाती कि यक्ष-दंपती मिलाप करवा दे । किसी का शरीर ज्जर से पीड़ित था। किसी का ललाट पसीना-पसीना हो रहा पा । ऐसा कोई घर नहीं, चबूतरा १. ज, म-किज्जइ। २. ज, अ—जाहि जाहिं। ४, ज-मेवावउ। —मेलाव। ३. ज, अ, ब-दिज्जा । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सयंभूएवकए रिट्ठणेमिचरिए तण घर ण चच्चर पवि सह । जहि गज वसुएथहो तणिय कह ॥ काहि वि पहपासि परिट्टिया। णाई उहइ हुवासण अट्टियउ॥ मोल्लाविय कावि वयंसियए। सो सुरकिट्टप मह हियाहे ।। गाहरण णवि रुचाइ भोयणउ। 'ण पहाणउ गवि फुल्सु विलेवण उ । घत्ता–देवर ससुर-पहहि म सरीरु रविवजह । णिम्भरणेह-णिबंधु-चित्तु केण धरिज्जाइ॥ एहिय अवस्य जंजाय पुरे। जे जे पहाण ते करिवि धुरे ॥ पुरपउर महायणु भजविणु [भगमणु कूवारें मउ गरव-भवण ॥ ग्रहो अंधविट्ठ-सुबह-सुय। सियनेयीवल्लह सग्गज्य ॥ परमेसर परम पसाउ करे। णिग्गमण कुमार हो तणउ परें ।। चसएहवें रट्टण मोहियउ। णं कम्महद रोहियउ ।। धरिणिहि घरकम्मई छडियई। णियपाह-महई उम्भडियई ॥ नहीं और सभा नहीं थी जिसमें वसुदेव की कथा न होती हो । वि.सी के पास बैठा हुआ पति ऐसा जलाता है जैसे आग हड्डियां जलाती हो । सखी के द्वारा किसी से यह कहा गया कि बह सुभग मेरे हृदय से अलग नहीं होता । न तो आभूषण अच्छे लगते हैं और न ही भोजन, म स्नान, न फूल और न लेप । घत्तर–देवर, ससुर और पति के द्वारा मेरे शरीर की रक्षा की जाती है, लेकिन पूर्ण स्नेह से रचित चिस को कौन बचा सकता है ?||८|| जब नगर में यह हालत हो गयी, तो जो प्रधान लोग थे, उन्हें आगे कर, नगर के प्रवर महाजन भग्न मन हो करुण पुकार करते हुए राजभवन गये। (उन्होंने कहा) हे सुभद्रा के पुत्र अंधकवृष्णि ! स्वर्ग से अवतरित हे शिवदेवी के पुत्र! हम पर प्रसाद कीजिए 1 कुमार का बाहर निकलना रोकिए। कुमार वसुदेव ने नगर को मोहित कर लिया है। मानो कामदेव के दण्ड ने सबको अवरुद्ध कर लिया हो। गृहणियों ने घर के काम और पतियों के सुन्दर १. म, ब-हाणुवर गवलण फुल्ल बिलेवण । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8 पढ़मो सम्गो) . थियणाह-महार उम्मडिपई॥ जोहज्जह मयणम्मत्तियहि । वह भायर परकुल-उत्तियहिं ।। ला भुजि भगरा रमण वर्ष। पय जान कहि मि जहिं सहइ सहूं। घत्ता-जं तप्पकबह बाल सहहि मि थियभत्तारें। रमणुरुप बालेर गदि मुना तं णिसुनुषि णरवइ कुदय मणे। कोक्कि वसुएउ कुमारु खणे ।। तहो अलिप-सणे, लागु गले। प्रालिगिवि धुनिउ सिरकमले। उपोलिहि' पुणु बासारिया। पन्छण्ण-पतिहिं वहरियउ॥ संप कुमार वीसहि विमगु । परिहरु पुर-बाहिर-णिग्गभषु ॥ पानोति-घूलि-पायाउ-पवणु। आयई वि साहिप्पिणु फलु कवणु॥ गयसालहि मत्तगयंद परि। परपंगणे कंदुन-कील करि॥ पच्छिम-उल्लाणे मणोहरए। कुरु केलि-विठले केलीहरए ॥ मवरेहि विषोयहि अच्छु तिह। विहाणउ अंगुण होइ जिह॥ दंड ने सबको अवरुद्ध कर लिया हो । गृहिणियों ने घर के काम और पत्तियों के सुन्दर मुख छोड़ दिये हैं। काम से उन्मत्त परकुल पुत्रियों के साथ तुम्हारा भाई देखा जाता है । हे आदरणीय ! अपना राज्य संभालिए। आप ही इसका उपभोग करें। प्रजा कहीं भी जाए, जहां उसे सुन प्राप्त हो सके। .. पत्ता-गदि सती के अपने स्वामी से पुत्र होता है. तो कुमार जो भी बातें करता है, उनका अनुभव वह करे | __ यह सुनकर राजा समुद्रगुप्त मन में कुपित हुआ। एक क्षण में उसने कुमार को बुलाया । वह झूठे स्नेह से उसके गले लगा, आलिंगन कर उसने सिरकमल चूमा और फिर गोद में बैठाया । उसे प्रच्छन्न वचनों से उसने मना किया । हे कुमार ! तुम इस समय उदास दिखाई देते हो, नगर के बाहर जाना बन्द करो! तूफान, धूल, धूप और पवन–इनको सहन करने का क्या फल? तुम गजशाला में मतवाले हाथी पकड़ो, घर के आंगन में गेंद की क्रीड़ा करो (गेंद खेलो), सुन्दर पश्चिम उद्यान में विशाल क्रीड़ागृह में क्रीड़ा करो, दूसरे दूसरे विनोदों से इस प्रकार रहो कि जिससे तुम्हारा शरीर म्लान न हो । १. म-उच्छोलिहि। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सयंमूएवकए रिट्ठणेमिचरिए पत्ता षुणिषणे बंधु-वावातिहि छुट्न। घिउ वसुएव-गई विणयंलेण णियबल ॥१०॥ सहि अवसरि गरघर-पुग्गिए। सिक्रषिहे आणि जिथए । वामीयर-भायग-समलहणु। 'परिमल-मेलाविय-भमरयमु॥ सं मंड कुमारण' अवहरित। सहो तणउ भिएपिणु गुम्बरिङ॥ पारद मुठ्ठ सहलिधि-मुह । पाएहि नुवालिहि पतु वह ॥ विवभनाइ मिह मत्तगा। काठरसहो धोरिम होई का। परियाभिषि आपर-वंचनाउ । किर कन्नु कुमार अप्पण, पिपलिउ ससहयरु एकु जणु । गर रामहे भोसणु पेयानु॥ बहिं जमुवि छलिज्मा गाहिं । गह भूप-पिसामहि जोणिहि ।। पत्ता-तं पसरा मसाणु में सुरई मि भड लाविज । पाई भुक्खिएक कालेण मुहूं जिम्काइउ ॥११॥ णियमिछयं मसाणये। जगावसाण-थागणं ॥ उलूमतह-णाइये। पता-बचन रूपी गुप्तियों से प्रेरित और विनय रूपी प्रग से निबद्ध वासुदेव रूपी महागज भाई के निबन्धन में स्थित हो मया ॥१० ।। उस अवसर पर नरवरों से पूज्य कुब्जा के द्वारा शिवदेवी के लिए लाया गया; चाँदी के बर्तन में रक्षा हुआ, सौरभ के कारण जिरा पर भ्रमरगण इकट्ठे हो रहे है, ऐसा उबटन कुमार ने बलपूर्वक छीन लिया। उसके दुराचरण को देखकर दासी का मुख एकदम लाल हो गया। [वह बोली| इन्हीं दुश्चालों के कारण तुम मतवाले हाथी की तरह वृक्ष बन्धन को प्राप्त हुए । कापुरुष को धीरज कैसे होता है ? भाई की प्रवंचना को जानकर कुमार ने अपना काम किया। एक सहवर के साथ वह अकेलः घर से निकल पड़ा। रात में भीषण प्रेत-वन में पहुं। जहाँ साइनों, ग्रहों, भूत-पिशाचों और योगलियों के द्वारा यम को भी छला जाता है। . घत्ता..-वह उस मरघट में प्रवेश करता है, जिसके द्वारा देवों को भय उत्पन्न कर दिया गया है, मानो भूखे काल के द्वारा मुख फैला दिया गया हो ॥११॥ उसने मरघट देखा, जो लोगों के अन्त होने का स्थान था, जो उहलुओं के समूह के कारण १. ज, प्र--- मलावियभमर यण। २ जन-कुमार Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडनो सगो] पभयभूय-छाइयं ॥ महीगहोडसेषियं । मराफ्वच्छ वेवि ॥ णिसातमधारियं । जमाणणाणुकारियं ॥ दिग्गिजालमालियं। खगावलो-वमालियं॥ सरंडसूलियाउलं । सिवासिलया-संकलं॥ मिसायरेक्क-कवियं । परिस-मिमानि" तहिं महामसाणए। जमालयाणुमाणए॥ घता-जायवणाहु पइट्ट साह्या दूरु यवेप्पिणु ।। 'माणुस णबल बढ़ कटुइं मेलावेप्पिणु ॥१२॥ तहि सम्बाहरणाई मेल्लियई। सत्तनिवहे उप्परि घल्लियई ।। बोल्लाविउ सहचर माहि तुई। सिववेविहिं एवहिं होज सह ।। परंतु मगोर पट्टणहो। सूरहिव-गंदण-गंदणहो । कहि चुस्कु सहोयर-पेसणहो । हर्ड उपरि चडिउ हुआसणहो। ज्ञात था, जो प्रचुर भूतों से आच्छादित था, जो महीग्रह (वक्षों/ब्राह्मणों ?) से सेवित था, हवा से हिलते वृक्षों से प्रकंपित था, जो रात्रि से अंधकारमय था, जो यम के मुख का अनुकरण करता था, जो चिताओं की ज्वालमालाओं वाला था, जो खगावली के नवशब्दों से भरपुर था, जो सरकंडों और शूलियों से व्याप्त था, जो सियारों और तलवारों से संकुल था, जो निशाचर समूह से आक्रान था, जो प्रसिद्ध सिद्धों से शब्दायमान था, ऐसे यम के आकार वाले उस महा श्मशान में बत्ता—यादवनाथ वसुदेव ने राहचर को दूर कर प्रवेश किया, जहां लकड़ियाँ इकट्ठी कर एक युवक जल गया था ।।१२।। यहाँ उसने (वसुदेव ने) सब आभूषण इकट्ठे किए और आग में डाल दिए । सहचर से उसने कहा, "तुम जाओ । इस समय शिवादेवी को सुख हो और नगर के मनोरथ पूरे हों। राजा शूर के पुत्र के पुन (समुद्रविजय) भाई की सेवा में किसी प्रकार का हुआ मैं आग पर चढ़ १.व माणुस गवाल । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगंएवकए रिणेमिघरिए एता पवेस्पिण कहि मि गउ । सरछक णिरंकुसु पाई गज ॥ सहयरेण कहिउ सव्वहो पुरहो। मायर-रिव-अंतउरहो। रोवंतई सना उहियाई। पेक्वेवि साहरण प्रद्वियई॥ बंधवेहि विहाणई दिग्गु जलु । तहिं कालि कुमार वि अतुल बलु ।। पत्ता--विजयखेन पत्त तहिं सुगगीवेण विष्णउ । सरसइ-सक्छि समाणु सई भूसेवि चे काणउ ॥१३।। इय रितुणेमिचरिए सयंभूएवकए समुद्दविजयाहिसेय णामो इमो पढमो सम्गो। गया हूँ।" यह कहकर वह(वसुदेव ) कहीं चला गया- स्वच्छंद निरंकुश गज की तरह । सहचर ने पूरे नगर में, मां और राजा के रनिवास में यह बात कह दी। सब लोग रोते हुए उठे । आमूपणों के साथ हड्डियां देखकर दूसरे दिन सबेरे भाइयों ने उरो जलन्दान किया। उस अवसर पर अतुल छल कुमार बसुदेव-- यत्ता-विजयलेट नगर पहुँचा । वहाँ पर सुग्रीव ने सरस्वती और लक्ष्मी के समान दो कन्याएं स्वयं अलंकृत करके प्रदान की ॥१३॥ इस प्रकार स्वयंभूदेवकृत अरिष्टनेमिचरित में समुद्रविजयाभिषेक नामक यह पहला सर्ग समाप्त हुआ। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विईओ (दुइज्जो) सग्गो सिरि सुग्गीय-सुभाउ परिणेपिणु णपरहों णीसरइ। णाई णिरंकुस-याउ बसुएज महावणु पइसरह ॥७॥ हरिवंसुम्मण त्रिविषकमसारवलेण रग्णयं । वीसाइ देवदारु-तलताली-तरल-तमाल-छपणर्य ।। लवलि-लवंग लउय-अंबु-उन असमविश्व-वि । सामलि-सरल-साल सिणि-सल्लइ-सीमव-समि-समिद्धयं ॥ संपय-चूम-चार-रवि-चंदण-बंदण-चंक सुंबरं । पत्तल बहल-सीयल छाय-लयाहर-सयमणोहरं ।। मंथरमलयमाश्यंदोलिप-पायव-पडिय-पुष्फयं । पुष्फोह-सहल-भमलावलि-णाविय-पहिय-गुप्फयं ॥ केसरिणहर पहर-खरदारिय-करि-सिरभिन्न मोत्तियं । मोतियति-कंति-धवलीकय सयल विसा वहतियं ॥ "खोल्ल-जलोल्ल तल्ल-लोलंत लोलकोल-उल-भीमणं । यायस-कंक-सेण-सिव-जंबुअ-धृय विमुक्कणीसणं ।। मयगय-मय-जलोह-कय कद्दम' संखुमत वणवरं । फुरिय फणिवफार-फणिव-मणिगण-किरण-करालियांबरं ॥ श्री सुग्रीव की कन्याओं से विवाह कर वसुदेव नगर से निकलते हैं और अंकुशविहीन गज की भाँति महावन में प्रवेश करते हैं। हरिवंश में उत्पन्न तथा सिंह के पराक्रम के समान सारभूत बल वाले वसुदेव को महावन दिखाई देता है । वह वन देवदार ताल-ताली और तरल तमाल वृक्षों से आच्छादित है, लवली लता, लवंगलता, जामुन, श्रेष्ठ आम और कपित्य वृक्षों से समद्ध है । शाल्मलि, अर्जन, सान, शिनि, सत्यकी, सीसम और शमी वृक्षों गे सम्पन्न है। चम्पा, आम, अचार, रविचन्दन और वन्दन वृक्षों के समूह से सुन्दर है । जिनमें बहुत से पत्ते हैं ऐसे ठंडी छायाधाले सैकड़ों लतागृहों से जो सुन्दर है, जिस में धीमी-धीमी मलय हवा से आंदोलित वृक्षों के पुष्प गिरे हुए हैं, जिसमें पुष्पसमूह सहित अमरायनी द्वारा पथिकों को झुका दिया गया है, जिसमें सिंहों के नखों के द्वारा तीनता से फोड़े गए हाधियों के सिरों से मोती बिखेर दिए गए हैं, जो गहवरों के जल-समूह में हिलते हुए सुअरों के समूह से भयंकर है, जिसमें वायसों, बगुलों, सेनों, सियारों और सियारिनों द्वारा शब्द किया जा रहा है, जिसमें मदगजों के मदजल समूह की कीचड़ से वन्य प्राणी कुपित हो रहे हैं, जिसका आकाश कांपते हुए नागों से १. दलित । २. ज प्र-सोल्लजलोल्ल-लोलतहो लोल कोलकुलभीमणं। ३. ज, प्रकहम-संकुज्झतवणयरं। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंमूएक्कए रिट्ठणेमिचरिए गिरि-गण-तुंग-सिग-आलिपिय-चंदाइच-मंडलं । तत्य भयावणे वणे दोसइ गिम्मल सीयस जलं ॥ धत्ता–णाम सलिलावत्त लक्लिज्जाइ मणहर कमल सर । गाई सुमिते मित्तु श्रवगाहिउ णयणाणक्यच ॥१॥ जन्य साथ- विला मच्छ-कच्छ-विच्छुलाई ॥ रायहंस-सोहियाई। मत्तहस्थि-डोहियाई ।। भीतरंग-भंगुराई। तारहारपडुराई ।। पउमिणी-करंबियाई। चंचरीप-चुंबियाई॥ मारुप्प प्राप] बेवियाई । चमकवाय-सेबियाई॥ पक्क-माह-माणियाई। एरिसाई पाणियाई॥ सेयणील-लोहियाई। सुररासि-धोहियाई॥ मत्त छप्पयाउलाई। जत्य सरिसुप्पलाई॥ धत्ता -तेत्यु रउद्गइंदु घाइयउ सबमहणरवरहो। 'अहिणव-चासारितुहि गज्जंतु मेह णं महोहरहो ॥२॥ विशाल और नागराजों की फणमणियों की किरणावलियों से भयंकर है, जिसने पर्वत समूह के कैसे शिखरों से चन्द्रमा और सूर्य के मण्डलों को आलिगित किया है, ऐसे उस भयावह वन में उसे स्वच्छ और शीतल जल दिखाई देता है॥१॥ घसा-रालिलामत नामका सुन्दर कमल-सरोवर दिखाई देता है। उसने उसका ऐसा अवगाहन किया जसे सुमित्र ने नेत्रों को आनंद देने वाले मित्र का अवगाहन किया हो। जिरा (सरोवर) में जल प्राणी-समूह से आपूरित है, जो मत्स्यों और कछुओं से व्याप्त है, राजहंसों से शोभित है, मलवाले हाथियों से आन्दोलित है, भयंकर लहरों से वक्र है, स्वच्छ हार की तरह धवल है, कमलिनियों से अंचित है, भ्रमरों से चुम्बित है, हवाओं से कम्पित है, पक्रवाकों से सेवित है, मगरों और ग्राहों के द्वारा सम्मानित है। इस प्रकार के सरोवर के जल में श्वेत, नीले और लाल, सूर्य की किरणों से विकसित, मतवाले श्रमरों से आकुल सरस कमल थे। पत्ता-वहाँ पर, उस नरवर (वसुदेव) के सामने गजेन्द्र इस प्रकार दौड़ा, मानो नई बर्षाऋतु में गरजता हुआ महामेघ पर्वत पर दौड़ा हो ।।२।। १. -भीम रंग-मंगुराइं । २ ज, अ, ब-अहिणववासारत्तुहि। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिईयोस ] चाहउ मतमहागबु । कम्पनिलखालि -महि ॥ चलणचारि-चूरिय-भुवंगु । कर बुक्कर - परिषि-पयंगु ॥ मयजल परिमल-मिलियालिषि । तोसारिय सुरंग ॥ यिकाय - कंति कसणी - कथासु । मयसलिल- सित्त गत्तावकासु ॥ उम्मूलिय- सिणि- मुणाल सं । -बुर- गिल्लगंडु | एव वहिरिय-सयल दियंतरालु । सिर- सुपाडिय - गिरि लयालु' ॥ मुह मारय-वस-सोशिय समुदु । गणु वशम् हणणे रउषुषु ॥ उद्धरिलम - भीसण रूवधारि । कलिकाल - कांत-खमाणुकारि ॥ घत्ता---लाहारण इंदु हेलए जि कुमारें परिज किह । धाराहरु रितु खीलेपणु सुबकें मेह जिह ॥ ३॥ तह कासि पाइय विणि जोह । णं संव-दिवायर दिषणसोह ॥ तह एक्कु णवेष्पिणु चव एव [म] । [१५ वह मतवाला महागज दौड़ा, जिसने अपने कानों की हवा से श्रेष्ठ पहाड़ों को चलायमान कर दिया है, जिसने चंचल पेरों की चाल से शेषनाग को चूर-चूर कर दिया है; जिसने हाथ के समान सूंड से सूर्य को चूम लिया है। जिसके मदजल के सौरभ से अमर मिले हुए हैं। जिसने अपने मजबूत दाँतों से ऐरावत को खदेड़ दिया है, जिसने अपने शरीर की कान्ति से दिशाओं को काला बना दिया है, जिसने मदजल से शरीर के भाग को सिंचित किया है, जिसने कर्मियों के मृणाल -दण्डों के समूह को उखाड़ दिया है, जो दर्पं से उद्धत और दुर्धर आर्द्र वाला है, जिसने अपनी गर्जना से समस्त दिगंतराल को बधिर बना दिया है, जिसने सिर की मार से पहाड़ों के बांसों के झुरमुटों को उखाड़ दिया है, जिसने मुख के पवन से समुद्र को सोख लिया है, जो युद्ध में शत्रुगज का निवारण करने वाला भयंकर महागज है, ऐसे भीषण रूप धारण करने वाले कलिकाल कृतांत यम का अनुकरण करने वाले बला - उस महागज को कुमार वसुदेव ने खेल-खेल में इस प्रकार पकड़ लिया, जैसे बरसते हुए धारावर मेघ को शुक्र ने कीलित करके पकड़ लिया हो ||३|| उस अवसर पर दो योद्धा आये, मानो शोभा देने वाले चन्द्र और सूर्य हों। वहाँ एक ने १. - - सिरि बेच्नुपाडिय भीसणस्वचारि । २. अ— सो आरणु गइंदु अर्थात् यह आरण ( आरण्यक ) । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ------- - - - -- [सयंभूएवकर रिटुणेभिरिए परिपुण्ण-मणोरह मजदेव॥ हर्ष मच्छिमालि इज वायुवेउ। णियस्वोहामिय-मयरकेउ । वे अहह तुम्हाई पखवालु। सुणि कहमि कहतर सामिसालु ॥ वेयड्ढे कुंजरायत्त णयरु। तहिं प्रसणिवेउ गामेण खयर ॥ तहो तणिय तणय णारेण साम। वीणापयोण रामाहिराम ॥ कमलायरि कुंजरु जिणह जोज्मि । भत्तार ताहे संभवद सोजि ॥ सो तुई करि पाणिग्रहणु देव । "णिउ पुर परिणबह भोव एवं॥ पत्ता सामाएवि लएवि परिझसे थिउ बढारएग। गरुड़ें जेम भुगु जिउ गिसिहि हरिवि अंगारएण ॥४॥ जं णित बसुएउ महाबलेण। कढे लग्ग साम सई णियबलेण ।। मर मा कहि मह पिउ लेवि जाहि । जइ धीरउ तो रणे थाहि थाहि ।। पिज्जाहरु बलि कमंतु जेम । तुई महिल बराई हमि केम ।। परमेसर पभणइ अक्षु तोवि। कि रक्ससि खेति ण हण कोवि ।। नमस्कार कर इस प्रकार कहा, "हे देव! आज हमारा मनोरथ सफल हुआ। मैं अर्थिमाली हैं और यह वायुवेग है। अपने रूप से कामदेव को पराजित करने वाले हे स्वामिश्रेष्ठ ! आपके हम दोनों रक्षा करने वाले हैं। मैं कथान्त र कहता हूँ सुनिए, विजयाध पर्वत पर कुंजरावर्त नाम का नगर है । वहाँ अदानिवेग नाम का विद्याधर है । उसकी स्पामा नाम की कन्या है जो बीणा में निपुण और सुन्दरियों में सुन्दर है। इस सरोवर में जो भी हाथी को पकड़ लेगा वही उसका पति होगा। तुम वही हो इसलिए हे देव ! तुम उसका पाणिग्रहण करो।" यह कहकर उसे नगर ले जाया गया। यता-श्यामादेवी को लेकर वह परिरमण में स्थित ही था कि इतने में बड़ा अंगार रात में उसका अपहरण करके उसी प्रकार ले गया, जिस प्रकार गरुड़ सांप को हरकर ले जाता है ।।४॥ ___ अब महाबली के द्वारा वसुदेव ले जाया गया, तो श्यामा अपनी सेना के साथ उसके पीछेलगी और बोली- "मर, मर । मेरे प्रिय को लेकर कहा जाता है ? यदि धर्य है, सो पुस में ठहर ठहर ।" विद्याधर यम की तरह मुढ़ा और बोला, "तुम बेधारी महिला हो, कसे माह ? परमेश्वर (वसुदेव) कहता है-"फिर भी बताओ, क्या कोई खाती हुई राक्षसी को नहीं मारसा ? १. गिज पुरु परिणामिओ भणेवि एव । २. प्र—विज्जाहर वलिओ। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहमो सग्गो] पतितलिउ विमाणु खतरेण । अंगारज ताडिउ असिवरेण ॥ तेण वि परिचितिज करमि एम।' णज मन्सुण सामहे होइ जेम ।। पण्णसह विजाहरेण मुस्क। भूगोयर पयणयरे दुक्कु॥ गहि वासुपुज्जविणदेव-भषण । पिसिणिगमे इंविय-वप्प दमणु ।। पत्ता-बंदिउ परम जिणिदु परमेसरे तिहुयण-सिहरगड। जब तुई गाह ण होंतु तो भव-संसार हो छेउ गउ ॥५॥ जिणणाहणविप्पिणु ण किउ खेउ । ताहि कोवि पपुच्छिउ भूमिवेज ॥ अहो विमवर अणनउ कवणु एंट्छ । किम णाम णयक पंडरियगेह ॥ मायासह। कि सुहं पहिल वस । जंण सुण लोयपसिद्ध चंप ।। बहि णिवसई णिवधम-रिदिपतु । पणिणंवणु णामें चाश्वत॥ तहो तणिय सणया गंधव्वसेग। परिणिज्जइ जिम्ना अज्जफेण ॥ आलावणि-वज्जे मणहरेण । सो सउरीपुर-परमेसरेण ॥ क्षण में तलवार से आहत विमान और अंगारक स्खलित हो गया। उसने भी अपने मन में सोचा कि ऐसा करता हूँ जिससे यह न मेरा हो और न श्यामा का। विद्याधर ने पर्णमध्वी विद्या छोड़ी। मनुष्य (वसुदेव) चंपानगर में पहुँचा, जहां पर वासुपूज्य जिनदेव का भवन था । रात्रि बीतने पर इन्द्रियों का दमन करने वाले - घाता—परम जिनेन्द्र की वंदना की ...हे त्रिलोक-शिखर के पर जाने वाले परमेश्वर ! हे नाथ! यदि तुम न होते, सो इस पत्र-संसार का अन्त नहीं था ॥५॥ जिननाथ को नमस्कार कर, बिलम्ब न करते हुए किसी ब्राह्मण से पूछा-..."हे द्विजवर ! यह कौन-सा जनपद है, सफेद गृहों वाला यह कोन-सा नगर है ? (द्विजवर ने कहा) "तुम बेचारे क्या आकापा से आ पड़े हो, क्या तुमने प्रसिद्ध चंपा नगरी को नहीं सुना, जिसमें अनुपम ऋद्धि को प्राप्त (का पात्र) चारुदत्त नाम का वणिकपुत्र निवास करता है। उसकी गंधर्वसेना नाम की कन्या है। जिसके द्वारा यह आलापणी नाम की —करमि एण। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिट्ठणेमिचरिए भपाणु पयासिर सेण तेत्यु। मिलिया भूगोधर सबई जेस्प ॥ घसा-विज वणितणयहे पासि बसुएज वि एग्जा मसगउ । 'पल्ला देहि वत्ति भरजह मरट जेण अण्जतउ ॥६॥ तो बीगा-साहालाई खोइयर। बसुएवं साईण जोइयई॥ विरसई जग्जरई फुसखिई। सम्बई लक्षण-परिवज्जिई ॥ सत्तारहं संक्ति सुधीसवीण। सुहलपक्षण अवलक्खण-विहीण ॥ पल्साइय कुमारहो करि विहाई'। बालहिय सुकंसहो कंतणा ॥ पारद मणोहरु तंतिवन्छु। ण कारण तेत्युपाणु अन्जु गं जिगबर सासगु रिसह सार। बहुलपक्ख-मह संवतार ॥ परिचितामणे गंषण्वसेण । कि मम्मह पिउ माणुसमिसेग। कि सरगही सुरवर कोषि प्रात। कि किरणर गंधवराज आउ ।। वीणा के द्वारा जीत ली जाएगी, वह उसीसे विवाह करेगी।" तब शौर्यपुरी के स्वामी (धसुदेव) ने अपने को वहाँ प्रगट किया, जहाँ सैकड़ों मनुष्य इकट्ठे हुए थे। बला-बसुदेव को वणिकन्या गन्धर्वसेना के पास ले जाया गया। वह वहाँ मतवाले गज की भांति जान पड़ते थे। उन्होंने कहा---“शीघ्र वीणा दो, जिससे आज तुम्हारा अहंकार नष्ट किया जाए" ॥६॥ तब हजारों वीणाएं उपस्थित की गयीं। वसुदेव ने उनकी ओर देखा तक नहीं। वे सच नीरस जर्जर, कुसाजवाली और लक्षणों से रहित थीं। सत्तरह तारों वाली सुघोष चीणा शुभलक्षणों वाली और अपप्लक्षणों से रहित थी। कुमार वसुदेव के हाथ में वह ऐसी सोह रही थी, जैसे सुकांत की सुन्दर कान्ता हो । उसने वीणा को सुन्दरता से इस प्रकार बजाना शुरू किया मानो उसे बजाने का सुन्दर कारण उत्पन्न हुआ हो । वह वादन ऋषभसार (ऋषभ तीर्थंकर ऋषभराग) वाला, जिनवर शासन हो या मंदतार (मंद स्वर और तारों वाला) कृष्णपक्ष हो । तब गन्धर्वसेना अपने मन में सोचती है--स्या यह मनुष्य के रूप में कामदेव है ? क्या स्वर्ग में कोई श्रेष्ठ देव आया है ? क्या किानर या देवराज आया है ? १.न,R-बोल्खहि । २. ब-विहाय । ३. जाम---माणुसवेसेण । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिइयो सगो] पत्ता--अपणही एड ण उप्रणही पिण्णागुण एतबद्ध। एक जगु जिणिषि समस्य महचिसु किर केत्तम् ॥७॥ सुमाग्रहसरेहि' सरीच भिण्णु। वसुएवं मोहणु णाई दिण्फु॥ विवच्म'मण एक्कु वि ण फस जाई। चरे बाहें विद्धि हरिणि पा॥ लोपगई णिधा लोपहि। सबंगई अंगगिषणेहि ॥ चित्तण चिसु णिञ्चलु मिन्द। जीवगाह-गुत्तिए णाई एक वणितणए मयणपरबसाएं। पत्तिय णयणुप्पलमाल साए॥ परिणिज्जइ हरिकुलणंवर्गण। तरुणीयण-थण-महणेग॥ रह-रसवस इय अमछसि जाम । फरगुण-णंदौसर टुल्कु ताम ।। सुरणर-विम्जाहर मिलिय सत्य। सिरिधासुपुज्जमिण जस मेत्यु । पत्ता-'ता तित्यु गयाई सबिलासई रहवरे परिपाई। र विणषि णं सई सुरवह-सगहो परिपाई ॥८॥ जिणभषणहो बाहिरि ताम करण। मायगिणि णच्चद सुवण्णवण्ण ।। घसा-ग्रह किसी दूसरे का रूप नहीं है ? किसी दूसरे का यह विज्ञान नहीं है ? पह विपण को जीतने में समर्थ है । मेरा चित्त कितना-सा है ॥७।। कामदेव के आयुधतीरों से उस गंधर्ष सेना का शरीर विद्ध हो गया, जैसे वासुदेव ने संमोहन कर दिया हो। व्याध के द्वारा उर में आहत हिरनी की तरह वह एक कदम नहीं चल पाई। नेत्रों से नेक बंध गए, शरीर के निवन्धनों से सारे अंग बैंध गए, और चिस से अरिंग चित्त इस प्रकार बंध गया, जैसे वह जीव लेने वाले कठघरे में बाल दिया गया हो। कामदेव के अधीन होकर उस श्रेष्ठिकन्या ने अपने नेत्रों की कमलमाला उस पर गल दी। युवतीजनों के स्तनों का मर्थन करनेवाले हरिवंश के पुत्र वसुदेव ने उससे विवाह कर लिया। इस प्रकार वे जब कामक्रीड़ा के अधीन रह रहे थे, तभी फागुन नन्दीश्वर-अष्टाहिकपर्व मा पहुंचा। बड़े-बड़े देव और मनुष्य वहाँ इकष्टुं हुए जहाँ वासुपूज्य जिनवर की 'यात्रा' थी। पत्ता--वे दोनों (वसुदेव और गंधर्वसेना) रथ पर सवार होकर इस प्रकार उतरे, जैसे स्वर्ग से क्रमशः इन्द्र और इन्द्राणी अवतरित हुए हैं । इतने में सोने की रंगवाली मातंगकन्या जिन-मन्दिर के बाहर नृत्य करती है--जिसने १. ज-कुसुमायुइसरेहि । २. प्र-विवण । ३. अ, अ—इमि तित्युगयाई ४. न, अ, ब--सयं । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] सयंभूएवकए रिट्ठणेमिचरिए कम-कमल-ति-जिय कमल-सोह। साउण्ण-जलाऊरिय-विसोह। मह ससि-घलिय-गयणायास। सिर-कैस-ति-कसणी-कयास ॥ सहं कउत' उच्छवंति दिट्ठ। गं करमभल्लि हियवई पइट्ठ । वसुएव-विद्धि अण्णहि ण जाइ । णियघरु मुएवि कुलबहय गाइ॥ पिय मयण-परम्वस दुहिय कत'। चलपुरुस होंति अविवेयवंत ।। ण मुणंति महिल महिलतराई। रहु सारह सारहि परिज काई । तो पेल्लिय एं वरतुरंग। गं मारुए ण जलगिहि-तरंग। घत्ता वणितणए फरि लेवि पइसारिख जोयउ जिणभवणे । घेव विहिए पणवति मायंगिणी शायद णिय मणे ॥६॥ कमारेण सजरीपरि-सामिएण। मउम्मस-मायंगी-भीमएण ॥ वंदिउ' येवदेवो जिणियो। आणदो अणिववाहियो। तिलोयगागामो तिलोयणाही। चरणकमलों की कान्ति से कमलों की शोभा को जीत लिया है, जिसने अपने सौन्दर्य-जल से दिशा-समूह को आपूरित कर दिया है, जिसने अपने मुख-चन्द्र से आकाश धवल बना दिया है, जिसकी केया-राशि ने दिशाओं को श्याम बार दिया है । कौतुक के साथ उछलती हुई वह ऐसी दिखाई दी मानो कामदेव की बरछी हृदय में प्रवेश कर गई हो । वसुदेव की दृष्टि उसी प्रकार किसी दूसरी ओर नहीं जाती, जिरा प्रकार कुल्लवधू की दृष्टि अपने घर को छोड़कर कहीं और नहीं जाती है। प्रिय को काम के वशीभूत देखकर कान्ता गन्धर्वसेना दुःखी हो उठी । (यह सोचती है) चंचल पुरुष अविवेकशील होते हैं, वे स्त्री और स्त्री के बीच अन्तर नहीं समझते 1 हे सारथि ! तुम रथ चलाओ, उसे रोक क्यों रखा है ? सारथि ने तब श्रेष्ठ अश्वों को प्रेरित किया, मानो पवन ने समुद्र की लहरों को प्रेरित किया हो। पत्ता--- वणिकन्या ने हाथ पकड़कर वसुदेव को भीतर प्रवेश कराया। वह विधिपूर्वक देव को प्रणाम करता है, परन्तु अपने मन में मातंगसुन्दरी का ध्यान करता है ।। ___ मातंगसुन्दरी के द्वारा भ्रमित, शौर्यपुरी के स्वामी कुमार वसुदेव ने स्तुति प्रारंभ कीहे देववन्य! देवदेव जिनेन्द्र, अनिन्ध, अनिन्द्यों के समूह द्वारा वन्दनीय, त्रिलोक के अग्रगामी १. ज, अ-सहुं कुतवें। २. ज, प्र--हुइम कंत। ३. ज, अ--जिणभवणु। ४. - बलावंदिउ । ५. ब-तिलोयस्स गाहो । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियोगी ] अराउ कामो अाहो अबाहो ॥ सुहकेवलं केवलं जस्स गाणं । महादेव देवत्तणं चप्पहाणं असोम जस्स विण्णेय [गियडेव ] सोहो । पहामंडल दुदिहि- चामरोहो । मदासणं आमरी पृष्वासं । ति सेयायवत्तई दिवाभासं ॥ far fह एएहिं तुमं देवदेखो । राण चि दीसंत कोवालेवो || तुमम्मि पसष्णम्मि होतु मे ताणं । चिधाई एवाई सम्वामराणं ॥ धत्ता- बंदिवि परमजिवि सफलतु गउ घतुएउ घर । णं सकरेणु करेणु पसरह मनोहर कमलसरु ॥१०॥ तहि कालि कुमारकण बाल । ण पबंध णिय सिरि कुसुममाल साह अंग पाहणेण । वीषिय विरह-हुसणेण ॥ जय श्री अरोषु कुरुषासु सोस् । पासेा खेट पसरइ अतोषु ॥ संतावs चंदणलेउ चंबु । मलयाणिलु दाहिणि सुरहि मंदु ॥ परिपेसिय बूई आहि माए । लग्गेज्महि सुयहो तथए माए ॥ [२ त्रिलोक स्वामी, मराग, अकाम, ईर्ष्याविहीन, बाधा रहित, जिनके केवल शुभ केवलज्ञान है, ऐसे हे महादेव ! देवत्व में प्रधान, जिनके पास लोभा देने वाला अशोक वृक्ष है, प्रभामण्डल, दुभि और वामर समूह है, सिंहासन है, दिव्य पुष्प वृष्टि है, तीन श्वेत छत्र हैं, दिव्यवाणी है, ऐसे चिह्नों के कारण तुम देव देव हो। मनुष्यों में कोप का अवलेप देखा जाता है, तुम्हारे प्रसन्न होने पर मेरा त्राण होगा - ये चिह्न सब देवों के नहीं होते । --- इस प्रकार परमजितेन्द्र की वंदना कर वसुदेव अपनी पत्नी के साथ उसी प्रकार घर गया, जिस प्रकार हाथी हथिनी के साथ कमल सरोवर में प्रवेश करता है ॥ १० ॥ 1 उस अवसर पर कुमार के लिए, वह विद्याधरबाला अपने सिर पर फूलों की माला नहीं afat | अपने अंगों को प्रसाधनों से नहीं बजाती । मानो विरह की आग से वह उद्दीप्त हो उठी। ज्वरदाह, अरोचकता, कुरुवासु । शोषण, प्रस्वेद, खेद और असन्तोष फैलता है । चन्द्रमा और चन्दन का लेप, सुरभित मंदमंद दक्षिण पवन उसे संताप पहुंचाते हैं। उसने दूती भेजी - हे श्रादरणीये ! जाओ और तुम उस सुभग के पैरों से लगो । कामदेव के रूप का १. अ, ब - संदीविय। २. ब - भए । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] [सयंभूएधकए रिटुणेमिचरिए युच्च अणंग रूवाणु कारि। परिणम विजाहर कुमारि ।। नीलजस पामें पई बिट्ट। मायंगिणीवेसे पुरे पाच ।। ण समिन्छइ जइ तो तंफरेहि। णिय विजापाणि हरिवि एहि ॥ घत्ता-जाएघि दूजियाए सामिणि केरउ आएसु किउ । सुख सुत्तउ जि कुमारु बेयकमहीहर गवर पिउ ॥११॥ । परिणिय नीसंजस णामय । पुणु सोमच्छि पुणु भयणवेय॥ पुणु भिल्लहो तणया जरापत्त । सहि अरकुमार जग्पष्म पुत्त ॥ पावंतु लभ परिभामिउ ताम। बरिससयई सत्तासयाइं जाम ।। गउ णरवर णवर अरिटुणयक। तिलकेसहो कारणे गं सयर। तहि परबर गामें लोहियान। जस फेरउ पिम्मल ब्रह्मपालु। सहो परिणि सुमित्त महाणुभाव । भुभंगोहामिय मयणचाव॥ तहो गंवणुणाम हिरणमाहु । सुपरोहिणिहे बट्ट विवाह॥ आवत्तु सयंवरू मिलियराय। अनुकरण करने वाले उससे कहा जाए कि तुम उस नोलेजसा नाम की कुमारी से विवाह कर लो जिसे तुमने मातंगिनी के रूप में नगर में प्रवेश करते हुए देखा है । यदि वह नहीं चाहता है, तो तुम ऐसा करना कि अपनी विद्या के हाथ उसका हरण करके उसे ले आना। उत्तर. उसी बूती ने जाकर कुमारी स्वामिनी का आदेश किया, वह सुख से सोते हए कुमार को सिर्फ विजयाध पर्वत पर ले आयी॥११॥ उसने नीलजसा नाम की विद्याधरबाला से विवाह किया, फिर सोमलक्ष्मी और मदनवेगा से । फिर भिल्लराज की पुत्री जरा को प्राप्त हुई। उससे जरत्कुमार पुत्र उत्पन्न हुआ । इस प्रकार लाभ प्राप्त करता हुआ कुमार तब तक घूमता रहा, जबतक कि उसे सात सौ वर्ष नहीं हो गए। वह नरश्रेष्ठ सिर्फ अरिष्टनगर पहुंचा, जसे तिलकेशा के लिए सगर पहुंचा हो। वहाँ लोहिताम नाम का राजा था जिसके दोनों पक्ष निर्मल थे । महान् भाववाली उसकी सुमित्रा नाम की पत्नी यो, जिसने अपनी भ्रूभंगिमा से कामदेव के धनुष को नीचा दिया था। उसके पुत्र का नाम हिरण्यनाभ था। उसकी पुत्री रोहिणी का विवाह हाना था, इसलिए -- - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदो सगो] कुरुपंडव जायवपमुह प्राय ॥ वत्ता सम्वेवके कपहाणा सव्वेहि सच सामगि किय । णिय-णिय मंघारूढ अप्पाण सई भूसित थिय ॥१२॥ इय रिठणेमिचरिए पवलइयासिए सयंमूएवकए गंघव्वसेणालभो णाम दुइज्जो (विईयो) सगो। स्वयंवर प्रारम्भ हुआ। उसमें कुरु-पांडव और यादव-प्रमुख राजा मिलकर बाये । घसा-वे सभी एक-से-एक प्रधान थे । सब के द्वारा सब प्रकार की सामग्री जुटाई गई थी। अपने-अपने मंचों पर बैठे हए वे स्वयं को आभूषित कर रहे थे ॥१२।। पवलइया के आश्रित स्वयंमूदेव कवि द्वारा विरचित इस अरिष्टनेमिचरित काव्यमें गन्धर्वसेना प्राप्ति नाम का दूसरा सर्ग समाप्त हुआ। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ सग्गो रोहिणिकर-घरमाणा सयल वि राणा मिलिया जरसंधै। पं वसविसिहि पसत्ता महुयरमत्ता कटिय फेया-सांधे । णिग्गय रोहिणि जयजय सद्दे । गहिय पसाहण-जुवण-गचे ॥ सम्वाहरण-विसिम-देही। मोहण वेल्लिघ मोहणलीला। यम्महं भल्लिव बिधणसीला। ताराएवि व थाणहो चुक्की। तस्वय-ट्ठिीव सम्बहो चुक्की ॥ जंजं जोयह सं मारह। सोण प्रथि जो मगु साहारई ।। सोण अस्थि जो णउ संतत्तउ। सो ण अस्थि जो मुन्छ ण पत्तउ । सो ण अस्थि सा जेण ण विष्टुि'। सो ण अस्थि जसु हियइ ण पइट्टि । सबलु लोउ भूसिउ मणचोरिए । मोहिज हरिण-णिबहु णं गोरिए॥ रोहिणी से पाणिग्रहण करनेवाले समस्त राजा जरासंध से इस प्रकार मिले, जैसे केतकी की गन्ध से आकर्षित होकर मतवाले भ्रमर सभी दिशाओं में फैल गए हों। यौवन के गर्व से प्रसाधन करने वाली रोहिणी जय-जय शब्द के साथ निकली--जिसकी देह सब प्रकार के आभूषणों से विकसित है, जो बिजली के समान उज्ज्वल शारीरवाली है, जो सम्मोहन लता ओर संमोहन लीला के समान है, जो कामदेव की मल्लिका के समान बँधने के स्वभाववाली है, जो स्थान से व्युत तारा के समान है । गिद्ध-दृष्टि के समान वह सबके पास पहुंची। जिस-जिस को वह देखती है, उसको मार डालती है। वहाँ एक गी ऐसा नहीं था जो मन को सहारा दे। वहां एक भी ऐसा नहीं था जो संतप्त न हुआ हो। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं था जो मुछित न हुआ हो । वहाँ एक भी ऐसा व्यवति नहीं था जिसने उसको न देखा हो और जिसके हृदय में उसने प्रवेश न क्रिया हो । मन को चुराने वाली उसने सारे लोक को ठग लिया, मानो गोरी ने मृग-समूह को मोह लिया हो। १. प-यह पंक्ति नहीं है। २. सभी प्रतियों में 'सो णड अत्यि जेण ण दिट्ठि' पाठ है; उममें दो मात्राएं कम है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहको सग्गो] [२५ पत्ता-णिय-सामिणि-अणुलागी करिणि व लागी बाद णराहिल भाव। आयह मज्ने प्रसेसहं उज्जलवेसह लाइ जुवाण जो भावा ।।१।। जोवइ बाल धाइ परिसाबह । एमवि णरबह मणही ण भावद।। पंचिय 'कंचणमंत्रमयंघहं। किव-गेय-कोण-जरसंघहं ।। वंचिय इंद-पडिद-सुरीसव । विणिवि सोमपत्त-भूरीसत्र । बंचिय विजर-पंडु-षयरद्वदि । केरल-कोसल-जवण-घट्टवि || बंधिय भोट्ट-जट्ट-जालंधरवि । टक्क-हीर-कीर-खस-बध्यरवि ।। गुज्जर-लाउ-गउड-गंधार-वि । सिंधव-मद-सुरट्ठ-बसारवि। यांचय उगसेप-महसेण वि। देवसेण-सुरसेण-सुसेवि ।। बंभणइम्भ से वि णवि जोइय । जहिं तूरहं तहिं करिणि चोहय ।। घसा-हि पणवंतहं भरि' जो जो अंतरि सो सो कोवि ग भावइ । सवणेदियह सुहावउ गं परिणावउ पडहसद्द परिभावइ ।।२।। ___घत्ता-धाय अपनी स्वामिनी के पीछे हथिनी के समान लगी हुई उसे राजा दिखाती है। उज्ज्वलवेष वाले इन समस्त लोगों के बीच जो युवक अच्छा लगे उसे वर लो॥१॥ बाला देखती है, और धाय दिलाती है, उसके मन को एक भी राजा अच्छा नहीं लगता। स्वर्णिम मंचों से मदांध कृपाचार्य, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और जरासंध को उसने छोड़ दिया । इन्द्र, प्रतीन्द्र और शूरिधव को भी उसने छोड़ दिया। सोमदत्त और भूरिश्रव दोनों को भी उसमे वंचित किया । विदुर, पाड़ और धतराष्ट्र को बंषित किया । केरल, कोसल, यवन और थाट (?) को वंचित किया। भोट, जाट और जालंधर को वंचित किया। टक्क (पंजाब), हीर, कीर, खस (फश्मीर के दक्षिण का प्रदेश), बर्बर, गुर्जर, लाट, गौड़ और गांधार को भी; सैंधव, मद्र, सौराष्ट्र और दशाहों को भी वंचित किया। उग्रसेन और महासेन को भी: देव सेन, सुरसेन, सुषेण को भी; ब्राह्मणों और धनाढ्यों को भी उसने नहीं देखा। जहां नगाड़े पें, वहाँ उसने थिनी को प्रेरित किया। पत्ता-वहाँ नगाड़ा बजानेवालों के भीतर बीच-बीच में जो जो दिखाई देता है, वह कोई भी अच्छा नहीं लगता। उसे केवल थवणेन्द्रियों को सुहावना लगनेवाला विवाह के नगाड़े का शन्द अच्छा लगता है ।।२।। १. —वण्णहम्मतरि । २. --सणिदयहं । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयमूएअकए रिटुणेमिचरिए पथिय-पणय-सक्षु सुउ कपणए । आउ पाउ गं कोक्का सम्णए ।। पाउप्राउ वह एत्त हे अच्छइ । प्राउ प्राउ इहमाल परिन्छइ ।। भाउ पाउ ए सम्वहो चंगउ । सम्माहरण-विहूसिय-अंगउ ।। आज माउ ए णिरुवम वेहरु । पाज आउ एल वम्महं जेहन । आउ माउ फेम अच्छहि दूरें। एम णाई हक्कारह तरें ।। बंधिषि वियवर वणिवर सत्तिया मामिलासो- रे तय ।। जे में मिलिय संयंबरि राणा । ते ते सयल बि थिय विहाणा। जणु जंपइ तहो सिय आवग्गि । रोहिणि जसु करपल्लवे लग्गि।। पत्ता-बुबइ सो मज्झत्थं सुरवरसत्] एह ग जुरजइ सयसहो । घिर चंदायणि विष्णहो परिरमण्णहो ण रोहिगि तिह सपलहो ॥३॥ तो मादत्तमहापजिबंधे। सब्जिय गियरव जरस।। पावियहो कुमारि उद्दामहो। रयणाई संभवति महिवालहो॥ कन्या ने पथिक (वसुदेव) के नगाड़े का शब्द सुना जो मानो संकेत से कहता है कि याओ, आओ। आओ, आओ वर यहाँ है । आओ, आओ यह माला की प्रतीक्षा करती है। आओ, आओ यह सबसे अच्छा है, और इसका शरीर सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित है। आओ, आओ, यह अनूपम देहवाला है। आओ, आओ, यह कामदेव के समान है । आओ दूर क्यों हो? इस प्रकार नगाड़ा उसे पुकारता है। द्विजवर, वणिकवर और क्षत्रियों को छोड़कर उसने उस प्रतिहारी के गले में माला डाल दी। स्वयंबर में जो-जो राणा सम्मिलित हुए थे, वे सब निराश होकर रह गए। लोग कहते हैं कि लक्ष्मी से वहीं अभिभूत होगा, जिसके हाथ लक्ष्मी लगेगी। ___ घना-सब मध्यस्थ सुरवर-समूह कहता है कि सबके लिए यह उचित नहीं है । शाश्वत चाँदनी के चिह्नवाले और सब ओर से रमणीय चन्द्रमा की तरह रोहिणी सबकी नहीं होती॥३॥ __ तब महा प्रतिबंध प्रारंभ करनेवाले जरासंघ ने अपने पक्ष के राजाओं को संकेत दिया कि इस पैदल चलनेवाले से कुमारी को छीन लो। रन (स्त्रीरत्न) केवल राजा के ही होते हैं। १. .-कण्णई। २. म--सग्णाई । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तझ्यो सगो] रुटिरहिरगगाह बोल्लाह। जह ण वेइ तो यमपहे लायह ॥ धाइय परवर पहुमाएसे। णं जमकिंकर-माणुसवेसें ॥ तहि अवसरि वसुएक्हो ससुरें। सो णिरुख णं केवि असुरें। रहि अप्पणई चढायउ जायज । सिहरि महोहरेण णं पायउ॥ तो णिवांव तापही संधणे। थिउ 'पप्पुभ-कामहणे ॥ तो पसरिय रणरहसणुराएं। बुच्चड़ लोहियमषु जामाएं ॥ पत्ता-सरह सहासगु विज्जत एतिङ किज्जर पण माम लस्वावमि। एंतु एंतु अरि उपरि हउं गरकेसरि हरिण बेम उदावमि ॥४॥ परिणिउ कलसु को उद्दाला। को इंदहो देवत्तणु टाला॥ को फणिवदह फणामणि तोग्य। वश्वस-महित-सिंगु को मोह ॥ तुम्हई विपिणवि रोहिणि पखहो । हउं अम्भिमि एक्क परियाखहो ।। वहसिहि थरत सर लायमि । उद्ध कबंध-णिबहु णचावमि ॥ सोहिताक्ष और हिरण्यनाभ से कहो । “यदि वह कन्या न दे, तो उसे यमपथ पर भेज दो।"प्रभु के आदेश से अनुचर दौड़ें, जैसे मनुष्य के रूप में यमकिंकर हों। उस अवसर पर पसुदेव के ससुर ने, किसी असुर के द्वारा निरुद्ध यादव को अपने रथ पर चढ़ा लिया, मानो पर्वत ने वृक्ष को अपने शिखर पर चढ़ा लिया हो । वब विचार कर वसुदेव ससुर के दर्प से उक्तों को चकनापुर करनेवाले रप पर स्थित हो गए । इतने में जिसमें युद्ध के लिए हर्ष और अनुराम उमड़ रहा है ऐसे जामाता ने लोहिताश से कहा--- पत्ता--"रथ सहित धनुष मुझे दो, इतना कीजिए । हे ससुर ! मैं आपको लज्जित नहीं करूंगा। दुश्मन आए, दुश्मन आए, मैं उसे उसी प्रकार कपर उड़ा दूंगा जिस प्रकार सिंह हरिण को उड़ा देता है ॥४॥ विवाहित स्त्री को कौन छीनसा है ? इन्द्र का इन्द्रत्व कौन टालता है ? नागराज के फणामणि को कौन तोड़ता है ? यम के मंसे के सींग को कौन मोड़सा है ? आप दोनों रोहिणी की रक्षा करें, मैं अकेला ही शत्रु-पक्ष से भिडगा। शत्रु पर परतेि हुए तीरों की बौछार करूंगा । के घड़ों के समूह को नचाऊँगा।" जब कुमार वसुदेव ने इस प्रकार गर्जना की, तो ससुर ने उसे सारथि १. य-- दापभडकरवंदणे । २. अ—को कलत्तु । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] [सयंभूएवकर रिटुमिचरिए गन्धित बसुएउ-कुमार। विष्णु महारष्ट्र सी जुत्तारें। दुइसहास-संवणहं रउद्दहं । छह गंधुवर मतगइवह।। हपहं चउदह वप्पतालहं। भिडियह वलई वैवि अवरोप्पर । एउ उच्छलिउ भरंतु दिगंतरु॥ पत्ता-- मत्त मयंग-मयंगहं सुरंग-तरंगह रहबर-रहबरबंदहं । जोहजोइहं महारणे रोहिणि कारणे रिव-रिवहं ॥५॥ उत्पति साहणाई।। चाउरंग-बाणाई॥ सुटुबद्ध-मच्छराई। तोसियामरमराई। एकमेका-कराई। कोतिकोहि चोविकराई॥ बाणजाल-छाइयाई। धूलिवाउ-धूसिराई। पाउहोह-जज्जराई। दंतिवस-पेल्लियाई ॥ सोणियंब-रेल्लियाई। धोरघाय-भिभलाई। णित-अंत-चोभलाई। सिक्खपग्ग-खंडियाई॥ भल्लुयार-बाउलाई। पोरगिद्ध-संकुलाई॥ के साथ महारथ दे दिया। दो हजार भयंकर रथ, गंध से उद्धत छह हजार मत बाले हाथी, दर्प से उद्धत बौदह हजार घोड़े। इस प्रकार दोनों सेनाएं आपस में भिड़ गई। दिशाओं में फैलती हुई धूल उठी। पत्ता-उस महायुद्ध में मतवाले हाथी मतवाले हाथियों से, घोड़े घोड़ों से, श्रेष्ठरथ श्रेष्ठ रथों से, योद्धा योद्धाओं से तथा राजा राजाओं से रोहिणी के कारण भिड़ गए ।।५।। ___ चतुरंग वाहनों वाली सेनाएं उछलती हैं, अत्यन्त मत्सर (ईया) से भरी हुई, देवों और अप्सराओं को संतुष्ट करनेवाली, एक-दूसरे को ललकारती हुई, भालों के किनारों से चूकी हुई, तीरों के जाल से आच्छावित, धूल और हवा से धूसरित, आयुधों के समूह से अजर, हाथियों के दांतों से हटाई जाती हुई, रक्तजलों से प्रवाहित होती हुई, भयंकर आघातों से विम्बल होती हुई, जिनकी आंतें और चोटियों ले जाई जा रही हैं ऐसी पैनी तलवारों से खंडित, भालुओं के शब्दों से व्याप्त और भयंकर गीषों से संकुल है। बब शत्रुपक्ष सिंह के Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयो सग्गो] [२९ सीह-विरको विवरखे। हीयमाणए सबक्खे ॥ घत्ता-तहि अवसरि पाहियर मरण-मणोरहु सउरि ससालउ पक्का। दुस्सस एक्क हासणु अवरु पहुंजण वैवि धरिवि को सक्कह ॥६॥ विहिमिहिरण्णणाह-वसुएहि । रणरसियहिं दिय-अवलेवे हि । पाप-रह हि अखचिय-वरोहिं । गंधवह-धुन-धबलधयम्गेहि ।। सुरवेयंड-मुंड-भुयहि । इंदायुह-पयं उ- कोहि ॥ विसहरदोह-वीह दोह-णाराऐहैं। मेह समद्द-रउद्द-णिणाऍहि ॥ छाइउ परबल सरबरजालें। गं गिरिजलु पक्पाउसकाले ।। सो ण जोह रोहण गयबरु । तंग रहंगु ण रहिउ गउ रहबरु ।। सो बि आसवार ण तुरंगम्। सो णराहिउ जसिरि-संगम् ॥ सं पनि प्राय वस्तु विविधउ । जं वसुएल-सरहिं ग विध॥ पराक्रम वाला हो उठा और वसुदेव का अपना पक्ष दुर्वल था घसा--तब उस अवसर पर रथ चलाने वाला और मरने की इच्छा रखने वाला वसुदेव अपने साले के साथ स्थित हो गया। एक तो आग वैसे ही असा होती है दूसरे हवा हो, तो वोनों को कौन धारण कर सकता है ? ।।६।। जो युद्ध में गरज रहे हैं, जिनका अहंकार बढ़ रहा है. जो रथों को हांक रहे हैं, जिन्होंने लगामें खींच रखीं है, जिनके ध्वजों के अग्रभाग प्रकंपित हैं, जिनके बाहुदण्ड देवसाओं के ऐरावत महागज की सूड के समान हैं, जो इन्द्रधनुष के समान प्रचण्ड धनुष वाले हैं, जिनके तीर विष. घरों के समान हैं, जो मेघ और समुद्र के समान रोदरस वाले हैं, ऐसे हिरण्यनाभ और वसुदेव ने पात्रसेना को शरबरों के जाल से ऐसा आच्छादित कर लिया, जैसे नवपावस काल ने पर्वत समूह को आच्छादित कर लिया हो । यहाँ ऐसा एक भी योद्धा और नर समूह नहीं था, गजधर नहीं था, चक्र नहीं पा, सारथि नहीं था, अश्वारोही नहीं था, अश्व नहीं था, विजय रूपी लक्ष्मी का आलिंगन करने वाला ऐसा राजा नहीं था, ऐसा आतपत्र नहीं था, ऐसा निशान नहीं था, जो वसुदेव के तीरों से छिन्न-भिन्न न हुआ हो । १. अ-गंधव्यहो घुय घबल घपग्ग हो। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] [सयंभूएवकए रिट्ठणेमिपरिए - अपान मुबाला राहो ही नाम रमै गाह। सरेहि वसहि विपिखण्णउ णं परिच्छिण्णउ भवतसर जिणिवें ॥७॥ सहि अयसरि समरंगणि सुं। अरसंघहो किकरेग पउं ।। लउ हिरणगाठ बहमाणेहि। दूसह विणयर-फिरण-समाहि ।। सहिरहो णेवणेग षणुहत्यें। हिष्णु महारह एक्कै सस्र्थे । पहिं चयारि तुरंगम घाइय । वयवस-पुरबर-पत्थे लाय॥ अबरें आयवत्तु धड अवर। अबरें बाणजालु अगु भवरें॥ जाम पडु अवरु सरु सधइ। णायबासुनगु जेण गिबंधद। ताम विरुखएणवसुएवें। पेसिउ अवचंदु विषु खे ।। घता-तेण सरासणु ताडिद हत्थहो पाडिउ कोडिगुणालंकरिया। गियसत्तुष्पत्तिदोणहो' लक्खणहीणहो पं धणु वह हरिया ॥८॥ जिणेवि पउंड समरु मसराला। गउ वसुएउ लेषि भियसालच ।। पत्ता-- लक्ष्य से युक्त प्रतिपक्ष ने वायव्य तौर उस पर छोड़ा। उसने भी युद्ध में माहेन्द्र अस्त्र के द्वारा दस तीरों से उसे छिन्न-भिन्न कर दिया, मानो जिनेन्द्र भगवान ने संसार छिन्नभिन्न कर दिया हो। उस अवसर पर युद्ध के मैदान में, जरासंध के मत्त अनुचर पौड़ ने दिनकर की असहा किरणों के समान तीरों से उसे घेर लिया। जिसके हाथ में धनुष है, ऐसे रुधिर के पुत्र ने एक ही शास्त्र के द्वारा महारथ को छिन्न-भिन्न कर दिया, चार तीरों के द्वारा पारों अश्व थापल हो गये । वे यममगर के रास्ते भेज दिए गये। एक तीर से छत्र, एक से ध्वज, एक और तीर से बाणजाल, एक और तीर से धनुष को ध्वस्त कर दिया। सब तक पौंड्र दूसरे तीर नागपाश का संधान करता है कि जिससे सारा जग निबद्ध कर लिया जाता है, तब तक वसुदेव ने विरुद्ध होकर बिना लि.सी देर किए अर्धचन्द्र पला दिया। पत्ता-... उसने कोटि और डोर से अलंकृत धनुष को प्रताडित किया और हाथ से गिरा दिया, मानो विधाता ने अपने दुश्मन के उत्पन्न होने से दीन हुए उसका धन छीन लिया हो ॥८॥ वसुदेव लगातार पौंड को युद्ध में जीत कर अपने साले को लेकर चल दिए । वह रथवरों, १. णिह सत्तृपत्तिणहो। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो सम्मो] साहने । भिजि वर जर रहबर-तुरय- महागय-वाहणे ॥ हम्मेह एक्कु प्रणतेहि जोहह । तो वि पवरसिज सरघा रोहहि ॥ चदिसु र बाहृतु ण चक्क । संगलवणाई परिसरकइ । एक सरासणु विष्णवि हरयच । विष णं घणु फोडिवि हस्थउ ।। सरहं पागु णाहि णिवतहं । 'णं घणचण जह हो वरिसंत ॥ किउ पारमकज लोहावद्धउ । णं सवणेण तिमिस्र ओषद्धउ ॥ उजास साहार ण बंध। स सरासणि णं सरासणे संघ ॥ धसा जरसंषहो साह्णु रहगधवाणु एसके रंग म्हे धरिष । रोयो कम पडियहो गयहहो अन्हरियज ॥ ६ ॥ सहि अवसर मज्झत्योभावें क्लोएं ललय सहायें ॥ रिद्धि-सोहाग मषहो । विस्कार विष्णु जरसंघहो ॥ कि जोइएण नराहिवसतें । [ ५१ अश्वों, महागजों और वाहनों वाली जरासंध की सेना से भिड़ गए । यद्यपि अनेक योद्धाओं द्वारा वह अकेला मारा जाने लगा। फिर भी वह तीरधाराओं के समूह के साथ बरस पड़ा । चारों दिशाओं में रथ घुमाता हुआ वह नहीं ठहरता, लाखों रथों वाले के समान वह (एक रथी) परिभ्रमण करता । एक धनुष और दो हाथ, परन्तु वह इस प्रकार भेदन करता जैसे करोड़ों धनुषवाला हाथ हो । गिरते हुए तीरों का कोई प्रमाण नहीं था, जैसे आकाश से धमाधम बरसते हुए मेवों का कोई प्रमाण नहीं होता। उसने शत्रुओं को एक कतार में ऐसे बांध दिया, जैसे सूर्य ने आकाश में अंधकार को बाँध दिया हो। वह सैन्य न तो भाग पाता और न अपने को ढाढस दे पाता । धनुष होते हुए भी, वह तीरों के आसन का संघान करता । धत्ता - युद्ध में उस अकेले ने जरासंघ की सेना और रथ गजादि वाहनों को पकड़ लिया । वह सैन्य ऐसा मालूम होता था, जैसे किशोर सिंह से युद्ध करता हुआ गज समूह उसके पैरों के पथ में आ पड़ा हो ॥६॥ उस अवसर पर मध्यस्थ भाव धारण करने वाले सुन्दर स्वभाव वाले प्रेक्षक लोक ने रूप वैभव और सौभाग्य से मदांध जरासंध को धिक्कारा कि उस राजा के सत्व को देखने से www बणं घणघणं पंहि परिसंत । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] जेण जुवाणु लइउ धरखतें ॥ तं सिवि पिहिवि-परिवालें । णियबूत विसजिउ कालें ॥ घाउ सत्तुं वसु एव हो । सरेणेमिचरिए विष्णिवि ससर सण हृत्य । विष्णिविजय सिरिगहण - समत्य' ॥ विष्णियि वावरंति थपमाह । जलहर बलहारोषम बाणेह ॥ तो सह लखावसरें । दिष्ण सुरंगण - लोण पसरें ॥ सर-रिजणाराएं ताडिउ सारहि पाछिउ य य विष्णु महार समरभररोढियबंधहो गज जरसंधहो निष्फलु णाहं भणोरङ्ग ॥१०॥ पाडिउ जंजि सत्त् सत्तुंजय | भाइज वंशवत्त ( वक्कु ) रणे दुज्जउ ॥ सो वि सिलीमहि विणिवारिख । मुच्छ्राणि कवि ण मारिज ॥ धाइय कालवत्त् सहो बीउ । सो विदुषषु मरि-रक्तिय-जीव सल्लु ससल्लू करेष्पिणु सुक्कउ । कवि कवि जम-जयद ग टुबकर ॥ सोमय वित्थारिवि वल्लिउ । क्या, जिसने अक्षात्रभाव से ( क्षात्रधर्म के विरुद्ध ) इस ( अकेले ) युवा से युद्ध किया है। यह सुनकर पृथ्वीपाल ( जरासंध ने) ने अपना दूत भेजा, गानो काल ने अपना दूत विसर्जित किया हो । शत्रुंजय वसुदेव के ऊपर दौड़ा। दोनों के ही हाथ में तीर-धनुष थे। दोनों ही विजयभी ग्रहण करने में समर्थ थे। दोनों ही मेघ जलवारा के समान अप्रमेय वाणों से युद्ध करते हैं । तब अवसर पाकर सौभद्र (वसुदेव) ने देवांगनाओं को नेत्रों के प्रसार का अवसर देते हुए, धता - शत्रु को तीर से आहत किया। सारथि गिर पड़ा, घोड़े आहत हो गए, महारथ छिन्न-भिन्न हो गया, मानो युद्धमार से ऊंचे कंधेवाले जरासंध का मनोरथ ही असफल हो गया ॥ १०॥ जब दात्रुंजय ही गिरा दिया गया, तो दुर्जेय दंतवत्र युद्ध में दौड़ा, बहु भी तीरों से गिरा दिया गया। मूर्च्छा को प्राप्त वह किसी प्रकार मरा भर नहीं। तब दूसरा कासव उस पर दौड़ा, वह भी दुखित मृत्यु से जीवन को बचा सका । उसने शल्य को पीड़ित करके छोड़ा, किसी प्रकार वह यम की नगरी नहीं पहुंचा। सोमदत्त को उछालकर फेंक दिया। सूरिश्रवा अपने १. सभी प्रतियों में एक पंक्ति नहीं, अतः यह युग्म अधूरा है । २. ज. ब--.. विष्णवि जयसिरिमहणसमत्य । ३. अ - दंतनंतु । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमग्गो] भूरीसउ यिरहे भफुल्ल ॥ तिह गंगेय-दो कि बम्मउ । तिह किं लिह कलिंग ससुसम्म उ ॥ जो जो जो रणंगणं मुच्चइ । सो सो सरि कोषिण पट्टप्पइ ॥ ताव समुद्दविजयउ बसे भग्गए । स गियरवरेण भित्र अग्गए ॥ घत्ता - णिएवि जणेरीणंदणु वाहिय-संदणु अण्ड मणेण पहिदुर । दिवस विहिगार भाइ महारज वरिससर्या सारहि मोष्ण प्रति मानें। सो बोल्लाबिउ बहिणा में ।। मंच वाहि वाहि रह तेतहो । जे समुविजउ मह सही ॥ फेम व विवसेण विन्छोइज । afterers fragorfह वोह ।। हजं णिरवेबखु रणे खाएं सहियज । एउ परमत्यु मित म कहियज ॥ जगण समाणु केस घाटुज्जइ । श्राहरे छाया-भंगु ण किज्जइ ॥ जिह जब तेम रह जोहर' | श्रावणात्यु तह ढोइउ ॥ तेण वि वि कुमार सहोय रु । सारहि वृत्त ताम धरि रह्वरु ।। दिव ॥ ११ ॥ [३३ रथ पर लुढ़क गया। इसी प्रकार गांगेय, द्रोण, कृतवर्मा, कृपाचार्य, कलिंग और सुशर्मा, जोयोद्धा युद्ध के मैदान में भेजा जाता, वह शीर्य पुरवासी वसुदेव के सामने समर्थ नहीं हो पाता । सैन्य के भग्न होने पर तब अपने रथबर के साथ समुद्रविजय आगे आकर स्थित हो गया । ता-माता के पुत्र को देखकर, जिसने रथ हाँका है, ऐसा अनुज ( वसुदेव) मन में प्रसन्न हो गया। ( वह सोचने लगा ) आज का दिन भाग्यशाली है जो मैंने सैकड़ों वर्षों में अपने भाई को देखा ।।११।। विमुख नाम का जो सारभि ससुर ने दिया था, उससे वसुदेव ने कहा- "रथ को धीरेधीरे वहाँ ले जाओ जहाँ मेरा बड़ा भाई समुद्रविजय है । भाग्य के वश से किसी प्रकार बिछुड़ा हुआ मैं सैकड़ों वर्षों के अपने पुण्य से यहाँ उपस्थित हुआ हूँ। इसके साथ युद्ध में मैं तटस्थ हूँ । हे मित्र ! यह परमार्थ बात मैंने कह दी। पिता के समान इन पर आघात किस प्रकार किया जाए ? इनकी कान्ति भंग न की जाए। जैसा मैंने बताया है, तुम उस प्रकार रथ ले चलो। वहाँ पहुंचो जहाँ यादवनाथ हैं । उस (समुद्रविजय) ने भी सगे भाई कुमार को देखा और सारथि १. चोइज्जइ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪] पेक्सु बाण सरासण हत्थउ । पणं वसुए सामि सग्गस्य ॥ [सयंभू एक रिट्ठमिर्धारिए पत्ता- तो रणरसिहूएं कुखइ सूएं सामिसाल - अवचितए । भिश्वचु जेम पहरेब्बड जेम मरेथ्वउ एस्बुकाई सुचितए १२ ॥ संगिसुधि वयणु जुत्ता हो । जायवणाहू कुमार हो ॥ विष्णधि भिडिय रणंगणे कुज्जय । १. अ - कुपसिरि रामालिंगिय । बुद्धरपरगर पवर-पुरंजय ॥ विष्णिवि जायव गरुड - महसूय । असि सुद्दाएवि पणधय ॥ विष्णिवि षय-विट्टिहे गंवण । गिर्याणिय- सारहि वाहिय संवण ॥ ब्रिणिषि रणगण बरि- वियारण । जिणणारायण खम्मण-कारण ।। विष्णिष संजुगिग्ण - बणु करवल । भग्गालाणखंभ णं मयगल ॥ विजयसरि समासिंगिय । सासय पुरवर - रामण-मणिगिय ॥ विणिव बिक्कम - विढिय-जयजस । वाणि-माणे समरंगणे सरस ।। से कहा - " रथ रोको तब तक अनुप -बाण हाथ में लिए युवा को देखो, जैसे स्वर्ग में स्थित कुमार वसुदेव हों । मृत्य पत्ता-स्वामिश्रेष्ठ के अपचिता करने पर युद्ध-रस के वशीभूत होकर सारथि ने कहा'की तरह प्रहार करना चाहिए जिससे यह मारा जाए, अपचिता करने से क्या ? " ॥ १२ ॥ जोतनेवाले (सारथि) के उस वचन को सुनकर यादवनाथ समुद्रविजय कुमार पर दोड़े ! युद्ध के मैदान में अजेय वे दोनों भिड़ गए। वे दोनों दुर्धर शत्रुजनों के बड़े-बड़े नगरों के विजेता थे। दोनों ही यादवों के महागरुड़ध्वज को धारण करनेवाले थे। दोनों ही थकवृष्णि के पुत्र थे। दोनों अपने-अपने सारथियों के साथ रथ चलानेवाले थे। दोनों शत्रुओं का विदारण करनेवाले थे। दोनों ही जिन (नेमिनाथ) और नारायण ( वलभद्र) के जन्म के कारण थे। दोनों ने हथेलियों पर धनुष तान रखे थे। वे दोनों, जिन्होंने आलान खंभों को उखाड़ लिया है, ऐसे मदमाते गजों के समान थे। दोनों ही विजयलक्ष्मी रूपी रमणी के द्वारा आलिंगित थे। विक्रम के कारण दोनों के जय और यश बढ़ रहे थे। दानमान और युद्ध प्रांगण में हर्ष धारण करने वाले थे t Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयो सम्गो] पत्ता–सारिपुर-परमेसर पाहिप-रहबरु पश्चारिउ पसुए। पहरू पहरु णवारज तुई पहिलारउ मछहि किं साथ लेवे ॥१३॥ ताब सुहद्द गह-पाहाणे। मुगा वाण पइसाहदाणे॥ 'किट दुहंड रहो जि कुमार। गं फणि पाइवइ-चक्षु पहार॥ सिय एम सरेहि अणेहि। वायव-वारुणरष-अगोयहि ॥ तस्पर-गिरिवर-सिल पाहहैं। सह-सहास-जुअ-लक्सपमाहि॥ पणु बम्हत्य विसज्जिा राएं। पासिउतमि-सामस-णाराएं । अंपट्टबाय अण्ड तिह पहरइ जिह माइण भिज्जह ॥ मंडेवि वधार-समरंगणु। परितोसावित्री अमरंगणु ॥ णियणाम किउ मनु महासरू। पणवह पई बसुएउ सहोयम् । पत्ता---अंधषिठिहे पंधणु णयगाणंदणु बहह-मको लहपारउ । कहति कहषि बिन्छोइउ बाधै ढोइस हउं सो भाइ तुम्हारउ ॥१४॥ पसा जिसने अपना रथ हावा है, ऐसे शौर्यपुर के स्वामी वसुदेव ने ललकारते हुए कहा—'तुम अपना पहला नया आक्रमण करो, तुम अहंकार पूर्वका क्यों स्थित हो?" ॥१३॥ ___सब सुभद्रा के प्रमुख पुत्र समुद्रविजय ने वैशास्त्र-स्थान से तीर छोड़ा। कुमार वसुदेव ने दूर से हो उसके दो टुकड़े कर दिए, भानो गरुर की चोंच के प्रहार से नाग के दो टुकड़े हो गए हों। इस प्रकार वे दोनों वायव्य, यरुणास्त्री और आग्नेय अस्त्रों, तबवरों, गिरिवरों, मिलाओं; पाषाणों :-इस प्रकार दो हार लाख की संख्यावाले शस्त्रों से लड़ते रहे । फिर, राजा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा जो तभी तामस नामक अस्त्र से नाश को प्राप्त हुआ। उसके द्वारा जो भो तीर भेजा जाता, वह उसे नष्ट कर देता । वसुदेव इस प्रकार प्रहार करता कि भाई समुद्रविजय नष्ट नहीं होता । चार द्वार वाले युद्ध-प्रांगण को बनाकर उसने अमरांगनामों को संतुष्ट किया और अपने नाम से अंकित महाबाण फेंका। [उसमें लिखा था] सहोदर वसुदेव तुम्हें प्रणाम करता है। घता-अंधकवृष्णि का पुत्र नेत्रों के लिए आनंददायक दस में से सबसे छोटा, किसी प्रकार वियुक्त, परन्तु देव से लाया गया, मैं वही तुम्हारा भाई हूँ ॥१४॥ 1. सब-कित दुरुंडउ रहो जि कुमार । २. ज, प-पुण मम्मत्यु पर्मास्त्र] । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ धता - एक सयल ससायद पिहिवि "भमंते । रिससयहो मई बिट्टू जियंतें ॥ हिउ कुबुधु जं रिवु खमिज्जहि । जं किय अविणय तं सज्जहि ॥ जाम णराहिउ जोयइ अक्खरु । ताम कुमार-सहोय र भयर ॥ बल्लइ महियलि ससरु सरासणु । गं कलत्तु ओसारिय-पेसणु ॥ पत्तु व आमेल्लिय संवषु । जायव-जगमण गयणानंदणु ॥ हाइ कंचोवाम खलंसु पथाइ ॥ रोहिणीणा व गियर डिबि । जसगुणविणार्या अप्पर मंडिवि ॥ महिपति सिरु लायंतु पक्क देवेह कुसुमबासु पक्क [ सयंसू एक रिमचरिए मिलिय सहोयर जयसिरि-गोयर पुष्णोपच बहि । विष्णु सणेहालिगणु गाहालिंगण विहिमि सयं भुवडहि ॥ १५ ॥ इय रिट्टनेमिचरिए धवलयासिय सयंभूव कए रोहिणि संयंवरो णाम तइओ सग्गो ||३|| मैंने जो आपकी समुद्रसहित पृथ्वी का परिभ्रमण करते हुए और जीवित रहते हुए, सैकड़ों वर्षों में मैंने तुम्हें देखा है। आपका जो हृदय क्रुद्ध हुआ है, है राजन् ! उसे क्षमा कर दें। अविनय की है उस पर आप ध्यान न दें। जब राजा अक्षर देखता है, तब तक कुमार और सगा भाई धरती पर तीर सहित अपना धनुष डाल देता है, मानो आज्ञा का उल्लंघन करने बाली खोटी स्त्री हो । खोटे पुत्र की तरह, उसने रथ छोड़ दिया। तब यादव लोगों के मन और नेत्रों को आनन्द देने वाले राजा हर्ष से फूले नहीं समाए अपनी करधनी खिसकाते हुए वे दौड़े। रोहिणी के स्वामी ( वसुदेव) भी अपना रथ छोड़कर यश, गुणों और विनय से अपने को आभूषित कर धरती पर माथा टेकते हुए पहुँचे । देवों ने पुष्पों की वर्षा की। घसा – दोनों भाई एक-दूसरे से मिले। बड़े पुण्यों के उपाय से उन्होंने अपने भुजदण्डों से प्रगाढ़ और स्नेहमय आलिंगन किया || १५ || इस प्रकार धवलइया के आश्रित स्वयंभू कवि द्वारा कृत अरिष्टनेमिचरित में रोहिणी स्वयंवर नाम का तीसरा सर्ग समाप्त हुआ || ३ || — भवतें । २. प्रछत्ति । ३. श्र - आसरियऐसणु । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो सग्गो परिणि रोहिणि 'अमर विरोहिणी तहि संवच्छ एक्कु थिउ । उप्पण्णउ ह्लयरु पुत्तु प्रणोहरू बहवें पाई जसपुंजु किउ ॥ संकरण रामनाम णिम्मिज । एउ "सुहाउहु अवरु फिउ ॥ बहु सतसई पकारियई । रिपुरवरे पसारियई । वसुए जराडि ' संचर | घणुवेय-गुरु-जबएस करइ ।। अच्छ सय सोसलं करि । सुपसिद्ध हुउ परमा इरिख ॥ विजत्थिताम कंस अइउ । घरघल्लिउ 'ओहाभिय लइउ ॥ वणुकद्दमवेह निवारणं । सिक्ख प्रणेय पहरणई ॥ तह कालि कहि केणवि परेण । पुष्प धोषण किय चक्केसरेण || जो कोयि निबंध सौहरहु । जीवंजस विज्जइ तासु बहू ॥ देवों की विरोधिनी रोहिणी से विवाह कर वसुदेव वहाँ एक वर्ष रहे। उनके हलधर नामक सुन्दर पुत्र हुआ, मानो विधाता ने यशपुंज ही उत्पन्न किया हो। उसके संकर्षण और राम नाम रखे गए। मातसो बन्धुओं को बुलवाया गया और उन्हें शौर्यपुर में प्रवेश दिया गया। राजा वसुदेव वहाँ रहते हैं और धनुर्वेद का गहन उपदेवा करते हैं। सौ शिष्यों से शोभित वह प्रसिद्ध श्रेष्ठ आचार्य हुए। इतने में विद्यार्थी के रूप में कंस आया। घर से निकाले हुए ओर अपमानित उसे गुरु वसुदेव ने स्वीकार कर लिया। उसने दानवों की दुर्दम देह का विदारण करने वाले अनेक शस्त्रों को सीखा। उसी समय किसी मनुष्य ने कहा और फिर चक्रवर्ती ने घोषणा भी की कि जो कोई भी सिंहरथ को बांधकर लाएगा, उसे जीवंजमा वधू के रूप में दी जाएगी। १. अ, ब प्रतियों में यह छूटा है । २. अमुहलाउछु । ३. अ -- संवर । ४. सुपसिओ । ५. अ - ओह्रामण । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] [सयंभूवक रिमिरिए धत्ता---स इन्डिय देसें देइ विसेसें सा वसुएवं वत सूय । भुवंड-पयंडे णं वेयंडे जमलालाण खंभ विद्वय ॥ ११॥ ug tofi avfarqUAM I बसुएउकंस गय वे वि जग ।। उपरि पोषण-परमेसर हो । केसरि-संजोत्तिय रहबर हो । परिवेदित पुरवत गयबरोह । रविमंडलु णं णवजलहरे अमहंतु पधाइ सी हरहु । सरजाले पच्छायंतु गहु ॥ तहि अवसर कंसें वुत्तु गुरु हज आयहो रणहि वैमि उरु ॥ तु पेक्खु अज्जु महराग बसु । सीसण स्वखहो परमहलु ॥ वसुए हत्थुच्छलय । रहू दिष्णु कंसु संचल्लियज ॥ से भिडिय परोप्पर दुसह । णाणाविह पहरण- भरियर ॥ पत्ता - आयामिवि कंसें लक्ष पसें छत्तु संचिषु ससीहर छिदिवि सरपसरें लद्धावसरे घरि रणंगणे सोहर ॥२॥ रिच लेवि वे विगय तं ' मगहू । माल-मंडल पर णिहु ॥ पता - मनचाहे देश के साथ वह विशेष रूप से देय होगी। अपने बाहुदंड से प्रचंड वसुदेव ने यह बात इस प्रकार सुनी मानो हाथी ने दोनों आलानख भों को कंपा दिया हो ॥ १ ॥ असहिष्णुता से कुपित भन, कंस और वसुदेव दोनों सेना के साथ, जिसके रथ में सिंह जुते हुए हैं ऐसे पोदनपुर के राजा सिंहस्य के यहाँ गये। उन्होंने गजवरों के द्वारा नगरवर को इस प्रकार घेर लिया जैसे नवजलधरों ने सूर्यमण्डल को घेर लिया हो। [यह ] सहन न करता' हुआ सिंहरथ भी दारजाल से आकाश को आच्छादित करता हुआ दौड़ा। उस अवसर पर कंस ने गुरु से कहा- ...इस युद्ध में इसे मैं अपना वक्ष दूंगा । आप आज मेरा बल और अपने शिष्यत्वरूपी वृक्ष का फल देखिएगा ।" वसुदेव ने हाथ उठा दिया । रथ दे दिया गया, और कंस चला। असह्य वे दोनों परस्पर लड़े। उनके रय नाना प्रकार के आयुधों से भरे हुए थे । स---- प्रशंसा अर्जित करनेवाले कंस ने अयाम कर सिंहों के रथ और चिह्नों सहित छत्र को तीरों के प्रसार से छेदकर, युद्ध के मैदान में अवसर पाते ही सिंहस्थ को पकड़ लिया ||२|| शत्रु (सिहरथ) को लेकर दोनों उस मगध ( देश में) गये जो इन्द्र-मण्डल के नगर के १. जिगिहु । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यो सग्गो] जरसं तो आलत्तु पिउ । वसुवह अग्भूत्या किउ ॥ जीजस घमसप्पियउ । तो 'रोहिणी णा पर्याय ॥ महं जिस ण भडारा सीह रहु । जिउ कसे जयहो वहु बहु ॥ परिपु तु त कहो । संविहि हवं बजिरिङ तहो ॥ मंजोर नामें माय मनु । 'सुयकारिणि कोषिय आय लहु ॥ करकमल - कथंजलि विष्णव । अहो सुषु तिखंड सुहा हिवइ । एड्डू ण सच्च सुउ महंतणउ । उ जाम खाउ कहो तणउ ॥ - कंसय-मंजूस मुद्द- विहसिए केण वि जले पइसारियउ । कालिद पवा हे सुठु अगाहे आणेवि महु संचारियश्च ॥३॥ 'कंसियमंजू जेण भवणु । किड कंसु तेण णामग्गहणु ॥ कलियाएउ ण महं णिरिडियन। गुरुसेविषि सत्यई सिविखयज ॥ परिओस 'पय पत्थिषहो । जीवंजस जियसुय क्षिण तहो ॥ मंडलु एक्कु नहि इच्छित । 1 [1 समान था । तब जरासंघ ने प्रिय बात की और वसुदेव के लिए उठकर खड़ा हो गया। समर्पित जीवंजसा दूंगा । तब रोहिणी के स्वामी ने कहा – “आदरणीय, मैंने सिंहरथ को नहीं जीता। कंस ने जीता है, उसे बधू दीजिए।" जरासंघ ने पूछा - "तुम किसके पुत्र हरे ?" कंस ने कहा--- "मैं कौशाम्बी का हूँ, मंजोदरी नाम की मेरी माँ हैं । पुत्र के कारण बुलाई गई वह (मंजोदरी ) शीघ्र आयो । करकमलों की अंजलि बनाकर, वह शीघ्र बोली - "हे तीन खण्ड धरती के स्वामी ! सुनिए, यह सचमुच मेरा पुत्र नहीं है। नहीं जानती हूँ कि कहाँ से आया है। घसा - मुद्रा से अलंकृत कांसे की मंजूषा में किसी ने इसे जल में प्रवेश कराया । अत्यन्त अगाध कालिंदी के प्रवाह में से लाकर मैंने इसे जीवित रखा है || ३ || चूंकि कांसे की मंजूषा में जन्म हुआ, इसलिए इसका नाम कंस रखा गया। यह कलहकारी था, इसलिए मैंने नहीं रखा। गुरु की सेवा करके उसने शस्त्रों को सीखा।" [यह सुनकर ] राजा को संतोष हो गया और अपनी कन्या जीवंजसा दे दी, [और कहा ] जहाँ चाहते हो, एक १. म - रोहिगिगाह । २. अ-ते । ३. अरंजोयरि । ४. अ - सुयकारिणि । ५. अकंसिय-मंजूस | ६. अपवढिओ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंमूएवकए रिढणेमिचरिए संलेण विषयषु परिचियत ।। परमेसर 'विज्जह महर महु । 'जहिं घुज्झमि पिय जणणेण सहूं । जउ गद्दहे घल्लिज जेण चिर। तंबंधमि जइचि ण लेमि सिरु ।। ता राएं हत्थुमछल्लिया। पिज़ बंधिधि णियलहिं घल्लियउ॥ पत्ता-जा बाप भुसी सिय-उलवती सा कि पुत्तही परिणवइ । सिय चंचल होइ विचित्ती जुत्ताजुत्त ण परिकला ॥४॥ महराउरि परिपालतु विउ । "णिवणय विहेज पडिबक्यु किउ ।। जरसंघहो जो ण सेव करह। उक्ख पाएवि तं घरइ॥ परिचितवइ बारहमंडलई । चउरासम चाउवष्णहलई ।। घविज्जउ सत्तिउ तिणि सहि। अट्ठारह तिस्थहं कवणु कहि॥ ससंगु रज्ज पाल अचलु। मेहलावइ छहविहु भिच्याबलु ।। छागुण सयल वि संभरह । सस वि दुश्वसण्इं परिहाइ ॥ जाणा कंटय-सोहणकारणु। णियरक्षण णियकुमारधरणू॥ मण्डल ले लो। तब उसने भी उस वचन' को स्वीकार कर लिया। [वह बोला] "हे परमेश्वर ! मुझे मथुरा दीजिए, जहाँ अपने पिता के माथ लड़ सई । उसने बहुत पहले मुझे नदी में फेंका था, मैं यदि उसका गिर नही लूंगा तो बोधूंगा।" तब राजा ने हाथ उठा दिया। पिता को बांधकर कंस ने बेड़ियों में डाल दिया। घसा–जो लक्ष्मीरूपी पुषी पिता के द्वारा भोगी गई, क्या वह पुष से परिणय करती है ? लक्ष्मी चंचल और बिचित्र होती है, वह उचित-अनुचित का विचार नहीं करती ||४|| ___मथुरा नगरी का परिपालन करते हुए, उसने प्रतिपक्ष को नप-नम से विभक्त कर दिया। जो जरासंघ की सेवा नहीं करना, आक्रमण कर उसे बन्दी बना लेता है। वह बारह मण्डल का विचार करता है, चार आश्रमों और चार वर्णों के फलों का विचार करता है। उसके पास चार विद्याएँ और तीन शक्तियाँ हैं । अट्ठारह तीर्थों का क्या कहना, वह अचल, सप्तांग राज्य का पालन करता है। छह प्रकार भुल्य बल को इकट्ठा करता है। समस्त छह मुणों की याद रखता है । मात दुर्व्यसनों का परित्याग करता है । कंटक-शोधन के कारण को १. अ-दिज्जउ । २. अथे। ३. अ—महराउरी। ४. अ-णियणयवसविहि । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्यो सम्गो] [४१ हिय-इञ्छित एम रम्जु करइ । पिय पुरु-उवयात ण घोसरइ ।। जसा-कुनमा मामी शाषितमी वेलाय रागण परिगणेवि। विनइ वसुएषहो जिणपयसेवहो कसे गुरुदक्षिण भणेवि ॥५॥ ताहि तेहाकाले तिण्णाणधरु । विणि पारिय-वम्मह-सर पप्तम ।। अबरामर-पुरवर-पदरिसि । अतिमुत्तउ पामें देवरिसि॥ रयणायरगुरुनाभीरिमए। गिदाणघराघर-धोरिमए ।। तव तेएं तवज तावतवणु। णियमूलगुणालंकरियतण ॥ परमागम-विडिए संचरह। महराइरि चरियएं पदसरइ ।। आणंदवाथु'-रममाणियउ। जीवंजस देव-राणियर ।। 'णियणाण-धिणासिय-भषणिसिहे । पाहु रंभवि वाव महरिसिहे ॥ ता तेण वि मगे प्रारुट्ठएण। बोलिज्जा कंसहो जेट्टएण॥ धत्ता–जीवंजस ण बच्चहि काहं पणचहि, जहि संभव तहि भग्गहि सरण। ____ मग्गहा हिवसहं पुरसरहंसह, प्रायहो पासिउ धू मरण ॥६॥ यह जानता है। अपनी रक्षा करता है और अपने कुमारों का पालन करता है। इस प्रकार मनपाहा राज्य करता है और अपने गुरु के उपकार को नहीं भूलता । पत्ता-कुरुवंश में उत्पन्न देवकी, अपनी बहिन के समान समझकर, कंस के द्वारा गुरुदक्षिणा के रूप में जिन चरणों के सेवक वसुदेव को दे दी जाती है ।।५।। उस अवसर पर जो तीन शान के श्रारी हैं, जिन्होंने कामदेव के तीरों के प्रसार को रोक दिया है, जो अजर-अमर-पुरवर के पथ के प्रदर्शक हैं, ऐसे अतिमुक्तक नाम के देवर्षि समुद्र की गंभीरता और हिमालय को गुरुता, और तप के तेज से सूर्य के ताप को संतप्त कर देनेवाले हैं, जिनका शरीर अपने मूलगुणों से असंकृत है, जो परमागम की दृष्टि से चलते हैं, वह मधुरा नगरी में चर्या के लिए प्रवेश करते हैं। जिन्होंने अपने ज्ञान से संसाररूपी रात्रि का अन्त कर दिया है। ऐसे उन महर्षि को जीवंजसा देवकी के रमण किए गये वस्त्र को रास्ता रोककर दिखाती है । तब इससे कल होकर कंस के बड़े भाई उन मुनि ने कहा घत्ता---जीवंजसे ! अब तुम नहीं बच सकती, क्यों नाच रही हो ? जहाँ संभव हो वहाँ शरण मांग लो। मगधराज वंश और नगरवररूपी सरोबर के हंस (जरासंध) की मौत इसके (वस्त्र के) हाथ में है ॥६॥ १.म-आणंदबद्ध । २. ज—णियणाम-विणासिय। ३. अ-ति । ४. अ-हिमच तहि । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [सयंभूएवकए रिट्टणेमिचरिए त णिसुगंधि भणु समापडिय। णं मरबह पाजासणि पडिय ।। गय पियवा उम्मण दुम्मणिय । गग्गर-सर-मलिय-लोपणिय ॥ कमलिणि हिमपवणेण हइय । यणप्फ वणम मध्य' । तो कसे अमरिसकुखएण। सोहेप व आमिसलुखएण॥ कालेण व कोवाउपणएण। विसहरे परर-विस विण्णएण । जलणेश व जाला-भीसणेण । मेहेण व पतरिय-णीसगेण ॥ 'बक्केण ध मीण-कषण-गएण । पुच्छिय पउमावह-अंगएण ।। परमेसरि दुम्मण काई तुहूं। विदाणउ दोखइ जेण मुहूं ।। घत्ता-कहिं कहि सोमणि कवणु णियंवणि खेउ जेण उप्पायउ। सो समि-अवलोहट काले धोइज कहिं मरजाइ अघाइट ॥७॥ कालिविसेण अरसंषसुय । पभणा सुसियाणण सुदिपभुय ॥ भो अज्नु गाह फिउ सोहलउ । तो मह उप्पाइन कलमलउ ॥ णं मत्थाइ मलण जलंतु पित। अइमृत्तएन पाएस किउ ।। __ यह सुनकर जीवंजसा का मन उदास हो गया, मानो सिर पर गाज गिरी हो । उस्कंठित और उदास होकर, वह अपने घर गयी । गद्गद स्वर और बन्द आँखों वाली वह ऐसी लगती जैसे हिमपवन से आहत कमलिनी हो, मानो वनसिंह के द्वारा कुचली गई बनस्पति हो । आमिषलोभी सिंह की तरह, क्रोध से आपूर्ण काल की तरह, प्रचुरविष से निर्मित विषधर की तरह, नव ज्वालाओं से भयंकर आग की तरह, प्रसरित स्वरवाले मेघ की तरह, मीन और शनिराशि में गए हए मंगल की तरह, अमर्ष से भरा हुआ कंस पूछता है--- "हे परमेश्वरी तुम दुःखी क्यों हो, कि जिससे तुम्हारा मुख उदासीन दिखाई देता है! घसा-हे सीमतनी, बताओ बताओ वह कौन है जिसने तुम्हें खेद पहुंचाया है, पानि के द्वारा दष्ट और काल के द्वारा प्रेरित वह मुझसे आहत हुए विना कहाँ जाएगा?" ___ जिसका मुख सूख गया है और जिसकी भुजाएँ ढीली पड़ गई हैं, ऐशी कालिदीसेना की पुत्री जीवंजसा कहती है- - "हे स्वामी ! आज मैंने अपहास किया था, उससे मुझे व्याकुलता हो गई है, जैसे मेरे मस्तिष्क में आग जल रही हो । अतिमुक्तक ने आदेश दिया है कि १. अ—ण वणवा बणमइ वणमध्य । २. अ---सक्केण । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चजत्यो सम्गो] [४३ वसुएषहो पइयहे बेबाहे। जो गंदणु होसह बलमइहे ॥ सहो पास तुम्हहं विहिं मरगु। मा बम्पहो कोणि जाहि सरण ॥ तो मङ्गुर पराहिल डोल्लिपर। गं हियवइ सलें सल्लियज ॥ थिउ णाई घराघरु वड्वतः । अप्पमाणी होई परिसिषयषु॥ अपनंत महंत उपपण्णु भउ । गिविर्स वसुएवो पासु गउ ॥ अत्ता-अतुम्ह गुरुसणु महु सीसत्तणु परमत्यु समरिषयउ। तो एत्तिज किज्जइबरुवर विजय ससबार प्रभस्पिपउ १८॥ जं कंसु 'सुपरिष्टुिउ पमयसिक। 'रइयोजलि पोतुग्गिष्ण-गिरु ।। तो वेवाइवाएं दिल्छु पर। मामि पि को मा अवरु ।। महराहिउ सरहसु विष्णवाइ। जो जो वेवइहे गरम हवइ ॥ सो सो विहणेश्वर सिलसिहरे॥ तुम्हेहि णिवसेना महु जि घरे । गड एम भणेप्पिषु लढवय। वसुएउ वि गउ गियवासहरू । णाई विमणु महाफणि मगिरहिन । वसुदेव की दुष्ट बुद्धिवाली पत्नी देवकी से जो पुत्र होगा, उसके हाथ में तुम दोनों की मौत है। मेरे पिता के लिए कोई शरण नहीं है ।" यह सुनकर मथुरा का राजा इस तरह कांप उठा, जैसे किसी ने हृदय में शूल चुभा दिया हो। वह जले हुए पहाड़ की तरह खड़ा रह गया, क्योंकि ऋषि के वचन कभी झूठे नहीं होते । उसे बहुत भारी दुःख उत्पन्न हो गया । वह एक पल में वसुदेव के पास गया और बोला-- घसा-यदि तुम्हारा गुरुत्व और मेरा शिष्यरक, परमार्थ भाव से समर्थित है, तो इतना कीजिए कि एक श्रेष्ठ वर दीजिए जो सात बार अभ्यथित हो ।।८।। ___ जब कंस हाथ जोड़कर और प्रगतसिर स्तुति में वाणी निकालता हुआ खता रहा, तो देवकी के पति वसूदेव ने वर दिया और कहा--"तुम्हें छोड़कर मेरा दूसरा कौन है ?" तब मथुरा का राजा [कंस] हर्षपूर्वक निवेदन करता है, "देवकी के जो-जो गर्म होगा वह मेरे द्वारा चट्टान पर मार दिया जाएगा। तुम लोगों को मेरे घर में ही निवास करना होगा।" ऐसा कहकर और वर प्राप्त कर, वह चला गया। वसुदेव अपने निवासगृह गये, एकदम विमन हो जैसे मणि १.अ, म, परिटिज । २. –रइयांजलि पोत्तग्गिण्णगुरु । ३. अ— वसेम्बज । ---- - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] विश्य निरवसेसु कहिउ ॥ देबत हुआ गोभय । शेवंती रसायलि मुच्छ गय ॥ [सयंभूवक रिमिचरिए पत्ता-पडि प्राइम चेषण भणद्द सर्वेयण निश्चल हरिण इत्यभिए । सिंह कुलउ लिए काई जियंतिए पइहरे पुत्तविहूणए ॥ १ ॥ उधणणंदण जीवणइतियहं । जसु सत्तसई कुल-उसिहं ॥ सो किष्ण देव सवार बरु । हे महड जयरु । एक्कु वि लहू अण्णचि सुपरहिय । वरि लक्ष्य दिवस जिजवर - कहिय ॥ हो गय विग्निवि उज्जाणवणु । अमृतमहारसिहं सबणु ॥ पछि अवरु वसुए कंसहो दिष्ण वह ॥ जो गभुष्पज्जइ मह- उयरे । सो अव्फाल सिलसिहरे ॥ परमेस एज्झसु अवहरइ ष पुत्तहो एक्कुत्रि णउ मर ॥ छह घरम वह कहियागमणे पालेवा देवें जगमेण ॥ । पत्ता-सत्तम तुहार रणे जयगारज महराहिव मगहाश्विहं । महि-जिहि-यव पट्टणिबंधहं होसह परिषद पत्यवहं ॥१०॥ से रहित महानाग हों। उन्होंने अपना वृतान्त (घर) बताया। देवकी का शरीर भयग्रस्त हो उठा । वह रोती हुई धरती पर गिर पड़ी और मूच्छित हो गयी। घसा---जब उसकी चेतना लौटी, तो यह वेदनापूर्वक बोली. "हिरनी की तरह निश्चल, कुलपुत्री का बिना पुत्र के पति के घर में जीवित रहने से क्या ? ॥६॥ धन, पुत्र और यौवनवाली, जिसके पास ( वसुदेव के पास ) सात सौ कुलपुत्रियाँ स्त्रियों के रूप में हैं वह क्यों न सौ बार वर दे ? हतभाग्य मेरी कूल में आग लगे। एक तो मैं सबसे छोटी हूँ और दूसरे पुत्ररहित हूँ। अच्छा हो कि जिनवर के द्वारा उपदिष्ट जिनदीक्षा ग्रहण कर लो जाए। वे दोनों उद्यानवन में गये, जहाँ अतिमुक्तक नामक श्रमण थे। वन्दना कर उन्होंने मुनिप्रवर से पूछा - "वसुदेव ने कंस को वर दिया है कि मेरे यहाँ गर्म से जो उत्पन्न होगा, उसे वह चट्टान पर पछाड़ेगा।" परमेश्वर उसका भय दूर करते हैं कि तुम्हारा एक भी पुत्र नहीं मरेगा । आगम में कहा गया है कि छह पुत्र चरम शरीरी हैं जो नैगमदेव के द्वारा पाले जाएंगे। ता तुम्हारा सातवाँ पुत्र मथुरा और मगध के राजाओं का क्षयकारक होगा, आधी धरती, निधियों और रत्नों वाले पट्टधर राजाओं का राजा होगा ।।१०।। १. - - देव तणभय । २. अ- हरिण इत्युणए । ३. ज-- घणणंदणजीवद्द सियहं । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउत्थो सम्गो] वपिपु वेवरि सिहिवरग। पय देवह पियपर सुटुमण॥ छ पिय पसविय कंसहो अलविय' । मलयारिहि मागमा सुरेग पि: सत्तम् जगंवणु प्रोपरिच। धरे गाई मणोरह पइसरिउ । तहिं काले असोय वि देवइ वि। गाई मिलिय जउणगंगणइ वि॥ अवशेपर वायउ हमर । सो गंधहो वहपएं विग्ण बर।। मह फेरउ गम्भु भाए मरउ । तुहकेर गोउले संवरन । परिपालमि तं मिव अप्पणउ । एतिउ पक्षिवष्णु मसणज।। पिणिय आबासी हूय। थासरि एपहिं जि पसूपउं॥ घसा-भानही विणि-बारहमए विणे सुहिहिं रितु महिमाण-सिह। उप्पणु जगणु प्रसुर विमद्दण कंसहो मस्था-सूल जिह ॥११॥ सयसीह-परकम् अतुलबलु। सिरि-लच्छण-लक्षिय-बच्छयल॥ सुहलक्षण-लक्जालंकिपर । अप्सरसय-वामंकियर। देवषि अतिमुक्तक के चरणों की वन्दना करके देवकी अपने घर संतुष्ट होकर गयौ । छह पुत्र उत्पन्न हए, किस को सौंप दिए गए, नंगमदेव के द्वारा बे मलयगिरि पर ले जाए गए। अब सातवें पुत्र का जन्म हुआ, मानो घर में मनोरथ ने प्रवेश किया हो । उस समय देवकी और मशोदा भी इस प्रकार मिली, जैसे गंगा और यमुना नदी मिली हों। उन दोनों में आपस में स्नेह बढ़ गया । तब नन्द की घरवाली ने वर दिया ---"हे आदरणीये ! मेरा गर्म नष्ट हो जाए, तुम्हारा गर्भ गोकुल में बढ़ता रहे । मैं उसे अपने बेटे की तरह पालूंगी। मेरी इतनी बात मान लो। वे अपने-अपने घर चली गयीं । एक दिन उनके प्रसब हुए। घत्ता–शुक्ल पक्ष, भाद्रगद दारहवीं को, सुधीजनों के लिए अभिमान की ज्योति देता हुआ, असुरों का विमर्दन करनेवाले जनार्दन का इस प्रकार जन्म हुआ, जैसे कंस के मस्सक को शूल हो ॥११|| सौ सिंहों के समान पराक्रमबाले, अतुल बल नक्ष्मी के बिल से चिह्नित वक्ष, लाखों शुभ लक्षणों से अंकित, १०८ नामों से अकित, अपने शरीर की कान्तिलता से भवन को आलोकित १. ज, अ, ब-अलविय । मात्राओं के विचार से यह कड़वक गड़बड़ है। २. म, ब-संक्षण लछिय बच्छल । - ..--.---. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिट्टणेमिचरिए पियकंसिलया लिंगिय-मवणु। यसएएं बालिउ महंमहणु॥ मलएएं मायवत्त परित। ते रिणिरतरु अतरित॥ पारायण-चलणंगु-हज ।। विहडेवि पोलि-कवाड गउ ।। धम्मोजम अग्गए पसल थिज। तें अउणाजलु वे भाय फिर॥ हरि देप्पिण लइय जसोय सुय । हलहरु क्तुएच कयस्थकिय ।। गोवंगय फंसहो अल्लाविय। बिमाहिव-जक्ने विजय णिय । गोषितु गंद गणए। बदद णव ससि च गहंगणए । धत्ता हरिवंस हो मंडणु कंप्सहो खंडणु हरिपरिबह पंवघरे । णियपक्ष विठूसण परगयदूसणु रायहंस गं कमलसरे ॥१२॥ गोठंगणे पुण्णइ पाइयई। महरहि दुणिमित्तई जाए। गोरुंगणे परिवहइ हरिसु । मरहि वरिसाइ सरेणिय-चरसु ।। गोठंगणे अणुविषु पाई छ। महरहि संतत्तउ सपलु जणु ।। गोठंगगे मंडव-संकुलाई। महरहि वीसति अमगसई॥ गोठेंगणे खोरई पदियई। करनेवाले श्रीकृष्ण को वसुदेव ने चलाया, और बलदेव ने आतपत्र [छत्र] धारण कर लिया, उससे वर्षा की निरन्तरता बच गयी। नारायण के पैर के अंगूठे से मुख्य द्वार के किवाड़ खुल गए। धर्मतुल्य वृषभ आगे आकर स्थित हो गया। उसने यमुना का जल दो भागों में बोट दिया । हरि देकर वसुदेव ने यशोदा की पुत्री ले ली। बलभद्र और बसुदेव कृतार्थ हो गये। गोपकन्या कंस को दे दी गयी। विध्यराज पक्ष उसे विंध्य पर्वत पर ले गया। गोठ के प्रांगण में गोविन्द उसी प्रकार बढ़ने लगे जिस प्रकार नभ के आँगन में नभचन्द्र बढ़ने लगता है। पत्ता-हरिवंश के मंडन और कंस के खंठन हरि नंद के घर में बढ़ने लगते हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार अपने पक्ष के लिए भूषण और दूसरे के पक्ष के लिए दूषण राजहंस सरोवर में बड़ने लगता है। ___ गोकुल में पुण्य आ गए, मथुरा में खोटे निमित्त हुए। गोकुल में हर्ष बढ़ता है, मथुरा में रक्त की वर्षा होती है। गोठों के आंगन में प्रतिदिन उत्सव होता है, मथुरा में समस्त जन संतप्त होते हैं। गोठ के आंगन मंडपों में व्याप्त हूँ, मथुरा में अमंगल दिखाई देते हैं । गोठ के आंगन में दूध Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घउत्यो सग्गो मपुरहि मजाई मिण संघियई। मोठंगणे गोविउ सूहबउ । महरहिसाउ वि वूहबत ॥ गोठंगणे गोवाल वि कुसस । भारहि कापरसव पर विला । गोट्लंगणे णोली कावि किय । महरहि गज उवि पाहं सिय ॥ गोठे खोललाई वि ममोहाई। महरहि रोचंति णाई घरई॥ घसा-महुरारि सुण्णी जाय उ अउपाणी जहिं ण पयट्टा का वि किया। धणकणय-सउ पणयं गोउलं रवण्ण उं जाहि पारायणु तहि जि सिय ॥१३॥ वणु-मद्दणु गंवणु कण्ड जहिं । वणिज्जइ गोउल काई तहि ॥ हरि वड्डइ केण वि कारणेण । बामयरंगुट्ठ-रसायणेण ॥ बालत्तणे बालकोल कर। जो कुक्कद सोग्गतु ओसरह ॥ गम्मरण पाइस अटुगह। 'जाएण विणमाह वस दुसह ।। मासगह बारह ते वि जिय। परिसगह तेरह खपहो पिय ।। गारामणु चतु' णिसापरेहि। दुत्थेहिं गुरु चंदिवायरेहि ॥ पडह वायइ घंटारज कर। भरा पड़ा है, मथुरा में मद्य का भी संघान नहीं हो पाता। गोठ के आँगन में गोपियाँ सुभग हैं, मथरा में वेश्याएँ भी दुर्भग हैं। गोठ के आँगन में पवा-न-बाल भी कुशल हैं, मथुरा में बनियों के बेटे भी जैसे विकल हैं । गोठ के आँगन में कोई अनोखी किया है, मथुरा से जैसे शोभा उहकर चली गई है । गोठ में कोठडियो भी सुदर हैं, मथुरा में मानो घर रो रहे हैं। पत्ता -मथुरा नगरी अपूर्ण और सूनो हो गई, वहाँ कोई भी क्रिया नहीं हो रही है, जबकि धनस्वर्ण से सम्पूर्ण गोकुल सुन्दर है। जहाँ नारायण है वहीं लक्ष्मी निवास करती है ॥१३॥ दानवों का मर्दन करनेवाले कृष्ण जहां हैं, उस गोकुल वा किस प्रकार वर्णन किया जाए ? दाएँ अंगूठे के रसायन से किसी भी प्रकार बढ़ते हैं। बचपन में बालक्रीड़ा करते हैं। जो ग्रह पास पहुंचता है वह भाग जाता है। गर्म में रहते हुए उन्होंने आठ ग्रहों का नाश कर दिया, उत्पन्न होने पर दुःसह वा ग्रहों का नाश कर दिया। माह के जो बारह ग्रह है, उन्हें भी जीत लिया । वर्ष के तेरह ग्रह नाा को प्राप्त हुए। निशाचरों ने नारायण को छोड़ दिया, दुष्ट गुरु १.-जारण जि णगह दस दुसह । २. अ-बत्तु । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समभूएवकए रिट्टणेमियरिए केरकं कुणइ साह धुगइ॥ विए सोवइ अम्गाइ जामिणोहि । मा होसइ भज गोसामिमोहिं ।। घत्ता-णिति-समए जण इणु असुरविमद्दणु रणरसरहससएहि । परिवज्जियसोयहो रमयजसोयहो उट्ठा वेइ सयंभुएहि ॥१४॥ इय रिट्ठणेमिचरिए घबलल्यासिय सयंभूएवकए हरिकुलवंसुम्पत्ति णामेण घउत्थाओ सग्गो॥४॥ चन्द्र और सूर्य ने भी । वह नगाड़ा बजाते हैं, घंटे का नाद करते हैं, केका ध्यान करते हैं, आहत बांसुरी बजाते हैं, दिन में सोते हैं, रात्रियों में जागते हैं कि गोस्वामिनी (मशोदा) को हर न लगे। घसा-रात्रि के समय असुरों का विमर्दन करनेवाले जनार्दन रण के सैकड़ों रसों और होवाले अपने बालों से सबेरे उठते हैं और शोक से रहित यशोदा की रक्षा करते हैं ॥१४॥ इस प्रकार धवलइया के आश्रित स्वयंभूदेवकृत अरिष्टनेमिचरित में हरिकुलवंश की उत्पत्ति नाम का चौथा सर्ग समाप्त हुआ ॥४|| Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो सग्गो गंबह पंवहो तणउ घर अहि हरि उप्पण्याउ वालु । पालइ पालणए जि लिंज गोट ढंगणु-गो-परिवालु ॥छ॥ 'कण्णहो कि शवलए । णिइ ण एइ रफंगणकखए॥ अज्जवि पूयण काई चिरावइ । अज्जयि माया-सयडु ण आवद ॥ अज्जवि रिटु-ककुष लिम्जद । अवि गोक्सणु ण परिजह ।। अववि प्रज्जुण-जुयलु ण भज्ज । अज्जवि कंसतुरंगु ग गजा अज्जवि जण जाहि मंपिज्जा। अज्जवि कालिउ जाहि परियामा। अन्जषि कुवलयवोछु ण हम्मद । अज्जवि महुराणयरि प गम्म॥ मर्जाव सधु सृणिज्ाइ तूरहो । अजवि तइय चलण चाणूरहो।। अज्जवि गंवा पुरि जरसंघहो ।। मआयए कंलए बालु ण सोयह । जाणा जपणि अकारणे रोबर।। नन्द का घर आनन्द में है, जहाँ हरि बालक उत्पन्न हुआ है, गोठ प्रांगण और गायों का परिपालन करनेवाले जो पालने में स्थिति होकर भी (जगत् का) का पालन करते हैं । रात का मार्ग दिखाई देने पर, मुद्ध के क्षेत्र की आकांक्षा से वृष्ण को नींद नहीं आती। (बह सोचते हे) आज भी पूतना देर क्यों करती है ? आज भी माया-शकट नहीं आता? आज भी अरिष्ट पायस नहीं लौटता? आज भी गोवर्धन पर्वत नहीं उठाया जाता। आज भी दोनों अर्जुन वृक्ष नष्ट नहीं किए जाते ? केसी अश्व नहीं गरजता? आज भी यमुना नहीं मयी जाती, आज मी कालिया नाग को नहीं नाथा जाता? आज भी कुवलय गज की पीठ को आहत नहीं किया आता? आज भी मथुरा नगरी को नहीं जाया जाता। आज भी नगाड़े का शम्द नहीं सुना जाता । चाणूर के पैर आज भी वैसे ही हैं, आज भी जरासंघ की नगरी वैसी ही प्रसन्न है ?" इसी आकांक्षा (चिन्ता) के कारण बालक नहीं सोला । माँ समझती है कि वह अकारण रोता है। १. क. कण्हहो णीसा मग्गि अक्सए । णिहा गइए रणंगण कखए।' Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयंमूएक्कए रिटुगेमिचरिए यता- मेहरि अम्माहीरएण परियंदइ हल्ला-गाह । गोजलेपहं भवहाणेण हउँ हुइथ चित्ति सणाह॥१॥ को केहउ परचित्तई चोरई। हरि अलियउ मणिरारिउ घोर ।। णं खयकाले महण्णव गज्जा । गं सुरतारिय हि वजा ॥ णं णव-पाउसेग षणु गजा। णं केसरि-किसोर ओसंबई ।। घोरण-सवें मेइणि कंपई। णउ सामग्णु कोषि जणु अपह॥ भीय जसोय विजमणे कुप्पह। उठि जप किर केत्तिउ सप्पइ ।। 'कहवि विजय शाह हरिवंसहो। ताम कहिण्जा केविसहो । व पंदगोर्टिभो बालउ। विपकमु कोवि तासु मसराला ।। घोरण-सहें अंदर फुट्टइ। पिहि वि अमृत्ति कर छुट्टा ॥ घत्ता दुपा पमाणहो रिसि वयण गोटुगणे वन विठ्ठ। मज्ज सुमहरणराहिवहोणं हियवा सल्लु पश् ॥२॥ पत्ता-'अरे ओ सो जा' इस गीत के साथ मां स्तुति करती है—हे हलधर स्वामी, तुम्हारे अवतीर्ण होने से मैं मन-ही-मन आज सनाथ हूँ।१।। कौन से परषिप्त हो चुराता है ? बालक कृष्ण झूठमूठ जोर-जोर से घुरघुर करता है, मानो क्षयकाल में समुद्र गरजता है, मानो देवताओं द्वारा बनाई गई दुदुभि बजती है। माचो नव पावस से मेघ गरजता है, मानो सिंह का नवजात शिशु गरजता है । उस घुरघुर शब्द से घरती काप उठती है। जनसमूह कहता है- यह सामान्य आदमी नहीं पुरघुर कर रहा है। भयभीत यशोदा बालक के जागने पर कृपित होती है-"ओ सुभट, उठो! कितना सोते झे!" तघ हरिवंश के स्वामी किसी प्रकार उठे। इतने में किसी ने कंस से कहा-"नन्द के गोठ में जो बालक पाला जा रहा है, उसका कोई अत्यन्त पराक्रम है, उसके घुरघुर शब्द से आकाश विदीर्ष हो जाता है, और ऐसी धरती कठिनाई से बचती है कि जिसका उपभोग न किया गया हो।" घसा--मुनि का वचन प्रमाणित हो गया। गोठ के आँगन में विष्णू बढ़ते हैं, आज मानो सुन्दर मथुरा के राजा के हृदय में शल्य प्रवेश कर गया ।" १.—णरारिख। २. -कवि उद्। ३. प्र-संकहो। ४. म-पंद गोळे । ५.समहर। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५१ पंचको सल्लो घर गोठे पास। संकि महरापुर-परमेसर।। मापस देषमाज एस्वंतरि। सिद्धर जाउ पुश्वजम्मतरि॥ जापई कंस होंतु पवाइयउ । सब घोरवीच तर ताबड। पवाय बरंतु सहकारणु। भासहो मासहो एस्कसि पारण॥ जामिबि अगसेफ महराराएं। निस पियारिय पुरै अगुराएं। म त्रिणिलणे पाउ भारत । सो वि पाइछु अगंग-विधारत । "पस-गर-अग्गि-बार । से मलाइ तहो जाउ तिवारउ । मासि उत्पए जाय पइसह । "मुच्छते अंधार ते दोसइ॥ पत्ता- कवि कोहप्पायउ, परियवेज महारिसि मारिउ । धाएं को प्रवराह किउ, में पुरि पइसारु णिवारियउ ॥३॥ सिंह देवयाउ सहि अक्सर। बेइ पाएन, भगति मगंतरि । बासुएउ बलएज मुएप्पिम्। गोठ में जो दामोदर का जन्म हुआ, उससे मथुरा का राजा शंकित हो उठा। इसी बीच देवियां आयीं जो उसे (कंस को) पूर्वजन्म में सिद्ध हुई थीं, कि अब कंस ने संन्यास ग्रहण करते हुए अत्यन्त पोर वीर तप किया था। शुभ (पुण्य) के कारण रूप चांद्रायण तप करते हुए वह माह-माह में एक बार तप ग्रहण करता था । यह जानकर मथुरा के राजा उग्रसेन ने अनुराग के कारण, लोगों को मुनि के लिए भिक्षा देने से मना कर दिया और (उनसे) अनुरोध किया कि हे आदरणीय आप मेरे घर ही रहें । कामदेव को नष्ट करनेवाले वह मुनि नगर में प्रविष्ट हुए। लेकिन पत्र, गजराज और अग्निसंकट के कारण उन मुनि को तीन बार आहार का लाभ नहीं हो सका । चौथे माह में जब वह प्रवेश करते हैं, तो वे मूर्मिछत हो जाते हैं और उन्हें अन्धकार दिखाई देता है। पत्ता—किसी ने यह कहकर राजा को क्रोध उत्पन्न कर दिया कि राजा ने महामुनि को मार डाला। इन्होंने कौन-सा अपराध किया कि जिससे उसने इनका नगर में प्रवेश रोक दिया ।।३।। उस अवसर पर सिद्ध हुई देविया, 'आदेश दो' कहती हुई पल भर में आ गयीं। बोली-- १. - गोछि। २. ज---एत्यंतरे। ३. ज-जाणेवि उग्गसेण महुराएं। ४. ज–पयंछु। ५.पा- भत्त गइंद। ६. अ-मुग्छत मंघमाय तें दीसह । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिट्ठणेमिचरिए विज्जज अपर कवणु बंधेप्पिणु ॥ उसगसेणु कि पलयहो पिज्जाउ। कि समसुत्ती पुरे पाडिज्म ।। बुच्चा भइवरेण एत्यंतरे। एउ 'करिज्जह अण्णभवसरे॥ अम्हाइं ताज कंस सुपसण्णउ । मग्गि मगि कि पितावण्णउ ।। पभगइ 'महुरापुरि-परिवाल। बढणंदहो घरि जो बालन ॥ तं विणिवाइयत माह आएसे। पूयण पाइथा पाई-बेसें ।। सविक्षु पयहरु ढोइउ बालहो । गं अप्पागु छुन मुहिकालहो ।। पत्ता-सो पगु दुधारधवलु हरि-वय-करतरे माइयउ। पहिलारउ असरायणे णं पंचजण्णु मुहि लाइप ॥४॥ पूषण 'पटुवंति प्राया। थणुथणंतु धणंधय कढह ॥ पूयण पाहुति भेसावह। भदिन भीमभिउडि वरिभाषद॥ पूयण पाल वंति एवियंभइ। माहवहिर-पाण पारंभइ ।। पूषण पाठवंति किर मारद। णिर-मुट्टि विण्ड वार॥ - - - - - - "वासुदेव और बलदेव को छोड़कर, और कौन बाँधकर दिया जाए? क्या उग्रसेन को प्रलय पहचाया जाए ? क्या नगर में वज गिराया जाए?" इसी बीच मुनिवर ने कहा--"यह काम दूसरे जन्म में करना ।" "हे कंस, हम वे ही देवियां प्रसन्न हुई हैं, मांगो मांगो ! तुम चिन्ता से व्याकुल क्यों हो? 'सब मथुरापुरी का परिपालन करनेवाला कहता है-"नन्द के घर में जो मालक बढ़ रहा है, मेरे आदेश से तुम उसे मार डालो।" पूतना धाय के वेश में दौड़ी । बालक को उसने विर्षला स्तन दिया, मानो उमने स्वयं को काल के मुख में डाल लिया। __ घत्ता–दूध की धार से धवल वह स्तन श्रीकृष्ण के दोनों हाथों में समाता हुआ ऐसा मासूम हुआ मानो असुरो के युद्ध में पहले पहल पांचजन्म मुख में रखा हो ।।४।। पूतना पनहाती हुई घूमती है, शिशु थन-यन करते हुए स्तन को खींचता है । पनहाती हुई पूतना उराती है, भद्र कृष्ण भयंकर भौहें दिखाता है । पनहाती हुई पूतना बढ़ती है, माधव रक्त का पान प्रारम्भ करते हैं । पूतना पत्नहाती हुई मारती है, विष्णु (कृष्ण) अपनी दृढ़ मुट्ठी मारते -- - १. अ—करिज्जुह । २. -महरा पयवालउ । ३. म-घरे। ४. ज--पण्डत्ति । ५. थणडून Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो सग्यो] पूपण परफरेहि परिपेल्ला। इसाजणइण गाहग मेल्लाइ ।। पूयणपिज्जमाण आकंवा । । हरि श्रुतसगण परियंवद ॥ सोणि य-वीसद्ध धाणिए मत्तउ। तो वि 'पोहरु वि परिचसा ।। पत्ता-खोर बिवहिर वि पृयपाहे कहिल फेसवेण रखें। पं णमुहण वसुंधरिहे आकरिसित सलिल समुन्वें ॥५॥ "णिसुणि सक्दु रउछु सकवरु । गट्ठ जसोय सप्तम समंदरु ॥ बाल ण रमखसु चित्तु चमक्का । पूयग विरस रसति ण याकइ । पासुएउ वसुएबहो गवण। हरि-उबिव-गोविंद जपणु ॥ पउमणाइ माहब महसूयण। कंसहो तपिय विज्ज हवं पूयण ।। गत्य ग एमि, जामि प मारहि । भगवण-वेयग-पसर गिवारहि ।। दुग्ध वुमख आमेल्लिय वालें। तहि गोढगणे योवे कालें। णवणवणीय-हत्य र अंगणे ; अच्छह जाम ताम गयणंगणे ।। हैं। पूसना अपने प्रवर हाथों से उसे ठेलती है, जनार्दन उसे काटता है, वह अपनी पका को नहीं छोड़ता। पी (पिई जाती हुई पूतना चिल्लाती है, कृष्ण धूर्तता से घूमते हैं, यद्यपि वह रक्त की पान से मत्स हैं, तो भी उनके द्वारा पयोधर नहीं छोड़ा जाता।। घता---कृष्ण ने पूतना का दूध भी और रक्त भी इस प्रकार खींच लिया, मानो नदी के मुख से समुद्र ने धरती का जल खींच लिया हो ॥शा ___ ऊंचा और भयंकर शब्द सुनकर यशोदा भयपूर्वक अपने घर से भागी और बोली कि यह बालक नहीं राक्षस है। उसका चित्त चौंकता है। पूतना दुरी तरह चिल्लाती हुई नहीं रुकती-. "हे वसुदेव के पुत्र वासुदेव, हरि उपेन्द्र गोविन्द जनार्दन पद्मनाथ माधव मधुसूदन, मैं पूतना कस की विद्या हूँ। गई हुई नहीं आऊँगी, मैं जाती हूँ, मुझे मत मारो। स्तनों के घावों की बेदना को दूर करो।" बालक ने बड़ी कठिनाई से उसे छोड़ा । थोड़े समय बाद उसी गोठ-आंगन में, जब शिशु कृष्ण, नवनीत के समान हाथवाले हरि बैठे हुए थे, कि तभी आकाश के आंगन में १. म.--श्रीसद्गु-घाणिये। २. अ-पनुहरू। ३.-बसंधुरे । ४. म—णिसुणिय कि सद्दु रउदुषकंदिरु। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] आइय देवय सासें । सुति बरवामसें ॥ पत्ता- जाणिद एंतु जगद्दगेण खग-मायारूष-पबंधु [सयं एवक रिभिपरिए करिवि अपंग घल्लियउ पिप्पोडण तोडिय- चंचू १६ ॥ "कहि विणेहि परिवाए । ग्राहय वेबध संवण-वेसें ।। घुरंत खुपतेहि चक्के ह | afan-संवाणिय चचक्के रनु सपमेय अवाणु भावइ । चरणहो बलिज महीहर गावइ ॥ सोबि गोविंदे विमकमसारें । भग्गु कति णिधिपहारें ॥ अनहि वासरि बलवंत । मायासह आज अंत ॥ चलगुवा लिय- भूहर भयंकर । बेक्कार - बहिरिय भुवणो ॥ युद्ध-सिंगा-लगा-धम साविय बसेस गोट्ट गणु ॥ पेक्षि रिट्ठ सुछु आबदुर । वलेषि कंद्र किज पाराउउ । पत्ता - गोवाभंगे पवरिसिए संवाणिउ जाउ विसेसें । को बलिए णीसरिवि गज जीविज कहवि किलेसें ॥७॥ में कंस के द्वारा प्रेषित एक देवी आयी, कौए के रूप में सूं सूं करती हुई । पत्ता - जनार्दन ने खग के माया रूप प्रपंच को जान लिया। जिसकी चोंच निष्पीडन से टूट चुकी है, ऐसे उस मायाबी पक्षी को अजंगम करके छोड़ दिया || ६ कुछ ही दिनों में राजा के आदेश से एक देवी रथ के रूप में आयी, विस्तार में चन्द्रमा और सूर्य को पराजित करनेवाले जगमगाते छक्कों (चक्रों) से घर-घर करती हुई । रथ अपने आप दोड़ता है, जैसे महीघर अपने स्थान से चलित होकर दौड़ रहा हो। विक्रम में श्रेष्ठ गोविन्द ने उसे भी अपने पैरों के प्रहार से तड़तड़ तोड़ दिया। दूसरे दिन अत्यन्त बलवान मायावी बैल गरजता हुआ आया। जो पैरों से उछाले गए पहाड़ से भयंकर है, जिसके विशाल सींग का अगला भाग आकाश के आँगन से जा लगा है, जिसने समस्त गोठ आंगन को भयभीत किया है, ऐसे उस अत्यन्त कुपित बैल को देखकर उसकी प्रीचा को मोड़कर उसे इस छोर से उस छोर तक मिला दिया । बत्ता -- ग्रीवा मंग के प्रदर्शन से बैल विशेष रूप से नियंत्रित हो गया। टे मुड़ने पर उसके प्राण बड़ी कठिनाई से निकलकर जहां कहीं भी चले गये ||७ १. ज – कजिं । २. अ— आवाहषु । २. अ— सुवि । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंधमो सग्गो] अग्णहि दिवसि तुरंगम भाइयउ । भागगीउ गओ कति ग घाउ ।। अण्णाह वासरि पातु पगंषउ। वाम गुण उलूखलु बदउ ।। गर सारा सामारित हो जाना । 'पच्छाइ लग्गु अणहष्णु सावहि ॥ 'एक् गइ विलासु परिवरढइ । भवरकमेण उलूखलु काइ॥ फसाए परवल गंजणु । उपरि पविय गरि जमलम्जणु ॥ ता महसूयर्पण मजायें। एकेकउ एक्के करके हत्थे ।। भग कत्ति वेवि गयणासेवि। रुबई मस्यावियाई पयासेवि ॥ माहि काले धूलि पहाणेहि। जलहरषाहि मुसलपमाणेहिं ।। लाइउ गोष्ट आश्टुअगरण गिरि उरिउ कुखक गोषमा । घसा--वडिय-पुण्ग-फलोदएण वणुवह बसण-अवचिन्हें। बिवहई सत्त सरतियई परिरमिखाउ गोजल, कण्हें ।।। अहि जारि गमणागंदहो। देवद हलहरु गोउलगंवाहो॥ गगई पेवि हरिपदणलुखई। दूसरे दिन घोड़ा आया। गर्दन नष्ट होने के कारण वह भाग खड़ा हुआ, किसी प्रकार मरा भर नहीं। दूसरे दिन, दुवपीता बच्चा रस्सी से उखान से बांध दिया गया। जिस समय यशोदा तालाब के जल के लिए जाती है, उसी समय जनार्दन पीछे लग गये। एक पैर से वह अपना गतिविसास बढ़ाते हैं, और दूमरे पर से ऊखल को खींचते हैं। कंस के आदेश से शत्रुसैन्य का नाश करनेवाले यमलाजुन केवल उसके ऊपर गिर पड़े। तब बीच में स्थित मधुसूदन ने एक-एक को एक-एक हाथ से तइसढ़ करके नष्ट कर दिया। वे दोनों अपने मायाधी रूप दिखाकर भाग गये। एक समय ---जिनमें धूल और पत्थर है, और जो मूसल के बराबर हैं ऐमी जलपरपारामों ने गोठ को घेर लिया। जनार्दन क्रुद्ध हो उठे, उन्होंने दुधर गोवर्धन पर्वत उठा लिया । पत्ता—जिसके पुण्य फल का उदय बढ़ रहा है , और दानवों के शरीरों को चूर-चूर करने में अवितृष्ण (असंतुष्ट है) ऐसे कृष्ण ने सात दिन-रात गोकुल की रक्षा की ॥८॥ दूसरे दिन, देवकी और बलराम दोनों, नेत्रों को आनन्द देनेवाचे गोकुल के नन्द के पास १.--वाइस । २. प्र—पच्छले । ३. ५-एक्कं । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] हि गोई परिवदिप बुराई ॥ जहि बोलिन गोमलियामउ । 'ढोइन्जद सिराज वाम ॥ नहि गोविउ गोविवाति हरु । for कंण सिह ॥ जहि वणिज्जह जगण लगद्दषु । एत् पोट्टि मायासंदणु ॥ पूर्ण एंतु एश्यु पछि । वासविज्य एत् यियि ॥ एल्युरिट्ठ सतरंगम् मद्दिउ । एत्यु उलूखलु कड्कइ भद्धि ।। एत्यु भग्गु जमलज्जण बालें । गिरि उद्धारि एत्थ मुखालें ।। पता- तं गो गणु देव [सयंभू एक रिमिरिए खज्जन । से होस महाधर णारायण सियहे निसण्णउ ॥ ६ ॥ वासु एव' बसुएवधरिणिए । कलन करेणु विट्टु ं करिणिए । पीपलवासु महाघण-सम्मज । सिरकमल द्विय कुवलयदम्भउ ॥ कावि गोषि तहो" "पच्छ लग्गरे । मक्कु कण्ह पई मंथणी भग्गी ॥ जहा महारज दुक्कहि पंगणु । झुण्ड और मृग बोल वहाँ गये, जहाँ दूध का संवर्धन करनेवाले गोपति थे; और जहाँ गायों के रहे थे । जहाँ सिन्दूर और रस्सियाँ ढोयी जा रही थीं, जहां गोविन्द की पीड़ा को दूर करनेवाली, और कंचुकी से अपना आधे स्तन के शिखर भाग को दिखानेवाली गोपियाँ थीं । जनों के द्वारा जहाँ जनार्दन का इस प्रकार वर्णन किया जाता है कि यहाँ उन्होंने मायावी रथ को उलटाया, यहाँ आती हुई पूतना की प्रतीक्षा की। यहाँ वायस विद्या को पीड़ित किया । यहाँ अव महित अरिष्ट वृषभ का मर्दन किया। यहाँ भद्र (कृष्ण) कवन खींचते रहे, यहाँ शिशु ने यमलार्जुनको भग्न किया। यहाँ कृष्ण ने अपनी बाहु रूपी डाल से गोवर्धन पर्वत उठाया। छत्ता -- देवकी को गोठ प्रांगण अत्यन्त सुन्दर दिखाई दिया। ( उसे लगा कि ) नारायण की श्री में रहनेवाला अवश्य ही मूल्यवान सिद्ध होगा || २ || वसुदेव की गृहणी देवकी ने वासुदेव (कृष्ण) को इस प्रकार देखा मानो हथिनी ने हाथी के बच्चे को देखा हो । पीले वस्त्र वाले वह महामेघ की तरह श्याम हैं, और सिर पर कमलमाल स्थित है। कोई गोपी उनके पीछे पड़ गई--"हे कृष्ण तुमने मेरी मथानी तोड़ी है, तुम तब तक १. अ, ब – लक्ष् सिन्दूरउ ढोइहि दामउ । २ अ वासुएउ। ३. अ - सिरि कमलदिल- कुवलयदाम । ४. अ – पच्चा । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी सम्भो एकति जइ ण हि प्रालिगणु ।। काषि गोवि सयवार धोसा। बहो तषिय बाग तउ होसह ।। बह एक्कु वि पड देहि परमुह । एक्कवार जोयहि सबउंमा॥ काधि गोवि 'रसरंग-पलको। हरितणु कतिहे लिहक्किवि की । एम पियंति कीलतहो रासहो। घरिद्धि गं मिलिय सुकालाहो ॥ धत्ता-पत्त-समागमे वेवइहे थण पहउ कहि मिण माह। लस अहिसित पयोहरेहि विहि मेहहि महिला पाइ ॥१०॥ तो 'प्रवहत्यु करिबि संवे। खोरहोष सित्तु पलाए। पासह-वसह भणेवि पगासिष। बिह भउ होइ ग कंसहो पालिय। अंधेवि पुति दिवि गोगा। गय नियभवण पोवो वैवइ॥ मालराहिउ सहि हाले घुमहा। फेलह वा भगंतु पस्किस ॥ पटु सोम कहिमि हरि लेपिण। पाणिग्रहण-पघोस करेपिणु ।। तहिवि बुवालिए विषु ण पक्ता । यही ठहरो कि जब तक तुम मेरे आंगन में नहीं पहुंचते और मुझे आलिंगन नहीं देते।" कोई गोपी सौ बार घोषित करती है-"तुम्हें नंद की पापथ है यदि विमुख होकर तुम एक भी कदम रखते हो, एक बार मुंह सामने करके देखो।" रस क्रीड़ा से प्रदीप्त कोई मोपी कृष्णा के शरीर की कांति में छिपकर बैठ गई। क्रीड़ा करते हुए बालक कृष्ण को देवकी इस प्रकार देखती है जैसे सुकाल को धन-ऋद्धि मिल गई हो। पत्ता-पुत्र के संगम के कारण देवकी का दूध करता स्तन कहीं भी नहीं समाता। (देवकी के) पयोधरों से श्रीकृष्ण [विषि] उसी प्रकार अभिषिक्त हुए जिस प्रकार महीधर मेघों से अभिषिक्त होता है। तब शीघ्र ही उसे [देवकी को हटाकर बलदेव ने दूध के घड़े से उसका अभिषेक किया, और उन्हें 'इन्द्रश्रेष्ठ' कहकर प्रकाशित किया कि जिससे उन्हें फंस से भय न हो । गोपति (कृष्ण की अर्चना पूजा और वंदना कर, देवकी वापस अपने घर पर गयीं । उस अवसर पर मयरा का राजा गरजा मोर 'बालक को देखो' यह कहता हुआ वहां पहुंचा। यशोदा श्रीकण को लेकर और विराह की घोषणा कर कहीं(दूर) चली गयी । वहाँ भी बालक अवम के बिना प्रति १. अ, ब, अ, रससंग । २. अ-साहित्यु । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिटणेमिनरिए सिलसंघाउ सिलोपरि घत्ता ॥ हरि-चाहिं कहिज्जा कंसहो। सच्चज होह पायंसहो।, कावि अपुस्ख भंगि तहो केरी। बुपकर, छुट्टष्प वसुमा सेरी ।। पत्ता महरापुर-परमेसरहो भन या धीरु ण था। हरिबलगुण-करवसेंहि कप्पिमइ हियवउ भाइ ॥११॥ दुज्जसमसि-भलिय-णियवंसें। घोसग पुरि वेवाविय करें। विजारेण मुक्त्तिमगामें। णिम्जिय-णिरक्सेस-संगामें ॥ मेरुमहोहर-णिञ्चल चित्तें। सच्चहामवर इस-गिमित । रहगेउरणयरहो पट्ठवियई। रयणई तिमि एत्यु चिर विया। तहिं जो गायसेज्ज आयामह । पूरइ पंचजणु षणु णामइ ।। असर तहोमि णिकाओ। हपनाय-रयग-दुहिय-संगुत्तो ॥ सो सेज्वहि 'णिसणु गरुडास। पूरिउ संस्नु बढाविउ सरासण। पत्ता-बामह करि सारंगु किउ वाहिणेण संप मुहि बोइया । विसहर-सेज्जे समावहिवि रिउ णाई कयंत जोइपज ॥१२॥ नहीं करता, वह शिला के ऊपर शिलालों का समूह स्थापित करता है। दूतों ने जाकर कंस से कहा, "सचमुच श्रीकृष्ण हरिवंश के स्वामी होंगे। उनकी कोई अपूर्व ही भंगिमा है। अब बड़ा कठिन काम है, तुम्हारी धरती हाथ से जाएगी।" घसा-मथुरा नगरी के परमेश्वर कंस के मन में डर है, उसके मन में धीरज स्थिर नहीं रहता। जैसे वासुदेव और बलराम के गुणरूपी करोंत से उसका हृदय काट दिया गया हो ॥११॥ बिसने अपयशरूपी काली स्याही से अपने वंश को कलंकित कर लिया है, ऐसे कंस ने नगर मैं घोषणा करायो-"सत्यभामा के वर के निमित्त से, रमनूपुर नगर से भेजे गए तीन रस्न यहाँ बहुत समय से रखे हुए हैं। वहां जो नागशय्या पर सोता है, शंख बजाता है और धनुष चढ़ाता है निश्चय से में उसे अश्व, गज, रस्न और कन्या से मुक्त आधा राज्य दूंगा।" तब श्रीकृष्ण नागवाय्या पर जा बैठे, उन्होंने शंख फूंक दिया और धनुष चढ़ा दिया। घसा-...कालिया नाग काल के समान काला है, मैं उसके पास जाती है, वह मुझे साए; माण किनारे लग जाए और सबका नाश न हो ॥१३॥ १. अ-हरेवि परेहि । २.—णागसेज्ज । ३. अ----णिवष्णु । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो सग्गो] सहो कज्जु परिष्टुिउ भारिउ। सजससु मणे उष्पग्णु गिराश्चि । कहिय वेडि गोटुंगणणाहहो। "ज उण-महावहहो अगाहहो॥ मंगोद्र नाया। गं तो मिति का जं जाणहि ।। तहि अवसरि परिबडिय सोयहो। णियडिय पं गिरिवज्ज-जसोयहो। एक्क पुत्तु मह अम्भुबरपउ । तासु वि कंस समिच्छामरणउ॥ होतु मणोरह महुरारायहो। बरि अपाणु समष्पिजे णायहो ।। मई जीवंतए काईहतासर। भूमिहोणाई सिल-संकासए । अहवाइ जइ गउ णंब सणवणु। तो मह धुउ अपुत्तणु रंपत्तषु॥ पत्ता–कालिज काल कालसम् मई साहु जामि तहो पास। लग्गज तडि वोहित्थबर मा सम्वहो होहि विणासु ॥१३॥ तो "वल्लहजण-णयणाण। णिय पिययम-मभोसिय गंवें ॥ घोरी होइ त कि रोवहि। माणिक्कारणे अप्पर 'सोयहि ॥ बरु परिरक्षण करि गोविदहो। घसा-बाएँ हाथ में यनुष ले लिया, और दाहिने हाथ से शंख बजा दिया। नागशग्या पर बैठकर बात्र को इस प्रकार देखा जैसे यम ने देखा हो ॥१२॥ कंस का काम भारी हो गया, उसके मन में अत्यधिक भय उत्पन्न हो गया। गोठ प्रांगण के स्वामी नन्द को घेर कर उसने कहा- "हे नन्दगोप, अगाध यमुना सरोवर से कमलों को लाओ, नहीं जसा ठीक जानो वैसा सोच लो।" उस अवसर पर, जिसका शोक बढ़ रहा है ऐसी यशोदा के सिर पर जैसे गिरिवन गिर पड़ा। मेरा उद्धार करने वाला एक ही पुत्र है, कंस उसी की मरयु चाहता है, मथुराराज का मनोरथ पूरा हो, अच्छा है मैं स्वयं को नाग के लिए अर्पित कर दें। हताश मेरे जीने से क्या? चट्टान की तरह, मैं इस धरती के लिए केवल भार स्वरूप हैं। अथवा यदि नन्द पुत्र के साथ जाते हैं तो निश्चय से मैं पुत्रविहीन और विधवा हो जाऊँगी। तब प्रियजनों के नेत्रों को आनन्द देनेवाले नन्द ने अपनी पत्नी को अभय वचन दिया"हे कांते, तुम धर्य रखो, रोती क्यों हो, अकारण अपने को सोच में मत डालो, अच्छा है तुम १. अ—विसहरभया समावहिवि। २. प्र-जउणावालाहियहो अगाहहो। ३. बजसोयहि । ४. अ. बल्लवजण। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] ह जामि सहो पासु फणिवहो । जिस रासणभारु परागिउ । जैम सम तिम सो सम्मान ॥ एम भणेषि, पर बेमि ग आमहं । मग विबारिउ तामहं ॥ अच्छहि तथ्य साथ गिच्चितज । उह भर मह संधोरि घितउ ॥ जेहि थिय वालमहागह खीलिथि । पूणर्धारय जेहि आकोलिषि ॥ वयस चंचु हि रणे तोडिय हिउ रिट्ट जमलज्जण मोडिय ॥ [भएase चिरिए घता- - गिरिगोयणु उद्धरित सत्ता जेहि परांडे । मंग णत्थियंतु घुषं तेहि भुवं हि ॥ १४ ॥ इय रिट्ठणे मिचरिए धवलयासिय सयंभू एवकए गोविंदबालकलाणामो पायी पंचमो सग्गो ॥ ५ ॥ ॥ १. अ-सोहि । गोविंद की रक्षा करो, उस नागराज के पास में जाऊँगा । जिस प्रकार कमलों का भार आया है, जिस प्रकार का समय है, उसका उसी प्रकार सम्मान करो।" यह कहकर, जब तक नन्द पैर नहीं दे पाये, कि तभी श्रीकृष्ण ने उन्हें मना किया - "हे तात, आप निश्चित रहिए, वह भार मेरे कंधों पर डाल दिया गया है। जिन से बालक महायहों को कीलित करके स्थित था, जिन से उसने पूतना को पीड़ित कर पकड़ लिया, जिन हाथों से उसने कोए की चोंच तोड़ी, अरिष्ट को मार दिया और यमलार्जुन को मोड़ दिया ।" पत्ता-जिन प्रचंड हाथों से सात दिन तक गोवर्धन उठाया, उन्हीं मेरे हाथों से कालिया नाग को नापते हुए देखो ॥। १४॥ इस प्रकार घवलश्या के आश्रित स्वयंभूदेव कवि द्वारा विरचित गोविद बाललीला नाम का पाँचवाँ सर्ग जानना चाहिए। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टो सग्गो सिरिरामालिगिय यच्छतु पहन करेपिणु णीसरह । कमलागरे कपलगिमिने इउमामावति पसरह॥ मुसुमूरिय-मायासंवर्षण। लक्लिज्मा जयणा अणहषेण ॥ अलिबलय-जलय-कुवलय-समय। रवि-भइएक पंणिसितलि णिसण ॥ गंपसुपरंगण-रोमराह । + वहमयण कटिणि पिराइ॥ वणीलमणि-भरियवाणि। गं कालिपाहि-महिमाम हाणि ॥ लाह कालि णिहालिषि आय सष्ष। गामीण-गोव जायव सगव्य॥ पिय भावणदेवि धरित्तिमगे। मोइज्जइ साहस सुरेहि सग्गे ।। आहोशिउ रणुतणमदणेण। जवणावह देवइ-णवणेण॥ संखोहिय जलया जलु वि स । णीसरिउस पसरिजरठदु॥ जिनका वक्षस्थल लक्ष्मीरूपी रमणी से आलिंगित है ऐसे कृष्ण प्रतिज्ञा करके कमनों के लिए यमुना महादह सरोवर में प्रविष्ट होते हैं। मायावी रथ को चकनाचूर कर देनेवाले जनार्दन ने भ्रमर समूह, जलद और नीलकमल के समान रंगवाली यमुना नदी को इस प्रकार देखा मानो सूर्य के डर के कारण निशातल पर बैठी हुई हो, मानो बसुधारूपी वरांगना की रोमराजि हो, मानो दग्ध कामदेव की करनी पोभित हो, मानो इन्द्रनील मणियों से भरी हुई खान हो, मानो कालिया नाग के अभिमान की हानि हो । उस अवसर पर, ग्रामीण गोप और यादव सभी लोग गर्व के साथ देखने आये। भवनशसिनी देवी धरती के मार्ग पर स्थित हो गयी। स्वर्ग में देवगण तथा विद्याधर राजा देखने लगे ! दानवों के शरीरों को चकना-घूर करनेवाले देवकी के पुत्र ने यमुना सरोवर को भालोहित कर दिया । भयंकर सांप निकला और फैल गया। १.म-मिसट् । ३. -मरट् । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिट्टणेमिचरिए पत्ता-सर कालिउकालिविजन तिम्णिवि मिलियई कालाई अंधारी एयउ सम्खु काई णियंतु णिहालाई ॥१॥ उवाइज विसहरु विसमलील । कलिकाल कर्यत-रउद्दसोलु ।। कालिन्वीपमाण-पसारिपंग । 'विवरीयत्रालिय-जल-चल-तरंगु॥ विष्फुरिय फणामणि किरणजाल। फुरकार-भरिय-भवणंतराल ॥ गुहागर मलकीहरिए। गयणग्गि-सुलुक्किय-अमरविदुः ॥ विससिय-जउण-जल-पवाहु। अवाणिय-पंकयणाह-जाह॥ बप्पखर चव-फणालि-बड़। गं सरिय पसारित बाहदंड ।। उम्पण्णव पण्पद अग्ज कोधि । पहरिजहि णाह णिसंक होति। तो विसम विसग्गारुग्गमेण । हरि वेदित उरि उरषंगमेण ॥ पत्ता-जउणावहे एक महत्त केसव सलिल कोल करछ । रयणायरे मंदर गाइ 'विसहर-वेढिन संचरह ॥२॥ गियरूतिए असुर-परायण। पत्ता-केशय, कालियानाग और कालिंदीजल तीनों काले मिल गए, सब कुछ अंधकारमय हो गया। देखे हुओं को देखने से क्या ? ॥१॥ विषम स्वभाव वाला वह विषधर दौड़ पड़ा । वह कलिकाल और कुदंत के समान रुद स्वभाव का था, प्रसरित अंगों वाला यह यमुना का प्रमाण-स्वरूप था। जिससे जल की पंचत्त तरंगें विपरीत दिशा में बह रही हैं, जिसके फणामणि पर किरण समूह चमक रहा है, जिसके फत्कार से भवन का अंतराल भर जाता है, जिसके मुखरूपी कुहर को हषा से पर्वतगज उड़ जाता है, जिसके नेत्रों की आप में अमर समूह ध्वस्त हो जाता है, जिसके विष से यमुना का जल-प्रवाह दूषित है, जिसने कमलनाथ स्वामी की उपेक्षा की है, जो दपं से उद्धत है, जिसने प्रचंड फनों की आपली उठा रखी है जो ऐसी मालूम होती है कि मानो सरिता ने अपना नाहुदंड फैला लिया है, ऐसा कोई सर्प आज उत्पन्न हुआ है। हे स्वामी, आप निश्चित होकर उस पर प्रहार कीजिए। तब जिससे विष का उद्गार उत्पन्न हो रहा है, ऐसे नागराज ने हरि को घेर लिया। घत्ता-यमुना के महासरोवर में केशव एक पल के लिए क्रीड़ा करते हैं, मानो समुद्र में विषपरों से घिरा हुआ मंदराचल चल रहा है ॥२॥ ___अपने तेज से असुरों को पराजित करने वाले नारायण को कालिय नाग दिखाई नहीं दिया। १. अ-विधीयचलिय जलचर तरंगु । 2. अ—अजु । ३. --विसहतेहिउ संचरह। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोगी] कालिज ग विठु नारायण || उप्पण्ण भंति णउ गाउ गाउ । घसा बिष्फुरिउ ताम कणिमणि-पिहाउ ॥ उज्जोएं जाणिज परमचाय । की गुणेहिं ण पाविड बंधणार | तो समरमा सहि दुम्महे । पुरंदकुम पंचगुलि पंच णजलंग । णं फुरिम फणामणि- वर भुयंग ॥ तहो तेहि घरिज्जइ फणकउप्पु । उपाय को कर करण सप्पू ॥ अक्सिज्ज इ णवरवि-उगामेण । उज्जलउ लज सिरि-संगमेण ॥ डिफड फणि झडप देह । विसहरु करोड़ -- पत्येष्पिषु ममहगें कालिउ जहयले भामिउ । भीeray कंसह गाई काल दंड उगाभिउ ॥ ६ ॥ मणि किरण कालिय- मीहि । विसर - सिर- सिहर सिलावलेहि ॥ जियत्पदं किमई समुज्जलाई । पिरिम जउणमहाजलाई ॥ तह हाउ गाउ णं गिल्लगंडु । [६३ भ्रांति उत्पन्न हो गयी. नाग ज्ञात नहीं हो सका। इतने में नाग के फण के मणियों का समूह धमका। उसके प्रकाश से साँप को जाना जा सका। गुणों के कारण कौन बन्धन को प्राप्त नहीं होता ? तब हजारों युद्धों में दुर्दम श्रीकृष्ण ने अपना बाहृदण्ड फैलाया जो पांचों अंगुलियों के पाँचों नखों से उज्ज्वल अंगवाला था और ऐसा लगता था जैसे चमकते हुए फणमणियों वाला श्रेष्ठ सांप हो । उन उंगलियों से साँप के फनसमूह को पकड़ लिया गया । यह मालूम नहीं हो सका कि उनमें कौन हाथ है और कौन साँप। नवसूर्य के उदम होने पर ही यह जाना जा सका कि लक्ष्मी का संगम करनेवाले (श्रीकृष्ण) ने उज्ज्वल साँप को पकड़ लिया है। विल सप आक्रमण करता है, लेकिन गारुड़ी का सांप क्या कर सकता है ? पत्ता - श्रीकृष्ण ने कालिय नाग की नायकर आकाशतल में इस प्रकार घुमा दिया, जैसे कंस के लिए उन्होंने भयंकर कालदण्ड उठाया हो ॥ ३ ॥ मणिकिरणों से महीधरों को भयंकर बना देनेवाले विषधरों के सिर रूपी शिखर - शिलातलों पर श्रीकृष्ण ने अपने वस्त्र समुज्ज्वल किये। यमुना का महान जल पीला हो गया। उस सरोबर में उन्होंने स्नान किया, जैसे गीले गंडस्थल वाला हाथी हो । फिर उन्होंने स्वर्णकमल समूह को १. अ फणिमणिहाउ । २. अ - समरसहासह दुम्मुहेण ३. महुमहण | Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिट्ठणेमिचरिए पुणु लोजिउ कंचणकमलसंड ।। विकिपडा मारपरि विहार। बोयज गोणवण रिजाइ । गीसरिउ अमण वर्णधिमहि । पं महणे समत्तए मंवरहि॥ सडिभार एजिसका हलहरेग। ण विज पुंशु सियजल हरेण॥ गोहहं समापे विमायरेण। सम्भावें भापक्ष भामरेन ॥ पत्ता-बलएए अहिम संत हरि अवजित तहि समए । सियपरखें तामस-पक्नु पाई पाईसरे पविषए ॥४॥ वामोदर-हलयर जापवा वि। गम गंदहो गोउल 'पेक्मणेवि ॥ गोवुहेहि ताम वावियाई। महराहिलधरे धल्लावियाई ।। परणाहें विद्याई पंकयाई। पं मुंजीकया महाभयाई॥ विविखण्णहं अग्णई पविरलाई। पं गहसिरि-पयहं सुकोमलाई। रिज-नुबउ एत्यु म मावि मंति। महं मारइ वेव वि ण परति ।। चितेव्बउ तास उवाउ तोवि । जह हरकेवि साह कवि कोवि।। अच्छा हियबाद बुक्खंति सल्लु । बोझा बांधा हुआ भार उनके ऊपर ऐसा दिखाई देता है जैसे उन्होंने दूसरा गोवर्धन तठा लिया हो। दायों का बिमदन करनेवाले जनार्दन इस प्रकार निकले, जिस प्रकार समुद्र का मंचन होने पर मंदसपल हो । बलभद्र मे किनारे पर उस कमल भार को इस प्रकार देखा, जैसे श्वेत मेष ने बिजली के समूह को देखा हो । आदरपूर्वक वालों को उन्हें सौंपकर सद्भावपूर्वक बता भाई बलदेव ने नीचा मुख किए हुए भाई का उस अवसर पर आलिंगन किया, जैसे प्रतिपदा के दिन आकाश के मध्य शुक्लपक्ष ने कृष्णपक्ष का आलिंगन किया हो। श्रीकृष्ण और बलभद्र और मादध भी नन्द का गोकुल देखने के लिए गये। इतने में ग्वालों के द्वारा ले जाए गये और मथुरा के राजा के घर बिसेरे गये कमलों को नरनाप में इस प्रकार देखा मानो महान भयों को इकट्ठा कर दिया गया हो। बड़े-बड़े कमल बिखेर दिए नये, मानो भावाशरूपी लक्ष्मी के सुकोमल पव हों। (उसने सोचा) कि शत्रु दुर्षेय है, इसमें कोई भ्राति नहीं - १.ज, ब-विमनु । २. छ, ब—मंदरछु । ३,जायो बि । ४.५–पेक्लया । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टो सगो] सं फेडद गइवि पर एक्क मासु ॥ जासुसणई वलण तियसहं असण् । जे विटु णासाइ सो अबज्न ।। पत्ता-हक्कारिपि सो पाणूर अवर षणुबह मुट्टियउ। लपिसम्जन राष्ट्र विसण्णु धूमकेत ण णहिटियउ॥५॥ तो महरापुरे परमेसरेग। बोल्लाविय वेवि कियायरेण ॥ परिवाल जाह जाणाह कया। मइ पह-पसाय-रिण हियाइ था। तो क्यणु महारउ कर स । मा दाम्हे नि तेति इरन र बलवंतउ दौसद पंदजाउ । प्रण सौराउनु तहो सहाउ । सो पह हणेउ मुहिएण। बलएउवलबार मुद्विएग ॥ 'धुरंधरह सहि रणि पुखराई। हक्कारा गय हरिहलहराई। संबल्लिय बल्लवबल-महल्ले । वणु-उपरि-मल्लेमकेशकमाल । समालालंकिय-उत्तमंग। भूमूसियभूरिभुनाभवंग ॥ है । वह मुझे मारेगा, देवता भी मुझे नहीं बना सकते । तव भी इसका उपाय सोचना चाहिए जिससे कोई किसी प्रकार सम तक पहुँच सके। यह शल्य उसके हृदय को कष्ट देती है। यद्यपि उसे केवल एक मल्ल तोड़ सकता है, जिसके पर देवताओं के लिए भी असाध्य है, जिसके देखने पर वह अवध्य अवश्य मारा जाएगा। पत्ता-तब चाणूर और दूसरे धनुषारी योद्धा को बुलाकर देखा । वे ऐसे विखाई देते थे जैसे आकाश में राहु और घूमकेतु स्थित हों ।।५।। तब जिसका आदर किया गया है ऐसे परमेश्वर (कंस) ने उन दोनों (मल्लों) को मधुरा में बुलवाया और कहा-"परिपालन करो, यदि तुम लोग किए हुए को जानते हो, यदि स्वामी के प्रसाद का ऋण हृदय में है तो आज तुम हमारा कहा पूरा करो । तुम्हारे रहते हुए(शत्रु) राज्य का अपहरण न करे। नन्द का पुत्र बलवान दिखाई देता है । और फिर मलभद्र उसका सहायक है, तुम्हें उसे मुष्टि (प्रहार) से मार डालना चाहिए । मुष्टिक द्वारा बलभद्र का बस छीन लिया जाए।" तब युद्ध में दुर्धर और पुरन्धर हरि-हलपर को बुलाया गया । उत्तम बल से महान में महामल्ल पले जो दानवों के ऊपर एक-से-एक महान् मल्ल हैं, जिनके सिर मुरेठ (वटमासा) से अलंकृत हैं, जो भौंहों और समर्थ भुजाओं से विभूषित है। १. अ---घुरघरिय तेहिं रणे दुराहं । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएबकए रिटुणेमिधरिए पत्ता-पिसुणिज्जद महरहि तूर गोषिहि रहसुसाइयहि । गं सहो धरि कूवार हरिबलएवहिं भाइयहिं ।।६।। तो रोहिणिवेषइ-तगुरुहेहि । भवरेहि मि मिलिएहिं गोपुहेहि ।। लक्विज पोवु पोषमाणु। कियवस्थारुहरयावसागु ॥ संकरिसण कहा जणदणासु। बुदम-वणवेह विमणाम् ।। एहहण कहिल्सई सिलहि अम । विध 'बेवा-जायई फंसु तेम॥ तं वयण सुवि महसूयण। जमपंगण-पाधियपूयण॥ ससयाजमा लज्जण मोजणेग । कालियसिर-सेहर-सोरणे ॥ उत्थंषिय-गिरि-गोबरणेण । वसुएम-बस-संबद्धगेण ॥ परिहाण-सयाई लेवावियाहं । मंडमंड रिजजीवियाई ॥ घता-बलए सामउ वासट कण्हें कणय समुज्वलउ । पंकलिउ कंसहो पिसु बीस कालउ पायलट ॥७॥ सिरिकुलहर-हसहर बलिय देवि । गामीणगोषफियमल्ल मेथि ॥ ___घता-हर्ष से उछलती हुई गोपियों के द्वारा मधुर नगाड़ा सुना जाता है मानो हरि और हलधर के आने से कस के घर गुहार (पुकार मच गई हो ॥६॥ ___ तब रोहिणी और देवकी के पुत्रों (बलभद्र और कृष्ण) और दूसरे मिले हुए ग्वालों के द्वारा वस्त्र घोसा हुआ धोबी देखा गया जो वस्त्रों में लगी धूल हटा रहा था। बलभद्र, दुर्दम दानवों की देह का दलन करनेवाले जनार्दन (श्रीकृष्ण) से कहते हैं कि यह (धोबी) जिस प्रकार शिला पर वस्त्रों को पछाड़ता है, उसी प्रकार पहले देवकी के पुत्रों को कैस ने पछाड़ा।" यह वचन सुनकर पूतना को यम के प्रांगण में भेजनेवाले; शाकट सहित यमलार्जुन को मोड़नेवाले, कालिया नाग के सिरशेखर को तोड़नेवाले, गोवर्धन पर्वत को ऊँचा उठानेवाले, बसुदेव के वंश को बढ़ानेवाले श्रीकृष्ण ने सैकड़ों वस्त्र ले लिये; मानो बलपूर्वक उन्होंने शत्रु के प्राण ले लिये हों। पत्ता-बलभत ने श्याम वस्त्र और कृष्ण ने सोने के समान उज्ज्वल वस्त्र खींच लिया, जो मानो कंस से निकाले गए काले-पीले पिस के समान जान पड़ता था ॥७॥ श्रीकृष्ण और हलधर दोनों चल पड़े। जो ग्रामीण मल्लगोप थे उनको भी ले लिया।वे स्यूल ---- - - १. ज, ब-देवइजाएं। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटो सग्गो] भिरथोर महाभूयविवच्छ नागाविह णिवद्ध सिषय-कच्छ ॥ लायण-महाबलभरि भुपण मुह-ससहरकर - पंडुयिनायण ॥ चलचलणुच्चा लिय- अचलबीड । दामोधर उर- सिर-पसर-सीढ । अप्फोडण र बहिरिय विद्यत । कंसोरि गय णं बहू कयंत ॥ सधि जिहालय तेहि 'ताब | मंघरसंचार महाणुभाव ॥ सवालंकार - बिहूसियंग | तणि कावि अव्वभंग ॥ याहो किर मंडणउ णेइ । णारायण भायगु मंडु लेइ ॥ यत्ता - उद्दालिवि महुमहणेण गोवहं विष्णु पसाहणउ । लइ विजेवि तह जीवच चाणूरहो सणउ ॥5॥ योवंतरि विट्ठ महागदंतु । अणवरय - गलिय-मय सलिलषु ॥ विसमास णि सणि-सय-सम रउडु मय-सरि परिवाविय समुद्धु ।। गल्ल - गिल्ल मल्लरि बहिरिया । परिमस मेल्ला विय- अलि-सहत्सु ॥ ६७ महाबाहु थे और मानी विशालवृक्ष वाले नाना प्रकार के जलाशयों के तट से निर्मित कच्छा बाँधे हुए सौंदर्य के महाजल से विश्व को आपूरित करनेवाले थे। मुखचन्द्र की किरणों से जिन्होंने आकाश को अवल कर दिया था। जो पैरों से अचल पीठ को उछालने वाले हैं, जिन्होंने दामोदर के बक्ष और सिर का प्रसार ग्रहण किया है, और आस्फालन के शब्द से दिशाओं को बहरा बना दिया है ऐसे वे कंस के ऊपर ( की ओर ) गये मानो बहुत से यम हों । इतने में उन्होंने एक दासी को देखा जो धीरे-धीरे चलनेवाली और उदार आश्रयवाली थी। उसका शरीर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित था, उसकी सौन्दर्य-मंगिमा अपूर्व थी। वह अपने स्वामी के लिए प्रसाधन सामग्री लेकर जा रही थी । घसा – मधुसूदन ने वह प्रसाधन छीनकर ग्वालों को दे दिया, मानों चाणूर के प्राणों को विभवत करके उन्होंने ले लिया हो || || थोड़े अन्तर पर महागज दिखाई दिया, जिससे अनवरत मदजल की बूंदें भर रही थीं, जो विषम वज्र और सैकड़ों शनियों के समान रौद्र था, मद रूपी सरिता को वृद्धिगत करने के लिए मानो समुद्र था। भीतर से उमड़ते हुए मद से गण्डस्थल गीला हो रहा था और बाहर की झालर पर उन्मुक्त सौरभ ( गंघ ) पर हजारों भ्रमण मंडरा रहे थे। उसके दाँत काले लोहे के १. म - ताम । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] [सयंमूएक्कए रिट्ठणेभिचरिए कसणायस-बालप-मिमनरंतु । घिर मग णिमेषि जिम कायंदु ।। द्रवमुहिए हर पारायणेण। कालिमा काम पवारमेण ॥ परिममिड चउदिसु पीयबास । पं विज्जयुज णवजलहरासु ॥ खेल्लावि जिणिप्फबु हरिथ । गएमा माहीविउ अस्थि णस्थि ।। कर तोखिउ मोहिउ एक्कु दंतु । गउ बप्प-पणासिउ लघुलतु ॥ पत्ता-तं मापस वलय-णिवव्यु करि-विसाणु हरिणा करि किन । सिसु-कसण-भुवंगम रुक्षु केयइ-कुसुमे गाई थिउ ।।।। हरि-हलहर सडं गोहिं पाट । परिमल्लेहिं णं जमजोह दिट्ठ॥ सयल विभड-उम्मड-भिडि-भीस । सयल वि वडमाला-बबसोस ।। सयल विप्राबीलिय बद्धकच्छ । सयल वि कोवारुण-दारुणमछ। सयल वि विसहर-विसमसील । सयल वि कलिकाल कयंत लील । सयल वि पारायण-सम सरीर। सयल नि सुरगिरिवर-गयधीर ।। सयल वि हरिविक्कम-सारभृय । बलय से बँधे हुए थे और यम की भांति रास्ता रोककर स्थित था। श्रीकृष्ण ने मजबूत मुष्टि से उसे आहत कर दिया। और जबतक गज द्वारा प्रगित होते, कि उमसे पहले ही पीतवस्त्रधारी श्रीकृष्ण उसके चारों ओर घूम मये, मानो नए मेघसमूह के चारों ओर विद्युत्समूह हो । श्रीकृष्ण ने खेल खिलाकर हाथी को जड़ कर दिया, यह नहीं ज्ञात हुआ कि उसमें जीव है या नहीं। उसकी संह तोड़ दी और एक दांत तोड़ दिया। जिसका दर्प नष्ट हो गया, ऐसा हायी दम तोड़ता हुआ भाग गया। पता-लोह-वलय (जंजीर) से बंधे हुए उस हाथी के दांत को श्रीकृष्ण ने हाथ में ले लिया। उनके हाथ में वह ऐसा लगता था जैसे केतकी के कुसुम में अवरुद्ध शिशुनाग हो ।।६।। . ___बालों के साथ हरि और बलराम प्रविष्ट हुए। शत्रुमल्लों ने उन्हें यमयोद्धाओं की तरह देखा। सभी योद्धा उभट और भौंहों से भयंकर थे । सभी ने अपने सिरों पर बटमालाएँ (मुरेठा, पगडी? बाँध रखी थी। सभी ने कसकर कच्छे बांध रखे थे। सभी कोच से लाल और भयंकर आँखोवाले थे। सभी विषधरों के समान विषम स्वभाववाले थे। सभी कलि-काल और यम की तरह आचरण करनेवाले थे। सभी नारायण के ममान शरीरवाले थे। सभी सुमेरु पर्वत की तरह भारी और धवाले थे। सभी सिंह के पराक्रम के समान श्रेष्ठ थे। सभी शत्रु-बलसमूह के Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टो सग्गो] मनकाम सयल वि खलबलकुल-कालय । सयल वि थिर-खोर-कठोर हत्या सयल वि रणमर- कण-समस्थ ॥ सपल वि सिरिरामालिंगियंग । सयल वि पयभर सारिय सुरंग ।। पत्ता--प्रप्फोडिउ सस्थहि तेहि सव्वेहि पुगे पोरालिउ। णिय जीविड कालहो हस्थि वारिहि णाई णिहालिउ ॥१०॥ ओसारिय समल वि सई णिविटु । "भरलार हथिलहर पहठ्ठ॥ से विणिषि धवल अस्वलदेह। णं शोहिय साबण्ण-सरय-मेह ।। णं अंजणपण्वय हिमगिरिंद । णं बदवस-महिस महामइंच ।। गं अणा-गंगागह-पवाह । गं लाखण-राम पलबबाह ॥ णं इंदणील-रविकंतकूड। नं विसहर-तक्खय संखचूड़ ।। ण असिम-पपल सिय-पक्स माय । तं पुणु (सोहिय ?) पजियारा ते जि भाव ।। कंवोट कमलकूडाणुमाण । जणलोयणासि बुबिजमाण ॥ चल्लते चल्लइ सबलभूमि। अपकसे पक्काह तेहिं विहि मि ।। लिए कान के समान थे, सभी स्थिर स्थच और कठोर हाधवाले थे, सभी युद्ध का भार खींचने में समर्थ थे। सभी लक्ष्मी रूपी रमणो के द्वारा आलिगित-शरीर थे। सभी अपने पदभार से अश्वों को हटाने (संचालित करने वाले थे। घसा- शत्रुओं ने उन सबके द्वारा शास्त्रों को आहत तथा गजित अपने जीवन को काल के हाथ में स्थित के समान देखा। ॥१०॥ हटाए गये वे सब स्वयं बैठ गये । हरि और हलधर ने अखाड़े में प्रवेश किया। पवल और श्याम दरीरमाले वे दोनों ऐसे प्रतीत होते थे, मानो सावन और शरद के मेघ शोभित हों, मानो अजनगिरि और हिमगिरि हों, मानो यममहिष और महासिंह हों, मानो यमुना और गंगा के प्रवाह हों, मानो लम्चे बाहुवाले राम-लक्ष्मण हों, मानो नीलमणि और सूर्यकान्त मणियों के शिखर हों, मानो तक्षक और शंखचूड़ महानाग हों, मानो कृष्ण पक्ष और शुक्लपक्ष आये हों और प्रतिदिन दोनों शोभित हों। वे दोनों नीलकमलों और कमलों के ढेर के समान थे, जिन्हें जनों के नेत्ररूप भ्रमर बम रहे थे। उनके चलने पर धरती हिल जाती थी, उनके ठहरने पर वह भी ठहर जाती थी। १.म-अखाला। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिगेमिचरिए यत्ता--जेतहे परिसक्का कण्ह जहि बलएउ बलुखरउ । तेतहे तगुतेएं होउ रंगु वि काला पंडुरत ॥११॥ वप्पुम्भ कर एतहे वि। चट्ठिय मुष्ट्रिय चाणूर ये वि॥ णं जिग्गय विग्गय गिल्लोड। ण सासहों कंतहों बालुबर।। अप्फोरिउ सरहसु साबलेख । रणु मरिगाउ वग्गिउ ग किउ रवेउ ।। जसतबहहो कहीं एषक मुक्कु। उद्दामहो रामहों अवरुद्ध कु॥ सुभयंकर हज करकत्तरीहिं। पीसरहिं करहि भामरीहिं ।। कर-छोहि गाहहि पीडहि। अवरेहि अणेहि फोडणे हि ॥ साथ दम्बार संकरिसणेण। कहोग इसका इसिस खर-णहर-भयंकर-पहरणेण । णं वारणु वारणवारणेण ॥ पत्ता- हेलए जि समाहउ सौसि मुट्ठिपहारें मुट्ठियउ । किउ मासहो पोट्टलु सम्बु जममुहे परिज ण उद्विग्रउ ॥१२॥ चाणूरे वितिउ तइ उबाउ। बढे बउ अच्छउ तो जिगाउ ।। वोल्लति ताम णहें देवियाउ । कहि तणउ जुन कहि सण(उ) उवाउ ॥ पत्ता–जहाँ कृष्ण जाते और बल से उद्धत बलदेव जाते, वहां पर उनके शरीर के तेज से रंग भी काले का सफेद और सफेद का काला हो जाता ॥११॥ ____ महाँ दर्प से पद्धत और दुर्धर मुष्टिक और चाणूर दोनों इस प्रकार उठे, मानो आन्द्र गंडस्थलवाले दिग्गज निकले हों, मानो शासक कंस के बाहुदण्ड हो । कृष्ण ने आस्फालन किया और हर्ष तथा अहंकार के साथ युद्ध मोगा, और बिना किसी विलम्ब के वह गरजे । यश के लोभी कृष्ण के लिए एक मल्ल छोड़ा गया तथा दूसरा उद्दाम बलभव के पास पहुँचा। बलराम ने केंची निकालना, दांव लेना, चक्कर खाना, हाथ से चोटें मारना, पकजना, पीड़ना आदि क्रियाओं तथा दूसरी अनेक क्रीड़ाओं के द्वारा, दुर्दर्शनीय तीव्र नखों के दुनिवार भयंकर प्रहार से पेट का भेदन बार दिया । जिस प्रकार सिंह हाथी को आहत कर देता है, उसी प्रकार पत्ता–सिर पर मुट्ठी के प्रहार से आहत कर मुष्टिक को स्नेल-खेल में ढेर कर दिया, उसे मांस की पोटली बना दिया, वह यम के मुंह में जा पड़ा और फिर नहीं उठा ।।१।। उस समय चाणूर ने उपाय सोचा कि उस श्रेष्ट का वध करना चाहिए। इतने में आकाश में देवियां बोलती हैं--कहां का युद्ध, कहाँ का उपाय, कहाँ की मथुरा और कहाँ का राज्य ? इतने Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टो सग्गो] कोह तणय महर काह तणउ र । एत्तिएं कालेण ण किउ फन्द्ध ।। उहु पदगोट्टि अवहम्ण विठु । जिह पूयम चूरिय णिहज रितु । जिह बुक्कगु संदणु वर-तुरंग। दरिसिउ जमलम्जुण-एक्स-भंगृ॥ गिरि धरित जायसेज्महि मिसण्णु । घणु गामिउ पूरिउ 'पंचजण्णु ।। अहिपस्थित मस्थिउ भइहरिय। 'एत्तिए पि कंसहो बुद्धि पत्थि ।। चाणूर ताम पारायणंण ।। आयामिज असुर-परायणेण ॥ घत्ता-विउगारउ फरिवि सरीरु रिउ अम-पट्टणे पट्ठापित । उच्चाहवि फंसहो गाइ णिय-पयाउ बरिसावित ॥१३॥ तो तेण वि कलिउ मंग्ला। आलाण-संमु पं गयेण भागु ।। गं दरिसिउ काले कालपासु । गं अलहरण थिज्जुल-विलास ।। णारायणु माहअसिवरण । णं मंदर बेटिज विसहरण॥ तउ अमउ गाई घिउ बलिवि खग्गु । दामोयर-रोमगु वि ण भगा। जीवनसवल्लहु राजहंस ।। अबछोरिज चिउर लेवि कंसु ।। समप में उपाय नहीं किया ? नन्दगोठ में वह विष्णु उत्पन्न हो गया। जिस प्रकार उसने पूतना को चूर-चूर किया, रिष्ट नामक दैत्य का नाश पिया, जिस प्रकार उसने कौए, रथ और श्रेष्ठ अश्व को नष्ट किया. तथा यमलार्जन वृक्ष का विनाश दिखाया, पहाड़ को उठाया, नागर्शया पर बैठा, धनुष चढ़ाया और शंख को फंका, साँप को नाथा और भद्र हस्ति को मथा। इतने पर भी कंस को बुद्धि नहीं आयी। इसी बीच तब तक असुरों को पराजित करनेवाले नारायण ने चाणूर को घुमा दिया। घत्ता–शरीर को निष्प्राण करके उसे यमनगर में प्रेषित कर दिया, मानो कंस के [प्रताप] को उठाकर उन्होंने अपना प्रताप दिखाया ।।१३।। तब कंस ने भी अपनी सलबार निकाल ली, मानो हाथी ने आलान-सम्म उखाड़ लिया हो, मानो काल ने कालपाश का प्रदर्शन किया हो, मानो मेध-समूह ने विद्युत्-बिलास किया हो । उसने असिवर से नारायण को आहत किया, मानो विषधरों ने मंदराचल को घेर लिया। उस अवसर पर खड्ग अविकार भाव से मुड़कर स्थित हो गया, श्रीकृष्ण के बाल का अग्रभाग भी १.म-पंचाण। २. अ-एसियहमि । - - - - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] हंसयलहं णरवराहं । सीमंत महिं सिकराहं ॥ पज रही पट्टगहरे महायणासु । विभाण हो पहले सुरयणा ॥ far देवई जाय जेत्तवार । अप्फोडिउ णरव तेत्तवार ।। [सक रिचरिए घसा - जेहरा विष्णउ आसि तं तेहउ जि समावह कि वह कोवधणे सालिक पहलु विष्व ॥ १४ ॥ सो कg कंस कट्टण करेवि । थिउ सरल गवर तर धरेवि ॥ संकरण सेलिभत् । किड वइरिसेष्णु सयलु विणिरत् ॥ रिज गावतु उ # तो महर समप्पद कामधेणु ॥ अपुग व पालु | संभासि सलु साहबासु ॥ hterविय गंव जसोय आय ! अवरोप्पय कुसला कुसलि जाय ॥ काले सुकेण किउ लेउ । णियसूय परिणाविज वासुएउ ॥ बिज्जाहरणाऐं सच्हाम 1 एतहि रेवइ रामाहिराम ॥ हलहरहरे दिष्ण णिय मस्टलेग । रोहिणि भायरेण अणाउलेण ॥ नहीं हुआ। राजश्रेष्ठ और जीवंजसा के प्रिय कंस को बालों से पकड़कर कृष्ण ने पछाड़ दिया। समस्त नरवरों, सामंतों, मन्त्रियों और अनुषरों के देखते-देखते, पौर नगर के महाजनों और वाकाशतल में विमानसहित सुरजनों के देखते-देखते नारायण ने कंस को उतनी ही बार पछाड़ा, जितनी बार कंस ने देवकी के पुत्रों को पहले पछाड़ा था । घसा — जो [पूर्व में ] जिस प्रकार दिया हुआ है, वह वैसा ही आ पड़ता है। क्या कोदों के बोने पर उसके फलस्वरूप बालिधान के कण उत्पन्न हो सकते हैं ॥ १४ ॥ कंस का कर्तनकर, वृक्ष लेकर, तथा जिनके हाथ में पत्थर का खंभा है, ऐसे श्रीकृष्ण गजवर पर बैठ गए। उन्होंने समस्त शत्रुसेना को निरस्त्र कर दिया। उन्होंने राजा उम्र सेन को बुलाया, उन्हें कामधेनु के समान मथुरा नगरी सौंप दी। वह स्वयं देवकी के पास गये। सभी साथ रहने वालों से संभाषण किया। बुलाए गये नन्द और यशोदा आये। एक-दूसरे से कुशलवार्ता हुई । उस अवसर पर सुकेतु ने जरा भी देर नहीं की और विद्याधर ने वासुदेव से सत्यभामा नाम की अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। इधर रमणियों में सुन्दर रेवती, बलराम को उनके ससुर और रोहिणी के भाई ने बिना किसी आकुलता के प्रदान कर दी। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टो सम्गी] यता करे रे भरिय बसेण सच्चहान नारायमेग । थिय रज्जु सयं भुज्जत सउरीपुरे महं परियणेण ॥ इय रिट्ठणेमिचरिए, धवलइया सिय सयंभूएच कए, चापूर-कंस का लिय महणणरमेण छद्‌को सग्यो ।।६।। [ ७३ पता -- बलराम ने हाथ से रेवती को ग्रहण किया और नारायण ने सत्यभामा को । इस प्रकार वे दोनों अपने परिजनों के साथ शौरीपुर में स्वयं राज्य का भोग करते हुए रहने लगे । इस प्रकार धवलइया के आश्रित स्वयंभूदेव कवि द्वारा कृत अरिष्टनेमिर्धारित में चाणूर, कंस और कालिय गथन नाम का छठा सर्गं समाप्त हुआ ॥ ६ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो सग्गो विणिवाइए कसे दूसाह वुक्त परम्चसए। जरसंघहो गंपि पाहाबिउ जीवंजसए ॥छ।। जीवंशसा कस-बिओय हय। अणणहाँ जरसंघहो पास गय ॥ अपसारमण दुभांणम । बहुलंस-जलोलिलय-सोणिय ।। विणिबद्ध येणी बद्धामरिस। कर पल्लव-छाइय-थगकलस ॥ यसोह वि सोहइ रुखबई। णियगइ-गोवाविय-हंसराइ । पहकिरण करालिय-सयल विस । मयंद-पाय-पंडुरिम णिस ॥ करहवह वप्पण-विमुह। मुहकमलो हामिय अंबुरुह ॥ अंबुबह-समप्पह-मयणय। णव-कोमल-कुसुम-वामभुय ।। णं णवतरु अहिणव-साहुलिय। करपल्लव णह-कुसुमावलिय॥ कंस के धराशायी होने पर असा दुःख के वशीभूत होकर जीवंजसा जरासंध के पास जाकर विलाप करने लगी। कंस से वियुक्त जीवंजसा पिता जरासंध के पास गयी । दुःख से आतुर, उदास, दुर्मन, उद्विग्न, प्रचुर आँसुओं के जल से गीली आँखोंचाली, वेणी बाँधे हुए, क्रोध से भरी हुई, कर-पल्लवों से स्तन-कलशों को ठेकती हुई रूपवती जीवंजसा आहत शोभा होकर भी शोभित थी। उसने अपनी चाल से हंस की गति को फीका कर दिया था। उसके नख की किरणों से सभी दिशाएँ आलोकित थीं। मुखरूपी पन्द्रमा की किरणों से मिशा धवलित हो रही यी। नखों के सरोवर रूपी दर्पण में अपना मुख देखती हुई, मुखकमल से कमलों को पराजित करनेवासी, कमल की प्रभा के समान नेत्रोंवाली, नये कोमल फूलों की माला के समान बाहुओंवाली बह ऐसी प्रतीत होती थी मानो अभिनव शाखामों वाला नव तरु हो; जो करपल्लवके नखों की कुसुमावलि बाला था। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो सग्मो] पत्ता--परितापहि ताय महराहियेण परंतएन । हउं एह अवस्य पाविय पई जोवतएण ॥१॥ मनहाधिवेम तहे वाइग्रज। कहि केण स विणिवाइड ॥ काहि केण कयंतु णिशालिन। के सुरबह सम्पहो टालियज ॥ उपायउ अमहो फेण मरणु । किउ केण महोरय-विसजरणु॥ के पक्ष समुक्खय गवइहे। अवहरिउ केण हरि भगवइहे ।। मिय-वइयह साए तातु काहिज । पर-जणण-दिणास एक्कु रहिउ । तो विषण समरभर कंधरेण । पालिय तिय-खंड-मंडियधरेण ॥ पहिलारउ पुत्तु 'कालजवणु। पट्टविय ससाहण मणगमणु । अभिडिउ गपि सो जापवहं। गि निगान पाम्यहं ।। पत्ता-पहिलारए जुझ रणरउ कहिं मिल माइयउ। णं बलई गिलेवि सुरहं पडीयच घाइपउ ॥२१॥ ___ दोण्ह वि बलाहं किय कलयलाह। पत्ता-वह पिता से बोली- “हे तात ! रक्षा कीजिए। मथुरा के राजा के मरने से तुम्हारे जीते जी मेरी यह अवस्था हुई ।।१।। मगधराज ने उससे कहा- 'बताओ, किसने कंस को मारा? कहो, किसने सम को देखा ? किसने इन्द्र को स्वर्ग से हटा दिया ? किसने यम की मृत्यु की? महोरग के विष का नाश किसने किया? गरुड़ के पंखों को किराने उखाड़ा? भगवती के सिंह का अपहरण किसने किया ?' तब उस जीवंजसा ने अपना वृतान्त उससे कहा कि एक केवल पिता का विनाश बाकी रहा है। तब जिसने युद्ध के भार में अपना कंधा दिया है तथा तीम खण्ड धरती का परिपालम किया है. ऐसे जरासंघ ने मन की भांति गमन करनेवाले कालयवन नामक पहले पुत्र को सेना के साथ भेजा। वह जाकर यादवों से भिड़ गया, उसी प्रकार जिस प्रकार अभिनव दावानल वृक्षों से। - पत्ता-पहले युद्ध में युद्ध की धूल कहीं नहीं समा सफी, मानो सेनाओं को निगलकर वह उल्टी देवों के ऊपर दौली ।।२।। जो कलकल कर रही है, अत्यधिक भरसर से भरी हुई है, जो देवों से मिली हुई है, जो १. अ, ब और ज प्रतियों में 'कालदसणु' पाठ है, आचार्य जिनसेन के हरिवंशपुराण में 'कालययन' पाठ है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] [सयंभूएवकए रिटणेमिचरिए बहू मच्छराह मिलियामराहं ॥ सियचामराह षयधयवाहं। बप्पुम्भलाई वाहिरहाई ॥ गुरुविरगहाहं सुभ्यंकराह । पाहरणकराहं तुच्छराह॥ জামি জু ফাখবি কিন্তু। करयवि गरेहि पहिरन मरेहि । कवि हएहि खग्गा हरहि। णि सामि सासु गाणंतराल ॥ कवि सिवाए भड़ लहउ पाए। सिंह पवैवि थाई पिउ पियए णाई॥ भडभडेहि परोप्पर ताम हय सत्तारह पासर जाम गय ।। थता-रणु करेम्पिण रद्द परबलु जिपिवि ण सपिकया । गज बलेवि कुमार हत्यि घ सोहहो संकियउ ॥३॥ जो कालजवण घद मायउ। विहाणउ कविण घाडयउ॥ बल-परबलु-पहरणु जाज्जरित। णं फणिउलु गरुख-घायभरिउ ॥ गं गिरिसमूह-कुलिप्साहपउ। णं हरिणजूह हरिमय गयउ॥ उप्पण्णु को तं परियवहो। भारवरिसर-शराहिबहो॥ पश्यिा सव्वई साहलाई। श्वेत पामरोंवाली हैं, जिनके ध्वजपट उड़ रहे हैं, जो दर्प से उद्भट हैं, जिन्होंने रथों का संचालन किया है, जो विशाल आकारवाले हैं, जो अत्यन्त गयंकर हैं, जिनके हाथों में अस्त्र हैं, जिन्होंने अप्सराओं को सन्तुष्ट किया है, ऐसी दोनों सेनाओं में कही युद्ध प्रारम्भ हो गया, और कहीं पय वख हो गया । कहीं पर योद्धाओं ने तीरों से प्रहार किया, कहीं पर खड़गों से आहत किया । अश्वों के द्वारा स्वामीश्रेष्ठ दूसरे के स्थान पर ले जाया गया । कही पर सियारन ने योवा को पैर से ले लिया, सिर झकाकर वह ऐसी हो गयी, जैसे प्रिया प्रिम के सामने स्थित हो । योद्धाओं से योद्धा आपस में तब तक लड़ते रहे, जब तक सत्तरह दिन बीस गये। पत्ता-भयंकर युद्ध करके भी कुमार शत्रुसेना को नहीं जीत सका। जिस प्रकार हाथी सिंह से पांकित होकर पल देता है, उसी प्रकार कुमार वापस चला गया ॥३॥ एकदम म्लान, और किसी प्रकार मारा भर नहीं गया वह कालयवन शत्रसंन्य से जर्जर, जैसे गरुड़ के आघातों से भरा हुभा नागकुल हो, जैसे बन से पाहत पवंत हो, जैसे सिंह से भयभीत मृगों का झुण्ड हो, जब घर आया तो भारतवर्ष का अर्थ-चक्रवर्ती राजा जरासंघ आग. बबूला हो उठा। उसने समस्त सेनाएं भेज दी, जिनमें नाना प्रकार के घाहन चलाए जा रहे थे Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो सग्यो] [७७ णाणाविह वाहिय-वाहमाई॥ ग्रवर्गवाहन य धवडई। अफालिय-सूर-रष-उपकलाई ॥ मारिया जलयर-संचाई। विहाक सभ-म ॥ पिक्सोह-भरिय-संका भनाई। उम्मग्गलग्ग हयगयरहाई ॥ पत्ता-जरसंघहो सेग्म सरहस कहि मि ण माश्या । लंधेवि पायाह दिसियविसिहि धाइयउ॥॥ एक्कोयक भायक णियमसमु। मुखर रणभर-धुर-धरणखम् ।। आसपण-मरण-भय-याक्जयाउ । सेणाषइ करिवि बिसज्जियउ॥ प्रवराइज धाइज अतुल बलु। गं मेह गयणे मेल्लंतु जलु ॥ एसहे वि जणद्दणु सणिहित । बस-दसाह जर कुमार सहित ॥ सव्वउ सौराह-परियरिया । अपरेहि भहि अलंकरियउ॥ उत्थरियई पसरिय-कालयला। नारायण जरसंघहो वलई॥ पहरण-जजरिय-णहंगणई। कोवग्गि-मुक्किय-सुरगणा उडाइय धूलोधुसरहे। रुहिरोहाणिय-वसुधरई ।। . प्रखरपवन से पताकाएँ उड़ रही थीं, जो बनाए गए नगाड़ों के शब्द से उत्कट थीं । शंखों का समूह फंक दिया गया, उद्भट भटों के समूह विकल हो उठे, गंभीर योद्धा क्षोभ से भर उठे। अश्व, गज और रथ उन्मार्ग से जा लगे। घसा-हर्ष से भरी हुई जरासंध की सेना कहीं भी नहीं समा सकी। परकोटों को लापकर बह दिशाओं-विदिशाओं में फैल गयी ||४|| अपने ही सहोदर (भाई) को जरासंघ ने सेनापति बनाकर भेजा, जो दुर्धर युद्ध-भार को उठाने में सक्षम, और आसन्नमृत्यु के भय से दूर था। अतुलबल अपराजित इस तरह दोग, मानो आकाश में जल छोड़ता हुआ मेष हो। यहाँ भी श्रीकृष्ण दस घशाह और जरत्कुमार के साय नैयार हुए, बलभद्र के साथ, तथा दूसरे योद्धाओं से अलंकृत्त । जिनमें फलकल बढ़ रहा है, श्रीकृष्ण और जरासंघ की ऐसी सेनाएं उछल पड़ीं। हथियारों से आकाश के आँगन को जबर कर देनेवाली, क्रोध की ज्वाला से देवांगनाओं को झुलसाती हुई, और धूल से धूसरित वे रक्त की धाराओं से धरती को रंगती हुई दौड़ चलीं। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] धसारउ हि महिवदे राहिय, णं जानतुं कवण गुणु अकुलीण जे उद्छु होइ कुलीन से ससु वि पुणु ॥ ५ ॥ "उससुरा वज्र्ज्जत सुराई । जुजांत सेष्णा रणबहु जिसण्णाई ॥ जय छ लुखाई उये कुल सुद्धा हूं । पहरण व हत्था जयसिरि-समस्थाई ॥ कोण विताई रुहिरेहि सिनाई । हम्मति बुरियाई णिवति तुरियाई भवंति सयका जुनंति सुरबाई । जिति अंताई भज्जेति गत्ताई ॥ लोहति विषाई तुट्टति छत्ताई । मेल- भूयाई विसयान भूयाई ॥ अण्णोष्ण-वृम्वार मुक्केक्क हुंकार । पहरति पाइयक णिग्गंति मरथबक ॥ जजरिथ उरवाष्ट विषण्ण सण्णाह वसण कसग्गि समुट्टियउ । विज्जु-विलासु गाई हिउ ॥ ६ ॥ यत्ता-कस्थ गम वीस घणम [एक रिमिर्धारिए बारुण रणहं एवं गयई । एकचालीस जाव तिष्णि-सयई ॥ पत्ता - आकाश में धूल और धरती के भाग में रुधिर (उठ रहा है) न जाने क्या बात है कि अकुलीन ( धरती में नहीं होनेवाला, अप्रतिष्ठित ] जब उठता है तो वह कुलीन ( धरती में लीन, प्रतिष्ठित ] हो जाता है, दुष्ट भी ऐसा ही होता है । शूर उठते हैं, नगाड़े बजते हैं, रण-वधू जिनके निकट हैं, ऐसी सेनाएं युद्ध करती हैं जो विजयरूपी लक्ष्मी की लोभी उमय कुलों से शुद्ध हैं, जो हाथ में हथियार लिये हुए हैं, विजयलक्ष्मी प्राप्त करने में समर्थ हैं, क्रोध की ज्वाला से प्रदीप्त हैं, रक्त से सिंचित हैं। जो तेजी से प्रहार करती हैं । अश्व गिरते हैं, शकट नष्ट होते हैं, सुभट लड़ते हैं, आंतें निकलती हैं, शरीर भग्न होते हैजा-चिह्न लोटपोट होते हैं, छत्र टूटते हैं। वैताल और भूत बैलों पर सवार हैं, जो एक दूसरे के लिए दुनिवार हैं, एक दूसरे पर हुँकार करते हैं। पैदल सैनिक आक्रमण करते हैं, मस्तक गिरते हैं। वक्ष स्थल और बाहु जर्जर होते हैं, कवच बिखरते हैं। घसा-कहीं गज के युद्ध में दाँतों से आग उठती है जो ऐसी मालूम होती है जैसे मेघों के बीच विद्युत - विलास हो ॥६॥ इस प्रकार भयंकर युद्ध करते हुए तीन सौ छियालीस दिन बीत गए। जिसका हाथ घनुष १. उट्टंत सुराई त तूराई जुमंत सेई रण वह जिसण्णई।" 'ज' प्रति में ये नहीं हैं। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामो सम्मा [७६ सो ससर सससम पसर कछ। जरसंघ बंधु दुबर-रिस-धर ॥ परिभमाइ महाहवे एक्करहु । घिउ रासिहे गाह करगह। उमछरा फुरद पहरण आह । सुग्घोट-चट्ट फुट्ट ति सहिं ॥ राह कडपति मोति षय । छसई पति विहांति हय । गियबल संभासेवि एक्कु जणु। सामरिमु ससंघण ससा सषणु ॥ तहो जरकुमार ताहि अंति भिडित । गं गयहो गइद् समाहित ते वेगि बलुबर-बुद्धरिस । पारख जुल्म बामरिस ।। पत्ता—विधतेहि तेहिं पाणणिरंतच गयणु किन। सभुवंगम सस्य उप्परि णं पायाल थि॥॥ तो 'रणहि दिण्ण-महाहवेण। जरसंघहो बंधुर बंपरेण ॥ हयगयसरराष्ट्र सयक्षर णिउ । भय पारित सारहि विहल किंज ॥ कह फर्वि कुमार ण घाइपउ । हि अवसरि सच्चइ धाइयउ॥ और तीर पर फैला हुआ है तथा जो दुर्धर्ष ईया धारण करनेवाला है, जरासंघ का वह भाई अकेला ही रथ पर बैठकर उस महायुद्ध में परिभ्रमण करता है। वह ऐसा लगता है मानो कोई कर ग्रह स्थित हो । जहाँ वह हथियारों को उछालता और धमकाता है, वहाँ हात्रियों की घटाएँ नष्ट हो जाती हैं, रथ कड़कड़ा कार टूट जाते हैं और ध्वज मुड़ जाते हैं, छत्र गिर पड़ते हैं, अश्व विघटित हो जाते हैं। तब अपनी सेमा से संभाषण कर, अमर्ष से भरा हुधा जरत्कुमार रथ, तौर और धनुष के साथ अकेला वहाँ अन्ततः भिड़ जाता है, जैसे महागज पर महागज भा पड़ा हो। वे दोनों ही बल से उक्त और दुर्धर्ष हैं । अमर्ष को बांधनेवाले उसने युद्ध प्रारम्भ किया । पत्ता-वेधते हुए उसने आकाश को लगातार आच्छादित कर दिया, जिससे सभी मुजंगम पाताल से निकल ऊपर आ गये मानो पाताल ऊपर स्थित हो गया हो ||७|| तम बुद्ध प्रारम्भ होने पर महायुद्ध करनेवाले जरासंध के बंधु-बांधव ने अश्व, गज और श्रेष्ठ रथ के सौ टुकले कर दिये । ध्वज फाड़ दिया, और सारथि को विफल कर दिया। किसी प्रकार केवल कुमार को आहत नहीं किया। उस अवसर पर सात्यिकी दौड़ा।अत्यन्त असहनीय वे दोनों आपस में भिड़ गये । प्रवर रथों को उन्होंने प्रेरित किया । वे दौड़ पड़े। शिनिसुस का धनुष १. रणहि । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिट्ठणेमिचरिए ते भिक्षिय परोप्पर दुध्धिसह। संचोइय, घाइय, पवररह॥ सिणिसुक्ष सरासण ताहियत । सुरकरिहि विसागु णं पारिपत॥ अणु लइउ अबर सरु विमिछयन। पसुएएं ताम पडिपिछयउ॥ तुम्हेंद्दि आसि संगाम किया। रोहिणि पाणिग्गहे को ण जिन ॥ एवहिं सो जिहाई सो जि सुह रह। सो अणुखर सो जिबाण-णिवहु॥ मामा- पम्मारह नाम नाम सिलीमहि लइज। पाडिउ सण्णाहु को ण णट्ट, लोहस्थिय ।। हतकारिउ ताम हलाउहेण। बलएएं अतिरि-लुखएण ॥ छुट रह पाहि वाहि सवर मह। पज अहण देहि पहाजहर॥ पश्चारइ जाम-ताम भिडियर । गिरिदहि व गिग समावषिर। बावरंति विष्णिव बारणेहि । मोहलत्यग-आकरिसहि॥ णयल जाजरिउ वसुंधर वि। विहिए कुषिए एक्कु सन्म पवि ।। विहि एक्कु विण एक्कु अषकमाइ । विहि एक्कु वि ण एक्कहों सरह ।। विहिए कुषिए एक्कु ण समा । ताडित होकर ऐसे गिरा मानो ऐरावत का दांत गिरा हो । उसने दूसरा अमुष ले लिया और उसपर तीर चढ़ाया । तब वसुदेव ने उसे फटकारा-."तुम लोगों के द्वारा संग्राम किया जा चुका है। रोहिणी के पाणिग्रहण में कौन नहीं जीता गया? इस समय वही में हैं और वही तुम, और घही रथ है, बही धनुर्धारी और वही बाण-समूह हैं। घसा-इस प्रकार जबतक वसुदेव ने ललकारा, तब तक उन्हें तीरों से ढक दिया गया। कवच गिर पड़ा, लोहार्थी (लोभ और लोहे का अर्थी) कौन नाश को प्राप्त नहीं होता ||८|| तब विजय-लक्ष्मी के लोभी हलघर श्री बलराम "शीघ्र रम सामने होको, यदि तुम मुख पीछे कर पग नहीं देते हो, इस प्रकार जब तक ललकारते हैं तब तक वह सामने भिड़ गया। मानो गिरीन्द्र पर दावाग्नि गिर पड़ी हो। वे दोनों वारण मोहनास्त्र और आकर्षण-अस्त्र से व्यापार करने लगे। आकाशतल और धरती दोनों क्षत-विक्षत हो उठे। दोनों के कुपित होने पर एक भी साध्य नहीं था। दोनों में एक भी आक्रमण नहीं कर सका । दोनों में से एक भी नहीं इटता। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी सग्गो] बिहिए कुविए एक्कु ण अपकमद ॥ तहि काले अणं अंतरि । अरिर सिर खुरुप कम्परिङ ॥ धत्ता - अवरेहिं मिसरेहि फमकरसिरहं पट्टियई । फलहले गाई कोमलकमल बुद्धिय ॥६॥ अरसंबंध 'परिण रणे । संक जाय जायव मणे ॥ लाहो मंजि अयण्णव ण जाम चक्कवइ ॥ जर कइषिपत्तु, तो कोविगवि । उ हरि-लघर वि वि ।। विडुण गोठण गोविषणु । पइसर गंपि परिविडल वणु ॥ सम्बद्ध हियव वय थि । aaree पुरणग्गम किज ॥ अट्ठारहकुल कोडिहि सहिया । सिरि कुलहर हलत्र गिथ्विहिया ॥ एसहे वि सहोय र सोह्ड 1 जरसंघ गरा हिउ मुच्छ गजं ॥ कवि लघु चेपणु खवि । भाइ महारज णिवदलिय ॥ [-१ आक्रमण नहीं करता। उस समय श्रीकृष्ण ने व्यवधान डाला। उन्होंने खुरपे से शत्रु का उर और सिर काट लिया । पत्ता - और भी दूसरे वीरों से पैर, हाथ और सिर नष्ट हो गये, जैसे कलहंस के द्वारा कोमल कमल काट डाले गये हों ॥६॥ जब जरासंध का भाई युद्ध में मारा गया, तो यादवों के मन में आशंका उत्पन्न हो गयी । मन्त्रिसमूह कहता है - "जल्दी भाग चलो, जब तक चक्रवर्ती नहीं सुनता। कभी वह यहाँ आ गया सी कोई नहीं है । न दशाई, न हरि-हलधर ही, न नन्द, न गोठ और न गोपीजन अत्यन्त विपुल (बड़े) वन में प्रवेश करो।" यह बात सबके दिल में जम गयी। शीघ्र ही उन्होंने नगर से कूच कर दिया तथा श्रीकृष्ण और बलभद्र अठारह कुल करोड़ लोगों के साथ वन में छिप गये। यहाँ भी भाई के शोक से आहत राजा जरासंघ मूर्च्छित हो गया। किसी प्रकार कठिनाई से उसने चेतना प्राप्त की और कहा - " जिसने मेरे भाई को मारा है १. अपरिसु । २. 'आसक जाय जायवहं मणे । लहु णासहो मंतिलोड चवइ । आयष्णइण जाम चक्कवह ।' ये पंक्तियों अ' प्रति में नहीं हैं । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] [सयंभू एकए रिटुभिचरिए: ततं विरसुरसंतु जइ ण गेमि जमसा सगहरे । तो कल्लए बेमि उपरि प हुआसणहो ॥१०॥ प प करिष्पिणु णीसरज । रंगाणीयालंकारय ॥ गहरा सकलिकालोदमहं उद् लक्ष्क्ष बी॥ हम जुत्तहं धूयमाण धयहं । सियई लक्ख संवणहं || पहरणभरियहं रिउमद्दह्णं । दह वीयि सहस - णराहियहं ॥ मंडलपरिवालहं परिचनहं । अब ममाणु के बुजिय ॥ अग्गिज पेसिउ अप्पाण- समु । लहार णंदणु कालयम् ॥ मग लग्गु अरिपुंगमहं । णं खग पवरभुअंगमहं ॥ ताहि तेहि काले पडिउदारभाव गयज । सेण्णहं वि वाले मिलियउ हरिकुल द्वेषयउ ॥ ११॥ बहुपणकूडागार किञ्च । संचारिम महिहर णाई थिच ॥ दिसु चोय पज्जालि । धूमाउल-जालागा लियउ ।। आणण्णरूत्र संचारिणि । महिला वुत्तणधारिणि ॥ पत्ता - विरस चिल्लाते हुए उसे यदि मैंने यम के शासन में नहीं पहुंचाया, तो कल ही, मैं आग पर कूद जाऊँगा । ॥ १० ॥ राजा जराक्षेत्र प्रतिज्ञा करके निकला। वह् चतुरंग सेना से अलंकृत था । उसके पास नरे करोड़ प्रवर अश्व थे जो ग्रह, राक्षस और कलि के समान थे। बारह लाख बीस हाथी थे। उतने ही घोड़ों से जुते हुए, प्रकंपित ध्वजवाले प्रहरणों से भरे हुए रथ थे। शत्रुओं का मर्दन करने वाले, मण्डलों का परिपालन करनेवाले तीन हजार दो सौ दस राजा थे। दूसरे प्रमाण को कौन समझ सका है ? जरासंध ने अपने समान छोटे पुत्र कालवम को आगे भेजा जो शत्रुश्रेष्ठ के मार्ग के पीछे लग गया, मानी गरुड़ प्रवर नागों के पीछे लग गया हो । घत्ता - यहाँ उस समय सैन्य के चलने पर प्रत्युपकार की भावना वाली हरिवंश की देवियां मिलीं ॥। ११॥ उन देवियों ने प्रचूर इंधन के कूटागार ( ढेर) बनाये, जैसे वे चलते-फिरते पहाड़ हो । चिताएं चारों दिशाओं में प्रज्वलित हो उठीं जो धुएँ की ज्वालाओं से युक्त थीं। दूसरे दूसरे रूप बनाने वाली उन महिलाओं ने वृद्ध महिलाओं के रूप धारण किये। वे वहाँ रोने लगी- "हे Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तमो नग्गी]. रोयसि ताउ तहि वैथियउ। देवह जसोय हा कहिं गयउ॥ हा हरि-हलहर-दसाव्हहो। हा गंव-णंच हा गोवुहहो॥ हा आपबलोयहो जाउ स्वउ। हा वय भणोरह होतु सउ। तो कालजमेण पउछियर। ताज वि कहति उम्मुन्छियउ॥ जरसंधु कोवि सियसई बलिउ। उपक्ष उम्परि उच्चलियजा पत्ता तहो तर्णण भएण पालामालरभोसण हो। मुझ जाययसब्ध उप्परि घडिज एआलणनो ॥१२॥ तं णिणिवि वहरिसेष्णु वलिउ । गज जायवबलु अपविक्सलिउ। तो गिरि उज्जैल णिहालियज। कल-कोइल कलरव-मालियउ॥ अलिउल-शंकार-मणोहर। णे वसुह-वारंगणहो सेहरउ॥ जोश्वषिलासु णं रेक्यहो। सूडामणि णं वणवेवयहो॥ णे पुण्णपुंज णारायणहो। णं सो जि मोक्नु सादयजणहो । पाहि पाउ महिहर चउ सरिउ । घउ गरिउ सुट्ट मनोहरिस ।। अप्पुणु मारिउ अगुत्तम। देवकी ! यशोदा तुम कहाँ गयौं ! हाय हरि हलधर और दशाहों का, हाय नन्द और ग्वालों का अन्त हो गया। हाय ! यादव लोगों का क्षय हो गया । हे देव! तुम्हारे मनोरथ पूरे हों।" तब कालयम ने पूछा, और वे उससे यह बहती हुई भूछित हो गयीं कि देवताओं से भी बलवान जरासंघ नाम का व्यक्ति आक्रमण द्वारा ऊपर पढ़ आया है। घत्ता-उसके भय के कारण सभी यादव उदालमालाओं से भयंकर आग पर चढ़कर मर गये। ।।१२।। यह सुनकर शत्रुसेना लौट गयी, और यादयों की सेना बिना किसी प्रतिरोध के चली गयी। उस समय उसने गिरनार पर्वत देखा जो सुन्दर वायलों के कलरव से घिरा हुआ था, अमरकुल की झवार से ऐसा सुन्दर था मानो धरती रूपी वारांगना का शेखर हो, मानो नर्मदा का यौवन विलास हो, मानो वनदेवी का चूड़ामणि हो, मानो नारायण का पुण्यपुंज हो, मानो धायकजनों का यही मोक्ष हो । उसके पास में चार पर्वत और चार नदियाँ हैं और अत्यन्त सुन्दर पार Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिटुणेभिचरिए मेह सपरिट्रिउ पंचम॥ पत्ता--हरिवंस पवित्तु तहो पासिउ गिरि सहसगुण। जहि होसइ मि जहि सिम्सइ सो जि पुणु ।।१३॥ जो गमतमत्त-मायंग-लुंग-बंताग णिहस्सणुच्छलिय, मणिसिलापरण-पेल्लणुच्यीमहाभरात करकसणाहि-मुक्क फुक्कार-कोव-जालगि मालमालाउलीयकथामूस-विउस-सिहरो। जो करि-करह-त विणिग्गंत-मयसरिसोत्ततिम्मत जसंघाय खोल्ल-चिखिल्ल-तल्ल-लोसंतफोलउसवक्कदाढा हय ससितमणिमयूहपमनरंत णा-णियह भरिपकुहरो॥ जो गंपवतिय कंकेल्सि-मल्लिय-तिल्लप-वजल-वषय पियंगु-पुग्णाय-णाय-परिगलियकसमपरिमलपिलंत लोलालिक्लय-संकार-मणहरु सल्लिय गंधव्यमिनुण-पारद्धगेयकम्मो। जो 'अक्यन्छियङ्ग्रहामुह-महागृहगाहगाहर गयगत्तवियुत्त-णालणित-णीसस-ससमुच्छलियधवल मुसाहलावलि घुण्णवण्ण-दसण-पहिठ्ठ-अच्छत-अच्छरापलिहिय चित्तपम्मो॥छ।। जहि य-चंदण-तमाल-साल-बंदण। असोय-गाय-संपया-पियंगुपरिजापया। जहि परति संबरा, वराह-वग्घ-वाणरा। गया समुहासोंडया, सबीवि-सीह गंडया। जोहराया, मल-कायषा। नगरियां हैं। वह स्वयं श्रेष्ठता से बीच में स्थित है, मानो पांचवा मेस स्थित हो। पत्ता-हरिवंश पवित्र है, उसकी तुलना में पहाड़ हजार गुना पवित्र है जहाँ नेमिनाथ उत्पन्न होंगे और वहीं वह सिद्धि प्राप्त करेंगे ।।१३।।। गरजते हुए मतवाले हाथियों के ऊँचे दन्तानों के संघर्षण से उछली हुई मणिशिलानों के पतन की प्रेरणा से धरती के महाभार से आक्रान्त, क्रूर वाले नागों के द्वारा छोड़ी गई फफकारों के क्रोध की ज्वालाग्नि की ज्वालामालाओं से जिसके मूल और शिखर विस्तीर्ण हैं। हाथियों की सूड़ों के तट से निकलती हुई मदजल रूपी नदी के स्रोतों से गीले हुए, कुंजों के समहों के कीचड़ भरे हुए तलभागों में खेलते हुए सूकर समूह के वक्रदन्तों से आहत चन्द्रकान्त मणियों की किरणों से भरती हुई नदियों के समूह से जिसके कुहर भरे हुए हैं। पवन से आंदोलित अशोक, मल्लिका (युही), तिलक, बकुल, चंपक, प्रियंगु, पुन्नाग(पाटल), नागकेशर वृक्षों से गिरे हुए, पुष्पपरागों के मिले हुए, चंचल भ्रमर समूहों की झंकारों से मनोहर प्रदेशों में चलते हुए गंधवों के जोड़ों ने जिसमें गीत्त कर्म प्रारम्भ किया है। दिखाई देनेवाली सुधामुख वाली महान् गुहाओं के ग्राहों (मगरों) के द्वारा गहीत, गजशारीरों से अलग हुई तथा भीलों द्वारा प्रेरित विश्वासों के कारण उछलते हए धवल मूवातादलियों के चूर्ण रंगों को देखकर प्रसन्न हुई, विद्यमान अप्सराओं के द्वारा जहां चित्रकर्म सिखा जा रहा है। जहाँ आम्र, चंदन, तमाल, ताल, लाल चन्दन, अशोक, नागकेशर, चम्पा, प्रियंग और पारिजात वृक्ष हैं, जहां सांभर चरते हैं, जहाँ बराह, बाघ और वानर हैं, सूर उठाए हुए हाथी, १. म—मियंक व सरिस-समूह-मणि-पञ्झरंत । य–दादा मियंक ब ससि-समूह-मणि पयरत । २. अ-अवस्थिम ।ब-अलच्छिय । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो सगो] जहि चचरोयया, पफुल्ल-फुल्स-लीलया। जहि च मत्त कोइला, पुलिव-भिल्ल-णाहला। जहिं च कम्मवारणा, णही वरंति वारणा। घसा-तं गिर उज्जेतु मुएवि ससयणु ससाण। गज पंकयणाहु गाई समुदहो पाहणच ॥१४॥ धरहो जि समुदकु णिहालियज । भीयर-करि-मयर-करालियज ॥ भंगुर-तरंग-रंगतजलु। पुष्वावहिरि-उध्वरिय यषु॥ फेकल्लोल-बलय मुहलु। वरखेलालिमय गयणयलु गंभीरघोस धम्माविय अज। परिवालिय-ससि पहिवाग सउ । अषयरिणय-वस्वाणस-वाह। गिध्याग-पहाण पीय-महरु ।। पोसारिय कालकूटकसुसु । हरि हरिय सिरी-मणिप्फरसु ॥ परिरविखय-सयल-सुर-सरणु। सरि सोसाणियपाणिय भरणु॥ आगास-पमाणु विसा सरिसु। जलाहर-संक्षाय-वाहिय-बरिस ॥ पीता सहित सिंह और गेड़े हैं, जहाँ चकोर: चातक हैं, जहां मराल और चकवे हैं, जहां खिले हए फलों से खेलनेवाले भ्रमर हैं, जहां मतवाली कोमलें हैं, पुलिद, भील और नाहल जाति के हैं, अपने कर्म में भीषण गज आकाश का वरण करते हैं; घसा—ऐसे ऊर्जयंत पर्वत को छोड़कर, स्थजनों और सेना के साथ, श्रीकृष्ण मानो समुद्र के अतिथि ममकर गये ।।१४।। उन्होंने दूर से समुद्र देखा. जो भयंकर हाथियों और मगरों से विकराल या, जिसका जल बक्र लहरों से तरंगित हो रहा था, जिसकी पूर्वी सीमा में जल भरा हुआ पा और उसके बाद की भूमि जल रहित थी जो फेनयुक्त तरंगों के समूह से मुखर था, जो अपने श्रेष्ठ किनारों से आकाश को छ रहा था, जो गम्भीर घोष द्वारा विश्व में अपनी जय घुमा रहा था, जिसने अपने में चन्द्रमा के सैकड़ों प्रतिबिम्बों का परिपालन किया है, जिसने बड़वानल की शत्रुता की उपेक्षा की है, जिसमें प्रमुख देव मदिरा का पान करनेवाले हैं, जिससे कूटकाल विष का कलश निकला है, विष्णु ने जिससे लक्ष्मी और कठोर मणि का हरण किया है, जिसने धारणागत समस्त देवों की रक्षा की है, जिसमें नदियों के स्रोतों से जल का भरण होता रहता है, जो आकाश के प्रमाण वाला है और दिशाओं के समान है, जिससे मेष-समूह वर्षा धारण करते हैं; Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MPM [सयंभूएवकए रिष्टुमिचरिए यत्ता--कल्लोलामएण हरि-आगम-कियायरेण। सहं भूरिभएण गाई पणच्चियउ सायरेण ॥१५॥ इन रिदृणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभूएवकए जायवबल-णिग्गमो णाम णायनो सत्तमो सगो।।७।। धत्ता—जो कल्लोलमय है और जिसने श्रीकृष्ण के आगमन का आवर किया है, ऐसा समुद्र अपनी प्रचुर मुजाओं से स्वयं नाच उठा ।।१५।। इस प्रकार धवलइया के आश्रित स्वयंभूदेव द्वारा विरचित 'अरिष्टनेमिचरित' में यादव-बल निर्गमन नाम का सातवा सर्ग जानना चाहिए ।।१७।। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्रमी सग्गो लक्ष्य लछिय कोरह उद्दालिज । एवं काई करेस बाहयच ॥ एण भएण लोह-रई । दिपण यत्ति णं हरिहो समुद्दे ॥ छ ॥ तहि हरियल भय दम्भासणेण । सुरु गर तह वही पेग ॥ संपाइ सरह सुगहिय मुद्द्द्दु । बोल्लाविउ तेण महासमु ॥ अहो सायर सुंदरसुरवरेण । उं पेसिज पासु पुरंदरेण ॥ ममहही कएव पणिवासु । पंचास रहिउ जोयण सहासु ॥ सुरु गउ तसु एम भणेवि जं जि । मणि रयण अग्घु लए वि सं जि ॥ गज जलजिहि पासु जणद्दमासु । चाणूरमल्ल बल मद्दणां ॥ लक्ष् दिष्ण यति करि पट्टणाई । सरियउ बारह जोजाई ॥ गज गरवइ एम भणेवि जान । पट्टा सुरि घण ताम । पहले लक्ष्मी ले लो, फिर मणि छीन लिया, अब आकर ( श्रीकृष्ण ) क्या करेंगे? इस डर से जलसमूह से रौद्र समुद्र ने हरि के लिए स्थान (स्थिति) दे दिया। वहाँ हरि और बलभद्र दर्भासन पर स्थित हो गये । इन्द्र के आदेश से रूप (मुद्रा) धारण कर एक देव बैग से वहाँ या । उसने महासमुद्र से कहा "हे सागर ! सुन्दर इन्द्र ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। तुम्हे श्रीकृष्ण के निवास की रचना करनी चाहिए जो पचास कम एक हजार योजनों वाला हो । " जैसे ही उससे यह कहकर देव गया, वैसे ही मणिरत्न और अर्घ लेकर समुद्र चाणूर मल्त के बल का मर्दन करनेवाले श्रीकृष्ण के पास गया [ और बोला ]-"लो, मैं स्थान देता हूँ। नगर की रचना कीजिए। मैं बारह योजन (पीछे) हट गया " जब नरपति (श्रीकृष्ण ) से यह कहकर समुद्र चला गया, तो देवेन्द्र ने कुबेर को भेजा । १. अ-आश्रिउ । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिद्वणेमिचरिए घत्ता-शाहि कुजेर कार हि मह पेसण फेडइ हरि-हतहर-वरभासणु। करि पुष्ठ गरह मोमबाई माया ॥१॥ वित्यारे गवनोयणाई। करि एषकहिं पंच वि पट्टणाई ।। यासविहिं कउ संविवसेणु। वाहिणयहि महुरहि नगसेणु॥ पच्छिमियहि सजरिवसारजे? । उत्तरेणावासज गंजगोटु ।। बारवइ-मसि ताहि पउमणाहु । अच्छउ सबंधु परिपगसणाहु॥ हरिभवणु करिग्महि भुषणसार । अचछारह भूमि-'सहासवार ।। आहष्ट-दिवस पुर परिय ताम। धण-घण्ण-सुवष्ण-बढ़त जाम ।। रह वेज्जहि पहरण-भरियगत्तु। गारुडघउ-चामर सेय छत्तु ।। सिविखाउ सरिदेण जाई जेम । अपराई मि ताई कियई तेम ॥ घत्ता-सागह पासिउ सक्काएसें, सउरी-पुरवर रइउ विसेसे। महिं तइलोय-मंगलगारउ, उप्पज्जेसइ-मिभडारउ ॥२॥ पइसारिउ पुरे केसब-सुबंधु । पता- "हे कुबेर ! तुम जाओ, मेरे आदेश का पालन करो और हरि और बलभद्र का दर्भासन तुड़वाओ, द्वारावती नाम का नगर बनाओ जो लम्बाई में बारह योजन का हो ॥१॥ __जो विस्तार में नो योजन हों ऐसे एक जगह पांच नगर बनाओ। पूर्व दिशा में संविवसेन का निवास बनाओ, दक्षिण दिशा में मथुरा के उग्रसेन का, पश्चिम दिशा में शौर्यपुर के दशाहों में सबसे जेठे समुद्र विजय का और उत्तर दिशा में नंदगोठ का निवास बनाओ । यहाँ द्वारावती के बीच में पपनाथ (श्रीकृष्ण) के लिए हरिभवन बनाओ जो भुबन में श्रेष्ठ हो, जिसमें अठारह भूमियां और एक हजार द्वार हों। साढ़े तीन दिन तक तब तक नगर की रचना करो अब तक वह धनधान्य और स्वर्ण से परिपूर्ण न हो जाए। हथियारों से भरा हआ रथदें।"कोर ने गरुडध्वज, चामर और श्वेत छत्र उसी प्रकार दिये, जिस प्रकार देवेन्द्र ने उसे सिखाया था। दूसरी चीजें भी उसने उसी प्रकार बनायीं। प्रता-देवेन्द्र के आदेश से स्वर्ग को स्पर्श करनेवाला शौर्यपुर विशेष रूप से बनाया गया जहाँ त्रिलोक का कल्याण करनेवाले आदरणीय नेमिनाथ उत्पन्न होंगे ॥२॥ नारायण और सुबंध को नगर में प्रवेश कराया गया। अभिषेक किया गया और पट्ट बांधा १. स–स वारंवार। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो सम्गो] अहिसि घिउ पुणु किउ पट्टयषु॥ गज धज सुरिवहीं पातु जाम । सिवएवि-गम्भहाँ सोहणं ताम ॥ आयउ सत्तारह वेवयाउ। दसलयपरिवारिय अवयराज ।। पसमिसि वैवयज सवाहणा। विविहलय-विविह-पसाहणाउ ।। उपनय-चप्पहरण-पहरणाउ। सिपचामर-आयब-वारणाज ।। विज्तुलकुमारि वरबुद्धि फित्ति । जयलपिछलजसिरि' परमतिति। सव्वाज सस्वासंकरियाउ। मंजीर-राव-झकारियाउ ॥ सिषए वि-पास पक्रयाउ । णिय-णिय णियोअणि चक्कियाउ॥ घसा -चंदकंतपह-धवलियधामे जामिणि जामे पच्छिम आए। पल्लंकोवरि णिगयाए सोलह सिविणई विदुई सिवाए ॥३॥ गज-गोवइ-हरि-सिरि-दामडयलु। मयलंधण-विणमणि-मीण-जुयलु॥ सकलसु-कमलायर कमलवाणु। सायर-सौहासणु-सृरविमाणु ।। माहिहेलणु-मणिगण-अलणजालु । गया । जब तक कुबेर देवेन्द्र के पास गया, तब तक शिवादेवी के गर्भ का संशोधन करने के लिए सत्तरह देवियां आयौं । एक हजार देवियों से घिरी हुई वे अवतरित हुई। वाहनों सहित देविया दसों दिशाओं में थीं । विविध ध्वजाओं और प्रसाधनों वाली उन देवियों ने वर्ष का हरण करने वाले अपने अस्त्र निकाल रखे थे। वे श्वेत चमर और छत्र धारण किये हुए थीं । विद्युत्कुमारी, श्रेष्ठा, बुद्धि कीर्ति, जयश्री, लज्जा, लक्ष्मी, परमतृप्ति सभी देवियां सब प्रकार के अलंकारों से अलंकृत थौं । अपने नूपुरों की झंकार करती हुई वे शिवादेवी के पास पहुंचीं । वे अपने-अपने काम में निपुण थीं। प्रता-चन्द्रकान्त मणियों की प्रभा से पलित प्रासाद में रात्रि का अन्तिम प्रहर बीतने पर पलंग पर सोती हुई शिवादेवी ने सोलह स्वप्न देखे ।।३।। गज, गोपति (बैल), सिंह, लक्ष्मी, दो मालाएं, चन्द्रमा, सूर्य, दो मस्स्य, कलश सहित कमलों का समूह, सरोवर, समुद्र, सिंहासन, देवविमान, नागलोक, मणि समूह और अग्नि । १.अ-आयवधारणाडा २.भ--जल्लसिरि। ३. अ-जामह। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयमूएवकए रितुणेमिचरिए दिवसमुहे बसायहसामिसासु ॥ बोस्लाविउ सविणउ कहिउ तासु । पाडिक सयल-मंगल णिवासु ॥ सुणु पाह णिहालिज पठमु हत्यि। परिबिज जासु जगे कोवि गरिथ ॥ सुहलक्षण भद्ध चविताए । भयसिसगत जुत्तपमाणु॥ पुणु रिसरंखोलिर-पुच्छ संदु। पुण बोलणहर-गंगुल सोह। तरुपल्लव-लोल-ललंतजीह ।। पत्ता-कमलालय कमलमालणयणी कमलचलगु कमसुजलवयणी। कमलपाणि-सुरकरि-हिसारी विट्ठलगिक जगमंगलकारी ॥४॥ पुणु गुरुगंधुवर दाभजुयलु। परिमल-परिमिलिय-चलालि मुहलु ॥ पुणु छण-ससितंछण रहिउ काउ। ताहिज भाभूसिउ-भुवणभाउ । पुणु दससफिरण-करालियंगु । तमतिमिरणियर-वारणपयंगु॥ पुणु मीणगुपलु फलसहयाई। गं सोक्खणिहाण-'महरियाई॥ पुण सरवर कमलाफमसरम्म् । पुणु जलणिहि जलयरमीवजन्म । सवेरा होने पर उसने विनयपूर्वक, दशाहों के स्वामीश्रेष्ठ (समुद्रविजय) से कहा-"प्रत्येक (अथवा प्रत्यक्ष) समस्त मंगल के निवास है नाथ, सुनिये । पहले मैंने हार्थी देखा जिसके समान दुसरा हामी जग में नहीं है, शुभ नक्षणों वाला भद्रहस्ति, जिसका शरीर मद से सिक्त है और जो उचित प्रमाण वाला है। फिर, ईपर्या से अपनी पूंछ हिलाता हुआ बैल, लम्बे नखों और पूंछवाला सिंह जिसकी चंचल जीभ वृक्ष के पत्तों की तरह लपलपा रही है। पत्ता--फिर, मैंने लक्ष्मी को देखा, सरोवर जिसका घर है, जिसके नेत्र कमलमाला के समान हैं, जो कमल के समान उज्ज्वल मुखवाली है, जिसके कमल के समान हाथ हैं, जो ऐरावत हाथी पर विहार करती है और जो विश्व का कल्याण करनेवाली है ।॥४॥ फिर प्रचुरगंध से उत्कट मालायुगल जो सौरभ से गिले हुए चंचल भ्रमरों से मुखर है । फिर लांछन से रहित शरीरघाला चन्द्रमा जिसकी प्रभा से भुवन प्रभासित है । फिर, हजारों किरणों से आलिगित शरीर और तम-तिमिर के समूह को नष्ट करनेवाला सूर्य । फिर मीनयुगल, फिर कमलों से आच्छादित सुस्त्र के घर दो बलश, फिर लक्ष्मी और कमलों से रमणीय सरोवर, फिर अलचर जीवों से सुन्दर समुद्र, फिर सिंहासन, फिर विमान, फिर प्रचुर भवनोंवाला नागलोक, . m......... --parames---.. - -- १., ब--कमल सद्दयाई । २. अ, ब-महट्टयाई। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टमो समो] पुणु केसरिविदुर पुणु धिमाणु। गुण भूरिभवः भाईवाण । पुणु रयगरासि पुणु जलणजातु। फलु अक्खइ आयव-सामिसालु॥ सुज होसद हरिकुल-गयण चंदु । गय-वंसणे गुरुववाहिवंदु ॥ घसा-सुरवर-पुंगड गोवाइ धंसणे अतुलपरपकम-सीहाणिरमखणे। तिहुमण-सिरिवह सिरिहि पहावे तित्थ परिसि वाम-मक्खावें ।। ५३६ कतिल्लुणियमिछए शुद्धहीरि। सेयालउ दिहिए रविसरोरि॥ प्रसजुयल-णिहालणि सोक्खयाणु। 'घड-संघक-दसणे मणिहाणु ॥ लपत्रणघरु विहें सरवरेण । केवल विहे रयणायरेण ॥ सहलोपक-सामिय-सौहासणेण। अहमिव विमाणहो बसणेण॥ भोईवभवणि विट्रिए तिणाणि। मणिरयणपुंजे गुण-रपण-सामि ।। सिहिसणे लोय-णिरुंधणाई। णियहाइ सयल-कम्मेंधवाइं॥ जह सोलह सिविणाई मे पठति । सये मंगल-सिउ-कल्लाग संति ॥ फिर रलराशि, फिर अग्नि-ज्वाला। यादवों के स्वामीश्रेष्ठ समुद्रविजय फल कहते हैं--- "तुम्हारा पुत्र हरिवंश रूपी आकाश का चन्द्रमा होगा, हाथी देखने से श्रेष्ठ देवी से वन्दनीय होगा। पत्ता–बल देखने से सुरवरों में श्रेष्ठ होगा, सिंह को देखने से अतुल पराक्रमी होगा, लक्ष्मी के प्रभाव से त्रिभुवन की लक्ष्मी का अधिपत्ति होगा, मालाओं के देखने से तीर्थ का प्रदर्शन करनेवाला होगा।॥५॥ पन्द्रमा के देखने से कान्तिमय, सूर्य देखने से तेजस्वी, मीनयुगल देखने से सुख का स्थान, कलश-समूह देखने से नवनिधान, सरोवर को देखने से लक्षणों को धारण करनेवाला, समुद्र को देखने से केवलज्ञान के ऐश्वर्य से युक्त, सिंहासन देखने से त्रिलोक का स्वामी, विमान को देखने से अहमिंद्र, नागलोक देखने से तीन ज्ञानवाला, मणिरत्नों के समूह से गुणों और रत्नों की खान, आग को देखने से लोक का अवरोध करनेवाला, समस्त कर्म रूपी ईंधन को जलानेवाला तुम्हारे पुत्र होगा । इन सोलह सपनों को जो पड़ते हैं उसका मंगल, शिव और कल्याण होगा। लोक के १.–णिअच्छिए । २. म-घसंथच १३. अ—भुवईद । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] ओरिज जयंतही लोयणा हुँ । पिउ सिव-सरी रितगुण- साहू | घला – पुण्णवित्तु कंति-संपृष्ण इंदणीलमणिपुंसवण्णउ । fe सिए [एक रिमिचरिए बेहतरि अलि जिह पजमिनी पंकसरि ॥ ६ ॥ बारहको विजयंसक्ख वसुहार पांडय घरे तीसपन ॥ 'पुण्णे मासे जिणु जणिउ धष्णु । साठि सामवष्णु ॥ चित्तरिव सुहलग्ग जरए जिम्मलविणे जिम्मलगयणभाए ॥ उष्णु भार सिवहे जाय । भाषण- वितर जोडलं ताव || संम्भवेागमण ताय । भाषणतिर ओइसहं जाय ॥ - मुणि-सहीणाय । जय घंट- सद्दु-से सामराहं । णं गउ कोक्कउ हरिपुरसुहं ॥ सहसलहो आसणकंप जाउ । सावद सेस सु आउ ॥ अक्षरावर कंवर्णगिरि-समाणु चित्र जंबूदीय- परिष्यमाणु ॥ स्वामी स्वर्गलोक से अवतरित हुए और सूक्ष्म शरीर से युक्त वे शिक्षा के शरीर में स्थित हुए। घसा - पुण्य से पवित्र कान्ति से सम्पूर्ण इन्द्रनीलमणि के समान रंगवाले वह शिवादेवी के गर्भ में उसी प्रकार स्थित हो गये, जैसे कमलिनी और कमल के पराग में भ्रमरः ॥ ६ ॥ संपुष्णे मासे जिन जणिउ घण्णु । सायण सियछट्टिए सामदण्णु ॥ चितरिक्ते सुह लग्ग जाए । णिम्मलदिने णिस्मलगयण भाए ॥ ये पंक्तियाँ 'अ' प्रति में नहीं हैं । वारह् करोड पच्चास लाख रत्नों की वर्षा तीस पखवाड़ों तक हुई। पूरे माह होने पर वह धन्य जिन ( शिशु रूप में) उत्पन्न हुए। श्रावण शुक्ला छठी के दिन चित्रा नक्षत्र में शुभ लग्न आने पर निर्मल आकाशभागवाले निर्मल दिन में आदरणीय जिन शिवादेवी के गर्भ से जिस समय उत्पन्न हुए उस समय भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिष देवों का आगमन क्षुब्ध हो उठा । शेष देवों द्वारा शंख, पटह (नगाड़ों) की ध्वनि, सिंहनाद जयघंटा शब्द होने लगा। वह of हरि के सम्मुख तक पहुंची। तब सहस्रनयन (इन्द्र) का आसन काँप उठा। वह धावकों और शेष देवों के साथ आया । स्वर्णगिरि के समान और जम्बूद्वीप के समान आकार वाला Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टमो सग्गो बत्तीस सोंच बत्तीस वयणु ॥ बउष्टिकण्ण चउटुिणपण । एक्केकए मुहे अवंत ॥ कलाहोयवलय-उसीह । ति। पत्ता--ति वंति सरो सरि-सरि पसणि स वि कमलिणिवत्तिणि। कमले कमले बसीस जे पसई पत्ते-पत्ते णट्ठाई जि तेत्तई ॥७॥ सहि ताहे मायाधि गइंदे। वलकण्णसास-तुलियालिविदे॥ मय-णइ-'पखालिय-गंठबासे। सिक्कारमाह-आऊरियासे । आरूढपुरंदर-माषहिउ। सत्ताखोसण्छर-कोडि-सहित ॥ संचरल चउम्बिह सुरणिकाय ! ण सुण सग करेवि आय ॥ गरणालंकार-विहूसियंग। पाणा मडफिय-उत्तमंग ॥ गाणाधय गाणाजाणरिय। णाणामवत्त चामरस मित्र । णाणा बंगावरियगत । वारबह खबद्धझेण पत्त ॥ जिण लइउ दुकूल-पडतरेण । चूडामणि णाई पुरंदरेण ॥ ऐरावत हाथी स्थित हो गया। उसकी बत्तीस सूड़ों पर बत्तीस मुख थे, चौसठ कान और चौसठ नेत्र थे। एक-एक मुंह में आठ-आठ दांत थे । स्वर्णवलय उसकी शोभा बढ़ाते थे । बसा-एक-एक दांत पर सरोबर थे। सरोवर में कमलपत्र थे जो कमलनियों से युक्त थे। प्रत्येक कमल में यप्तीस दल और प्रत्येक दल में उतनी ही नर्तकियों थीं।।७।। उस समय वहाँ पर चंचल कुण्डल के समान भ्रम रसमूह मडरा रहा था। जिसके गंडस्थल के पार्श्वभाग मदधारा से प्रभालित हैं, जिसने सीत्कार के जलवणों से दिशाओं को आपूरित कर दिया है, ऐसे उस मायावी गजराज पर भावों से अभिभूत देवेन्द्र, सत्ताईस फरोड़ अप्सराओं के साथ आरूढ़ हो गया । धारों प्रकार के देवसमूह चले, मानो वे स्वर्ग को शुन्य बनाकर आये हों। जिनके अंग नाना प्रकार के अलंकारों से विभूषित हैं, जिन्होंने अपने सिरों पर नाना प्रकार के मुकूट धारण कर रखे है, जो नाना वजी और नाना यानों से समृद्ध है, जिन्होंने नाना दिव्य वस्त्रों से अपने शरीर आच्छादित कर रखे हैं, ऐसे देव आधे से आधे क्षण में द्वारावती जा पहुँचे । देवेन्द्र ने शिशु जिनेन्द्र को दुकूलवस्त्र के भीतर ले लिया, जैसे चुडामणि से लिया हो। -.१.प-पक्खासिय । २. अ—आओरियासे । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sankat ...... . .. [सयंभूएवकए रिटुमिचरिए घता—मेरु-मस्थए उविउ भतारउ पिंड तमतिमिरणियारउ । खोरसमुह होइ पिसाइउ गं अहिसेयपडायज लाइज ॥८॥ अकालिए महाभार पडिसई तिहुयण-भवणतूर ॥ वुमदुम-धुर्मति कुहिषमालु। घुमघुमघुमंत मुक्तालु॥ शिनिकरति सिरि-जिणाज। सिमि-सिमि-सिमंत-मल्लरि-णिणाउ | सलसलसलंत-कंसालजुयलु । गुंगुंजमाणु गुजंतु मुहलु ।। कणकणकर्णत-कणकणइकोस् । समडम-उमराज मरुवणि-णियोस । बों-वों-वो-दोंत मद-पावतु। श्रां-त्रां-परिछित्त-क्क-सद्द ।। रंटत-दिषलु इंडत-डुक्कु भभंत-भंभु दांत-वृक्कु॥ अबराह मि ह्याई विचिताई। हिसेयकाले वाइत्ताई॥ धत्ता-कोडाकोडि तूररव-भरियड जद तिवायवलएण ण धरियछ। तो सहसुद्धमाए सम्बोयरु तिहुमण जंतु आसि सयसक्कर ।।६।। पत्ता–तमतिमिर का निवारण करनेवाले तेज शरीरवाले आदरणीय जिनदेव को सुमेह पर्वत के मस्तिष्क पर स्थापित कर दिया गया । वे ऐसे लक्षित हुए मानो झीर समुद्र की भांति अभिषेक की पताका या ध्वजा हो ।१८।। अभिषेक प्रारम्भ होने का नगाड़ा बजा दिया गया। उसकी प्रतिध्वनि से त्रिभुवन गंज उठा। दुंदुभि का शब्द दुम-दुम करता है, सिक्करी बार का निनाद किं-मि करता है, मल्लरि शम्द से सिमि-सिमि ध्वनित होता है, दोनों कंसाल सल-सल करते हैं, शंख मूं-गू करता हुआ गूंजता है, कोश कण-कण करता हुआ कणणाता है, मरुवणि का घोष उम-छम करता है । मयंग दो-दो-दोस शाब्द करता है । हुइक्क का शब्द वां-त्रां के रूप में परिलक्षित है। तबला ट-टं करता है और डुक्क रडत करता है । भेरी भमंत करता है, नगाड़ा ढं-हं शब्द करता है । और भी दूसरे वाय अभिषेक के समय बजाए गये । ____घता--करोड़ों तूर्यों के शब्द से भरा हुआ, जिसके भीतर सबकुछ है ऐसा त्रिभुवन यदि त्रिवातबलय के द्वारा धारण नहीं किया जाता, तो शंख की ऊँची आवाज के द्वारा सो टुकड़ों में होकर रहता ॥६॥ 1. झिझि करति सिकरि-णिणाउ।' यह पंक्ति 'अ' प्रति में नहीं है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६५. अटुमो सम्गो] अहिसेय-कलस हरिसियमहि । उच्चाइय बससहसहि जणेहि ॥ सश्व-सिहि-वयवस-णिसियहि । परुणाणिल वसुबह गीसरेहि ॥ परणिचंद-णामक्रिएहि । मणिकंशल-मालकिएहि ॥ अवरोहि मि अवर महाविसाल। अट्ठजोषणमंतराल । जोयणेश्केक पमाणगीवक । संचारिम खोरमहोबहीव ॥ अट्टोत्तरकलस-सहास एवं । उच्चाएपिण्हवण करत देव । ससिकोटि-समप्पह-खीरधार। आमेल्लिय सम्वेहि एकवार ॥ गिरिमेसिहर रेल्लंतु षाड्न : संचारिम सायरवेलणाद ।। पत्ता--पहाई णा व्हावेइ पुरंदरु, उहि अणिद्वउ बियडर मंदछ। सुरवण-खोच वहंतु प थक्कड़, तहि अहिसेउ को बणिविसका ॥१०॥ अहिसिंचिउ एम तिलोयणाह। सक्कंदणु होएप्पिणु सहसबाहु संतेउरु सामरु सट्टहासु। उखेल्लाह अग्गव जिणवरास॥ गच्चंतहो गयणालि विहाइ । हर्षित मनवाले दस हजार देवों, इन्द्र, अग्नि, अम, निशाचर, वरुण, पवन, कुबेर, नरेश, घरणेन्द्र और चन्द्र के नाम से अंकित मणिकुंडलों और मुकुटों से अलकृप्त दूसरे देवों ने अभिषेक के कालवा उठा लिये। दूसरे बड़े बड़े देव जो आठ-आय योजन के अंतराल से स्थित हैं, एक-एक योजन प्रमाण ग्रीवावाले हैं, क्षीर समुद्र से लाये गये (संचारित) एक हजार आठ कलश उठाकर अभिषेक करते हैं। सबके द्वारा करोड़ चन्द्रमाओं के समान प्रभावाली जल की धार एक साथ छोटी गयी, जो सुमेरु. पर्वत के शिनरों को सराबोर करती हुई ऐसी प्रवाहित हो रही थी जैसे समुद्र का संचरणशील ज्वार हो। घत्ता.... प्रभु का अभिषेक होता है। इन्द्र अभिषेक करता है। समुद्र निःसीम है, पर्वत विशाल है । जहाँ देवसमूह जल प्रवाहित करते हुए नहीं थकता, वहां अभिषेक का वर्णन कौन कर सकता है॥१०॥ इस प्रकार त्रिलोकस्वामी (नेमिनाथ) का अभिषेक किया गया। हजार हाथोंवाला होकर इन्द्र अन्तःपुर के देवों और अट्टाहास के साथ जिनवर के आगे उछलने लगता है। नृत्य करते हुए उसकी नेत्रावली ऐसी शोभित होती है जैसे अपना के लिए नीलकमलों की माला रच दी Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंमूएवकए रिटुणेमिपरिए रइयच्चण-कुधलयमाल पाइ॥ पच्चंतहो णहमणि विस्फुरति। पज्जालिय गाई पईव-पति ।। णच्चंतए सरहसें अमरराएं। णिव तारायण भूमिभाएं ।। आसोविस-विसहर-विस मुर्यति । पक्चुहिम महोवहि जए ण मंति ॥ टलटल बलइ महिणिरबसेस । फुट्टति पति गिरिपएस ।। कड-कड वि कातिणं मेभागु । टलटखिउ वि असेस सगु॥ पत्ता--एम चिवधि नगद मिहे, युइ आइत्त अगसयसामिहें। जिणवर-णिश्यम-गुण तुम्हारा, को समकई परिगणिवि भडारा ॥११॥ गुण गणे विग सक्कमि मंदबुद्धि । जइ बोस्लामि सो णवि सद्दधुद्धि ॥ जह 'उबम देमि तो जगि मिणस्यि । तिहअणहो ण तसइ भवधि। अलिए पह गवि 'तुसंति आय। संतेहि गुणेहिं विण युद्धता ॥ ॥ विसेसणु जेण विसेस फोह। असरिस-उवहिप कम्य होई ॥ तइलोयपियामह मारिहि । गयी हो । नत्य करते हुए इन्द्र के नसमणि इस प्रकार चमकते हैं जैसे दीपों की पंक्ति जगमगा रही हो। देवराज के हर्षपूर्वक नृत्य करने पर ताराओं का समूह भूभाग पर गिर पड़ता है, आशीविष विषधर विष छोड़ देते हैं, समुद्र क्षुब्ध हो उठता है और विश्व में नहीं समाता। टलमल करती हुई समूची धरती झुक जाती है । गिरि-प्रदेश गिरकर टूट जाते हैं, भम्न सुमेरु मानो कड़कड़ा रहा हो । समूचा स्वर्ग भी (उस समय) पलायमान हो उठता। पत्ता-तीनों लोकों के स्वामी नेमिनाथ के आगे इस प्रकार नस्य करके इन्द्र ने स्तुति प्रारम्भ की-“हे आदरणीय जिनवर ! तुम्हारे अद्वितीय गुणों की गणना कौन कर सकता है। में मंदबुद्धि आपके गुणों की गणना नहीं कर सकता। यदि बोलता हूं तो शब्दशुद्धि नहीं है। मदि मैं उपमा देता हूँ तो जग में ऐसी उपमा नहीं है । संसार का नाश करनेवाले संसार से सन्तुष्ट नहीं होते और जब स्वामी झूठ से प्रसन्न नहीं होते, तब विद्यमान गुणों के द्वारा भी स्तुति सम्भव नहीं है। ऐसा विशेषण भी नहीं है जिससे विशेष को बताया जा सके। असमान उपमाओं से काव्य की रचना नहीं होती। हे त्रिलोक पितामह ऋषि ! हम जैसे चिल्लानेवाले १. ब-उउम । २. म--णि । ३. अ---रुसहि । ४. अ-रूसति । ५. अ-साय । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो सग्गो कि फिज्जाद खुद अम्हारिहि ॥ तिहमगे ण मविज्ञह महवि आसि। ण उ पिढइ सुह गुण-रयण-रासि ।। भाषण भन्नगासण जगे परोस । थुइ तेण करतहं कवणुदोसु ॥ यत्ता-एम भणेवि दिश्वोकसणाहें परमभाव-सम्भाव सगाहें। अविवि पुज्जिवि तिवणसारच जगणिहि अग्गए पषिउ भजारर ॥१२॥ गउ सृरवइ गरिदे कवि बाए। परिषड्वङ्ग सिधण-सामिसालु H चांगह-संसार समसेज। अजरामर-पुरबहसार-हेउ॥ तइलोषक-भुवण-भूसण-पईउ । अभयामसिनिय-सयालीच ॥ लावण्ण वारिपूरिय पियंतु । सोहना-महोदहि भवकयंतु ॥ को घण्ण वि सक्कद उ तासु । सरकुवि संकिउ थुइ करिषि जासु।। बससयमहोवि धरणिदराउ । योत्तुम्गीरिणि असमत्थु जाउ । गुणगणेविण साह सरसइ वि । असमत्थ णिहानणे सुरवह वि॥ हरि-हलहर-कुरख-रहक्कणेमि । किर जेय लेग किउ पाम मि ॥ गों के द्वारा मला आपकी क्या स्तुति की जाती है ? यद्यपि आपको गुण राशि त्रिभुवन के द्वारा मापी गयी है, फिर भी वह समाप्त नही हुई। दुनिया में पही घोषित किया जाता है कि भाषना से ही भव का नाश होता है इसलिए स्तुति करने में कौन-सा दोष है ? पत्ता-परमभाष से सहित, दिब्यालय के स्वामी देवेन्द्र ने यह कहते हुए त्रिभुवन के सारभूत आदरणीय नेमिजिन की पूजा-अर्चाकर उन्हें माता के सम्मुख रख दिया ॥१२।। दालक को भवन में रखकर देवेन्द्र चला गया। त्रिभूवन के स्वामी श्रेष्ठ वहाँ बढ़ने लगते हैं। जो घार गतिवाले संसाररूपी समुद्र के सेतु है, जो अजर-अमर नगर के स्वामी और सारभूत हैं, जो त्रिलोकरूपी विश्व के शोभाप्रदीप हैं, जिन्होंने अपने अभय वचनामृत से समस्त जीवों को जिलाया है, जिन्होंने सौंदर्यरूपी जल से दिगंत को आपूरित किया है, जो सौभाग्य के समुद्र और भव के लिए कृतांत हैं, उनके रूप का वर्णन कौन कर सकता है ? एक हजार मुखबाला परणेन्द्र भी आपकी स्तुति के उच्चारण में असमर्थ है। सरस्वती भी आपके गुणों की गणना नहीं कर सकती है। आपको देखने में घेवेन्द्र भी असमर्थ है। चूंकि भाप नारायण और बलभद्र के वंश के रत्नचक्र के नेमि हैं, इसलिए आपका नाम 'नेमि' रखा गया। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ]] [सयं एवकए रिमिरिए धत्ता-सोतयलोयहो मंगलगारच सुरगुरु-पुष्पवितभार । star आसेषि पिर हरिवंसु सव्ध संभू सिवि ॥ १३ ॥ इरिमिरिए लक्ष्यासिय समनएवकए जिम्मा हिउ अटुमो सग्गी ॥ ८ ॥ सासीनों लोकों का भंगल करनेवाले बृहस्पति के पुण्यों से पवित्र, आदरणीय मे इन्द्रियरूपी श्रीरसमूह से कठे हुए समस्त हरिवंश की वोभा बढ़ाते हुए स्थिर थे ।। १३ ।। इस प्रकार अरिष्टनेमिचरित में धवलया के आश्रित स्वयंभूदेव कृत नेमिजन्माभिषेक नामक पाठव सर्ग समाप्त हुआ ||८|| Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णउमो सग्मो पहिसिविए मिभगरए मेसिहिरि सवगंग। सिसुबासहो सहजीमासए पप्पि हरिप बगदर्गेण ।। ताम देव-दानव-कलियारस । ता वारसा पराहत पारउ ।। कविलजबाजूसंकिय-मत्पर । छसिय-भिसिय कर्मसु हत्या ॥ जोगवटियालंकिय-विगाह । धोयबदल कबोल-परिगह जग्गोवईय-सससर-मंडित। हिरणसोल महारण-कोहि ॥ परमदे गयमांगन-गामिन। भरिय-उपवास किलाम ।। परसम्माष-मुहिज गर तेतहे। सज्वहाम सिंहासनि तहे ।। अच्छा निययस्व जोयंती। मोहणबालु लाई होती। लावणससाए सरंती। पं जगु णपणसरेहि बिति । सुमेरुपर्वत के शिखर पर देवेन्द्र के द्वारा आदरणीय नेमि जिन का अभिषेक किए जाने पर, शिशुपाल की जीवन-आशा के साय, जनार्दन ने धक्मणी का हरण कर लिया। इसी बीच देवों और दानवों में कलह करानेवाले नारद द्वारावती पईचे। जिनका मस्तक कपिल जटाओं के जड़े से अंकित है, जिनके हाथ में छत्र, आसन और कमंडलू हैं, जिनका शरीर योगपट्टिका से अलंकृत है, जो धुनी हुई सफेद संगोटी धारण किए हुए है, सात लड़ौवाले योपवीत से मड़ित है, जो भ्रमणशील और अत्यंत कुतूहलवाले हैं, जो चरमशरीरी और आकाश विहारी हैं, जो ब्रह्मचर्य और उपवास से खिन्न हैं तथा दूसरे के सम्मान से दुःखी रहते हैं, ऐसे नारद यहाँ गये जहां सत्यभामा सिंहासन पर अपना रूप देखती हुई, संमोहन का जाल धारण करती हुई, मानो सौन्दर्य के तालाब में तिती हुई, मानो नेत्ररूपी तौरों से विश्व को देषती हुई स्थित थी। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] धत्तानं णारिश्यणु वष्णुज्जल रूषोहामिय पपसह । प्रणयति ॥ १ ॥ घसा - धवल [सर्यमू एवकए रिट्ठभिचरिए नवजीवन-सोहग्ण-मयंधए । दप्पणवित्तिबंध-विए । घरि पदसंतु ण जोहर व प्रतिपत्ति पाई इसान 12 मण हे भगडकर । ताव ण करमि किपि कम्मतय ॥ एम भणेवि सरोसुगड तेल । fe अत्थाणे अणु जेतहे ॥ भरमा कवि अवग उच्चारणे व सारिउ सम्बेहिं ॥ बल - नारायणेहिं पुणु पुच्छिउ । गुरु एत्तर कालु कहि अछि । क महारिति हरिसुबहंत । आज कुंडल-जयरहो होंत ॥ जं महिमंडले सयले पसिद्ध । ay-ung-gam-afte? || तेत्यु भिष्फु पामेण पहाणउ । परवरिन अमरिंद समाणउ ॥ लछि सो गेहिणि पुसु रुप्पि रुपिणी सणया । गिहि वलड लायष्णहं गुणसोहमहं पारंगया ॥ २ ॥ घसा- वह मानो रंग से उज्ज्वल नागरत्न थी, जिसने रूप से प्रभा के प्रसार को पराजित कर दिया था। नारायण ( श्रीकृष्ण ) रूपी स्वर्ण से विजति वह अवश्य ही अत्यन्त मूल्यवान् ( शोभा युक्त) होगी ॥१॥ नवयौवन और सौभाग्य से मदान्ध तथा दर्पण की चमक में अपने ध्यान को लगानेवाली इस (सत्यभामा) ने वर में प्रवेश करते हुए मुनिवर को नहीं देखा - [ यह सोचकर ) नारद आग की तरह भभक उठे - "जबतक मैं इस दुष्ट के घमण्ड को चूर-चूर नहीं कर दूंगा तबतक कोई दूसरा काम नहीं करूंगा।" यह विचार कर वह वहाँ गये जहाँ जनार्दन दरबार में थे । शरीर प्रमाण दूरी से वे उठ खड़े हुए। सबने उन्हें ऊंचे आसन पर बैठाया। फिर बलभ और नारायण ने पूछा - "हे गुरु, आप इतने समय तक कहां थे?" महर्षि नारद ने हर्ष प्रकट करते हुए कहा. उस कुण्डलपुर नगर से भाया हूं जो समस्त महीमण्डल में प्रसिद्ध है । प्रचुर धम-धान्य और स्वर्ण से समृद्ध है । उसमें भीष्म नाम का प्रमुख राजा है । वह नरेश देवेन्द्र के समान है । पता -- बबल आँखोंवाली उसकी लक्ष्मी नाम की गृहिणी है। उससे रुक्मि पुत्र और रुक्मिणी पुत्री है। वह रूप लावण्य और सौन्दर्य की निधि है तथा गुणों और सौभाग्य के पार पहुँच चुकी है ||२|| १. ज. ब. डुकहो | Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो संग्गो] जाहि अंगि परिवार-सहाएं। मुक्क पमागउ पम्महराएं ।। मीलाकमलु-शुयल-बलमयहिं। मगिरयणई अंगुलेहि सयलहिं ।। तोरणथंभ उहादसहिं। राजल पिहुल-णियंत्र पएसहि ॥ तिलि-तिपरहज पाहिमले। यण-अहिसेय-कलम वपछयले ॥ रतासोप कसिलफरग्गहि । भयणंकुस महदप्पणपहिं ।। कंबुउकठि-वणि कोइलातु । गयाँ बाजुयलु पिच्छाउसु ।। भव्हहि चावलट्टि संचारिय । सिरिहि सिहंडि-सिखरि पइसारिय॥ किर परिणवी कामहो धापें । किउ मावास-तेण कंदप्पं ।। घसा--उबइठ्ठ आसि सिसुबालहो ताव रितिहि आएसु किर। असु सोलह पोषि सहायई होसइ सो कम्पिणिहि पिउ १३।। सो महं फाहिउ सध्युणियवइया । हि आमुत्तर आइयउ जइबरु ।। सहि उमएस साए फुल लड़। भिर वरदत्तु वृत्तु मयरबउ ॥ सेहत अवसर होस काय । अपने परिवार की सहायता वाले राजा कामदेव ने उसके (रुक्मणी के शरीर में डेरा डाल दिया है। दोनों चरणतलों में लीलावमल, समस्त अंगुलियों में मणिरत्न, जांघों के प्रमाण में तोरणस्तंभ, नितम्ब-प्रदेशों में विज्ञान राजकुल, नाभिमंडल में त्रिवलि रूपी तीन परिवाएं (खाइयाँ), वक्षस्थल में स्तनरूपी अभिषेक-कला, हथेलियों की अंगुलियों में लाल अशोक, नखरूपी दर्पण के अग्रभागों में कामदेव का अंकुश, कण्ट में शंख, वाणी में कोमलकुल, नेत्रों में पंखों से व्याप्त बाणयुगल और भौहों में घनुष्टि संचारित कर दी गई है। मानो मयूर ने अपनी सम्पूर्ण शोभा का प्रसार पर्वत के शिखर पर किया हो। चूंकि कामदेव के पिता के द्वारा इसका परिणय किया जाएगा, इसलिए कामदेव ने उसके शरीर में आवास कर लिया है। घत्ता-वह शिशुपाल के लिए दे दी गई थी, परन्तु मुनियों ने आदेश दिया कि जिसकी सोलह हजार गोपियां सहायक है, वह (कृष्ण) रुक्मिणी का पति होता ।।३।। उस रुक्मिणी ने अपना सब वृतान्त मुझे बता दिया है कि जब अतिमुक्तक यतिघर आये थे, तब उस (रुखमणी)ने उन से उपदेश ग्रहण किया था। कामदेव हरिश्रेष्ठ कहे गए हैं—यह अवसर १. प्रति में 'रातसोयारिल्लकरग्गेहि' यह पंक्ति नहीं है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] [सयंभूएक्कए रिट्ठणेमिचरिए करि लग्गइ गाण्यणु जयहूं। जाणमि महरिसि वयणु ण चुका। बापरमेस पुरयर दुरका ।। जइस अजाणे णवल्लए। सई लेविण श्रावेसह कल्लए । तो गिक्कलमि समज जगप्पाहें। होर होऊ सिसुवास-विवाहें।। अम्छम णियबलेण पटरंगें। पट्टणु वेविधि रुपि णिहंगे । तिह कुरा गुरु जिह मिलाइ जणद्दणु । बुदम-बाणव-देह-विमादणु ।। पत्ता-पपशिम लिहिवि परिसाविय पंकयगाहहोणारएण। गं हियवए विक्ष भणंगएग कुसुमसरासण-वारण ॥॥ जिह-जिह चरणजुयलु णिशायद । तिह-तिह बाल चित उपायह जिह-जिह उरुपएस् णियद । तिह-तिह मुहदसम् णिरु इच्छा ॥ नि-विह पिन मिपंच निरिगा। तिह-तिह पोससंतु ण पक्का।। जिह-जिह तिलिमाल बिहावर । तिह-तिह जा सध्यंगिउ मावा निह-जिह विद्धि धणोगरि थक्कह। तिह-तिह बम्महं जलण मुलुक्कड़ ।। जिह-जिह पडिम कंठ परिसावइ । कब होगा कि जब हरि मेरे हाथ लगेंगे । मैं जानती हूँ कि महामुनि का वचन असत्य नहीं होता। पदि परमेश्वर नगर में आते हैं और नये श्रेष्ट उद्यान में कल स्वयं लेने के लिए आते हैं, तो जग के स्वामी के साथ निकलूंगी। शिशुपाल का विवाह हो तो हो, चतुरंग प्रसछन्न सेना के साथ रुक्मि नगर का घेर कर रहे । हे गुण, ऐसा कौजिए कि जिससे जनार्दन से भेंट हो जाए कि जो दुर्दम दानवों की देह का विमर्दन करनेवाले हैं । पत्ता-नारद ने पट-प्रतिमा लिख कर श्रीकृष्ण को दिखायी, मानो कुसुम धनुष धारण करने वाले काम ने हृदय में विद्ध कर दिया हो ॥४॥ (पचित्र में) जैसे-जैसे वे दोनों चरणों को देखते हैं वैसे-वैसे वह बाला रुक्मिणी उनके लिए चिन्ता उत्पन्न करती है । जैसे-जैसे वे उस प्रदेश देखते हैं वैसे-वैसे मुख देखने की इच्छा प्रबल हो उठती है। जैसे जैसे वे विशाल नितम्ब देखते है वैसे-वैसे निश्वास लेते हुए वे नहीं पकते । जैसे-जैसे थे त्रिबलि-माला देखते हैं वैसे-वैसे उनके शरीर के सर अंग तपने लगते हैं। जैसे-जैसे उनकी दृष्टि स्तनों पर ठहरती है वैसे-वैसे कामदेव की ज्वाला प्रदीप्त हो उठती है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो सग्गो] ६१०३ तिह-तिह मुहहो ण काई वि भावइ ।। जिह-मिह चिहुर-णिवषणु जोयउ। तिह-तिह हरि संबह बोयज ॥ बसमा पाणु णाहित चक्कर । गं तो मरणावस्थहो ठुक्कउ॥ मता-ता पिणिरूव णिस्वेधि बल-पारायण णीसरिय। धगुलहिहे होइज्जतह कामसरहं विहि अगृहरिय ॥५॥ हरिवलएव वेविगय तेतहि। रुपिणि थिय पदणषणे जेत्तहि ॥ किरमावलि पिवई तरुषियही। रहबर मकु ताम गोविंदहो । मंदह गाइं सुरेहि संचालित। घंटाकिंफिणिजाल-वमालिफ्ट ।। गारडलकण-लंछिय-यययः । परणरवर-संगर-सिरि-लंबा। वारुइ-कसतोरविय तरंगम्। पाककारे चूरियउ-जंगमु॥ रह सुमणोहरू वीसह कण्णए। णारस दूरहो दाबह सग्गए ।। ऍह सो हप्पिणि कंतु तुहारउ। दुहमवाणव-हविद्यारउ ॥ सो आरूढ बाल वरसंदगि। सिय-सोहग्ग वेंतु जज गंवणि ॥ जैसे-जैसे प्रतिमा कण्ठ दिखाती है वैसे-वैसे मुख के लिए कुछ भी अच्छा नहीं लगता। जैसे-जैसे केश निबन्धन देखते है वैसे-वैसे हरि सन्देह करते हैं। दसवां स्थान नाभि वे चक जाते हैं, नहीं तो वे मरण अवस्था को पहुंच जाते । पत्ता-तब चित्रपट में शक्मिणी का रूप देखकर, बलभद्र और नारायण निकल पड़े। धनुर्यष्टियों पर बोए हुए कामदेवों के घाणों का उन्होंने अनुकरण किया ॥५॥ कुष्ण और बलराम दोनों यहाँ गये जहाँ उद्यान में रुक्मिणी स्थित थी। वृक्षों के समूह द्वारा किरणावली ग्रहण की जा रही थी। इतने में गोविंद का रथ वहाँ पहुँचा जो मंदर(सुमेरुपर्वत) के समान देवों से संचालित था । घण्टों की किकणियों (धूपरओं) के जाल से मुखर, गरुड़ के चिह्न से अंकित ध्वजपटकाला, शराबाओं की युद्ध-लक्ष्मी का लंपट, लकड़ी के चाबुक से उत्तेजित अश्यों वाला, चक्रों के चलने की आवाज से जीवों को चूर-चूर करता हुआ सुन्दर रय कन्या ने देखा । नारद दूर से उसे बताते हैं—'हे रुक्मिणी ! यही तुम्हारा वह पति है-दुर्दम दानवों के देहों को चूर-चूर कर देने वाला।" सब बाला वर के रथ पर यदुनन्दन को श्री और सौभाग्य देती हुई घड़ गयी। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] [सयंभूएवकए रिट्ठणेमिपरिए पत्ता--तहि अवतरि केण बि अक्खिाउ दुद्दमवणु:विणिवायणेण । कुढि लागहो जइ ओलग्गहों रुप्पिणि पिय पारायणेण ॥६॥ तो कंदपवाप-उद्दालहो । साहणु संणझइ सिसुवालहो । भिच्चु भिषषु जो अवसरू सारइ। रसर जोर धार रह रह जो रहसेण पयट्टइ। करि करि जो अरि करो बिटु॥ तुरिउ सुरिउ जो तुरउ पयाणइ । आणु जाणु जो जाएवि जागा ।। जोह जो जो जोहुवि सक्कह। रहिउ रहिउ जो रहिषि ण थक्कह ॥ खणु स्वग्ग खरगुज्जल धारउ । चक्कु चक्कु परचषक-णिधारउ॥ कोंतु कोतु परसोंतु-णिवार। सेरुल सेल्ल परसेल्ल-णिवारउ॥ सव्वल सन्चल सवल-भंजणि । लाडि लजि उठाउह तज्जणि ।। पसा-सण्णहेवि सेपण सिसुवालही बाइउ रणरहसुज्जमेण । महमहणेण पडिच्छिउ एंतउ 'आओसमणेण जं जमेण ॥७॥ तामपत्त मयमत्तवारमा। संपहार-वावार-बारणा ॥ घसा-उस अवसर पर किसी ने जाकर कहा-"दुर्दम दानवों का विदारण करनेवाले नारायण के द्वारा रुक्मिणी ले जायी जा रही है। यदि पीछा कर सकते हो तो करो"||६|| सब कामदेव के दर्प को चूर-चूर करनेवाली शिशुपाल की सेना तैयार होती है । मृत्य वही है जो अवसर साधता है, शूर वही है जो रथ की धुरा को धारण करता है, रथ वही है जो वेग से दौड़ता है, हाधी वही है जो दात्रु के हाथी को नष्ट कर देता है और तुरंग (अश्व) वही है जो तुरंस' प्रयाण करना है, यान वही है जो चलना जानता है, योगा वही है जो लड़ सकता है, रयिक वही है जो रथ में (बैठा हुआ) नहीं थकता। खड्ग वही है जो खड्ग के पानी को धारण करता है। चक्र बहीं है जो शत्रुचक्र का निवारण करनेवाला है, कोंत नहीं है जो शत्रुकोत का निवारण करनेवाला है। सेल वही है जो शत्रु-सेल का निवारण करनेवाला है। सबल भी नहीं है जो दात्रु के सब्बल को नष्ट करनेवाला है । लकुट वही है जो लकुट-आयुष का सर्जन करने वाला हो। पत्ता—शिवपाल की सेना तैयार होकर युद्ध के लिए हर्ष और उद्यम से दौड़ी 1 आती हुई उस सेना को क्रुद्धमन अम की तरह श्रीकृष्ण ने चाहा ।।७।। __इतने में मद से मतवाले हाधी पहुंचे जो प्रहार के व्यापार का प्रतिकार करने वाले थे। १. ज, ब-आयोसमण, अ-आवोसमणु । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो सम्मो] 'भद्दलवण-गगिय संजया। वससहास परिमाण संनया ।। मंद तेत्तिया सेतिया मया। बोसमहास संकिण्णणामया ॥ सयलकाल जे दाणवतया। 'सुरवारप-बहुवाणवंतया ॥ तवणिसिहिण- अणहारि कुंभया। जे जति विहरे भिया । धवल-णिद्ध-णिहोस तया। जे कमाविण के णवि अदतिया ।। माहिहरव्य बहुलद्ध-पक्खया। "कालबट्ट-पट्ट-परपक्लया॥ अलहरन्ध जलपूरियासया । सायरव्य परिपूरिपासया ॥ पत्ता-तहि लक्खाई बरतुरंगहं सहिसाहासई रहवरहें । सिसुवालम्पि रणे विनिय भिग्यि विहि वि हरि-हलहर 1॥ तो रुप्पिणिहें बयण घिउ कायह। वीस सेण्प पाई रयणायरु ।। अहो अहो वेव नारायगु। हज यासय-दुक्खह-भायणु ॥ पइं भतार लहेवि जयसारख । मजरि परिहिउ बइउ महार॥ महावतों से युक्त दस हजार भद्रलक्षण वाले थे। मन्द हाथी भी उतने ही थे और मद हाथी भी उतने ही थे। संकीर्ण नाम के हाथी तीस हजार थे, जो सदैव मदजल देनेवाले थे। सुर-वारण (ऐरावत) के समान प्रचुर मदजल वाले, युवतियों के स्तनों के समान कुंभस्थल वाले थे जो संकट के समय बिना कुम्भस्थल के चलते हैं, जो धवल और निर्दोष दातों बाले हैं, जो पर्वतों की तरह अनेक पक्ष धारण करनेवाले हैं, कालपृष्ठ धनुष की तरह परपक्ष को नष्ट करनेवाले है, मेषों के समान दिशाओं को जलों से आपूरित करनेवाले हैं तथा सागर के समान जिनका आशय परिपूरित है। पत्ता--वहाँ एक लाख उत्तम घोड़े, साठ हजार श्रेष्ठ रथ थे। युद्ध में शिशुपाल और रुक्मि दोनों से हरि और बलराम दोनों भिड़ गए ।।८।। ____ तो रुक्मिणी का मुख कातर हो गया। उसे सेना ऐसी दिखाई देती थी जैसे समुद्र हो। (वह बोसी) हे देव नारायण ! मैं हताश और दुख की पात्र हूं । विश्व में श्रेष्ठ आप जैसे पति को पाकर भी केवल मेरा भाग्य आकर खड़ा हो गया कि आप को हैं और शत्रुसेना अनन्त है। क्या १.—गलिय संभुया । २.प्र-परिणाम। ३. प्र–सुरवरघवडु । ४. प्र—अतृहरि । ५. प्र-- जेण बंति विहरे व कुंभया। ६. प्र-जे कयाइ ण किगावि दंतिया । ७. प्र-कालयमपहलवपक्खया। -. -" --. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएबकए रिटुणेमिचरिए तुम्हई विण्णिवि, अणंतउ परमलु। किं घुदृहि गिट्ठा सायरजनु । भीयभीसमभीसिब कहें। छिविय ससताल-जसतम्हें १२ मुग्वज्नसयल संचूरिय। सीमंतिगिहे मणोरह पूरिय । जाणिनि अतुलपयाज अणतहो। पाएहि पडिथ णिया-कति हो । जइवि बुद्धरु खलु अविणयगारउ । रणे रक्षिा भाइ महारउ। एसा --तो वासएज-अलाएहि अभउ विष्ण भसाहिणिारे । तहि अवसरि पुग्णपहावें पत्ता विपिण बाहिगिहे ॥६॥ जायरसेण्णु मसेस पराइट। सरहसु विष्णु परोप्पर साइन । लइयई पहरणई रह वाहिय । महर्षिय तुरंग गइंव पसाहित ॥ विणाई तुरई कलपलु घोसिउ । णारज सह सुरेण परिओसिउ ।। ताव बमिय-दुद्दम-अणुवि।। पूरिउ पंचजणु गोचि ॥ णियजलया सुधोसिउ बलहवें। बहिरिउ तिहुअणु साह मिष । इरिय मुझंग बसंघरिय हल्लिय । गिरि-संघाय जाय पाहिलय ॥ - .-.-. -. . घटों से समुद्र के जल को समाप्त किया जा सकता है ? तब भयभीत उसे कृष्ण ने अभय वचन दिया। मश की तृष्णा रखनेवाले उसने सात तालपत्रों को छेद दिया और होरे की सम्पूर्ण अंगूठी फो चूर-चूर कर दिया । सीमंतनी (रुक्मिणी) का मनोरथ पूरा हो गया। अनन्त (श्रीकृष्ण का अतुलिस प्रताप जानकर वह अपने पति के पैरों पर गिर पड़ी और बोली)-"यद्यपि मेरा भाई दुर्घर, दुष्ट और अविनय करनेवाला है, तब भी युद्ध में उसकी रक्षा की जाए।" पत्ता-तब असत पाने की इच्छा रखनेवाली उसे वासुदेव और बलराम ने अभय वचन दिया । उसी समय पुण्य के प्रभाव से उन दोनों ने सेना प्राप्त की ।।६। समस्त यादवसेना पहुंच गयी। उसने हर्षपूर्वक एक-दूसरे का आलिंगन किया। अस्त्र ले लिपे गये और रथ हाँक दिए गये। घोड़ों को कवच पहना दिए गये; हाथियों को सज्जित कर दिया गया, नगाड़े बजा दिए गये, कलकल घोषित कर दिया गया, देवों के साथ नारद संतुष्ट हुए। तब दुर्दम दानवों के समूह का दमन करनेवाले गोविन्द ने शंख बजाया। बलभद्र ने भी अपना शंख अजाया। उनके निनाद से त्रिभुवन बहरा हो गया। नागराज भयभीत हो उठे, परती. कांप गयी। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोग्गो] झलझल्लाविय सयल वि सायर । उह कविका कि कायर ॥ वह हरि दिसाह किय एहार विरुद्द आसंकिय ॥ घसा - तिहूअणभवणोयर वासिय समलु लोउ श्रासकिय । पण विजय संतप्त परपदिशक्त्यु ण संशियत ॥ १० ॥ रुप्पिणि- कारणे अमरिस कुछई । अमररंगण - रद्द-रस- लुराई ॥ भिडिय वलई पवल्लभल वसई । दुष्वम-वंसितयगतई ॥ पहिराहय-हिय गई । किय कुंभय लोलोक्लर्थिव ।। वसणमुसल छंदाविध-पाण हूं | पडिय बिमाण जाण अंपागाई ॥ संवाणिय-संवण-संवहनं । दुज्जयजोह- परज्जिय जोहई ॥ रंगाविय रणरंग-तुरंगई । हिरारुणिय रहोहरहगई ॥ छिण्ण कथयखंडिय करवाई। सुरचित्त सयंवर मालई ॥ उम्भव भिउडि भयंकर मालई । पेसिया एक्कमेवक - सरजालहं ॥ [१०७ गिरिसमूह टेढ़ा-मेढ़ा हो गया । समस्त समुद्र छलछला उठे । दिग्गजों के शरीर कायर हो गये, नवग्रह डर गये और दिशाओं के सुख टेढ़े हो गये । ग्यारहों रुद्र आशंकित हो उठे । घसा - त्रिभूवन के उदर ( भीतर ) में निवास करनेवाला समस्त लोक आशंकित हो उठा । मणी के वियोग से संतप्त केवल शत्रुपक्ष आशंकित नहीं हुआ ॥ १० ॥ शुद्ध देवों की उत्तम अंगनाओं के रतिरस की लोभी अनलरूप से बलवान् दोनों सेनाएँ मणी के कारण भिड़ गयीं, उनके शरीर दुर्दम हाथियों के दाँतों से आहत थे। जिन योद्धाओं के गज प्रतिहारों से ह्त आहत थे, जिन्होंने गजकुम्भों को चंचल ऊखलों का समूह बना लिया है, दाँतों के मूसलों से जिनके प्राण छिन्न-भिन्न कर दिए गये हैं, जिनके विमान, यान और पाण गिरे हुए हैं, रयों का समूह ध्वस्त कर दिया गया है। दुर्जेय योद्धाओं के द्वारा जिनके योद्धा पराजित हो गए हैं, जिनके घोड़े रणरंग ( उत्साह; से रंग दिए गये हैं। जिनके रथ- समूह और चक्र रक्त से रंजित है, कवच छिन्न-भिन्न हैं और तलवारें खंडित हैं; जिन पर सुखधुओं ने स्वयंवर की मालाएँ फेंकी है, जो उद्भट भौहों की भयंकर मालाओं वाली हैं, जो एक-एक कर तीरों का जाल फेंक रही है । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] [सयभूएबकए रिट्टगेमिचरिए पत्ता-रणवणे रिजरुक्स-भयंकरे 'धणुहसाहाणिवासिएहि। सति बलई सरसप्पेहि तोणा-कोडर-वासरहिं ॥११॥ सांगुलम सुबह पाई। सच्चा उत्तमज-सिणिसल्लहं॥ पिहरुप्पिहं उम्मय दुमरायहं । वेणुवारि रोहिगितणुषायहं ॥ जेत्तहे-जेसहे हलहरु इक्का । तेतहे-सेसह कोवि ण चुक्कइ । गयवर गयधरेण दलपट्टा । रहबर रहवरेण संघट्टा ।। तुरज तुरंगमेण संघरइ। णरवर परवरेण मुसमूरइ ॥ जाणे जाणु विमाणु विमाणे। सिल्लए महधुमेण पहा ॥ जंफरे लम्गाह सेण जि पहरह। सहसु-साख-कोडि वि संहारह॥ संकरिसण रणरिज णिएप्पिणु । वेणुदार गउ पाण लएपिपणु ॥ पत्ता-पिह-रुप्पि रणंगणे जेतह-तेत्तहे रोहिणिउ वलिय। बलकवतें कातु णं धाइउ पुणु अण्णसहे णं संलिउ ॥१२॥ एप्पिणी-भायरेण पिह जिज्जइ। जीवगाह किर जाव लइज्ज ॥ घत्ता--शत्रुरूपी वृक्षों से भयंकर उस युद्धरूपी वन में धनुष रूपी शाखाओं में निवास करने वाले तूणीर (तरफम) रूपी कोटरों में रहनेवाले तीर रूपी सांपों के द्वारा सेनाएं खाली जाती हैं ।।१।। इस बीच बटे-बड़े योद्धाओं, सत्यकी, उत्तम ओजोयाले शिनि, शल्य, पृषु, रुक्मी, उम्मद, दुमराज, वेणुदारा और रोहिणी के पुत्र में युद्ध होने लगा । जहाँ-जहाँ हलघर जाते हैं, वहां-वहां कोई नहीं बचता । यह गजबर से मजवर को कुचलता है, रथवर से रथवर को टकरा देता है, घोड़े से घोड़े को चूर-चूर कर देता है, नरवर को नरवर से मसल देता है, यान से पान, और विमान से विमान को नष्ट कर देता है। चट्टान से महाद्रुम और पाषाण से—जो भी हाप में आता है उससे प्रहार करता है। हजारों-लाखों और करोड़ों का वह संहार करता है, बलराम के रणचरित को देखकर, वे वेणुदार अपने प्राण लेकर भागे। पत्ता -युद्ध के मैदान में जहाँ पृथ और किम थे उस ओर बलराम मुड़ा, जैसे सेना को निगलकर काल दौड़ा हो। फिरी वह दूसरी ओर गये ॥१२॥ रुक्मिणी के भाई द्वारा पृथु जीत लिया गया। जब तक उसके जीव का प्रण किया जाता १.ज, अ - अणुवाहाणियासिएहिं । ब—षणबा साहणिवासिएहिं। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जखमी सम्मो] तहि अवसरे लेण हक्कारित । रहदरबरेण सुसुठि ॥ राम- रुपि रहसेण गंगणे । उपरति घण गाई गगणे | विसहर- बिससमेहि- सरजाले हि । विषमणि किरण-करालेहि ॥ तो ताल धरण व खंडिज । विरg free frfa रिउ इंडिज ॥ उम्मएण दुमराज गिवारिज । विष्ण पृष्टि राजकवि ण मारिज ॥ उत्तमज्ज सिजियहो भनि । सम्बइ-बचें सल्लू परजिउ ॥ चेह पराहिउ ताम पधरइयउ । नारायण नाशएहि छाइयज ॥ पत्ता - सिसुवालहो लोप परिवालही करचरणण-लणाणा । जिहवेत सिंह तह अंति अलरक्षण मग्मणा ॥ १३ ॥ 'गर-कबंध-वर संध्यं सिय-सरासणी - संजयं ॥ खरप्पहारदारुणं । णवपत्राल कंदारुणं ॥ समुच्छलय लोहियं । सुरबिल सिणि सोहियं ॥ पण स्त्रिय विखंड [भरांडयं] 1 भभिय-भूरिभेयं ।। [102 कि तभी बलराम ने उसे ललकारा और रथवर को रथबर से चूर-चूर कर दिया। बलराम और कम वेग से युद्ध के प्रांगण में इस प्रकार उछलते हैं मानो नम्र के आंगन में मेष हो । विवअर और विष के समान तथा प्रलय के सूर्य की किरणों के समान भयंकर सरजालों से तालाध्वजवाले ने ध्वज खंडित कर दिया, और शत्रु को रथ और अस्त्र से विहीन करके छोड़ दिया । उम्मद ने द्र मराज का प्रतिकार किया, उसने पीठ दी ओर भाग गया। किसी प्रकार उसे मारा घर नहीं । उत्तम और भयं शिनिसुत से नष्ट हुए। इस बीच वेदिराज दौड़ा । नारायण भी नाराचों (सीरों) के साथ दौड़ पड़े। सत्यकी के पिता से शल्य पराजित हुआ । घसा-लोक का परिपालन करनेवाले शिशुपाल के हाथों और पैरों के अंग में लगनेवाले तीर — जिस प्रकार देनेवाले के—उसी प्रकार युद्ध करनेवाले के लिए अलक्षित रहते हैं ॥ १३ ॥ जो मनुष्यों के कबंधों से युक्त है, जो तीखे धनुषों से युक्त है, तीव्र प्रहार से दारुण है, नवरत्न प्रवालों के अंकुरों के समान अरुण है, जिसमें रक्त उछल रहा है, जो सुरबालाओं का लोभी है; जिसमें भेव' पक्षी नृत्य कर रहे हैं, जिसका लक्ष्मी ने स्वयं वरण किया है, जो जल-थल नभ १. खबरवरेषंतराले पसारिउ । २. अ- कयं णबर संयुयं । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिटुणेमिरिए सयंवरिय-लच्छिय। 'जल-चल-णह-सह-संछिय ।। समुरिय पाहहं। छिथिय दूरि भण्णायं ॥ कात्तरिय वेहयं । जगिय-पाण-संवेहयं ॥ धरापरियछत्तयं । लुय धपावलोछत्तयं ॥ गया महोमुह गया। पहरसंगया णिगाया ॥ महारुहिर-रंगिया। पर तुरंगमा रंगिया ।। 'कयाधि रह रहा बहु मणोरहा पो रहा ।। हरिप्पमह विषया। जउ-णराहिया विद्धृपा ।। घत्ता-रिजुषम्मलग्गगुण कतिया' मोक्षहसावसाण पसरा । असलभियदेह-पयन्तयो तसि व कण्हहो लाग सरा ॥१४॥ हि अवसरे सारंग वि हत्थे । बुद्दम-दाणव-वसण-समस्यें। मुक्कु विभाहिव-सूयकते। सरवर-णियह अणंत अणंते ।। पच्छन्न जवि उपज अण्णे हि। को गुणवंतु ण लग्गइ कहिं ॥ और सरोवरों से शोभित है, जिसमें स्वामियों का उद्धार किया गया है। जिसमें कवच दर फेक दिया गया है, देह कड़कड़ करके टूट गयी है, जिसमें प्राणों का संदेह हो गया है, जिसमें छत्र धरती पर रख दिए गये हैं, छत्र और ध्वजावलियो काट दी गयी हैं, गज अधोमुख होकर चले गये हैं, प्रहारों से संगत होकर चले गए हैं, महा रक्त से जो रंग गया है, जिसमें शत्रु के घोड़े रंग गये हैं। कभी रथ दूर थे, मनोरथ बहूत थे परंतु रथ नहीं थे; हरिप्रमुख योद्धा जिस में करित हो उठे, जिसमें यादव राजा उखड़ गये। पत्ता-जो ऋजुधर्म (सीधे धनुष) लगी हुई डोर से खींचे गये थे, मोक्ष (छुटकारा) रूपी फल के अवसान का प्रसार करनेवाले थे ऐसे तीर प्राण रहित देह के प्रयत्न में तपस्वी की तरह कृष्ण को लगे॥१४॥ उस अवसर पर जिसके हाथ में धनुष है, जो दुर्दम दानवों का दलन करने में समर्थ हैं, जो विदर्मराज की पुत्री के कान्त हैं ऐसे अनन्त (श्रीकृष्ण) ने अनन्त तीर समूह छोड़ा। दूसरों के द्वारा तीर यद्यपि पीछे स्थापित किए जाते हैं, परन्तु कौन गुणवान् कानों से नहीं लगता ? यद्यपि १. अ--जलयलं सरू लच्छिय । २. अ-कियावि एह । ३. प्र-कच्छिया । - - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो सम्गो] [१११ 'जइवि मणहरपाणहरू रुच्चद । मुद्विहे जो ग माह सो मुच्चइ ।। छटिर-प्रधस्मरण : णिवसाह कासु पासि किर भगा। धणु-कवियउ सम्वु आकंदद। गुणपणमणेण कवणुण पंवह ॥ बंकत्रगगुणेष परिछिज्जइ। को कोशीसरु जो णउ गरजह ॥ पीविजंतु मुदि को मुबह । कग्निति जी को पाया।। पत्ता-सरधोरणि वहरि-विसज्जिय केसब-सर पहराहिहय । गं पास भमेथि सुपुरसहो असइ विलक्खो होइ गय ।।१।। तो विणियारिएण सरजालें। णिसि-पहरणु पेसिन सिसुवालें ॥ छार अंबरविवा वियतक। एउण जागहुँ कहि गउ दिगयरु॥ फुरियई तारागह-णखत्तई। पाहसरे पियई सयवत्तई॥ गिरवसेसु जग मायए छाइयज्ञ । भायवसाहणु णिहए लाइय॥ उर-उस्युह-मणिरयगृज्जोएँ। सोइण-संवाइयालोएं॥ मेल्सिउ विषयस्यु गोइवें। वह तीर सुन्दर प्राणों का हरण करनेवाला है, फिर भी अच्छा लगता है। जो मुट्ठी में नहीं समाता उसे छोड़ दिया जाता है। जिसने श्रवण धर्म छोड़ दिया है, जो गुणों का संघन करनेवाला है ऐसा मगण (वाण और याचक) किसके पास ठहरता है ? घणु (धन, धनुष) निकाल लिया गया, सभी आऋन्दन करते हैं (चिल्लाते हैं)। गुण के प्रणमन से कौन आनन्दित नहीं होता? वक्रता गुण से भी वह क्षीण हो जाता है, कोन कोटीश्वर (धनुष, करोड़पति) है, जो नहीं गरजता? पीड़ित किए जाने पर भी मुट्ठी कोन छोड़ता है? जीव के निकाले जाने पर कौन नहीं रोता। __ घसा ---शत्रु के द्वारा विसजित, श्रीकृष्ण के तीरों के प्रहार से अभिहत वीरों की परम्परा उसी प्रकार बिलखकर जाती है जिस प्रकार सत्पुरुष के निकट घूमकर असती स्त्री ।।१५।। तब सरजाल के विनिवारण कर देने पर शिशुपाल ने निशाप्रहरण प्रेषित किया । आकास का विवर और दिगन्तराल आच्छादित हो गया। यह पता नहीं चला कि दिनकर कहां गया। तारा-ग्रह और नक्षत्र चमक उठे मानो आकाश के सरोवर में कमल खिल गए हों। अशेष विश्व माया से आच्छादित हो गया। यादव-सेना को नींद आ गयी। जिनके वक्षःस्थल में कौस्तुभ १. जइधि मणोहरु पाणहुं कच्चइ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] [सयंभूएवकए रिटुमिचरिए पग्णय-पहरण चेद-परिवें ॥ फुरियफणामणि-सोहिय सेहर । रणुपुरसु पधाइय विसहर ।। णिवडिय गयवर बरगिरि तिहरई। ण तरुवर-वरपल्लव णिय र । घसा----रहवर-वम्मीय-सहासेहिं तुरप-कण मुह-कोतिरिहि । णियसियाणारय-भुअंगम जम जिस बहुवतरिहि ॥१६॥ तहि अवसरे सरकरपरिहत्थे। पेसिउ गारुडत्यु सिरिवर्थे । एक्कु अर्णयागारहिं घाइच । बसदिसि-चक्कवाले गाड माइउ ।। पक्सपसारण किय घणबह। 'दूरदषण-पवणबिहुमणहयर । चलणुच्चालग-चानिय महिहत । कय सधिवर-दुवार-वसुंधरु ॥ सई पायाललु जति विहंगम । कहिं मासंतु वराय-भुजंगम ।। गारुसस्थु जं एम वियं भियत । तो बेहत्रे षाणु पारंभिउ ॥ पेसिज अग्गि-अत्यु बलवंतउ । गहुमाहि-एकीकरण-करत॥ हरिबलबलु समजाली इबउ । मणिरस्न का प्रकाण है और जिनके नेत्र चन्द्रमा और सूर्य के प्रकाशवासे हैं ऐसे गोविंद ने दिनकर अस्त्र छोड़ा। विनरेश ने पन्नग प्रहरण छोड़ा। जिनके शेखर फणामगियों से शोभित हैं ऐसे विषधर रण को आपूरित करते हुए दौड़े। गजवर और बड़े पहाड़ों के शिकर ऐसे गिर पड़े मानो बड़े-बड़े वृक्षों के वरपल्लव-समूह हों। घसा-रथबरों को हजारों बामियों, वीड़ों के कानों और मुखों के कोटरों, और अनेक रूपान्तरों में तीर रूपी नाग यम की तरह स्थित थे॥१६॥ उस अवसर पर तीरों और हाथों की क्षिप्रता से श्रीवत्स ने (कृष्ण ने) गारङ्ग अस्त्र प्रेषित किया। वह एक, अनेक आकारों में दौड़ा, दशों दिशाओं में चक्रमण्डल में यह नहीं समाया । पंखों के फैलाब में उसने मेघाडम्बर क्रिया । दूर के दवाब से पचन ने नभघरों को प्रक्रपित कर दिया। पैरों के चालन से उसने महीधर को हिला दिया और भरती में सैकड़ों विवर और वार बना दिये। जब पक्षी स्वयं पाताल में जाते हैं तो बेचारे साप कहाँ भागे? गरुडास्त्र जब इस प्रकार बढ़ने लगा तो चेदिराज ने स्थान परिवर्तन प्रारम्भ किया। उसने बलवान् बाम्नेयः अस्त्र छोड़ा। आकाश और धरती को एक करते हुए हरि की सेना की शक्ति भस्मीभूत हो गयी, असे {म,म-दूर देवण पवण विहुअंवरु । —दुरहमण पवण विहुणंपरु ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो सग्गो] खंषे वताविय वदवस-बूव ॥ घसा-तो धारणु मुक्कु अणतेण हुयबह तेण गिरस्थियउ। हि अप्पउ कहि मिण दीसह तेउ अतेउ होधि पियउ॥१७॥ वसीकरण-णिवारमा। अवरवारिणा वारिणा ॥ अहोमुह-विहारिणा । इयवहारिणा हारिणा ॥ णवंबुचा-वासिणा। बरहिवासिणा वासिणा॥ कर्य-कुवलयंवसं । कुवलयंवसमायसं । स वेड्बइ वासुणा। किर सरेण दिवाउगा ॥ समाहणह वारुणं। माहुमहेण नावारुणं ॥ भिसंवयणपंकयं । सयभाणु-काय॥ गुणाणिय-खुरुप्पयं । बहइ अं फलं हप्पयं ॥ सयाई अथ-पुलायं। कणयकस्तरीपुंखयं ॥ तिणर पलय-दित्तिणा। रिउ-विराविणा राविणा ।। जहण कोसिरं। सहसवार-उक्कोसिरं ।। कन्धे पर यम का दप्त चढ़ गया हो। अत्ता--तब श्रीकृष्ण ने वारुण अस्त्र छोड़ा। उसने आग्नेय अस्त्र व्यर्थ कर दिया । जिसमें अस्म भी कहीं नहीं दिखाई दिया, तेज प्रतेज (प्रकाश अंधकार) होकर स्थित हो गया ॥१७॥ ___ जो वशीकरण का निवारण करनेवाला, दूसरों का प्रतिकार करनेवाला, अधोमुख विहार करनेवाला , अग्नि का शमन करनेवाला, नवकमलों में निवास करनेवाला, मयूरों में निवास करनेवाला है, ऐसे उस वारुण अस्त्र से श्रीकृष्ण ने कुवलय (पृथ्वीमंडल) को वश में कर लिया। जो कुवलय से भयभीत है, ऐसा चेदिराज दियायुवाले वायु शर से वाषण अस्त्र को भयंकर रूप से आहत करता है। तब मधुसूदन ने (चक्र उठाया), जो अत्यन्त अरुण, कमल के मुखवाला, प्रलयभानु के दर्प से कित, डोगें से जिसमें तुरुपे लगे हुए हैं। जिसमें पांदी के फलक हैं, लोहे के सैकड़ों अग्रभागवाले बाण हैं, जिनमें स्वर्ण केंचियों के पुंस है। प्रलय को दीप्तिवाले, शत्रु का नाश करनेवाले, मुखर चक्र से अाक्रोश करनेवाले, हजार Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] सुवास । वसुह- वासयं वासयं ॥ [सयंभू एक रिमिचरिए धा-सिस पडिज कबंधु पणच्चद् वत्तु पियतु सयं भुषणे । बहुकालहो अविष्यतेन सीसं णमिज सयंभुवणे ।। १८ ।। इय रिटुमिचरिए धवलयासिय सयंमू एकाए सिरिणि अवहरणणामो उमी सभ्गो ॥६॥ बार गाली देनेवाले, घरती के वास को प्राप्त भरती के वास को, वास को, घसा - सिर गिरता है, कबन्ध नाचता है, भुवन में मुख स्वयं देखता है। बहुत समय तक अविनीत रहनेवाले सिर ने स्वयं भुवन में नमस्कार किया । इस प्रकार बबलइया के आश्रित स्वयंभूदेव द्वारा विरचित अरिष्टनेमिचरित में श्री रुक्मिणी अपहरण नाम का नौवाँ सगं समाप्त हुआ । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमो सग्गो उज्जत-महागिरिधर-सिहरे जियसिसुवाल-महाहयेण । सई रुपिणि-पाणिगहगु किउ 'माहवे मासे माहवेण ॥ परिषेप्पिणु प्पिणि महमहषु। परणरवर-समरभरवाणु ॥ पइसरह स-बंधव-वारवइ । जहि मणसंभवहो नि मणु हर। पायाले सुरालए परणिवहे। उमिजह उवमाणु गउ तहे॥ गोविवेण णयणाणवयरु। कप्पिणिहि समष्पिपणियहरु ।। अनुमान यानि अतुलु । जिपलोयसार जोविउ विवतु ॥ कुष्परर-कुंडासय-कुप्पियई। सोवग्गई पासई रुपियाई॥ हय गम-रह-चामर-विधाई। छसई-बाइस-समिखाई। एयई अपराई मिजेतई। को अक्विधि सक्काइतेत्तियई॥ ऊर्जयन्त महागिरि के शिखर पर शिशुपाल से महायुद्ध जीतनेवाले माधम ने वसन्त मात्र में स्वयं कक्मिणी से विवाह कर लिया। रुक्मिणी से विवाह कर, शत्रुराजाओं के युद्धभार को वहन करनेघाले श्रीकृष्ण भाई बलराम के साथ द्वारावती (द्वारिका) में प्रवेश करते हैं। जहां यह नगरी कामदेव के भी मन का हरण करती है । पाताल, सुरालय और परिणीपर में उसका उपमान नहीं है कि जिससे उपमा दी जाये। गोविन्द ने नेत्रों को आनन्द देनेवाला अपमा घर रूक्मिणी के लिए समर्पित कर दिया। उसे अतुल धन-धान्य और सुवर्ण दिया। लोक के सार को जीतनेवाला विपुल' जीवन, कोपर, सैकड़ों कुंडा, कुणियाँ और सोने-चांदी के थाल, अश्व, गज, रथ, . थामर, चिह्न, बाघों से समृद्ध छत्र आदि और भी जो दूसरी वस्तुएं दीं, उन सबका का वर्णन कौन कर सकता है ? ---- - १.म-भावहो मासहो । २. म.-चामराई। ३. अ—कुंडाई सकुप्पाई। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] [सयंभूएवकए रिट्ठणेमिचरिए घसा-साछायई अंगई रुपिणिहे सच्चहे जायई सामलई । णिपंचारियहि को पावद गवि रिसि-अवमाणकम्मझो हलई ॥१॥ तो वासुएव-बलएवं जहि । परिवारज णार आउ तहि ॥ हरि अच्छइ एम कण्णरयणु । वारविक-सपिणह-वयणु ॥ वेगवाहो वाहिण-सेठियह। विजाहरपुर-परिवेठियहे॥ जंधुउरगाहहो जबबहो। पिय जंबुसेण गामेग तहो॥ सुय गंधुमालि सय अंबई। कल-कोइल-कठि-मरालगड ! तो कण्हें दूउ विसज्जियउ। भायर तिपरयण-विवस्जिमा । गियमणे चिताब महमहण । किण्ण किया फाणपाणिग्गहा ।। उपवास हरिवलएव थिय । घरमताराहणं तुरिउ किय॥ पत्ता तो अखिलवेवें तुहिएण विष्णउ महयलगामिणिच । सोराउह-सारंगाउहं-हरियाहिणि-खाग-बाहिगिउ ॥२॥ से गड-महाय-तालय। वेगाहो दाहिणसे हि गय ।। पत्ता-कक्मिणी के अंग सुन्दर कांतिबाले हो गए और सत्यभामा के अंग काले पड़ गए। मुनि के अपमान के कर्म का फल, अपने चरित (आचरण) से कौन नहीं पाता ॥१॥ तब जहा वासुदेव और बलदेव थे, नारद फिर वहाँ आपे और बोले- "हे कृष्ण ! एक विशाल मुख-कमलवाला सुन्दर कन्यारत्न है। विद्याधरों के नगरों से घिरे हुए विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी में अम्बुपुर नगर के स्वामी जम्छु की जम्बुसेना नाम की पत्नी है। उसका पुत्र जम्बुमाली और पुत्री जम्बुवती है जो कोयल के समान स्वरवाली और हंस के समान गतिवाली है । तब श्रीकृष्ण ने अपना दूत भेजा, जो स्त्रीरूपी रत्न के बिना आ गया । मघसूदन अपने मन में सोचते है कि उसने कन्यारत्न का पाणिग्रहण क्यों नहीं किया ? श्रीकृष्ण और बलराम धोनों उपवास करने के लिए बैठ गये और उन्होंने तुरन्त श्रेष्ठमन्त्र (णमोकार मन्त्र) का आराधन किया। घसा-तम यक्षदेव ने सन्तुष्ट होकर आकाशतलगामिनी, सिंहबाहिमी और सङ्गवाहिनी विद्याएँ श्रीकृष्ण और बलराम को प्रदान की।।२।। धे गरुड़ध्वज फोर सासध्वजयाले (श्रीकृष्ण-बलराम) विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी में १.4-सुंदारविंद सुन्दर-बयणु। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोग्गो] मवश्यि कष्ण कुठि लग्ग पट्ट । रण जाज परोप्पर सुव्विसहु ॥ पालि सेण्णु जंबुले जिउ जंबुमालि सोराज ॥ महचंड गएण रणुज्अएण । जंब गोविंद दुज्जए ॥ विजाहरि परिणिय जंबवइ । पडसारिय पुरवरे दारवइ ॥ अपर्णा विणि घणानंदयरे । सुमनोहरे वीयसोपणयरे ॥ पहुचंबमे चंद्रम तिथ । किय कष्णहे तेहि विवाह-किय ॥ आपणु विष्णु गोरि हरिहे । 'यि दाराव - पुरि ॥ धत्ता-लक्खण सुसीम गंधारितिय सस लहुयारी रेवहहे । उमाष परिणिय महमण पुष्ण मष्णोरह वेबइहे ॥ ३॥ अट्टमहाएहि सहिय । वि उरसिरिए परिहउ ॥ भुज्जं रज्जु थिउ मट्टमहषु । - घण्ण-सु-समिद्ध जणु ॥ घरे-घरे णं काम सबइ । धरे-घरे णं घण व घरे-घरे वसुहार गाई प वह६ ॥ धरे - घरे चितिय समावच्छ ॥ {११७ गये और कन्या का अपहरण किया। विद्याधर राजा गीछे लगा। दोनों में परस्पर अत्यन्त असह्य युद्ध हुआ । जंबुरुह ने सेना को परास्त कर दिया। बलराम ने जम्बुमाली को जीत लिया ॥ युद्ध में सक्षत दुर्जेय गोविन्द ने गदा से महाप्रचंड जम्ब को जीत लिया और विद्याधरी जम्बुचती का पाणिग्रहण कर लिया तथा उसको द्वारावती में प्रवेश कराया। दूसरे दिन नयनानन्द, अत्यन्त सुन्दर वीतशोक नगर में राजा चन्द्रमेरु और उसकी पत्नी चन्द्रमती ने अपनी कन्या को ब्याह दिया और गौरी लाकर श्रीकृष्ण को दे दी। द्वारावती में वे सुख से रहने लगते हैं। चला - लक्ष्मणा, सुसीमा और गन्धारी तथा रेवती की छोटी बहन पद्मावती से श्रीकृष्ण से विवाह किया। देवकी का मनोरथ पूरा हो गया ॥ ३॥ इस प्रकार आठ महादेवियों सहित तथा लक्ष्मीदेवी के साथ मधुसूदन राज्य का भोग करते हुए रहने लगते हैं। लोग धनधान्य और सुवर्ण से समृद्ध हैं। घर-घर में मानो कामधेनु दुही जाती है। घर-घर में धनद्रव्य बहता है। घर-घर में जैसे रत्नों की वर्षा होती है। घर-घर में मन १. वसु थियई दारावर पुरिहें । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܲܕ܃ [सयंभूव कए रिटुमिवरिए क्षणदिणे जववणे पइसरेवि । केलिहरे सुरयलील करेषि ॥ मंडेपि वप्पणी अल्लविय । मणियाविहे पासे परिनिय ॥ मायाविण अणिमिस- दिठ्ठी किय । वणदेवय णं पञ्चकख थिय ॥ उपाय कावि अम्वसिय । उणावर जिह् सापण्णतिय ॥ घत्ता - तह उध्वरिज पसाहणउ तं स उवोइयउ । देव पचय महु कि अच्छरिउ ण जोइयउ ॥ ४ ॥ भद्दिएण भाग भामिय भवणे पसारय पवज्जाणवणे ॥ अपणु सुछु मणोहरए । पित्तन्नवल - लताहरए ॥ रूपिणि हो पा गय। भय-सोहाधय ॥ लक्विइ भामिणि भगियए । घण- पोणपओहरणामियए । कर-वरणाणण-लोयण-कमले तरमान जाई लायष्णजले ॥ भजद व मतियत्तणेण । ण हिालद महि णषजोवणेण ॥ पेवेपि सच्हाम पमिया । कावि देव सविया ॥ चाही चीजें आ जाती हैं। दूसरे उपवन में प्रवेष करके में कामक्रीडा घार, श्रीकृष्ण ने रुमणी को सजाकर अलक्तक लगा दिया और उसे गणिवापिका के पान स्थापित कर दिया। मायावती ने अपनी दृष्टि अपलन कर लो, और ऐसी स्थिति हो गयी जैसे साक्षात् वनदेवी हो। उसकी अनोखी ही शोभा श्री । वह सामान्य स्त्री की तरह दिखायी नहीं देती श्री । धत्ता--जब रुक्मिणी का लेप (प्रसाधन) पूरा हो गया तो मधुसुदन सत्यभामा के पास पहुँचे और बोले - "मुझे देवी प्रत्यक्ष हुई हैं। क्या तुमने यह आश्चर्य नहीं देखा || ४ || मधुसूदन ने सत्यभामा को भवन में घुमाया और फिर विशाल उद्यानंधन में घुमाया। वह स्वयं प्रचुर पाल सुन्दर लतागृह में बैठ गये, कि जहाँ रुक्मिणी रूप की सीमा पार कर स्थित थी, जैसे वह कागदेव की सोभाग्य ध्वजा हो । अपने सघन और स्थूल स्तनों से नमित हुई, सत्यभामा ने उसे देखा जैसे वह कर, चरण, मुख और लोबनरूपी कमलों वाले सौन्दर्य के जल में तिर रही हो । कटिभाग की कुशता के कारण भग्न होती हुई-सी वह नवयौवन के कारण धरती को नहीं देखती । सत्यभामा ने उसे देखकर नमन किया, "यदि तुम सचमुच की कोई देवी Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमो सग्गो] तो मह सोहाग देहि अचलु। कुसवत्तिहे हबह महालु ।। घसा---परमेसरि अधिष्णु होइ म आणबटिचछज महुमणु । सोसु व आरिय पायवडिउ 'पोदव्य-पडिउ बिह थेरपण ।।५।। जी एम " अभिय। तो मायवगाहें विहस किय॥ मायण्ही फेहि अप्पाणिप। एह रुपिणि देवय कहिं सणिय ।। विमाहरि तुई शब-यहूडियो। फिट गमिय सवत्तिहे साहजियहे ।। हरिलेष्टु सणेवि तणु-तणुहिय । सच्चो बप्पिणि पारहिं पड़िय ।। तहि अवसरि रिउ-मइ-मोहर्षण । पछुविउ लेहु दुजोहर्णण ॥ महएबिहि विहि वि पलंघभुज । जो उम्पनेसह परमसुउ ॥ तहो तणय वेसु हज अप्पणिय । संभावण एह महसगिय ॥ मंचायणु कोहल सममोहरेंहि । उपणयषणपीण-पोहोहि ॥ पसा--उत्पामो सुयहो पाहल्लाहो कुश्व-तणय परिणताहो । पिपुसी सीस मुरिएण हिहि ठवेषि व्हताहो ॥६॥ हो तो अचल सौभाग्य यो और मेरी कुल्लित गौत या दुर्भाग्य का महाफरल दो। पत्ता--हे परमेश्वरी, मधुसूदन प्रतिदिन मेरी आशा के माननेवाले हों। जिस प्रकार शिष्य आचार्य के पर पड़ता है, या जिस प्रकार श्रद्धा के स्तन प्रौढ़ता से प्युप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार वे मेरे पैरों में पड़े रहें । जब सुन्दरी सत्यभामा इस प्रकार कहती हुई स्घित थी, तो यादवनाथ ने उपहास किया, "तुम अपनी मृगतृष्णा छोड़ दो, यह रुक्मिणी है, पेशी कहाँ की? हे विद्याधरी, तुमने छोटी नबवयू अपनी सौत को क्यों नमन किया ?" श्रीकृष्ण का उपहास सुनकर छोटी दक्मिणी सत्यभामा के पैरों पर गिर पड़ी। उस अवसर पर शत्रु की मति का मोहन करनेवाले दुर्योधन ने लेख भेजा कि दोनों महादेवियों (सत्यभामा और कृत्रिमणी) में से जिसके लम्बी बाहुओंवाला पहला पुत्र उत्पन्न होगा उसे अपनी कन्या दूंगा, यह मेरा संकल्प है। तब जिनके उन्मत और स्थूल प्रयोघर है ऐसी उन सुन्दर देवियों में यह बात हुई (यह तय हुआ)। ___घत्ता --- पहले उत्पन्न हुए, दुर्योधन की कन्या से विवाह करते हुए स्नान करनेवाले पुत्र के नीचे, निपूती मुण्डित सिर से रखी जायेगी ।।६।। १.--पोरस पविउ । २. .....एव चयन्ति । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] [सयंभूएवकर रिट्ठणेमिचरिए बहुविवसहि भिक्खराय-सपएँ। परूनऐ बलातोयधुयएँ ॥ जो पन्छिम-पहरे णिरिक्णिय सो सिविणरविणमुहि अक्सियउ ।। गारायण विट्टु विमाग मई। हरि मबह लहेवळ पुस पर। विजाहर-जायव-कुलतिलाउ। सोहरगति-गुणगणविलास ॥ भामए वि एम सिविणर कहिच । सुज होसइ एक्कोयर साहिल अह दिणे हि महंतेहि सोहलेोह । णवमाह-पण्ण-सहुंचोहलेहि ।। एक्काह दिणि वेधि पसूइयर । पवियउ गिय-णिय इयर ॥ पहिलारउ तुद्ध पड उद्विगएँ। कमलोयर-बलमंतट्टियए॥ मसाविउ रुप्पिणिस्यए। अवरऍवि सिरंतरि हस्यए। अउणंद-गंदणु जाउ त। बिहसंतु अगंतु तुरंत गर॥ पत्ता–पहिलड पेक्खंतहो पुत्तमहं जं सुख तहिं बामोयरहो। पक्कक्ककित्ति बद्धावणए दुषकर तं भरहेसरहो ॥७॥ पेक्षेप्पिषु रुप्पिणि-सुयवयण। गउ समचहामधद महमहम् ॥ बहुत दिनों बाद, चौथे दिन जल से स्नान करनेवाली रजस्वला भीष्मराज की पुत्री रक्मिणी ने रात्रि के पश्चिम प्रहर में जो सपना देखा वह सवेरे बताया, "हे नारायण, मैंने विमान देखा है।" श्रीकृष्ण कहते हैं, "तुम पुत्र प्राप्त करोगी जो विद्याधरों और यादवों के कुलों का तिलक, सौभाग्यराशि और गुणसमूह का घर होगा।" सत्यभामा देवी ने भी इसी प्रकार सपना बताया। (कृष्ण ने कहा) भाई सहित एक पुत्र होगा । बहुत दिनों बाद बहुत बड़े सोहरों और वोहलों के साथ नो माह पूरे हुए । एक ही दिन दोनों ने पुत्रों को जन्म दिया और उन्होंने अपनी-अपनी दतियों को भेजा । उठने पर स्वामी (कृष्ण) के जिनमें कमल चिह्न हैं ऐसे चरणों के निकट बैठी हुई, रुक्मिणी की दूती के बधाई देने पर पहले सन्तुष्ट हुए। दूसरी दूती ने सिर के पास (कहा), "आपकी जय हो, आप प्रसन्न हों, आपके पुत्र हुआ है।" हंसते हुए श्रीकृष्ण तुरन्त गये। घता—पहले पहल पुत्र का मुख देखते हुए कहा दामोदर को जो सुख हुआ, वह पक्ररत्न और पुत्र अर्ककीर्ति की बधाई में भरतेश्वर को भी कठिन पा ॥७ पक्मिणी के पुत्र का मुख देख कर मधुसूदन सत्यभामा के पास गये। उस अवसर पर दृढ़ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोमो ] तहि अवसरे धूमके असुर - कठिण - भुयजूयल - वियङ-उरु ॥ हे नंतही तो विमाणु वलिउ । चरसरीरोधरि चलिउ ॥ घसागर बालो उपरि देबि सिल 'वइवसगयरपल्लि तह । कालि कालसंवर गपणें सब कोलिज मेह जहि ॥८॥ " खयरवणि तक्खसिल सिंहरि भुक्क । विजाहर संवर नाम हक्क । तो मेहकूड उर- सामियहो । सकलसहो गय लगामिमहो ॥ जाणि विहंगणा वलेण । चिर परिवि एण खलेण ॥ अवहरि कलप्त महत्तणउ । तं वहरि हणेष्वज भई अव्पणउ ॥ अणि महाएबिहे करेवि । सोम विमाणही अधहरेषि ॥ गं गरुडेण णायकुमारु णि । अभूमि पिचितंतु थिज ॥ णज आयो जोविउ भवहरभि । सयमेव मरइ जिह तिह करमि १३ कठिन भुजयुगल और चिकट उरवाला धूमकेतु विद्याधर था । आकाश में जाते हुए उसका विमान स्खलित हो गया, वह चरमशरीरी के ऊपर नहीं चल सका । विभंग अवधिज्ञान के बल पर उसने जान लिया कि इस दुष्ट के द्वारा पूर्वभव में मेरा पराभव किया गया था। इसने मेरी पत्नी का अपहरण किया था, इसलिए मुझे अपने इस दुश्मन को मारना चाहिए। महादेवी ( रुक्मिणी ) को गहरी नींद में कर, उस बालक का विमान में अपहरण कर वह उसे उसी प्रकार ले गया जिस प्रकार गरुड़ साँप के बच्चे को ले गया हो। मरघट ( अतिभूमि) पर पहुँचकर वह विचार करता है – मैं इसके जीवन का अपहरण नहीं करूँगा, वैसा करूँगा जिससे यह खुद सर जाये । 2 १. भुयग्गलु । २. जयर पोलि हि । ६. [१२९ छत्ता---वह बालक के ऊपर वहाँ चट्टान रखकर चला गया कि जहाँ वश्वस नगर को बस्ती थी। उस अवसर पर कालसंवर आकाश में उसी प्रकार कीलित हो गया, जिस प्रकार शुक्र नक्षत्र द्वारा 'मेव ' कील दिया जाता है ||८|| विरवन में तक्षशिला में उसे छोड़ दिया। इतने में विद्याधर संबर वहाँ पहुँचा। तब मेघकूट नगर के स्वामी, आकाशगामी, पत्नीसहित विद्याधर कालसंबर का विमान कुमार के - - परिभमिछ । ४. अ-वयरु । ५ अवश्वस चमरि । ३. अ-खीलिउ मेह जिह। ७. ये दो पंक्तियाँ अ प्रति में नहीं हैं। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] [सयंभूएवकए रिटमिपरिए गफमारोवरि मिशण घलह। जस्वयः इव पार-वार सलाह। जागहो ओपरिज कियहो। मुत्ताहल-मालालकियहो।। बीसइ ससंत सिल तामहि । मयरड्य चरमसरोरु जहि ।। सो उवलु छित्तु में चप्पिया। सिस्कंधणमालहे अप्पियउ ।। ण समिच्छिउ साएँ वियस्खण्णऐं। गव-कोमल-कमल-बलखण्णएँ । अहिवायई णयमाणवणहं। जहि पंचसय वरणंदणहं॥ सहि मायहे कवण पतप । सेगमड वेयारमि अप्पणउ ॥ पता-तो कवि कष्णहो कणयबसु सिरिजवरायपट्ट पविउ । इह सामिडं पयहो महारहहो एण पियहे मणु संपविउ ॥६॥ तोमणे परितुट पहिवाई। विष्णिवि णियणयर पट्टाई॥ किर गूडगम्भु अप्पा सुउ। परे मेहकरे याकुहु ॥ परजाणकुमार णाम किया। रुपिणिहरे गं मसाणु णिय' || सा जाम दिउज्मह ताम वि। कपर नहीं चलता. मूर्ख के शब्दों की तरह बार-बार स्खलित होता है। जब यह अपने टेढ़े, मुक्तामालाओं से अलंकृत विमान से उतरा तो उसे वही शिला हिलती (साँस लेने से) हुई दिखायी दी कि जहाँ परमम्नरीरी कामदेव (प्रद्युम्न) था। जिस पत्थर ने उसे पाप रखा था, वह फेंक दिया गया. और शिक्षकंचनमाला को दे दिया। नव कमलदल के समान आँखोंवाली विलक्षण उसने उसे नहीं चाहा । (वह बोली)--जहाँ नेत्रों को आनन्द देनेवाले पाँप सौ श्रेष्ठ पुत्र हों वहाँ इसकी क्या प्रभसत्ता होगी इसलिए मैं इसे अपना नहीं समझती। पत्ता-तब कर्ण कनकदल कर विद्याधर ने बालक को श्री युवराज-पट्ट बाँध दिया, यह प्रजा का और मेरा स्वामी है-इस प्रकार प्रिया के मन को ढांढस बंधाया || मन-ही-मन सन्तुष्ट और प्रसन्न होकर वे दोनों अपने नगर में प्रविष्ट हुए। प्रमछन्न गर्भवाला बालक उत्पन्न हुआ, इससे मेघकट नगर में आनन्द छा गया। बालक का नाम प्रथम्नकुमार रखा गया । रुक्मिणी के घर जैसे मरघट आ गया । वह (रुक्मिणी जयं जागी तो उसने पुत्र नहीं देखा । वह जोर से चीखी---'धनुष और हल करकमल में धारण करने वाले हरि - .. । १. थिय Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२३ दहमो सम्मो] जोडसजायमालगणरवि॥ थाहावित धावहो हरिवलहो। सारंग-सोनगार-स्यमहो । सिणि-सच्च-पिट-पसेण-गरहो । सिवतणय-समुविजय-जरहो।। अक्खोह थिमिय सायरपरहो। हिम-हरि-विजपाचल-गरवरहो। धारण पूरण अहिणंबणहो। वएव माम मणवण हो॥ बता–कुडे लग्गहों केण वि अवहरित बालु कमालपुण्यतु । तुम्हहं सम्वहं पेक्वंताहं गउ मा भासर-पोट्टसउ ॥१०॥ हा केण पुत्तु महु अवहरित। गिरुवमगुण-रयणालंकरित ॥ हा एक्कासि दावइ मुहकमलु। पाविउ युत्त थिउ पणजयलु ॥ उभयलिज-मलिजण निहालिया । ण सणेहें लालिउ-पालियउ । मई पावई बुक्खहं भायणए। णि वए हपएँ अलावणए । दुइमदाणवत्रल-महगहो। उच्छंगे ण विछु जणदगहो॥ उच्चाएपि लइउ गहलहरेण । णालिंगिउ अम्हह कुलहरेण ॥ ण वसार हेहि परिबियट। और बलभद्र दौड़ो । सिनि, सत्यकी, पृथु, प्रसेन, अर्जुन, शिवा के पुत्र समविजय जरदकुमार अक्षोभ्य, स्तमित, सागरकर, हिमगिरि, विजय, अचल, नरश्रेष्ठ धारण, पूरण और अभिनंदन ससुर बसुदेव मेरे पुत्र के पीछे लगो। आप सब लोगों के देखते-देखते मेरी धाशाओं की पोटली चली गयी। हा किसने मेरे अनुपम गुणरूपी रत्नों से अलंकृत पुत्र का अपहरण किया? हा एकवार उसका मुखकमल दिखाओ। हे पुत्र, स्सन युगल से दूध भरता है तुम पिओ इन उबटन किया न मला और न देखा, न स्नेह से पालन-पोषण किया । पापों और दुःखों की भाजन, भाग्यहीन आहत और लक्षणहीन मैंने दुदंम दानव-बल का मर्दन करनेवाले जनार्दन की गोद में उसे नहीं देखा । हलधर ने उछालकर उसे नहीं लिया और न हमारे कुलधर ने उसका आलिंगन किया। और न दशाहों ने उसे चूमा। किसी ने मेरे पुत्र को मार डाला है, उसके प्राण लेते हुए Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] घता केण वि महत्तु विनियउ ॥ तहो जीविउलित कुम्म । किह सोसु प फुट्ट पावइहे ॥ - तहि अवसरे धीरिय महूमहेण पुत्तु तुम्हारिउ । तो वही कियगारहो सणि अक्लोयणे अज्जुधिउ ११ ॥ १. अ - विडंवियर | [सएवकए रिटुमिचरिए ण मरइतु गंदषु जइवि जिउ । केवलिहि आसि आएसु किवज ।। होस विभव सुहेमु । पम्म सुरकरिकर- पवर-भूत ॥ युग्मेनु अवश्य च वि मर सुरिव वज्जाउ बि मिं हवं लहर वेवि सहाय जहि ॥ तहि अवसर जवर समावडिए । आयासही णारउ णं पडिउ ॥ भभोय ते सुरंतएन । कि रोव हि भई जीवंसएण ॥ अमुमहारसि सिद्धि उ । जिणु अणुपओइप ण कहइ राज ॥ हरं ताम गवेसमिसल-महि । सो जामम बिट्टू गुण-मगि-उवहि ॥ दुर्मति प्रजापति का सिर क्यों नहीं फूट गया ? घता --- उस अवसर पर श्रीकृष्ण ने उसे ( रुक्मिणी को) धीरज बंधाया कि तुम्हारा पुत्र जिसके भी द्वारा ले जाया गया है, उस दृष्ट अन्यायकारी को देखने में मैं आज शनि के समान हूँ । तुम्हारा पुत्र मरेगा नहीं, यद्यपि उसका अपहरण किया गया है । केवलज्ञानियों ने ऐसा आदेश किया है कि विदर्भपति की कन्या का पुत्र कामदेव ऐरावत के सूंड के समान प्रबल बाहुओंवाला, अपक्षय से न होने पर दुर्गा, देवेन्द्र के वच्च से माहत होने पर भी नहीं भरेगा । है कति ! जाकर भी, यह कहाँ जाएगा कि जहाँ मैं और हलधर उसके सहायक हैं। उस अवसर पर मात्र यह बात हुई कि नारद आकाश से आ टपके । तत्काल उन्होंने अभय वचत दिया कि मेरे होते हुए तुम क्यों रोती हो ? अतिमुक्तक मुनि ने सिद्धि प्राप्त कर ली है। जिनेन्द्र भगवान् अनुपयोगी कथन नहीं करते। मैं पृथ्वी पर तब तक खोज करूंगा कि जब तक गुण रूपी मणियों के समुद्र 'उसे नहीं देख लेता । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२५ दहमो सग्गो] पत्ता- एम भणेपिणु देवरिसि पुवाविवेहे महंगणेन। सीमंधरसामि-समोयरण अहिं सयंमूसियउ सुरयगेण ॥१२॥ इय रिद्वर्णमिचरिए अवलइयासिय-सयंभूएयकए पज्जुाणा-रणं णामेण दहमो मग्गो ॥१०॥ पत्ता इस प्रकार कहकर देवर्षि नारद आकाश के आंगन से पूर्व विदेह के लिए चल दिये कि जहाँ देकवरों ने सीमंधर स्वामी के समोसरण को स्वयं अलंकृत किया था। इस प्रकार धवलइया के आश्रित स्वयंभूदेव द्वारा विरचित नेमिनाथचरित में प्रश्न म्महरण नाम का दसवा सर्ग समाप्त हुआ।॥१०॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एयारहमो सग्गो ॥ साम कालसंवरणिवहो उस रज्जुपरचा। एक्करहेण जि सम्महेण हज तिमिह गाई तवण तो तरम' जवाणभावे चठियड। गं सुरकुमार साहो परियउ॥ सुमणोहरि मेहसिंगणयरे। हरितणज कालसंवरहो धरें । वरित मोहसिई गई। जाप अंगई विक्कममय । सोहग-महामणि-रयणणिहि । तहो को णिवण्णा स्वणिहि ।। जस केरा "परवटिय-पसरा। तिअण-असेस जगति सरा॥ लो मयर केउ सई अवपरित। कर-चरणाहरणालंकरियउ । परिसक्काइ दुक्का अहिं जि जहि । तरुणीयगु सम्भव तहि तहि जि तहिं ॥ बोहरलोयण-सर-पहर-हय । पियजणि जि बहो अहिलास गय॥ --.-.-. इतने में शत्रुसमहने कालसंवरका राज्य छीन लिया। एकरथी कामदेव प्रचुम्न ने उसे उसी प्रकार पराजित कर दिया, जिस प्रकार तरुण सूर्य अंधकार को पराजित कर देता है। कुमार इस बीच यौवन भाव को प्राप्त हुआ, मानो कोई देवकुमार स्वर्ग से आ पड़ा हो। सुन्दर मेघकूट नगर में, काल संवर के घर हरिपुत्र प्रद्युम्न बड़ा होने लगा । सोलह वर्ष बीत गए। जिसके अंग पराक्रम से परिपूर्ण हो गए, जो सौभाग्य का महामणि और रूप की निषि था, प्रसार को प्राप्त हुए जिसके तीर समस्त त्रिभुवन को पीड़ित करते हैं, ऐसा कामदेव स्वयं अवतरित हुआ है। हाथों और पैरों में गहनों से शोभित वह जहाँ जहाँ जाता या पहुँचता, वहाँ वहाँ युवतीजन आई हो उठतीं । लम्बे नेत्र रूपी तीरों से आहत उसकी अपनी माता(कंचनमाला) को उस पर इच्छा हो गयी। १. 4-ताण । २. अ-परविट्टिय-पसरा। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एयारहमो सग्गो पत्ता--का कामुरकोयग कलकोयल 'मायामहे । अंगहों लाइज रणरण अस्थयकए कंधणमालहों ॥१॥ परमेसरि पोग पओहरोहि । बोल्लह समाणु णियसहयरीहिं॥ हलि लवलि-सर्वगिए उप्पलिए । होल कंफोसिप आदि । कप्पूरिए कुंकुमकष्टमिए । नबकुसुमिए मउलिए पल्लविए ।। किण्णरिए किसोरि-मोहरिएँ। आलाविणि-परस्य-मारिऐं। मह चित्तहो ' भुसभोलाहो। परिहाइ ग झुणि हिंदोलाहो ॥ पउ भास हे विविह पयारियो। ण कउहहे मोसाहारियहे ॥ गाज कराम-टक्कोसियो । सामोरय-मालय-फोसियो।। लहपंचमु पंचम्-कामसक। जो पिरहिणिमण-संतावयरु॥ पत्ता-विषगसील-मारणउ सहि सस्थे पंचमु गाइयउ । कंचणमालहे बच्छयले वामहंग गाईसक लाइयउ ॥२॥ पक्खोज पीवी-बंधणउ । विस्तारउ करह सई परिषणउ । बरिसावद धम्मो घरसिहरु । घसा---सुन्दर कोयल की तरह मतवाली कंचनमाला के शरीर में काम की उत्कंठा उत्पन्न करनेवाले कामदेव ने शीध्र बेचैनी उत्पन्न कर दी ॥१॥ स्थूल पयोधरों वाली यह अपनी सहेलियों से कहती है, "हला! लवली, लवगी तथा उत्पला हला! कंकोली, जातिफला, कर्पूरी, ककुम, कदमा, नवकुसुमिता, पल्लविता, किन्नरी, किशोरी, मनोहरी, आलापनी, परभूता, मधुरा, हिदोल राग की ध्वनि मेरे मदविह्वल चित्त को अच्छी नहीं लगती। विविध प्रकार की भाषा, ककुम, ओसाहारी, टक्कराग, टक्कोशिराग, सामीरय और मालकोश की ध्वनि अच्छी नहीं लगती । तो यह लो पंचम पंचमकामसर (काम स्वर/सर) है, जो विरहिणी के मन के लिए संतापकर है। धत्ता---हे सखी ! विधनशील मारण को शास्त्र में पांचों राग गाया गया है। कंचनमाला के वक्षस्थल में मानो कामदेव ने तीर मार दिया हो ।।२।। वह नीवी की गाँठ खोलती है, स्वयं अपने परिधान को ढीला करती है । कामदेव के गृह १.-वायालहो। २. व-मुंभर 1 ३. अ- परिहणउ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] रोमावलि तिवल पणषद ॥ आमेल्लइ गिव्ह इदप्पण । सयवार जिहाल अप्पणउ ॥ गरिणा दामु परिद्वयि । करि उद कंकणु कष्णे फिउ ॥ कमि कंठ पुट्टिए 'कण्णरसु । मुह अंजण लोग लक्खरसु ॥ परिचित दसगु अहिलस | बीहरड पुणु वि पुणु गोससह ॥ जब पेल्लइ मेल्लइ बाहू गवि । आहारभूति ण सुहाइ कषि ॥ णिएव ज्ज - लग्न परिहर मने । उम्महहि भज्ज खणे शिक्षणे ॥ [एक रिमिरिए धत्ता--षणे उपज्जद्द कलमलड खाणे मणु उल्लोलह मावई । वाहिली ग कवि एक्कुवि उस ग महावद्द ॥३॥ तो विरह-वेण विद्दाणिएं । gay wala syinen vufaɛng a अं सुबह एत्यु मनु घर हो । तं किं मह किम का पिरो । वेणु सहरम कच्छउ कच्यिहि जि संभव ॥ जो तक वहरिहि रक्ख करइ । अवसापि तहो जि फलु वपर ॥ शिखर को दिखती है, जो रोमावली बिलि और स्तन के आधे भाग को धारण करते हैं। वह दर्पण को छोड़ती है और ग्रहण करती है, सो बार अपने को देखती है। करधनी को वह गले में डाल लेती है, हाथ में नूपुर और कान में कंकण धारण करने लगती है। पैरों में कंठा और पीठ पर कर्णफूल । गुख पर अंजन और आंखों में लाक्षा रस । वह चिन्ता करती है, देखना चाहती है, फिर बार बार लम्बे उच्छ्वास लेती है । ज्वर पीड़ा देता है और तपन नहीं छोड़ता । कोई भी आहार- मुक्ति उसे अच्छी नहीं लगती। निरवद्य लज्जा का वह अपने मन में परिश्याग कर देती है । उन्माद से क्षण क्षण में नष्ट होती है । - एक क्षण में बेचैनी उत्पन्न होती है, एक क्षण में मन उत्सुकताओं में दौड़ता है। उस व्याधि की अनोखी मंगिमा यह थी कि एकाकी औषधि का प्रभाव नहीं होता था ॥ ३॥ विरह वेदना से व्याकुल रानी ने किसी सखी से पूछा - "जो यह सुंदर मेरे घर में है, वह है या किसी दूसरे का ? " तब सहेली प्रणाम करके निवेदन करती है— "कन्छ कच्छा पर ही संभव होता है । जो तरुलता की रक्षा करता है, अन्त में उसी पर फल अवतरित होते हैं।" इस १. वणवसु । स Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगारहमो सम्गो] [१२६ कोरिकर कुमार तं मणि परिवि । पग्णसि समाप्पिय पिउ करिति ।। जं पेसण बेध्वज किपि मई। तं परिवजेश्वउ सपल पई॥ अपहि विणे परिहकारियउ । पल्लंकोवरि बसारियउ॥ कछिन ओरेसह सुक्ष्य लहु । एकसि आलिंगणु केहि महु ॥ घसा--छत्तई वसुमा वइसणउ साहय-गय-रमणाई। तुल पद, हर महएवि, बइ तो सगे किमाइ काई॥४॥ णिय-हरिजिमइ बल्लहिय । तो रायलच्छि सह मई सहिय ॥ पह होहि समाषु पुरंदरहो। विसु संचारिज्जा संवरहो ॥ सहे वयण सुणेवि कुसुमाउहण। मोल्लिज्जा पिणि-सपरहेण ॥ एउ कार अनुस-पुस-या। तुझं जमणि कालसंघल्-मणषु । सिकं छिज्जा अवि अन्ज मरमि। छुपकम्मई विग्पिषिणउ करमि॥ कंधणमालए शिभन्छिन । सुहं महु उयरे जि प अच्छियाउ ।। वणे लबउ केगा वि कहि ब हुन । कहो तणिय माप कहो तणउ सुज ।। ते तेहज ताहे षयण सुणेपि । बास को मन में धारण कर उसने कुमार को बुलाया और प्रिय करके उसे प्रशस्ति विद्या सौंप दी और कहा, "मैं जो भी आज्ञा दूं वह सब तुम्हारे द्वारा स्वीकार की जाए।" दूसरे दिन उसने कुमार को फिर बुलाया, और पलंग के ऊपर बिठाया । "ओ सुभग, शीन कच्छ को हटाभो और एक बार मुझे आलिंगन दो।" पत्ता-छत्र, धरती, कुबेर, घोड़ा, हाथी और रल ले लो। यदि तुम पति और मैं महादेवी होती हूँ तो स्वर्ग से क्या ? ।।४।। यदि तुम्हें अपनी देह-ऋद्धि प्रिय है तो मुझ सहित राजलक्ष्मी लो। इन्द्र के समान राजा बनो । कालसंवर के लिए विष का संचार कर दो।" उसके वचन सुनकर पक्मिणी के पुत्र कामदेव ने कहा-'यह तुमने अयुक्त वचन क्यों कहा? तुम मा हो, और कालसंबर पिता हैं । सिर चाहे काट दिया जाए, या आज मर जाऊँ, मैं दोनों ही दुष्कर्म नहीं करूंगा।" तब कंचनमाला ने उसे झिड़का-"तुम मेरे उदर में नहीं थे। किसी के द्वारा कही पैदा हुए, पन में तुम प्राप्त हुए । किस की मां और किसका पुत्र?" उसके वैसे वचन सुनकर कामदेव अपने अंगों को Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकर रिट्टगेमिचरिए पभणइ अपंगु अंगई पुणेवि ॥ घत्ता-पई हउं लालिउ-साध्यि-परिपालिउ णवतक जेम। दिपा विज्म यणु पाइयर भण जपाभि के ॥५॥ जलगंदण-णंदण वणुबलण। अइबाल-कमल-कोमल-चलणु ।। गर वीर महारहवर बढेवि । थिय कणयमाल मंचए पडिवि ॥ गहगियर-विचारिय-यणय-जुञ्ज । वाहयलोहाइय-णयण दुख । पिहियोसक ताथ समोयारित । सामंत सहासहि परियरियउ॥ पिएं पुच्छ्यि कुम्मग काई थिय । तर तगएं एह अवस्य किया 5 एम रिवहो अक्लियज । तेण वि करवातु करक्खियउ॥ तहि अवसरे विजुदा चवद । वत्तियहो अखत्त पसंभवः । किराय-सुरम-जोह-वलेण। जा हम्मा तो फेण पिछलेण ।। घत्ता--सिरिमेसहरि-मल्लरिहि सूयर-मिसियर-कह-मामहि । तेहि हिस्मा वालु रणे आहि अपरेहि उपाहिं ॥६॥ थिव णरबह मिक्किय णिवारिपउ । सिसु अरिंगकृषि पइसारिप ॥ धुनता हुआ कहता है. घसा-...'मैं तुम्हारे द्वारा प्यार किया गया, ताडित किया गया। नवपक्ष की तरह परिपासित हुआ 1 तुमने विद्या दी, दूध पिलाया। बताओ तुम्हें मा किस प्रकार न कहा जाए ?"|५|| दानवों का दलन करनेवाला, अत्यन्त नव कमल के समान कोमल चरणवाला, यदुनन्दन का नन्दन (प्रद्युम्न) वीर एक बड़े रथ पर चढ़कर चला गया । जिसने नखसमूह से अपने दोनों स्तन विधीर्ण कर लिए हैं तथा आंसुओं से दोनों नेत्र लाल हैं, ऐसी कंचनमाला पलंग पर पड़कर रह गई। तब राजा हजारों नौकर-चाकर तथा सामंतों के साथ वहाँ प्रविष्ट हुआ। प्रिय ने पूछा--- "तुम अनमनी क्यों हो?" [उसने कहा] "तुम्हारे बेटे ने यह हालत की है।'' जब राजा से यह कहा गया, तो उसने अपनी तलवार खड़खड़ाई । उस अवसर पर विद्युतदंष्ट्रा ने कहा कि क्षत्रिय से अक्षत्रिय आचरण नहीं हो सकता? रथ, गज, अश्व और योद्धाओं की ताकत से क्या? यदि मारना है तो किसी भी छल से ! घसा-श्री मेषगिरि, मल्लगिरि, सूकर, राक्षस, वानर और नाग, इन उपायों या किन्हीं दूसरे उपायों से उस बालक को युद्ध में मारा जाए ।।६।। मना करने पर राजा निष्क्रिय बैठ गया। शिशु को अग्निकुंड में प्रविष्ट कराया गया। अग्नि ग Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३१ एयारहमो सग्गो] उहणेण वि तह डाहोत्तरई। विण्णा गौमां अंबर णि मज्ने मेसनहीहरहे। दोषसमं विणिवायकरहे। वे वजिउ तेहि समप्पियर। तिहुअण-जण पमण-मणप्पियत । साहिउ वराह अवराहकर। ते विष्णु संखु तहो भीमसव ।। जिउ रवखस तेण वि बिग्ग गय। समहारह सकघय अणिय भय ।। पत्ता-सरेण कविय-णिवासिएग मणि-किरण-सहास-भिग्णउ । विणि ण हंगण गामिबिउ पाउपड फुमारहो दिण्णच ॥७॥ भोवतार विष्फुरमागमणि देवाहं पि बुद्दम-वमिङ फणि तेण वि मरगयकर-विमरिय। डोइवाइ भुष-मुहिय-छुरिय ॥ धगु-ससस समंडलग्गु फरउ। कामंगुत्थलउ ससेह्रज ॥ विणिषारिय विवसयरायण। वें कणयअणपायवेण॥ दिज्जति सुरासुर-अमर-करा। षणु-कउसुमु कसुमपंचसरा॥ लोशेवणि माकड तेण जिज। सम्बोसहि मायामउ महिउ ॥ ने भी उसे दहन से रहित सुवर्ण-वस्त्र दे दिये । उसे मेषमहीघर के भीतर ले जाया गया जो यज्ञ के समान निपात करनेवाला था । उन्होंने उसे दो बच्च दिये जो त्रिभुवन के जनों के नेत्रों के लिए प्रिय थे। उसने अपराध करनेवाले वराह को सिद्ध कर लिया। उसने उसे भीमस्वर करने वाला शंख दिया। उसने राक्षस को जीता । उसने भी हाथी दिया, तथा जो महारथ और कवच सहित था और भय उत्पन्न करनेवाला था। घसा-कपित्य पर निवास करनेवाले देव ने मणि की हजारों किरणों से चमकती हुई, आकाशगामिनी दो पादुकाएँ कुमार को प्रदान की।।७।। थोड़ी देर में, जिसका मणि चमक रहा है ऐसे देवों द्वारा भी दुर्दम्य नाग का उसने दमन कर दिया। उसके द्वारा भी मरकत मणि की किरणों से व्याप्त पिशाचमुखी छुरी भेंट में दी गयी। तीर सहित धनुष, तलवार सहित स्फरक (अस्त्र विशेष) और मुकुट सहित काम की अंगूठी । सूर्य के भातप का निवारण करनेवाले स्वर्णवृक्षदेव ने कुसुमघनुष और कुसुम के पांच तीर दिये जो देवासुरों को भय उत्पन्न करनेवाले थे । क्षीरवन में उसने बानर को जीता और Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] [सयंभूएक्कए रिटुणेमिघरिए सूरप्पाह-रह-जिमाणु-पक्षषु । सियत-सेयचामर-जुयलु १ गउ पिउल पावितहि मय बिउ। उपलक्खणु णवर षयगे किउ । धत्ता—वहरिहि अमरिस-कुखहि सिलविजन याविहि अंपगउ । ताहि जिम वम्महेण जिह चितिउ मह अहियत्तणज ॥८॥ अगाउले बालें तलिय सिला। सश्लगेण आसि कोरिसिला॥ पाणप्ति-पहा परि जिय। असमस्य-णिरत्य-असत्य किया। ज-अ-बोषद्ध-रुद्ध किह। थिय पाविबाउल पिहय जिह ।। कह कहवि तहिं चुक्फ ए जणु । गड संवर-भवणु पवणगमणु ॥ परवा तुह गंदण गटविय । उग्वषषि सयल परिटुक्मि॥ परिकुविज कालसंवरु मणेण। पद्धविय असेसु सेग्णु खणेण ॥ सुरमाण सुरंगारूड भा। वाहियरह चोइय हरिबहा॥ सेणावह तहि सुघोसु पर। बाउर पाउबेज अवर ।। उससे मायामयी सर्वोषषि प्राप्त की । सूर्य की प्रभा के समान रथ और प्रबल विमान, श्वेत छत्र और दो चामर भी। वह विशाल बावड़ी पर गया और वहां मगर को जीता और उसे केवल अपनी ध्वजा का चिह्न बनाया। घता-असहिष्णुता के कारण क्रुद्ध शत्रुओं ने वावटी को ढकने के लिए शिला रख दी। तब तक कामदेव अपने मन में समझ गया कि किस प्रकार मेरा अहित सोना गया है 11८॥ अनाकुल उस बालक ने शिला उठा ली; जो लक्षण से कोटिशिला थी। उसने प्रज्ञप्ति विधा के प्रभाव से श्रुषों को जीत लिया और उन्हें असमर्थ, मिरर्य और अशस्त्र बना दिया। उठे हुए; माघे बंधे हुए और अवरुद्ध वे ऐसे मालूम होते ये जैसे वृक्ष पर बाउल पक्षी स्थित हों। वहां किसी प्रकार एक आदमी बच गया। पवन की गतिवाला वह कालसवर के घर गया, (और बोला), राजन् ! तुम्हारे पुत्र नष्ट हो गये हैं, वे सब बांधकर रख दिए गये हैं। कालसंधर अपने मन में कुपित हुना। एक क्षण में उसने समूची सेना भेज दी । पोद्धा शीघ घोड़ों पर आल्द हो गये, रप हाक दिये गये और गमघटा प्रेरित कर दी गयी। यहाँ सुघोष प्रघर सेनापति था तथा दूसरा वायु के समान उद्धत वायुवेग था । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एयारहमो सग्गो] घप्ता--रणरसिएं कियकलयलेण वज्मिय पर पछह यमालें । मेदिउ यम्म साहणेण विजमहरि ओम घण जालें ॥६॥ उत्थरिउ बालरिउ साहणहो। रहतरय-महगायवाहणहो। णं गिम्ह-वम्गि बंसवणहो। णं गरुड-भुयंगविसमगणहो ॥ णं करिसंधायहो पंचमुह । गं अगहू सणिच्छरु थिर समुह ।। गय दमइ ग दम्मद गयदरहिं । हर हणइ ण हम्मद यवरेहि ।। रहणं दल दलिज्जइ णवि रहे हि । वितरई सिरई दसदिसिवहेहि ॥ पण्णसि-पहावें सयलुबलु। मंवरेण महिउणं उवहिजलु ।। णं भग्गु गई फमलवणु। साहारुणं बंधन सरणमणु ।। हर-गए-रह-गर-रिक दलिप । सयहि मि पिजल वाबि भरिय ।। घता-भरिय ढंकणु चेविसिल अण्णु पडिएंतु णिहालइ । अमु करंतु कलेवडज सालणं गाई पडिवालइ ॥१०॥ घसा-सेना ने कामदेव को घेर लिया, मानो मेघजाल ने विध्यागिरि को घेर लिया हो III वह बाल शत्रु जिसके पास रथ, अश्व, महागज और वाहन थे, ऐसे सैन्य के ऊपर इस प्रकार उछला मानो मांसों के वन पर ग्रीष्मवह्नि उछली हो । मानो सांपों के विषम समूह पर गरुड़ हो, मानो सिंह हाथियों के समूह पर हो, मानो विश्व के सम्मुख शनि हो। गज दमन नहीं करता, और न गजवरों के द्वारा कह दमित होता है । इसी प्रकार अयन न तो मारता है, और न अश्ववरों के द्वारा आहस होता । रथ दलन नहीं करता, औरन रथों के द्वारा दला जाता है । दशों दिक पथों में सिर बिखरे हुए हैं। प्राप्ति के प्रभाव से समस्त सेना उसी प्रकार मथ दी गयी जिस प्रकार मंदराचल से समुद्र मथ दिया जाता है, मानो गजेन्द्र ने कमलवन को नष्ट कर दिया हो। शरण की इच्छा रखनेवाले सैन्य को द्वादस नहीं बँधता। अश्व, गज, रथ, नर और राजा पराशायी हो गये, उन सबके द्वारा जैसे वावड़ी भर दी गयी। घसा-भरी हुई वाकड़ी पर शिला ढककर वह दूसरे शत्रु को उसी प्रकार आते हुए देखता है जैसे कलेवा करता यम सालन (कढ़ी की तरह एक खाद्य) की प्रतीक्षा करता है ।।१०।। १. प्र—उवडियउ। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सयंभूएवकए रिटुमिचरिए अवरेणकेण फेणवि फिकरेंण। कंठक्खलियमखर अंपिरेण ॥ अखिया कालोत्तर संवरहो। धयघषल-छत्त-छपयंवरहो ॥ परमेसर सेण्ण-परज्जियउ। बइबसपुरबाहेण विसस्जियउ॥ तो राएं अमरिस-कुखएण। सामंत वेवि जसलुद्धएण।। ते भूमिकप महिकंपभड। समुहउ सतरंग सहत्यिह॥ पदविय पधाइय भिडियरणे । णं पवण हुआसण सुक्कवणे ॥ जे वम्मह मारहुं भणेवि गय । ते विज्जापण्णई सयल हय ।। घत्ता-जिणिव तिवारउ वइरिस लु अण्णहो वि दिष्टि पुर्ण टोइय। जमु तिहि कषलाह अघाउवि शंकर पत्य जोइपर ।।१।। पडिवत्त कालसंवरहो गया। तामिय असेस सार्मत हया ॥ एहि विहि कज्जहं एषकु करे । मह कहि यि णासु आह भिड समरे॥ बलु-सयतु कुमार णविउ । पेयाति-पंसे पटुधिउ॥ तं णिसुर्णेवि परवइ गीढभउ । तहे कंत्रणमालहे पास गउ ॥ खोयहि पनि व्यक्ति माहू। कण्ठ से लड़खड़ाते हुए अक्षर बोलने वाले किसी एक और अनुचर ने, ध्वजों और बबल छत्रों से आकाश को आच्छादित करनेवाले कालसंबर से कहा, 'हे परमेश्वर, सैन्य पराजित हो गया । और वह यमपथ पर भेज दिया गया है।" तब, असहिष्णुता से क्रुद्ध होते हुए, यश के लोभी राजा ने रथ, अश्व और गजघटा के साथ भूमिकंप और महीप योद्धा भेजे। वे दौड़े और युद्ध में भिड़ गए, मानो सूखे हुए जंगल में पवन और आग हो । जो कामदेव को मारने की कहकर गये थे, वे सब प्रज्ञप्ति विद्या के द्वारा आइत हो गये। घसा-इस प्रकार तीन बार शत्रुबल को जीतकर उसने फिर दूसरे पर दृष्टि डाली। तीन कौर से संतुष्ट नहीं होते हुए अम ने मानो चौथे कौर की प्रतीक्षा की ॥१शा कालसंवर के पास फिर समाचार गया- हे स्वामी, सभी सामन्त मारे गये। अब दो कामों में से एक कीजिए, या तो केही भाग जाइये या फिर युद्ध में लडिए । कुमार ने सारे सैन्य को नष्ट कर दिया और उसे यम के रास्ते लगा दिया।" यह सुनकर, राजा कालसंघर डरफर मचनमाला के पास गया (और बोला)-'मुझे शीन प्राप्ति विद्या दो जिससे मैं शत्रु Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३५ एयरहमी सग्गो] बावरमि जेण अरिएण सहूं। पश्चुत्तर दिण्या कबहु करिवि। विश्माहरणाह विज त्रिवि !! गिय मंड तेण तुह गंदणेण। आसंकिउ गरवइणियमणेग ॥ पुषणक्खए पुण्ण-विधज्जियउ। विजउ कि ण होलि सहेजियउ॥ घत्ता --- अहवार रपे णिव संताहो फेसरिहो कवण सहिजउ । छुनु धीरत्तणु सुपुरुसहो भुयदंड नि होति सहिज्जर ॥१२॥ विजाहरणाहु एम भषेवि । पिय-जीउ तिणयसमाण गणेवि !! अबसंसु सेण्णु सण्णहाय गउ । जहि दुम्मह चम्म लबजउ । ते भिडिय परोप्पच दुश्विसह । गं गयणहो णिवडिय कूरगह् ।। णं उद्धसुंध सुरमत्त गया। पं हरि दशिय-मरणभया॥ णं सलील-पगजिमय पलययण । जं फणिमणि विफारिय-फारफण ॥ पहरंति अणेयहि आउहहि । पिसुहिं व परविंधण भुहि ॥ विहि एक्क वि जिज्जइ जिणइधि । अम धणय पुरंदर सोम रवि ॥ वोल्लंति परोप्पर गयणे थिय । - - .. . --------- .-....-- -. -.- - - के साथ लड़ सकूँ।" उसने कपटकर उत्तर दिया, "हे विद्याधर स्वामी, तुम्हारे उस पुत्र ने विद्या बलपूर्वक छीनकर ले ली है।" राजा अपने मन में आशंकित हो उठा कि पुण्य का क्षय होने पर मैं पुण्यविहीन हूँ। बिद्याएं भी तब सहायक नहीं होती। असा अथवा मन में निवास करने वाले सिंह का कौन सहायक होता है ? धीरज और भुजदण्ड ही सत्पुरुष के सहायक होते हैं ।।१२।। विद्याधर-स्वामी यह कहकर, अपना जीवन तिनके के बराबर समझकर, समूची सेना तैयार कर यहाँ गया जहाँ विजय प्राप्त करनेवाला कामदेव था । असह्य वे दोनों आपस में लड़ने लगे। मानो आकाश से दो क्रूर ग्रह गिरे हों, मानो देवों के सूह उठाए हुए मसवाले हाथी हों, जिन्होंने मृत्युभय दूर से छोड़ दिया है ऐसे सिंह हों, मानो लीलापूर्वक गरजते हुए प्रनयमेव हों, मानो अपने विस्तृत फन फैलाए हए फणमणि हों । वे, दुष्ट की तरह जिनके मुख दूसरों को काटनेवाले हैं, अनेक हथियारों से प्रहार करते हैं। दोनों में से, न तो एक जीता जाता है, और न जीतता है। यम, धनद, देवेन्द्र, सोम और रवि आकाश पर स्थित होफर कहते हैं, "पुत्र और Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] [सयंभूएवकए रिट्टणेमिचरिए सुम-जणणहं अविणये अत्ति किया धत्ता-ताम पराइउ देवरिसि म वेवि अकारण अचाहो । करेवि परोपर गोसखउ मा कवण यत्ति जहिं सुजमाहो ॥१३॥ पिणिवारिय विषण वि मारण : जिह धरियमेह अंगारएण॥ मघरोहिणि उत्तरपतएण। तिह तावसेण दुषर्कतएण ॥ ओसारिय संवर कुसुमसर। जुझतह जगे जपणउ पर॥ सुयजणण हो विगह कवषु किर । बुल्लंधण-लंघिय तथसि-गिर ।। प्रिय विपिणवि रणु उपसंधरिवि । पुत्ततणु तायतणु करेवि ॥ पति "पंग मातुरः । उषित कालसंवरहो बस्तु ॥ तो भणह महारिसि कित्तिएण हाई एन्थ पराइड एत्तिएण ॥ एहु चरम बेहु सामण्णु गवि । भय रद्धर हरिकुल गयण रवि ॥ घत्ता--असुरें हिउ पई बढादियउ सीमंधरसामें सिट्ठउ । एह सो गंदणु रुपिणिहे म कहलि किलेसें विट्ठउ ॥१४॥ पिता ने अधिनम को स्थिरता दी है।" पत्ता- इतने में वहाँ नारद पहुँचे (और वोले)-"तुम दोनों अकारण मत लड़ो, परस्पर गोत्र का नाशकर वह कौन-सी स्थिति है जहाँ तुम शुद्ध होते हो ?॥१३॥ नारद ने दोनों को रोक दिया । जिस प्रकार भघा और रोहिणी के उत्तर में प्राप्त मंगल मेधों को रोक देता है, उसी प्रकार पहुँचते हुए मुनि नारद ने कालसंवर और कामदेव को हटा दिया (यह कहते हुए) कि लड़ते हुए दुनिया में तुम्हारी निन्दा होगी। पिता और पुत्र के बीच युद्ध कैसा? तपस्वी की वाणी दुलंध्य का भी लंघन करनेवाली होती है । दोनों युद्ध बन्द करके स्थित हो गये, पितृत्व और पुत्रत्व का सम्मान करते हुए। प्रज्ञप्ति के प्रभाव से, कालसंबर का अतुल बल सैन्य उठ खड़ा हुआ। तब महामुनि कहते हैं-कि यह किस तरह यहाँ पहुँप सका ? यह घरमशरीरी है, सामान्यजन नहीं है, कामदेव और हरिवंशरूपी आकाश का चन्द्रमा ___घता—सीमंधर स्वामी ने कहा है कि असुर के द्वारा ले जाया गया और तुम्हारे (कालसंवर के) द्वारा बड़ा किया गया यह रुक्मिणी का वही पुत्र है जिसे मैंने बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार देख लिया ॥१४॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एयारहमो सग्गो] [१३७ पेसिउ परवरणियपट्टमहो। रिसि अक्सर पिगि-गंधणहो॥ कि वहवें वाया-वित्वरेण । जिह अखिउ सिरिसीमंघरेण ।। शिर परिभमिझोलि भनार: पावंतउ दुक्सापरंपरई॥ जिह केसवका संभाविउ । जिह धूमफेउ वाणवेण णिउ ।। जिह कहिमि सिलालि सणिमित । जिय खयर पिय हे समहलविउ ॥ जिह सोलह वरिसई वबगयई। जिह सिद्ध विज्जाहर पथई ।। जिह बदरि-सेण्णु सर जज्जरिउ । जिह कंचनमाला-कुच्चरित॥ जिह पह-कोपग्गि-समणं गयई । जिह लखाई कामएबपपई॥ धत्ता—सिंह सयलु वि बुझियउ तर जाह बेहि अवडणु । जाम भाम गउ हप्पिणिहो सई भुहि करा सिर मुंजणु ॥१५॥ इस रिगुणेमिचरिए धवलइयासिय सयंभूएषकए पज्जुण्ण लीलावण्णणो णाम एयारमो सग्गो॥११॥ राजा कालसंवर को अपने घर भेज दिया गया । महामुनि रुक्मिणी के पुत्र से कहते हैं"बहुत बाणी के विस्तार से क्या, जिम प्रकार श्रीसीमधर स्वामी ने कहा है, जिस प्रकार तुम जन्मान्तरों में घूमे हो और दुःख-परम्परा को प्राप्त हुए हो, जिस प्रकार नारायण के तेज से उत्पन्न हुए हो, जिस प्रकार घूमकेतु दानव के द्वारा ले जाये गये, जिस प्रकार शिलातल पर रखे गये, जिस प्रकार सोलह वर्ष बीते, जिस प्रकार विद्याधर पादुकाएं सिद्ध हुई, जिस प्रकार तीर से शत्रु-सैन्य को जर्जर किया, जिस प्रकार कंचनमाला का दुश्चरित था, जिस प्रकार राजा की क्रोधाग्नि शान्त हुई और जिस प्रकार कामदेव का पद स्वीकार किया, घता-वह सब जान लिया। अब शीघ्न जाओ और (मां को) आलिंगम दो, कि जब तक सत्यभामा अपने हाथ से रुक्मिणी का मुण्डन नहीं करती।"॥१५॥ . इस प्रकार धवलइया के आश्रित महाकवि स्वयंभुदेव द्वारा विरचित अरिष्टनेमिचरित में प्रद्युम्न की लीला-वर्णन नामक म्यारहवां सर्ग समाप्त हुआ ॥११॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहमो सम्गो पवरविमाणाहदु संचस्तु कुमार महत्वा । सञ्चहे छापाभंगु रुप्पिणिहे मणोरष्ठ णावद ।। छसिप-भिसिय-कमंडल-भार। पुच्छित वम्महेण रिसिणारत ।। कहि कहि ताय सतावणु। किह मायहे भावः ।। भणइ महारिसि कि बित्थारें। सुगु अपसमितं जेण पयार। सच्चाहाम महएवि पहिस्ली। रुप्पिणि-रुप्पिणि पुणु पच्छिर ली। ताहं विहि मि चकिय णामहं । हूय होड तुह मारि-भामहं ।। जाहि जि जटप्सु परिणेसइ। सो मुंडिए सिरि पाउ ठसह ॥ कुविउ कामु गुणगण-गरुयारी । का परिहवाइ जरि महारो॥ तहो तोडम सिरु विरस रसतहो। सरण पवज्जइ जइथि कयंसहो। . -..-. .-. .-. .-.-- .विशाल विमान पर जास्त कुमार चला । वह ऐमा शोभित होता है जैसे सत्यभामा की कान्ति का भंग और रुक्मिणी का मनोरथ हो। छत्र, आसन और कमंडल को धारण करनेवाले मुनि नारद से कामदेव ने पूछा-“हे तात ! फहिए कहिए, शरीर को संताप पहुंचानेवाला माता का मुण्डन क्यों ?" महामुनि कहते हैं, "विस्तार से क्या? सुनो, मैं कहता हूँ कि जिस कारण मुण्डन होना है। सत्यभामा पहली पत्नी है । रुक्मिणी, रुविमणी बाद की पत्नी है। यश से अंकित नाम वाली तुम्हारी माँ और सत्यभामा दोनों में यह होड़ हुई कि जिसका बेठा पुत्र विवाह करेगा वह दूसरी के मुंडे हुए सिर पर अपना पर स्थापित करेगी।" यह सुनकर कामदेव कुपित हो गया-गुणसमूह से महान् मेरी माँ का पराभव कौन कर रहा है ? मैं, मुरी तरह चिल्लाते हुए, उसका सिर तोड़ दूंगा । भले ही बह यम की शरण में चला जाए। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारहमो सग्गों] घत्ता-~-एम भणेवि कुमार संचलिउ विम्मापाणे । दोसइ णहयले जंत में रावणु पुष्फविमाणे ॥१॥ चलिउ महारिसि समउ कुमार। णं मयसंछणु सहुं सवितारें॥ घिण्णिवि तेजवंत उबसोहिय। गंणहभवणे पईचा बोहिय ।। पट्टणु ताव दिठ्ठ कुरुणाहहों। कलिकालहो कलुस सणाहहो । णियडिज सग्गखंडणं सुवि । थिउ षणयबाम विच्छुट्टिनि ।। णा जगणरु अावासिज । सुदर सुरवरपुरहो पासिउ ॥ हिं पायार णहंगण लंधा। पुरुउचएस जेम दुल्लंघा॥ जहिं सुंदर-मंदिरइं अप्लेयई। चंदाइच-समप्पाह-तेयई॥ केत्ति बार-बार बोरिलज्जाइ । हस्थिणायउर कहो उमिज्जा ।। पत्ता-तहि पर एत्तिउ दोसु हरिवंतमहहह-कोहण । छुम्मत दुण्णयवंतु जं वसई छुट खोहण ॥२॥ णयर णिएंवि णियरहसु ण रक्खह । पुच्छट् बालु महारिसि अश्खइ ॥ पत्ता- जिसके हाथ में विद्या है ऐसा कुमार इस प्रकार कहकर चला । आकाश में जाते हुए वह ऐसा मालूम होता है मानो पुष्पक विमान में राषण हो ।।१।। कुमार के साथ महामुनि भी चले, मानो सूर्य के साथ चन्द्रमा हो । दोनों ही तेजस्वी और शोभित थे, मानो आकाश के भवन में प्रदीप आलोकित कर दिये गये हों। इतने में कलिकाल, कलंक से युक्त कुरुराजदुर्योधन) का नगर दिखाई दिया, मानो स्वर्णझण्ट ही टूटकर गिर पड़ा हो, मानो अलग हुआ कुबेर का घर हो, मानो कामदेव का नगर बस गया हो । सुन्दर सुरपुर के चारों ओर आकाश के आंगन को लाँघने वाला परकोटा था, जो गुरु के उपदेश की तरह दुर्लध्य था । जहाँ अनेक सुन्दर प्रासाद थे—जो सूर्य और चन्द्रमा के समान आभा और तेज वाले थे। बार-बार कितना कहा जाए, हस्तिनागपुर की किससे उपमा दी जाए? पत्ता-परन्तु एक दोष है कि जो उसमें हरिकुल रूपी महान सरोवर को क्षोभित करनेवाला, धुर्मद, दुनय वाला दुर्योधन निवास करता है ।।२।। ___ नगर को देखकर प्रद्युम्न अपना हर्ष नहीं रख पाता। बालक पूछता है और महामुनि कहते हैं Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४.] [सम्भूएवकए रिठ्ठणेमिचरिए कि परणिहि धिरणिहुं] अंगई कटरयाई । णउ-उ घण्णा कणिसुम्भश्या। फिर महि-घिहुरभार थिउ उच्छन । गन-उतर-आराम-समुच्चड़ ।। किह उत्पल्लिवि उहि परिष्टुउ [अहिदुर] । णज-मउ परिहावलज परिटिज ॥ किह हिमवतु महंतु महोहरू। उ-पउ पुरपायार मगोहर ॥ कि हिमगिरि-सिहरई हिम] धवलई । पउ-णउ मंदिराई छुहलवसई ॥ किह मेहउलई महियाल-पत्ता। ण उ-गउ गयविदई मयमत्तः। किह तरंग मयरहरहो केरा। ज-भाउ अतुल-पर। ॥ घत्ता-किह थलभिसिणी भावद विसिय ई सेयसयवत्तई। पउ-णजससिषयलाई आपईवज्जोहण-छत्तई १३॥ इत्यु अराह राह-रग-रोहण । णिषसइ कुश्व राजगुञोहणु ।। "क्या ये धरती के रोमांचित अंग हैं ?" "नहीं नहीं, उटे हुए अग्रभाग वाले धान्य हैं।" "क्या यह धरती का उठा हुआ केश-समूह है ?" "नहीं नहीं, वृक्षों उद्यानों का समूह है।" "क्या यह समुद्र उछलकर बैठ गया है ?" नहीं नहीं, यह परिखावलय है।" "क्या यह महान हिमगिरि है।" नहीं नहीं, यह सुन्दर नगर-परकोटा है।" "क्या ये हिमगिरि के हिमघवल शिस्त्र र हैं ?" "नहीं नहीं, मुषा(चूना )से घलित मन्दिर हैं।" "क्या ये मेघकुल धरतीतल पर आ गये हैं ?" नहीं नहीं, ये मदमत्त गजसमूह है।" "क्या ये समुद्र की तरंग हैं?" "नहीं नहीं, यह कुरु के तुरंगों की परम्परा है।'' पत्ता-"क्या यह स्थल-कमलिनी शोभित है या श्वेत कमल खिले हुए हैं ?" "नहीं नहीं, ये चन्द्रमा के समान धवल दुर्योधन के छत्र हैं ॥३॥ यहाँ पर शत्रु-राजाओं से युद्ध करनेवाला कुरुराज दुर्योधन निवास करता है-- Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहमो सग्गो] [१४१ सच्चहे पक्खिउ दुग्ण यवंत। तेग विवाह जोउ आउत्तउ ।। उहिमाल वर विक्कम सारहो। देसद पिय-सुय भागुकुमारहो ।। मंगलतरू एउ ओ वज्जा । पंणव पावसे जलणिहि गावाइ । पुरवरे रक्क्षावपउं बट्टइ । एसिउ कुजणत्त पयट्टा ॥ एप विवाह साहितुहावणु। होसह तुहणणहे भहायशु ॥ सं णिसुणेवि कुमार पलित। णं बवरिंग बुधवाएं पित्त ।। रिसि सविमाणु मुएप्पिणु तेसहे। पइसह कुश्वराय-पुरु जेप्तहे॥ पत्ता-कामिगि-फामहं काम धुत्तहं अभंतरे पुत्तु। जगड पट्टषु सम्बु बारविहि कम्पिगि पुतु ॥४॥ सो पणत्ति-पहाय बालद। पइसह हस्थि होइ गयसालउ ॥ मयमल-मयमुअंत फेडाधिय । भगालागस्तंभ ओसारिय ।। पुरे पहसर बासु बडुवेर्स। जोइज्जह डिभयहि बिसेसे ।। वीहियवाविमारई भइ। जलु सुबइहि गिण्हहंग लम्भह ।। सत्यभामा के पक्ष का और दुर्नयी । उसने विवाह का योग प्रारम्भ किया है। विक्रम में श्रेष्ठ भानुकुमार को वह अपनी कन्या उदधिमाला देगा। यह मंगल तूर्य बज रहा है, मानो नवपावस में समुन गरज रहा हो। पुरवर में रक्षा का प्रबन्ध है । यह कुरु की बारात जा रही है, यहाँ उसका अशोभन विवाह होगा और तुम्हारी माता का सिर मुंडा जाएगा । यह सुनकर कुमार भड़क उठा, मानो आग को तूफान ने छू लिया हो । महामुनि को विमान सहित वह छोड़कर, जहाँ कुरुराज का नगर था वहाँ प्रवेश करता है। पत्ता-कामिनियों और कामों का कामदेव, और धर्मों के बीच में धूर्त शक्मिणी का बेटा अनेक रूपों में सारे नगर से झगड़ा करता है ॥४॥ प्रज्ञप्ति के प्रभाव से वह बालक हाथी बनकर गजशाला में प्रवेश करता है और मद छोड़ते हुए मंगल गजों को नष्ट करता है। उसने आलान लूटे) नष्ट करके हाथियों को हटा दिया । नानक बटु के वेश में नगर में प्रवेश करता है। बालकों के द्वारा वह विशेष रूप से देखा जाता Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ [ सयंभूएवकए रिटुणेमिचरिए सम्बई भोयण आगरिसाई। बंभणाण अवसपणाई वरिसई॥ वहगुण वणिहिं अग्धु बावद। गं तो बहरूहि कड्ढावा॥ सो पर णाहिं जो प खलियारिउ । पट्टणि एम करंतु दुबालिउ ॥ घसा-गउ वज्जोहण जेत्थु, फरे माहलिगु टोइजइ। तेण वि पुगु सयधार पिपमाणुस जिह जोइम्जा ॥५॥ जसु-जसु डोय कुरुपरमेसर । सो-सो भणइ देव एउ विसहर ॥ भंडागारिएण ण समिच्छउ । देव प भालिगु ऍउ विच्छिन । पुच्छिन्तु वियाहि अपइ । वक्षु पंडिउ पयंडु पाउ कंपह।। हर पीयंबरजणणे जायज । करणस्थिउ तुम्हहं पर आयउ ।। परिरक्खंति अन्जु जद देव चि । मई परिणेची अवसे लेय वि ॥ तहि अवसरे दुजोहन-राणो । जहहिमाल णामेण पहाणी। पेसिय ताए महतरि ढुक्की। .- .... - - है। बाबड़ी के लम्बे द्वारों को अवरुद्ध करता है। युवतियों के द्वारा जल ग्रहण नहीं किया जा सकता । उसके द्वारा सारा भोजन खींच लिया गया। श्राह्मण लोग अप्रसन्न दिखाई देते हैं। भिक्षुकों के द्वारा दसगुनी पूजा सामग्री बढ़वा देता है और नहीं तो, अनेक रूपों में निकाल लेता है। वहीं कोई ऐसा आदमी नहीं था जिसे तंग न दिया गया हो। नगर में इस प्रकार ऊधम करता हुआ, - घसा-बह वहाँ गया, जहाँ दुर्योधन था । उसके हाथ में बिजौरा नीबू था । उसने भी उसे सौ बार प्रिय मानुस के समान देखा ।।५।। बह कुरु परमेश्वर जिस-जिसको नीबू देता है वह वह कहता, "हे देव, यह विषपर है।" भण्डारी ने भी उसे नहीं चाहा, वह कहता है- "हे देव, यह नींबू नहीं है।" विद्वानों द्वारा पूछे जाने पर वह बोलता है कि "मैं वटु पण्डित हूं और प्रचण्ड हूं, में कांपता नहीं। मैं पीताम्बर पिता से उत्पन्न हुआ हूं और अन्यार्थी होकर तुम्हारे घर आया हूँ। यदि देव भी आज रक्षा करते हैं, तब भी में अवश्य ही कन्या को लेकर रहूंगा।" उस अवसर पर दुर्योधन की उदधिमाल नाम की प्रधान रानी थी। उसके द्वारा भेजी गयी महत्तरी (उदधिकुमारी) पहुंची। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहमो सग्गो] यामहेण मृयालेचि मुक्को ।। जउ गीस याद परसपणा (उ)। बासु णिरारिउ गुण-णियाणा (1) ॥ पत्ता-जुज्ज होवि पइद्छु पंडिलेण संवि वह हाथिय । पुण वरयत्त छलेग अवहरिवि रिमाणि चढाविय ॥६॥ तहि अवसरे संगनाइ साहणु । रहकर तुरय महागय-वाहणु ॥ . विण तूर विडिय कलपल । वणु दप्पहरण पहरण कलयलु ।। कम्पिगि-सगएं चित्तम सहावें। मोहिल बलु पात्ति-पहावें॥ जो-जो हुक्का तं-तं चप्पेवि । अपहिमाल कुरुष इहे समप्पेथि ।। रिसिं उच्चइ बह रुप्पिगिणवणु । काई अकारणे किउ करमणु ।। एम भणेवि वधि गय तेत्तहे। पंडवराअ-पहाणउ जेल हे ।। रहबर-तुरम-गइंद-विमाणेहिं । घय छत्तहि अणेय-पमाणेहि ।। दप्पग-वहि वृध्ययन सेसहि । प्राइहब मंगल-कलस-विवसहि ॥ कामदेव ने उसे मूक बनाकर छोड़ दिया। उसकी वाणी नहीं निकलती, वह संज्ञा से बोलती है। बालक गुणों की अत्यन्त प्रशंसा करता है। पत्ता-बौना होकर प्रविष्ट हुए भाई ने बहू को ले जाकर नहलाया। फिर वर के छल से उपहरण कर उसे विमान में चढ़ा लिया ।।६।। उस अवसर पर जिसमें रथवर, तुरग और महागजवाहन है, ऐसी सेना तैयार होती है । . नगाड़े बजा दिये गये। फलकल बढ़ने लगा। दानवों के दर्प का हरण करनेवाली, शास्त्रों की आवाज होने लगी। विषम स्वभाववाले कनिमणी के पुत्र ने प्राप्ति के प्रभाव से सेना को मोहित कर लिया। जो जो उसके पास पहुंचता है उसे उसे चौपकर उदधिमाल कुरुपति को सौंपता है मुनि ने कहा-वह रुक्मिणी का बेटा है। तुमने अकारण मारकार क्यों की?" यह कहकर वे दोनों यहाँ गये जहां पाण्डवराजाओं का प्रमुख था । रथवर, तुरग और गजेन्द्र और विमानों, ध्वज-छत्रों, अनेक प्रकार के दर्पण, दही, दूर्वा, अक्षत और शेष, अत्यन्स उत्सवमंगल कलश विशेषों के साथ। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] [सयंभूएवकए रिट्ठणेमिचरिए घत्ता-पुच्छिउ कसमस रेण कहि ताय-साय कि सेर । दोसा संशवारउ उहु संघसंत कहो केरउ ।।७। तो यम-विणय-परवकम-शुत्तहो । कहइ महारिसि गम्पिणिकुत्तहो । एट सो चबके उ-कमलाउछु । पंकय-दल करन्छि-पंकय-मुह ।। पंचवजेट सुट्ट विझायज । षम्मपत्त धम्मुच्छधे जायज । हीसह विधि जाप्त पंचाणषु । ऍछ सो भीम भीम-भवभंजणु । जसु सोवण्णमा पर पार ऍह सो अज्जुणु पवरचण्डरु ।। ओय जमल थिय अग्गिमधे । रिज णासंति जाहं रणु गंधे ।। गरणंदहे णंबहे उप्पण्णी। कंघणमाल-कला-संपुग्णो । सच्छहाम तणयही बलसारहो। दिग्जह लगी भाणुकुमारहो । पत्ता-तं णिसूणेवि पन्जण्ण तरबेल्लियाउलयमगए । ससर-सरासण-कृत्यु षाणुगक होवि थिउ अग्गए ||८|| ससर सरासण इत्यु पक्किा । हणारायण केरउ सक्किउ ।। सक्कषि महपहण पघद्रह। णं तो मई समाण अभिट्टा ।। पत्ता-कामदेव ने पूछा- "हे ताल, हे तात, बताइए चुप क्यों है ? बह जातामा स्कन्धावार किसका है?" ||७|| तब वय, विनय और पराक्रम से युक्त रुक्मिणीपुत्र से महामुनि कहते है, "जिमके ध्वज में चन्द्रकेतु है ऐसे कमलायुध, कमलदल के रामान कर, आँखों और कमलमुखबाले पाण्डवों में सबसे बड़े अत्यन्त विस्यात यह धर्मपुत्र (युधिष्टिर) धर्म-उत्सव में उत्पन्न हुए थे। जिसके चिह्न में सिंह है ऐसा बड़े-बड़े योद्धाओं का मंजक यह भीम है। जिसके स्वर्ण-महाध्वज में वानर है, बह यह प्रवर धनुर्धारी अर्जुन है। स्कन्धावार के अग्रिमभाग में वे नकुल और सहदेव स्थित हैं, जिनको गन्ध से युद्ध में शत्रु नाश को प्राप्त होते हैं। मनुष्यों को मानन्द देनेवाली नन्दा से उत्पन्न स्वर्णमाला की कला की तरह सम्पूर्ण (उदधिकुमारी) बल में श्रेष्ठ सत्यभामा के पुत्र (भानुकुमार) को दी जाने लगी है। घत्ता-यह सुनकर प्रपम्नकुमार वृक्षों और लताओं से आच्छादित रास्ते में बनुष और वाग हाथ में लेकर धनुर्धारी के रूप में स्थित हो गया ।।। यह बोला, "तीर और धनुष जिसके हाथ में हैं ऐसा मैं नारायण का कर उगाहनेवाले के रूप Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहम गो] तं णिसुणेवि णउल सहदेव ह । परिचय पाच व लेह ॥ रण आठ धोरु जियवालें । गरु उत्थरिज महालरजालें ॥ far वम्मण मोर घाइउ । सो वि परजिड कवि ण घाइउ ।। धम्मसु आयाम जाह कोहि कह महारिति तावहि ॥ बहुरुप्पिणि-बणु नगरद्धछ । तुम्हे कलह काई पारढछ । एम भणेवि बेवि गणवें । गय वारवइ पत्त सिद्धे ॥ ent - पेक्खिवि मयण विमाणु हरियंत्रण चंवण- विउ । धुकरोहिणं ममहणपूरेण पश्वि ॥ ६॥ णार हे सबिमाणु परिद्विज । भोउन! बाराव पट्ठ मयरउ । मायाकड-भाउ भारत ॥ एक्कुवि मिम्मि दुल घोल । तिसिह बासु समवतु विथोउ ॥ सो मोकलिउ र तुरंत । वश्वलंतु सलिलं सोतु ॥ उबवणु भाणुकुमार केरउ [ १४४ में आ पहुंचा हूँ मुझे कर दो और रास्ते से जाओ, और नहीं तो मुझसे युद्ध करो।" यह सुनकर, जिनका प्रताप और अहंकार बढ़ रहा है ऐसे नकुल और सहदेव ने भयंकर युद्ध शुरू किया, लेकिन बालक के द्वारा जीत लिया गया। तब अर्जुन बाणजाल के साथ उछला। वह भी कामदेव के द्वारा जीत लिया गया। भीम दौड़ा, वह भी पराजित हुआ, किसी प्रकार वह मारा भर नहीं गया। धर्मपुत्र ( युधिष्ठिर) सचेष्ट हुए ही थे कि इतने में महामुनि ने कुन्ती से कहा"यह रुक्मिणी का पुत्र कामदेव है। तुम लोगों युद्ध क्यों शुरू किया ।" यह कहते ही वे दोनों ( नारद और कामदेव ) आकाश के मार्ग से गये, और आधे पल में द्वारावती जा पहुँचे। - कामदेव का विमान और चन्दन से चर्चित हरि के पुत्र को देखकर श्रीकृष्ण का नगर ध्वजचिह्नों की उठी हुई माहों के बहाने मानो नाच रहा था || ने नारद आकाश में विमान सहित स्थित हो गये, मानो आकाश में दूसरा सूर्य उदिस हुआ हो । कामदेव ने द्वारावती में प्रवेश किया। उसने मायाषी कपटभाव प्रारम्भ किया । उसने एक दुर्बल घोड़ा बनाया, प्यासा कि जिसे समुद्र भी थोड़ा या । उसने उस घोड़े को तुरन्त छोड़ा, तु खाता हुआ और पानी सोखता हुआ । भानुकुमार के जनों के मन और नेत्रों को आनन्द देने वाले Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] [सयंभूवएरिचिरिए धामणणयगाणंजर ॥ माया- मक्कण बिसि । मर-फुल्लफलपतु विणा सिउ ॥ कोह व अगंगु होषि पुरु मोहा । पायरियायण मणु संखोह ॥ कवि विज्जु कहि मि मित्तउ । safar भूमिवेज अतिउ ।। ताभण सई जिर्णवि उवह गंपि अगास । सच्च अंधरे रख तं चिप्पड़ पाई हुवासने ॥१॥ भोयणु भुजेवि पाणिउं सोसि वि. सहि अतु मंतु अधोसेवि ॥ बुद्धासें इस तह । पण भणु मणोहरु जेतहि ॥ ताम ताए सुनिमिस दिषं । मितियहं जाई उच ॥ कोइल - महर - मनोहर जंपत्र 1 अंबर मरि-फल्लिउ-पक्कड 11 सुक्कवायि असभरिय खतरि । पत्तागम् विठु सिविणंतरि || जाय बुज्ज- पंतु बहिरंघई । रूगमण-सबणच्छि समिद्ध ।। ताम पराउ गयणाणंदणु । खुहावेसे केसव-व || उपवन को माया मर्कट (बन्दर) ने विध्वस्त कर दिया। उसके मौर, फूल, फल तथा प नष्ट कर दिये। कहीं पर वह कामदेव बनकर नगर को मोहित करता है, तथा नगर स्त्रियों के मनों को क्षुब्ध करता है। कहीं पर भवनवासी देव, कहीं पर नैमित्तक और कहीं पर जनेऊ पहने हुए बहुत से ब्राह्मण । चला -- संकड़ों ब्राह्मणों को जीतने के लिए वह अय-आसन पर जाकर बैठ जाता है और सत्यभामा के घर में जो भोजन बनाया गया था उसे जैसे आग में डालने लगता है ॥ १० ॥ भोजन कर और पानी सोखकर तथा वहाँ अनन्त मन्त्र की घोषणा कर क्षुल्लक के देश में उस स्थान पर प्रवेश करता है जहाँ रुक्मिणी का सुन्दर भवन है। उस अवसर पर उसके द्वारा (मणी के द्वारा) अच्छे निपित्त देखे गये, कि जिनका पूर्वकथम ज्योतिषियों ने किया था। कोयल और भी सुन्दर बोली, आम में बौर आ गये, वह फल गया और पक गया । सूखी बावड़ी एक क्षण के भीतर भर गयी। सपने में उसने पुत्र के आगमन को देखा। बौने, लंगड़े, बहरे और अन्धे रूप, गमन, श्रवण और आँखों से समृद्ध हो गये। इतने में नेत्रों को आनन्द देनेवाला केशवपुत्र ( प्रद्युम्न) भूल्लक के रूप में वहाँ पहुँचा और तुरन्त कृष्ण के आसन पर T · Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४७ बारहमो सग्गो] कहासणे उबठ्ठ सुरंतउ। थंभिउतेण घरमि वस्त्रंतर ॥ पत्ता - सोसिड सलिलु असेसु हरि-मोयम-सहासाई दिण्णाई। तेहि मि बालु ण अग्बाइ सूयार-सयई णिविण ॥१६॥ तहि अवसरि आयज हक्कारिउ। सम्हहं सिर-भद्दावण-बार ॥ सो चंडिल्तु कुमार तस्जिद। मुंडिय जणु सिरेण विसरिजन। मायर' कुट्टगि-णिबाहु सतूरउ । माया-गयवरेण किट चूरउ ।। अवर महत्तर अट्ट पराश्य । ताउ बंधवि भह घाइय॥ आयउ गप-कुमार विभारिउ । मायासीहें कहव क मारिउ ॥ सावलेउ धसुएउ पराइट। मायामेसें कहति ण धाइउ ॥ आयऊ जरफुमार रिज-भषु । ताम वारे थिउ मायबंभगु ॥ सो पदसाय व वैध कुमारहो। मोक्ख जेम चउगह-संसारहो ॥ धत्ता-भण उहि भणंत चरणे धरेग्यणु कढइ । ____णवर पिरारिउ पाउ रिण जिह सकलंतक वह ॥१२॥ बैठ गया, उसने जलती हुई घर की आग स्तंभित कर दी (रोक दी)। घसा-उसने सारा पाची सोख डाला, उसे कृष्ण के हजारों लड्डू किये गये, परन्तु बालक उनसे सन्तुष्ट नहीं हुआ। सैकड़ों रसोइये खिन्न हो उठे ॥११॥ ___ उस अवसर पर हलकारा आया कि तुम्हारे सिर के मुण्डन कराने का अवसर है। उस नाई को कुमार ने डाँट दिया। उसे सिर से मुंडकर छोड़ दिया । सूर्य के साथ दासी समूह आया। मायावी हाथी ने उन्हें चूर-चूर कर दिया । और भी दूसरी बड़ी-बड़ी वासियाँ आयीं। उन्हें बोधकर उस भद्र ने आहत कर दिया । विस्मयजनक गज का बच्चा (कलम) माया, परन्तु मायावी सिंह ने उसे किसी प्रकार मारा भर नहीं । अहंकार के साथ वसुदेव आये, परन्तु मायावी मेष मे उन्हें किसी प्रकार आहत भर नहीं किया। शत्रुओं को रोंधनेवाला जरत्कुमार आया, इतने में द्वार पर एक मायावी ब्राह्मण खड़ा हो गया। वह कुमार को भीतर नहीं घुसने देता, उसी प्रकार जिस प्रकार चार गतिवाला संसार मोक्ष को प्रसार नहीं देता। यता-'हे ब्राह्मण; उठो' कहते हुए उसे पर से पकड़कर जरत्कुमार खींचता है, परन्तु वह पौव कर्ष की तरह, केवल कला प्रति कला मढ़ता जाता है ॥१२॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] [सयंभूएवकए रिटुमिचरिए आयज कामवाल हक्कारित । कोका गिरि-गोववणधारउ॥ तहि अवसरि विजापरिवाल । घिउ फारायगवेसे वाला। गड़ सविलक्ष णित्तिविहलपर । एल्यु जे तहि ते मि वे भार्याह । मइ वेयारहि पाएवि माहि ।। एम अणदणु कोवे बहाविर। मच्छङ्घ गुरुकु कोधि मायाविज ॥ तरई वेविले अस्पते। संघ वि अंधेवि परत पयत्ते ।। शाम संणजम जायत्र-साहणु। नामाकरण माहिम नाह ह्य पडपडह पसारिय कलयलु । तब लच्छि-लंछिय-बस्छस्थल ।। धत्ता-प्पिणि लेवि वासु थिउ गाहाले भडकडमरण । कहङ्क महारिसि ताहें इह माए तुहारउ पंरतु ।।१३॥ तो पविय बेषि थग मायहें। कंतु वेह पोसारण वायहे ॥ हरसंसयहो उरत्यलु तिम्मिउ । बाल णिय-बलसणु निम्मिउ ।। लघु पमोहरे गावं घगडा। ताखणे णवबुधाण भयरबार । बुलाया गया कामदेव आया । गोवर्धनपर्वत उठानेकाले उसे पुकारते हैं। इस अवसर पर विस का परिपालन करनेवाला बालक नारायण के वेश में बैठ गया । बलराम को लज्जित घूरकर चला गया। जिस प्रकार यहाँ उसी प्रकार वहाँ भी मतिभ्रम पैदा करनेवासी माया से दो भागों में स्थित होकर उसने इस प्रकार जनार्दन को आग-बबूबा कर दिया । लगता है कोई मायावी भा गया है। सूर्यो को बजाकर शीघ्र उसे अशात्रभाव से पकड़ लो। सेंधकर बांधकर प्रपालपूर्वक पकड़ लो, जब तक मादवसेना तैयार होती है। हथियार उठा लिये श्ये, कल-कल प्रसारित कर दिया गया, तब तक जिसका वक्ष लक्ष्मी से अंकित है, पत्ता-ऐसा मोद्धाओं को चकनाचूर करनेवाला कामदेव बालक प्रद्युम्न सक्मिणी को मेकर आकाश में स्थित हो गया । तब महामुनि नारद उस (रुक्मिणी ) से कहते हैं--"हे मादरणीये, यह तुम्हारा पुत्र है।" ॥१३॥ तब माँ के दोनों स्तन भर आए, वाणी निकालने के लिए कण्ठ देती है। हर्ष के आसुओं से उसका उरस्थल गीला हो गया । बालक ने अपना बचपन निर्मित किया, और दूधपीवे. बच्चे की तरह पयोधरों से लग गया। उसी क्षण वह नवयुवक कामदेव बन गया। तपस्वी (नारद) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४६ बारहमो सगो] पभणइतबसि पेक्यु परमेसरि। जायवगयहं भिडंतज केसरि ।। तहि अवसरे बल हुक्की हूयउ । माई कयते पेसित वयउ॥ सो सहसत्ति कुमार पेल्सिउ । णिच्चलु मोहिषि भिषि मेल्लिउ ।। केण वि कहिउ गपि गोदियहो। वुदम-वाणव वेह-विमद्दलहो ।। देष-वेव साहण तह केरन । रण जहि केण वि शिव विवरेरउ ॥ असा हरि रहे चकित तुरंतु सारंग-विहास्यु पावा । महिहर-सिरि सचाउ गज्जत महाधणु णाषद ॥१४॥ बुदम-दारुण-दणु-तणु घायण। विष्णियि भिडिय मयण-णारायण ।। विविवि पंजमहाहिक अंघज । चिण्णिावि मयरकेड गाउ विणिधि सुरघर-णयणाभवण। विण्णिवि रुप्पिमिरेवडणवण ।। विणिवि समरसएहि-समत्या। कसभषणु-सारंगविहत्या ॥ विग्णिवि पयल महियल-गामिय। मेहकूस-दारापद-सामिय॥ विहि एक्कु वि ण एमोवागह। विहिं एक्कहो विण पहरणु लग्गह ॥ कहते हैं:-"हे परमेश्वरी देखो, यादवरूपी गजों से यह सिंह लड़ता है। उस अवसर पर बलराम एकदम पास पहुंचे मानो यम ने अपना दूत भेजा हो, तो कुमार ने सीघ्र उन्हें हटा दिया और मोहित स्तंभित कर, निश्चल छोड़ दिया। किसी ने दुर्दम दानयों का दमन करनेवाले गोविन्द से जाकर कहा, "हे देव देव, तुम्हारे सैन्य को युद्ध में किसी ने विपरीत-मुख कर दिया है।" पत्ता--श्रीकृष्पा रथ पर चढ़कर तुरन्त धनुष हाथ में लेकर दौड़ते हैं, मानो महीधर के शिखर पर इन्द्रधनुष सहित महामेघ गरज रहा हो ।।१४।। दुर्दम और भयंकर दानवों के शरीरों का घात करनेवाले मदन और नारायण दोनों आपस में भिड़ गये। दोनों ही देवदरों के नेत्रों के लिए आनन्ददायक थे । दोनों क्रमशः रुक्मिणी और देवकी के पुत्र थे। दोनों सैकड़ों युद्ध में समर्थ थे, दोनों के हाथ में कुसुमधनुष और सारंग थे। दोनों आकाशतल और महीतल पर विचरण करनेवाले थे। मेघकट और वारावती के स्वामी थे। दोनों में से एक, एक पर आक्रमण नहीं कर पाता पा । दोनों में से एक का अस्त्र एक को नहीं लगता था । इतने में दोनों के बीच नारद आ गये (मौर बोले), "हे नारायण, यह Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०) [सयंभूएवकए रिटुणेमियरिए अंतर ताम परिष्टुिर पारख । एह पारायण पुत्तु नहारउ ॥ जो बालत्तणे असर रियउ । एन भणेवि महियलि मोपरियड ॥ घता--तपक्षणे महमहङ्गेण परिहरिवि घोर समरंगणु ! पिम्भरणेह-बसेण सई भुहि दिग्ण आलिगण ॥१५॥ इस रिटुमिचरिए धवलइयासिय सबभूवकए पञ्जुग्गमिलमणणो ___णाम बारहमो सग्गो ॥१२॥ -. तुम्हारा पुत्र है जिसका अपहरण बचपन में असुर ने किया था।" यह कहकर वह धरतीतल पर आ गये। पत्ता–मधुसूदन ने उसी क्षण घोर युद्ध-प्रांगण छोड़कर, परिपूर्ण स्नेह के वश होकर अपनी मुजाओं से उसे आलिंगन दिया ॥१५॥ इस प्रकार धवलहया के आश्रित स्वयंभूदेव कृप्त अरिष्टनेमिचरित में प्रद्युम्न-मिलन नामक बारहवां सर्ग समाप्त हुआ ॥१२॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहमो सग्गो पुरि पइसारिय उ परिणाविउ बालउ । कुरवा - गरबद - सुन - उबहिहीमालउ ॥ णारायण-णयग-मणोहिराम । पच्चारिप हप्पई सच्चाहाम " कोई मानवहिणि मुबाम अज्छु । भवामि सिह किर कवणु घोज्न । रक्षहु तुहकेरउ सामि सालु। महसूअण अवह कामवालु ॥ अह संभरु भागकमारुपुत। भद्दावणु बरिसावमि णिहसु ॥ तं वयम् सुप्पिा भगद भाम । पयभंगप्पाइस तिविह पाम ।। णियणक्षण-गवणि जइवि जाय। किह सह महें गीरिय वाय॥ जो मउ गउ कालसरेण खड़। आवाय जि कहि पई गुत्त लक्ष । वेयारिय आएं तावसेण। मह मजा लिय तामसेण ॥ पत्ता--सच्चा चिर गयउ कहि वीस गंदणु। भामए भामि पउ भम" भमन जणदण ।।६।। - वसे नगर में प्रवेश दिया गया और कुरुराज की पुत्री बाला उदविमाला से उसका विवाह कर दिया गया। छ। नारायण के नेत्रों के लिए सुन्दर रुक्मिणी ने सत्यभामा को ललकारा-'हे बहिन ! तुम्हें आज नहीं छोडूंगी, तुम्हारा सिर मुश्वाऊंगी। इसमें आश्चर्य की क्या बात ? स्वामीश्रेष्ठ मधुसूदन (कृष्ण) कामबाला की रक्षा करें । तुम अपने पुत्र भानुकुमार की याद करो। निश्चित ही सिर का मुंडन दिखाऊंगी।" ये वचन सुनकर सत्यभामा कहती है तीन तरह से तुम्हारा वचन मंग हुआ है । मद्यपि तुम अपने पुत्र से गर्वीली हो रही हो, फिर भी तुम्हारे मह से यह बात कैसे निकली? जो मर गया और काल द्वारा खा लिया गया, अचानक उस पुत्र को तुमने किस प्रकार पा लिया ? इस तपस्वी (नारद) ने तुम्हें प्रवंचित किया है और तुम्हें मुझे भिड़ा दिया है ।" पत्ता-सचमुच बहुत समय से गया हुआ बालक कहाँ दिखाई देता है। सत्यभामा के द्वारा घुमाए गये जनार्दन धूमते हैं ।।१।। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] [सयंभूएवकर रिट्टणेमिरिए परिचितिवि णर-सुर-घायण । सुररिसि-कारखणारायणेण ।। सविषय-गुण-क्यणे हि एम वुत्तु । पई जाषिउं किह मासणउ पुत् ॥ सपकेय-षिसत्य-मणाभिराम । पत्तियाण केमवि सच्चहाम ।। तं णिसुवि पभइ अवश्चारु । जाहिकालि गवेसिउ मई कुमार ॥ तहि कालि गरिगिगि पइछ । सोमंधरसामिल गपि दिछु । सहि पउमरहेण रहँगिएण। विकमसिरि रामालिगिएण ॥ पणवेप्पिणु परमजिणिवु-वृत्त। कि कीडन क गरु एह गिरत्तु ॥ गयणंगण-गामिउ गुणस्तमिव । पारायण-णारउ इह पसिद्ध । पत्ता-बारावारिहि चक्कवर जगदगु । साइवषसेण तहो विच्छोइउ पवण ॥२॥ णिसुतहो मह परमेसरेण । धक्कवइहे अक्खिउ मिणवरेण ।। धणषण्ण-सुवष्ण-जण-पय-गामें। जंबूचहेता सारिलगामे ।। इस बात का विचारकर, मनुष्यों और सुरों का घात करनेवाले नारायण ने विनयगुणवाले वचनों से देवर्षि नारद से इस प्रकार कहा—'आपने किस प्रकार जाना कि यह मेरा पुत्र है? अपने घर में विश्वस्त रहनेवाले जनों के लिए अभिराम इस पर सत्यभामा किसी भी प्रकार विश्वास नहीं करेगी।" यह सुनकर सुन्दर नहीं बोलनेवाले नारद कहते है- जिस समय मैंने कुमार की खोज की थी, उस स.. मैं पुण्डरीकिणी नगर में प्रविष्ट हुआ था और जाकर सीमंघर स्वामी के दर्शन किये थे। वहां पर पसरथ चनावर्ती ने-जो चिकम लक्ष्मीरूपी रमणी का आलिंगन करने वाला था—प्रणाम करके परम जिनेन्द्र से कहा-"निश्चय से यह मनुष्य कौन-सा कीड़ा है ? " उन्होंने कहा- "आकाश के आंगन में गमन करने वाले गुणों से समात्र यह प्रसिद्ध नारायण के मूनि नारद हैं। पत्ता-दारावती नगरी में जनार्दन चक्रवर्ती हैं। देव वश उनके पुत्र का ३५.: हो गया है।" ॥२॥ मेरे सुनते हुए, परमेश्वर सीमंधर स्वामी ने चक्रवर्ती से कहा-"जिसमें धन, न्य, स्वर्ण, अनपद और गांव है ऐसे शालिग्राम में दो सियार थे। दुर्वात और अनवरत वर्षः और अपनी लम्बी आयु छोड़ने के कारण दोनों भरकर उसी गांव में सोमवत्त और अग्गिला ब्राह्मण Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 'रिट्ठणे मिर्चारउ' में आये हुए कतिपय शब्दों के अर्थ पहला सर्ग १. जायब कुरुव-कस्बुप्पट-यादव-कौरव-काव्योत्पल । हरिबलकुलणयलससहरहो-हरि और बल राम के कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा । यह और आगे के पद 'तित्थंकरहो' के विशेषण हैं। कल्लाण-णाणगुणरोहणहो- . पाच कल्याणों [गर्भ, जन्म इत्यादि] ज्ञानों और गुणस्थानों में रोहण करने वाले। णिचणिरामम-नामरवासणहो- अत्यन्त सुन्दर पामरों और छत्रोंवाले। या वासत्तणहो-वर्षायाण वस्सत्तण>वासप्तणहो । उप्पण्णाहा–उत्पन्न हुई आभा। २. हरिबंसमहण्णउ--- हरिवंश-महार्णव । गुस्वयण-तरंडउ>गुरुवचनतरंड-~गुरुवचनरूपी नौका । णायर--मात:, ज्ञान प्राप्त किया। परिमोक्कलन-परिमुक्तः, खोला। सरसइसरस्वती। इंवेण–इन्द्र ने, ऐन्द्र व्याकरण के आदिप्रवर्तक । भरहेण-भरत के द्वारा। रस सम्प्रदाय के प्रवर्तक और नाट्यशास्त्र के रचयिता। वासे-व्यास के द्वारा। पिंगलेणपिंगलाचार्य के द्वारा, छंदशास्त्र के प्रवर्तक । भंमहें-..भामह के द्वारा, प्रसिद्ध संस्कृत समीक्षक। पंडिगिहि-दण्डी ने । थाणेण- बाणभट्ट ने। सिरिरिसे-श्रीहर्ष ने। चउमुहेप-चतुर्मस्त्र में, स्वयंभू के पूर्ववर्ती पद्धडिया काव्यशेली के आविष्का । ससमय-स्वसमय, स्वमत । परसमय--परमत । भडारा-आदरणीय (भट्टारक): . ३. विवरेत--विपरीत । सुवा-श्रूयते, सुनी जाती है। गारापणु-श्वीकृष्ण । परहोमर की, अर्जुन की। महाभारत के अनुसार नर और नारायण एक ही तत्त्व के दो रूप हैं जो अर्जुन और कृष्ण के रूप में अबतार लेते हैं । अदारजणिया-कारजनित अर्थात् जो वास्तविक पत्नी न हो, अन्य स्त्री से उत्पन्न । महाभारत के अनुसार घृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर राजा विचित्रवीर्य के क्षेत्रज पुत्र थे, अर्थात् उनकी विधवाओं से नियोग द्वारा उत्पन्न हुए थे । व्यास के नियोग से वे उत्पन्न हुए। कोलिहि-कुन्ती के। शूरसेन की पुत्री, राजा कुन्तीगेज की दत्तक कन्या सिद्धिनामक देवी के अंशा से उत्पन्न । कुन्ती राजा कुन्तीभोज के यहाँ ....... की सेवा में नियुक्त थी । सेवा से सन्तुष्ट होकर दुर्वासा ने उसे मन्त्र दिया । कुतुहल वश वह सूर्य का आह्वान करती है। उससे कर्ण की उत्पत्ति होती है। पण्डु संन्यास ग्रहण करता है । उसके आदेश से धर्म, वायु और इन्द्र के द्वारा कुन्ती से क्रमशः युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन का जन्म होता है। ___४. एक—एक के द्वारा (शूरसेन के द्वारा अंधकवृष्णि पैदा) हुए। महोपरियारसमान उदर से उत्पन्न बहिर्ने। ५. वासहोतणिय--व्यास को बहिन। परिणिय... परिणीता । जग्गाई मि गाउ--उग्रों में Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] [सयंभूएबकिउ रिट्ठणेमिचरित उग्र। भोसियकंघहो—भार से ऊँचे कन्धे वाले। रयाणिहाणाबद्ध-समियो-आधे-आधे रत्नों और खजानों से समृद्ध । भणुरमाणी-समान । ६. द्विग्रहो—स्थितस्य, उद्यान में बैठे हुए गंधमायन के। बरिसावियपरममोक्खपहहोजिन्होंने परममोक्ष पथ को प्रदर्शित किया है। णियभवंतर---अपने जन्मान्तरों को। णिपणामुम्पत्ति परंपरष्च-अपने स्थान उत्पत्ति और परम्परा को। पर पहंतु घरे-नरक में पड़ते हुए (मुझे बचाओ। ७. विक्खंकिय--दीक्षांत किया। महुराहिउ-मथुराधिप । लत्ता–अलक्तक । खिजाइ --खिद्यते । पइंधणई-परिधान । दुखलढोर इन-दुर्बल ढोरों के समान । धदल मे ढोर का विकारा हुआ । घाउल घोल धोर> ढोर । ८. उपाय-(उप--याच)-मनौती । पसेइयज-प्रस्वेदित। चच्चर- वत्सर, प्रबूतरा । णिभरणेह-णिबंधविसु . -स्नेह निर्भर निबन्धचित्त । ६. कुवारें-'पाइयसहमहण्णव' कोश में 'कूव' देशी शब्द है जिसका अर्थ है..-घुराई हुई चीज की खोज में जाना। 'वार' अपभ्रंश काव्यों का विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है । स्व० डॉ० पी० एल० वैद्य के अनुसार 'फवार' का पर्याय पूवार है। पुरुपदन्त के महापुराण में इसका प्रयोग है णरणाहहु कय साहुद्वारें। ता पयगय सयल वि कवारें। किसी अत्याचार या कष्ट के निवारण के लिए प्रजा सामूहिक रूप में ताजा के पास करुण पुकार के साथ निवेदन करने के लिए जाली है उसे ऋवार बहते हैं। उम्मडियई-उपशोभित । परउल-उत्तियाई-दूसरे कुल की पुत्रियां। १०. कोक्किन--पुकारा । अलियसणेहे--अलीक स्नेह (भूरे स्नेह से (उच्चोलिहि-गोद में । पच्छण्ण-पउत्तिहि--प्रच्छन्न उक्तियों के द्वारा । संपइ - संप्रति; इस समय । फेलोहरए.-- फेलिगृह में । वायागुत्तिहि-वचनगुप्तियों के द्वारा । वसृएव-गइंदु-वसुदेव गजेन्द्र । विणयंफुसेग-विनयरूपी अंकुश द्वारा। ११. समतहणु...समालभन, विलेपन । १२. मसाणय-रुमशान । गाइयं-सात। महोगहोवसेवियं.....महीमह सेवित, ब्राह्मणों द्वारा सेवित। चियग्गिजालमालिय–विताग्नि की उदालमालाओं से युक्त । णिसायरेक्क-कवियंनिशाचरों के समूह से आक्रान्त। १३. सत्तग्रिहे--सप्ताचि के, आग के । बल्लियई-डाल दिये (क्षिप्तामि) । साहरणईसाभरणानि, भूषण सहित । के कण्णउ-दो कन्याएं। दूसरा सर्ग १. परणेपिण--परिणय, विवाह पार । रण्णयं-- अरण्य, वन । चंदाइच्च-मंडल - चन्द्रादित्यमण्डलम् । सलिलायत्तु- सलिलावलं । गयणाणंबयर-नयनामन्दकर, नेत्रों को आनन्द देने वाला। २. सत्यविच्युरलाई-प्राणि समूह से पूरित । सत्य–स्वत्व । मच्छ-कच्छ-विट्टलाई Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I परिशिष्ट ] [१६३ मत्स्यों और कछुओं से व्याप्त । मत्तत्थि टोहियाई - मतवाले हाथियों से प्रकम्पित । भी-तरंगभंगुराई- भय की लहरों से भंगुर मारुष्पवेबियाई दवाओं से प्रकम्पित । सुर-रासिबोहिमाई - सूर्य की किरणों के लिए बोहित (नाव) के समान | अहिणववासारितुहि-अभिनव वर्षा ऋतु में ३. कर- पुक्कर- रिचुंबिय पयंगु – हाथ की तरह सूंड से जिसने सूर्य को चूम लिया है (करपुष्करपरिचुंबित पतंग) दळतोसारिय-सुरग इंदु - दृढ़ दन्तोत्सारित सुरगजेन्द्र, जिसने अपने मजबूत दाँतों से ऐरावत को हटा दिया है । उद्धिरसणभीसणवार -- पराभव करनेवाला और भीषण रूप धारण करनेवाला साहारण- साधारण जाति का गजेन्द्र सो आर वह आरण, मारण्यक अर्थात् जंगली हाथी । ४. जोह - घोढा । चवचयति कहता है । परिअसे- परिरमण, आलिंगन में । ५. कुल-पीछे लगी। परिलिज - प्रतिस्खलित हो गया। खंडसरेण-क्षणान्तर में। क्कु पहुँचा। इंदिणु इन्द्रियों के वर्ष का दमन करने वाले । - - - अन्त । ६. खेड - खेद भूमि भूमिदेव ब्राह्मण। बिज पर – द्विजवर पंडरिय-गेहू-पंडरित गृह, भयखघर 1 चंप - चम्पानगरी। णिक्षम रिद्धिपत्त - निरुपम ऋद्धिपात्र । भूगोयर सय – भूगोचरशतानि सेकड़ों मनुष्य । मरट्ट - अहंकार | ७. कोइ अभिवाद्य ढोक्तिनि उपस्थित की गयीं । यल्लक्ष्य- -वल्लकी, बीणा । तंविज्जुशिरा कराग और पभ तीर्थकर चलखग - बहुलपक्ष नभ, कृष्ण पक्ष का आकाश । संवतार - मन्द है तारे जिसमें (आकाश), जिसके तार (स्वर) मन्द हैं. ( वीणा ) । ८. कुसुमाउहसरे हि — कामदेव के सरों से । जीवग्गगुत्तिए - जीवन को लेनेवाले कठघरेथें । तरुणोयणघणमवणेण-तरुणीजनों के स्तनों के मर्दन द्वारा फरगुणणंबोसर - फाल्गुन- नन्दीश्वर । सिरिवासुपूज्नजि-जत्त – श्रीवासुपूज्य जिन की यात्रा | 2. लक्ष्णजला ऊरिय विसोह-लावण्य जल से आपूरित दिशाओं का समूह। कसबें कौ के साथ। दुहिय - दुखिता । पूएं सूतेन सूत के द्वारा। शायद -- ध्यायति, ध्यान करता है । १०. मउम्मत - मदोन्मत्त | तिलोयग्गामी – त्रिलोक के अग्रभाग पर चलनेवाले । करेणु — हथिनी सहित । ११. कुमारकएण-- कुमारकृतेन कुमार के लिए पासेअ - प्रस्वेद । दाहिणि सुरहि मन्दुदक्षिण सुरभित मन्द (पवन) । माए – आदरणीये । सुसुत्त - सुख से सोते हुए । - तीसरा सगं १. कयि आकर्षित किया। याणहो घुमकी- स्थान से चूकी हुई। साय- विट्ठीनतक्षकगीष की दृष्टि के रामान । जियसामिणि अणुतग्गी-अपनी स्वामिनी के पीछे लगी हुई । २. कंषण मंचन – स्वर्णमंच से मदान्ध । धयरदुषि-- धूतराष्ट्र भी । करिणि चोपकरणी (हथिनी ) प्रेरित की। पडत-नगाड़ावावकों । सवर्णेवियहं श्रवणेन्द्रियों को । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] [सयंभूएवकिउ रिट्ठणेमिचरिउ ३. पडिच्छा---प्रतीक्षा करती है 1 सम्वहो चंगज-सबसे अच्छा है। सम्बाहरणविहूसियअंगर—सभी प्रकारों के गहनों से विभूषित शरीर । चिरचंदायणि-चिष्णहो-चिर चादनी के चिह्न वाले, चन्द्रमा के। ___४. आदत्तमहापडिवो-महाप्रतिवन्य प्राप्त करनेवाले । सण्णिय—संकेत किया । उद्दालहो --- छीन लो । रयणाई संभवति महिवालहो- . रत्न महीपाल के ही सम्भव होते हैं। यमपहेयमपथ पर । वप्पभडकलमहर्ण- दर्प से उद्धतों को मदित करनेवाले। रणरहसणुररएं--- युद्ध के हर्ष और अनुराम से। ५, परिणिउ-परिणीत । वश्वस-महिससिंगु--यम के भैसे का सींग । उद्धकधणिबहुऊर्ध्व धड़ों का समूह । दापुतालह-दर्प से उद्धृत । ६. धूलिवाउ-धूसिराई--धूलि और हवा से घूसरित। आव होह-जज्जराई-आयुध ओघ (समूह) से जर्जर। सोणियंब रेल्लियाई-थोणित-अम्ब (रक्त-जल) से प्रवाहित । णित-अंतनोमलाई—जिनकी आंतें और शेखर ले जाए गये हैं, ऐसे सैन्य । विवा-विपक्ष में। सवरखे-स्वपक्ष में। ७. चड्डिय-प्रवलेोहिं—जिनका अवलेप (अहंकार) बढ़ रहा है। अखंधिय-बग्गेहिजिन्होंने वल्गा (लगाम) खींच रस्त्री है । आसवार—अश्वारोही। आयषत्त-आतपत्र, छत्र। ८. पउंडे-पौण्ड ने। षणु हत्थे--जिसके हाथों में धनुष है ! संघ-संघान करता है। णायवास-नागपाश । णिय सत्तुष्पत्तीगहो—अपना शत्रु उत्पन्न होने के कारण दीन हुए का। लवखणहोणहो-लक्षणों से रहित का। ६. प्रसरालउ-लगातार । अजस्रतर अअसर अर असरार अससल । "कैसव कहि कहि कृकिए न सोइए असरार"-कबीर । 'र' का 'ल' में अभेद होता है । कमवहे-क्रम पथ में, पैरों के रास्ते में। १०. पेक्खयलोएं—प्रेक्षकलोक के द्वारा। णराहिषसत्ते-नराधिप के सत्व द्वारा अक्ससे -अक्षाशभाव से। पिहिविपरिवाले—पृथ्वीपाल ने । समरमरोड्डियखंघहो--जिसके कंधे युद्ध के भार से उठे हुए हैं। ११. स्तवक्कु-दंतवक । मुन्छपरागिर-मूछी को प्राप्त हुआ। मरि-रक्खिय जोयजमृत्यु से जिसने अपने जीवन की रक्षा की है। ससस्लु-शल्य सहित । ओणुल्ल उ--लुढ़क गया । परप्पद-प्रभवति, समर्थ होता है। जरीनश्णु-जननी का पुत्र । विहिगारज-धृतिकारक, धर्य दिलाने वाला । महाएउ-मेरा। १२. दिण्ण आसि—दत्तं आसीत्, दिया हुआ था। छापाभंगु–कान्तिभंग । सामियाल-अबचितए-स्वामीश्रेष्य के अपचिन्ता करने पर। १३. सुहद्दारवि-थणंषय-सुभद्रादेवी के पुत्र । भागालाणखंभ म मयगल—मानो, ऐसा मदमाता गज जिसने आलानस्तंभ उखाड़ दिया है। सासयएरवर-गमणमणगिय--दोनों मोम नगर की इच्छा रखनेवाले हैं। १४. सुहवंगरहपहाणे--सुभद्रा के सबसे बड़े बेटे समुद्रविजय ने वैशाख स्थान से तीर मारा। दुहंड-द्वि खंड । पटवा- प्रेषित करता है। चिण्णइ---छिन्न-भिन्न कर देता है। बोहउ-उपस्थित हुआ। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] १५. बरिसस हो— सो वर्षों में आज्ञा को टाल दिया है ऐसी कुसुमवा [ १६५ कुकलत्तु - खोटी स्त्री । ओसारिय- पेसणु - जिसने कुसुम वर्षा वर्षा वस्तावास । L चौथा सगँ १. परिणेपिणु-परिणय कर हमकारियई- बुलाया । परमाइरिङ- परम आचार्यं । जिटिव - विद्यार्थी । घरबलिउ घर से निकाला हुआ। वणव्वमहणिवारण दानवों के दुमदेह का निवारण करनेवाले । सिम्खड - शिक्षित, शिक्षा दी। बत्त-वार्ता | विय - विवृत, कंपित २. परवे—ि घेर लिया। सीसत्तणरवखही - शिष्यत्व रूपी वृक्ष का । परमहलु - परमफल । लद्वपसंसे— प्रशंसा प्राप्त करनेवाले । - २. खंडल मंडल यर मिठु – इन्द्र के नगर के समान । श्रासत्तु --- अलवित: कहा । मुविहसिए - मुद्रा से विभूषित । ४. कलियारउ — कलह करने वाला। सत्बई - शास्त्रों को जबूदहेमृत्युच्छलिय हाथ उठा दिया। ५. उदधे घेरा डालकर या आक्रमण कर । चादण्णलाइ चातुर्वर्ण्यफलानि चार वर्णों के फल वोसरह - विस्मरति, मूलता है। ससपडिवण्णी - स्वसृ प्रतिवर्णा, अपनी बहिन के समान । गुरुदविष्वण्ण — गुरु-दक्षिणा । . तिष्णाणधरु – विज्ञान के धारी। गंभीर भए – गम्भीरता से । षोरमए-यं से । परिय-चर्या के द्वारा। धू ध्रुवं ७. गग्गर-सर गद्गद स्वर पउमवइ- अंगण --- पद्मावती के पुत्र निश्चय से । वणम्फइ – वनस्पति । वणमवें- बनगेन्द्र के द्वारा । ( कंस ) ने । ८. सोहल - शोभाकर सुखकर या सुतवत् ( सुहल्ल सोहल ) । कलमलउ बेचनी । इयहं दयिता के । सल्लिम – पीडित । अन्यत्थियउ – अभ्यर्थित | ६. रयाजलि – जिसने अंजली बना रखी है। थोत्तुगादि- रतोत्र में जिसकी वा निकल रही है ऐसा | पहरे --- पतिगृह में । १०. धणणदणजोवणइतियहं धन, पुत्र और यौवनवाली स्त्रियों का उयह — उदर । जिगर - कहिय जिनवर के द्वारा कही गई । ११. अल्लविय -- अर्पित कर दिया । माए- आदरणीये । महराज - मेरा । मत्याल जिह मस्तकशूल के समान । -- तद में । १२. नारायण चलणंगुट्टहब - नारायण के अंगूठों से आहत होकर कयत्यकिय—कृतार्थ किया । १४. वामयरंगु - रसायण - वामेतर ( दाएँ) पैर के अंगूठे के रसायन से । पाँचवाँ स १. reey - दिखने पर । रणंगणकखए युद्ध के प्रांगण की आकांक्षा से । विरह--- वियति देर करती है। रिट्ठकंतु-अरिष्टकंक, अरिष्ट कौला । अवइष्ण अवतीर्ण होने पर Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] [सयंभूएवकिउ रिट्ठणेमिचरिउ २. परचित्तई-दूसरों के चित्तों को । अलियउ-अलीक, झूठमूठ । णिरायउ - अत्यन्त । बोरंजइ–गरजता है । विउजाणे-जागने पर। २. पम्वइयज–प्रजित। अग्गि-कवारउ- अग्निकू पार । कूवार का प्रयोग सभी अपभ्रंश कवियों ने किया है। कल्पवृक्षों के नष्ट होने पर प्रजा ऋषभ तीर्थकर के पास जाकर कहती है : 'एक्कदिवसे गय पय धारें वैव देव मुन मुक्खामारे-पउमचरिउ, २-८ हिन्दी शब्दकोश कूवार का विकास संस्कृत कूपार से मानते हैं पाहअसमहृण्णव' में कैवार के लोन अर्थ हैं: जहाज का अवयव, मुख्य भाग या गाड़ी का अपमय जिस पर गाड़ी का जुआ रस्या जाता है । 'कुवार' का अपभ्रंग माहित्य में विशिष्ट प्रयोग है, जिसके मूल शब्द का अनुसन्धान अपेक्षित है। ४. नणंतरि-क्षणांतर में । समसुसि--वज्र । पाडिज्ज- पाड़ा जाय, गिराया जाय । वाइया-- दौड़ी। हाईवेसें-घाय के देश में। आस-क्षप्त , डाल दिया। माइ3-समाता ५. पण वंति-(प्र-| स्नु, पन्हाना) पनहाती हुई ।माहब-रुहिरपाण-भाघव के रक्त का पान । परिचत्तर-परित्यक्त । मसंधरिहे—पृथ्वी का । ६. उपकंदर-ऊँचा । समंबर--स्वमन्दिर, अपने घर में । थोवे काले- ..थोड़े समय में । पवणवणीय-हस्थ. नवनीत के समान हाथथाले । ७. संदणवेसे -- स्पंदन के रूप में। दिम-संवाणियचंबकेहि --विस्तीर्णता में जिन्होंने चन्द्रमा और सूर्य को पराजित कर दिया है। मरिठ्ठ-अरिष्ट, वृषभ ।। . भगगीज-भानग्रीव । अवरकमेण-दूसरे पर के द्वारा । कात्ति-कड़कड़ करके । वादेहवलण-अवविण्हें-दानव की देहदलन में अवितृष्ण । सरत्तियई- मात रातों में । ६. परिबढिय बुद्धई-जिनका दूध बढ़ रहा है, ऐसे गोप । वारिप-कंचुयद्धयण-सिहर– जिन्होंने कंचकी से आधे स्तन का अग्रभाग दिखाया है। णारायणसिपहे-णिसपट-नारायण की श्री में स्थित । महग्घयत--महाषंकर। १०. पीयलवासृ-पीतवस्त्र । आण--आझा, शपथ । पाउ—प्रस्नुत । ११. अवहत्य करिषि –अपहस्तं कृत्वा, हटाकर । कंसहो पासिय-- कंस की ओर से। छुट्टा-छूटती है । वसुमई-~वसुमती। १२. सच्चहामधरहलणिमित्त – सत्यभामा के वर के कारण । णित्तओ.---निश्चय से। १३. समास-साध्वस, भय । बेलि-घेरकर । चिति-चिन्सा करो। छठा सर्ग १. पहज-प्रतिज्ञा। ललिवलय-जलय-कुवलय-सबष्ण-भ्रमर समूह, मेघ और नील कमल के समान रंगवाले । फठिगि—कटिनी, मेखला, करधनी । संसोहिम-संक्षुब्ध । २. विसमलील-विषम लीला बाला । फणामणि-किरणजालु—फणामणियों के किरण जाल बाला। विससिय-जग्ग-काल-पवाह--विष से दूषित जल का प्रवाह । अवगविगय Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] [१६७ पंणाणा - जिसने विष्णु स्वामी की अवहेलना की है । उरजंग मेण - नाग के द्वारा । ३. उ गाउ पाउन नागः ज्ञातः सपि मालूम नहीं पड़ा । परमचारु – सर्प | फणकपु- - फलो का समूह विडम्फट-विकल | ४. पियस्य अपने वस्त्र गाउ नाग गिल्लगंड – आर्द्रगंड | वीयउ – द्वितीय । महणे--- मन्धन होने पर | ५. जायवा वि-मादव भी । णेवावियाई — ले जाए गये। घल्लावियाई - बाल दिए गये I मुट्ठिय-मुष्टिक | ६. बोलाविय— बोल का सामान्यभूत। इसके दो रूप हैं-- बोल, बोल । 'ल' द्वित्ववाला रूप भी है, बोल्ल बोल्ल । बोल्ल का एक अर्थं गुजरना या अतिक्रमण करना भी है। जैसेयह फल बोल गया है, यानी सड़ गया है, खराब हो गया है। सोरा उहु-सीरामुन, हलायुध, बलभद्र । भूभूसिय-भौंहों से अलंकृत । कुशाद--पुकार एक सम्भावना यह है कि कूवार के मूल में कोक्का राद हो, कोषकार पुकार कोक्कार को आर कूवार, पुकार, गुहार । ७. रोहिणि देव तरुहेहि रोहिणी ओर देवकी के पुत्रों ने धो-धोबी (धोवक > arasi) | freeरवाहवर यावसाणु – जिसने वस्त्रों में लगी हुई धूल का अन्त कर दिया है ऐसा (धोत्री का विशेषण ) 1 कडिल इं— कटिवस्त्र । 1 ८. लावण्णमहाजलभरिय भुमण – लावण्य के महाजल से जिन्होंने विश्व को आपूरित कर दिया है । अप्फोटणश्व महिरिय नियंत—आस्फालन के शब्द से दिगन्त को बहरा बनर देनेवाले | संघरसंचार - महाणुभाव – जो मन्द मन्द संचलन से महान बाशयवाली थी। मंडणप्रशाधन | विजेवि - विभक्त करके । ६. थोवंतरि थोड़े अन्तर से 1 कलि- प्रसित किया जाता है। वारण- हाथी के द्वारा । सावि-वि- खिलाकर । करिविसाणु हाथीदाँत । ११. सावण्णमेह - सावन के मेघ अपि असित पक्ष, कृष्ण पक्ष कंबो- नीलकमल । अंजणपश्वय- अंजन पर्वत । महामइव – महामृगेन्द्र | १२. सासह शासक का । जसलाह हो कहो - यश के लोभी कृष्ण के | भामरोह - मल्लयुद्ध की क्रियाएँ । पोडणेहि हाथ की कैंची निकालना, करण, चक्कर खाना, हाथ से चोटें मारना, पकड़, पीड़न । १२. श्रवण विठु – विष्णु अवतीर्ण हुए जमलजुण हवस भंगु यमलार्जुन वृक्ष 1 भंग । १५. कट्टण काटना | सेलियध्वं महत्व – जिसके हाथ में पश्वर का खम्भा है ऐसे, श्रीकृष्ण । महुर · मथुरा । कुसलासलि बाय — एक दूसरे से कुशल समाचार पूछने का काम हुआ । - सातवाँ स १. विणिवाइए – विनिपात होने पर । बाहाविउ -- जोर-जोर से चिल्लायो । वसुजलल्लिय लोयणिय - अत्यधिक अश्रुजल से गीले नेत्रों वाली । अंह- समप्यह्यणजुनकमन्न के समान प्रभावाले नेत्र युगलवाली । -- २. वाइयउ कट्टा | महोरय-विसमरणु-महोरग के विष का नाया। भगवइहे - भगवती Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] के । पाहिला जुने-- प्रथम युद्ध में । ४. कालथवणु----कालयवन । कुलिसाहयउ — कुलिशाहत हरिभयगम — सिह्भयगत । पायार - प्राकार। विसिवविसिहि दिशाओं- अपदिशाओं में । [सयंभूवकिरिमिचरिउ ६. एक्को एक उदर से उत्पन्न, सहोदर । सविणहिउ तैयार हो गये। महोबट्टेधरती के मार्ग में । अकुलोण धरती में नहीं समानेवाला, जो कुसीन न हो, अप्रतिष्ठित । कुलीन - बरती में समाने वाला, प्रतिष्ठित 1 ७. दारुणहं-रणहं भयंकर युद्ध में रहू - रथ समावडिउ – आ पड़ा। बद्धामरिसजिसने क्रोध किया है । ८. रगमूहि युद्ध में । बंधुरयेण बन्धुबान्धवों ने विसाणु – लीग | पवारललकारता है । ६. सह-सामने। सज्सु-साध्य | अवकमइ आक्रमति, आक्रमण करता है। अनंतें श्रीकृष्ण द्वारा कमकर सिर-चरण कर और सिर । ११. पज्ञ प्रतिज्ञा । चउरंगाणीया लंकरियउ - चतुरंग सेना से अलंकृत । मग्गाणु लग्गु मार्ग में पीछे लगा हुआ । १२. चीज – चिता । उम्मुरियड मूच्छित हो गयीं। तहोतणेण मण- उसके भय के कारण । आठवाँ सगँ १. ललिय-लक्ष्मी | कोटह— कौस्तुभ उदालित उद्दालितः, छीन लिया। सरह -- सरभ, वेग से । सरियउ सरितः, हट गया। धगर-धनद 1 -- २. सरदार शौर्यपुर के दशाई में ज्येष्ठ माहूट्ट – अर्द्धनि, साढ़े तीन पहरणभरियगत्तु - जिसका शरीर हथियारों से भरा है। सक्काएसे शक के आदेश से उप्यज्जेसह उत्पन्न होंगे। ३. सिववि गम्भही सोहणं शिवादेवी के गर्भ का शोधन करने के लिए। सवाहणावाहनों सहित | पक्कयाउ - पहुँची : ४. पाविक प्रत्येक । चञ्चविसाणु चार दांतों वाला बुरूपमाणु - युक्त प्रमाण वाला । रिस-रंखोलिए- पुच्चा ईर्ष्या से पूंछ को हिलाता हुआ बैल। सुरकरि अहिसारीऐरावत पर चलने वाली । विट्ठल - लक्ष्मी देखी। ५. परिमल परिमितिय चललि मुलु– पराग से मिले हुए चंचल भ्रमरों से मुखर जलयर - जीव-म्- जलचर जीवों को जन्म देनेवाला । केसरिविट्ठर — सिंहासन भोइंदथाणु- भोगीन्द्र स्थान, नागलोक । - ६. कंतिल्लु क्रान्ति से युक्त । छुहारि नियच्छए – चन्द्रमा के दिखने पर 1 तिणाणीतीन ज्ञानों से युक्त सणु सणसणाहु- सूक्ष्म शरीर से युक्त । ८. मयणइ पखालिय-गंडवासे मद नदी से जिसके गंडस्थल का पार्श्वभाग प्रक्षालित है ऐसे ऐरावत पर । सिक्कार-मारआऊरियासे – जिसने सीत्कार की हवा से सभी दिशाओं को आपूरित कर दिया है। ऐरावत का विशेषण। सत्ताबीसर को डिस- सत्ताईस करोड़ | Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [166 अप्सराओं के साथ / रणवर्णण-आधे से आधे क्षण में। 6. दुहिवमाल-इंदुभि का शब्द / सिक्कार-णिणाउ–घाद्य विशेष का शरुद। सिवाय वलएण-त्रिवातवलय के द्वारा। सयसक्र —सौ टुकले। 10. वसुबह-वसुपति, कुबेर / णीसरेहि--नरेशों के द्वारा। नौवाँ सर्ग 1. छत्तिय भिसिय-फमंडल-हत्य-छत्ता, आसन ओर कमण्डलु जिनके हाथ में है, ऐसे नारद / जोगवट्टया किय-विरगह-जिनका शरीर योगपट्टिका से अलंकृत है।। 2. अवहि-अवग्रहों के द्वारा अवग्रह पारिभाषिक शब्द है। शरीरप्रमाण दूरी से आकर पूज्य व्यक्ति को प्रणाम करना अवग्रह है / कुंबलपुरहो होंतज-कुण्डलपुर से होते हुए। 6. किरणावलि घिव तरुविदहो ...जहाँ वृक्ष-सम.ह से किरण-समूह ग्रहण किया जाता है 1 मंदर--मंदराचल। दारइकसतोरबियतुरंगम-.-लकड़ी और चाबुक से जिसके घोड़े उत्तेजित हैं। सणए--संकेत के द्वारा / जउवण-यदुनन्दन, श्रीकृष्ण / 7. भिन्च-मृत्य। लडि-लकुटी। आजोसमण-आकोमा मनवाले। यम का विशेषण / ___६.णिइ-विस्थापित किया जाता है / सत्तताल --सप्न ताल / मुवावज्ज-मुद्रावज्र, अगूठी / असिगाहिणि-असत् को पकड़ने वाली। बाहिगिहे-वाहिनी को, सेना को।। 17. साइउ---आलिंगन / रुपिणीषिउप संतत्त—कफिमणी-वियोग-संतप्त, रुक्मिणी के वियोग से संतप्त। 11. पल्लवलवंतई–प्रबल रूप से बलवान। कंभयलोलोक्खल विदई-गंडस्थल रूपी चंचल ऊखल / 15. विमम्भाहिय-सुयकत-विदर्भराज की कन्या के पति, श्रीकृष्ण के द्वारा। ठहज्जइ-स्थाप्यते, स्थापित किया जाता है। परिछिज्जई-परिक्षीयते, क्षीण हो जाता है। असई--असती, कुलटा / 16. मिसि-पहरणु-निशा प्रहरण, निनास्त्र। सपबत्तई-शतपत्र, कमल / विषयत्यु-- दिन-अस्त्र / पाय-पहरणु-पन्नग-अस्त्र / नेइ-परि-चेदिराज ने। बहुरूवंतरिहिअनेक रूपान्तरों में। 17. सरकर-परिहत्थे - तीरों गौर हायों की क्षिप्रता से / सिरिवत्य -श्रीकृष्ण के द्वारा। चेइथे—पेदिपतिना, चेदिराज द्वारा समजालीहवउ- समज्जालीभूतः, ज्वाला के समान हो गया। बाइबस-बूबउ---यमदूत / थियउ-स्थितः। दसवाँ सर्ग 2. पडिबारउ-प्रतिबार, फिर से।दारीपद-विशाल कमल : तिरपण-विवज्जिय:पोरन से रहित / जविखलवेधे-पक्षदेव ने / जपलगामिपिउ-आकाशतलगामिनी। 3. सस-रहिन / लनुयारी-छोटी / रेवइह-रेवती को। पुन मोरह ---मनोरथ पूरा हुआ।