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________________ [सयंभूएवकए रिट्ठणेमिचरिए ते भिक्षिय परोप्पर दुध्धिसह। संचोइय, घाइय, पवररह॥ सिणिसुक्ष सरासण ताहियत । सुरकरिहि विसागु णं पारिपत॥ अणु लइउ अबर सरु विमिछयन। पसुएएं ताम पडिपिछयउ॥ तुम्हेंद्दि आसि संगाम किया। रोहिणि पाणिग्गहे को ण जिन ॥ एवहिं सो जिहाई सो जि सुह रह। सो अणुखर सो जिबाण-णिवहु॥ मामा- पम्मारह नाम नाम सिलीमहि लइज। पाडिउ सण्णाहु को ण णट्ट, लोहस्थिय ।। हतकारिउ ताम हलाउहेण। बलएएं अतिरि-लुखएण ॥ छुट रह पाहि वाहि सवर मह। पज अहण देहि पहाजहर॥ पश्चारइ जाम-ताम भिडियर । गिरिदहि व गिग समावषिर। बावरंति विष्णिव बारणेहि । मोहलत्यग-आकरिसहि॥ णयल जाजरिउ वसुंधर वि। विहिए कुषिए एक्कु सन्म पवि ।। विहि एक्कु विण एक्कु अषकमाइ । विहि एक्कु वि ण एक्कहों सरह ।। विहिए कुषिए एक्कु ण समा । ताडित होकर ऐसे गिरा मानो ऐरावत का दांत गिरा हो । उसने दूसरा अमुष ले लिया और उसपर तीर चढ़ाया । तब वसुदेव ने उसे फटकारा-."तुम लोगों के द्वारा संग्राम किया जा चुका है। रोहिणी के पाणिग्रहण में कौन नहीं जीता गया? इस समय वही में हैं और वही तुम, और घही रथ है, बही धनुर्धारी और वही बाण-समूह हैं। घसा-इस प्रकार जबतक वसुदेव ने ललकारा, तब तक उन्हें तीरों से ढक दिया गया। कवच गिर पड़ा, लोहार्थी (लोभ और लोहे का अर्थी) कौन नाश को प्राप्त नहीं होता ||८|| तब विजय-लक्ष्मी के लोभी हलघर श्री बलराम "शीघ्र रम सामने होको, यदि तुम मुख पीछे कर पग नहीं देते हो, इस प्रकार जब तक ललकारते हैं तब तक वह सामने भिड़ गया। मानो गिरीन्द्र पर दावाग्नि गिर पड़ी हो। वे दोनों वारण मोहनास्त्र और आकर्षण-अस्त्र से व्यापार करने लगे। आकाशतल और धरती दोनों क्षत-विक्षत हो उठे। दोनों के कुपित होने पर एक भी साध्य नहीं था। दोनों में एक भी आक्रमण नहीं कर सका । दोनों में से एक भी नहीं इटता।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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