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________________ ६२] ओरिज जयंतही लोयणा हुँ । पिउ सिव-सरी रितगुण- साहू | घला – पुण्णवित्तु कंति-संपृष्ण इंदणीलमणिपुंसवण्णउ । fe सिए [एक रिमिचरिए बेहतरि अलि जिह पजमिनी पंकसरि ॥ ६ ॥ बारहको विजयंसक्ख वसुहार पांडय घरे तीसपन ॥ 'पुण्णे मासे जिणु जणिउ धष्णु । साठि सामवष्णु ॥ चित्तरिव सुहलग्ग जरए जिम्मलविणे जिम्मलगयणभाए ॥ उष्णु भार सिवहे जाय । भाषण- वितर जोडलं ताव || संम्भवेागमण ताय । भाषणतिर ओइसहं जाय ॥ - मुणि-सहीणाय । जय घंट- सद्दु-से सामराहं । णं गउ कोक्कउ हरिपुरसुहं ॥ सहसलहो आसणकंप जाउ । सावद सेस सु आउ ॥ अक्षरावर कंवर्णगिरि-समाणु चित्र जंबूदीय- परिष्यमाणु ॥ स्वामी स्वर्गलोक से अवतरित हुए और सूक्ष्म शरीर से युक्त वे शिक्षा के शरीर में स्थित हुए। घसा - पुण्य से पवित्र कान्ति से सम्पूर्ण इन्द्रनीलमणि के समान रंगवाले वह शिवादेवी के गर्भ में उसी प्रकार स्थित हो गये, जैसे कमलिनी और कमल के पराग में भ्रमरः ॥ ६ ॥ संपुष्णे मासे जिन जणिउ घण्णु । सायण सियछट्टिए सामदण्णु ॥ चितरिक्ते सुह लग्ग जाए । णिम्मलदिने णिस्मलगयण भाए ॥ ये पंक्तियाँ 'अ' प्रति में नहीं हैं । वारह् करोड पच्चास लाख रत्नों की वर्षा तीस पखवाड़ों तक हुई। पूरे माह होने पर वह धन्य जिन ( शिशु रूप में) उत्पन्न हुए। श्रावण शुक्ला छठी के दिन चित्रा नक्षत्र में शुभ लग्न आने पर निर्मल आकाशभागवाले निर्मल दिन में आदरणीय जिन शिवादेवी के गर्भ से जिस समय उत्पन्न हुए उस समय भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिष देवों का आगमन क्षुब्ध हो उठा । शेष देवों द्वारा शंख, पटह (नगाड़ों) की ध्वनि, सिंहनाद जयघंटा शब्द होने लगा। वह of हरि के सम्मुख तक पहुंची। तब सहस्रनयन (इन्द्र) का आसन काँप उठा। वह धावकों और शेष देवों के साथ आया । स्वर्णगिरि के समान और जम्बूद्वीप के समान आकार वाला
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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