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(३३) केगे । बाद में उसे विश्वास हो जाता है और वह उनसे अपने भाई के प्राणों की भीस मांगती है।
युद्ध जीतकर श्रीकृष्ण रुक्मिणी के साथ द्वारिका आते हैं। एक दिन कृष्ण रुक्मिणी के द्वारा उगला हुआ पान वस्त्र के छोर में बांधकर सस्पभामा के पास जाते हैं। वह उसे सुगन्धित द्रव्य समझकर, पीसकर अपने शरीर पर मल लेती है। कृष्ण उसकी खूब हंसी उड़ाते हैं। सस्पभामा रुक्मिणी को देखने का आग्रह करती है। बह रुक्मिणी को मणिमय बावड़ी के किनारे खड़ाकर, सत्यभामा के पास माते हैं। और बोलते हैं, "तुम उद्यान में चलो, मैं रुक्मिणी को लेकर आता हूँ।" सत्यभामा आगे जाती है और कृष्ण पीछे-पीछे जाकर झाड़ी की ओट में छिपकर खड़े हो जाते हैं। पत्रिमणी आम्र की शाखा के सहारे पंजों के बल खड़ी हुई है, आंखें फलों पर हैं। सत्यभामा उसे देवी समझती है और अंजली से फूल बखेर देती है। वह अपने सौभाग्य की भीख मांगती है और सौत के लिए दुर्भाग्य । इतने में कृष्ण आ जाते हैं । रुक्मिणी सत्यभामा को प्रणाम करती है। दोनों में सुलह हो जाती है ।
हस्तिनापुर से दुर्योधन कृष्ण को खबर भेजता है जिसमें यह उल्लेख है—यदि मेरे कन्या हुई, तो दोनों रानियों-सत्यमामा और रुक्मिणी में से जिसके पुत्र होगा, वह उसका पति होगा। यह समाचार पाकर, रुक्मिणी और सत्यभामा में यह तय हो जाता है कि जिसके पुत्र न होगा उसकी कटी हुई केशलता को विवाह के समय परों के नीचे रखकर बरवधू स्नान करेगे । दोनों के एक साथ युन हुए परन्तु रुक्मिणी के पत्रजन्म की सूचना पहले मिलने पर वह बड़ा घोषित किया जाता है। धूमकेतु नामक असुर साक्मणीपुत्र प्रद्युम्न को उठाकर ले जाता हैं, और खदिरवन में तक्षशिला के नीचे उसे रखवार चला जाता है । मेचकूट नगर का राजा कालसंबर अपनी पत्नी फनकमाला के साथ उसे अपने घर ले जाता है। कनकमाला बालक को इस शर्त पर स्वीकार करती है कि उसे युवराज बनाया जाएगा।
जागने पर पुत्र को न पाकर रुक्मिणी खूब विलाप करती है। श्रीकृष्ण उसे खोजने का आश्वासन देते हैं। वह जैसे ही शिशु को खोजने का प्रयत्न करते हैं वैसे ही नारद आ जाते हैं, और उन्हें पत्र मिलने की आशा बंधाते हैं । नारद रुक्मिणी को खुद ढाढस बंधाते हैं। वह यहाँ से सीमधर स्वामी के पास (पुष्कलावती देश के पुण्डरी किणी देश में) जाते हैं। चक्रवर्ती पद्मरथ के पूछने पर, सीमंधर स्वामी प्रद्युम्न के पूर्वभवों का वर्णन करते हैं जो मधु और कंटम के पयार्यों तक चलती है । मधु का जीव पक्मिणी की कोख से प्रद्युम्न के रूप में जन्मता है जब कि कैटभ का जीव जाम्बवती की कोख से शम्ब के नाम से जन्म लेगा। यह वृतान्त जानकर नारद मेघकूट नगर जाते हैं । वहाँ से द्वारिका जाते हैं और रुक्मिणी को शुभ सूचना देते हैं कि प्रद्युम्न प्रज्ञप्ति विद्या प्राप्त कर सोलहवें वर्ष में अवश्य आएगा।
एक समय. नारद कृष्ण की सभा में आते हैं, और जाम्बवती के बारे में कहते हैं । कृष्ण जाम्ब विद्याधर की कन्या जाम्बवती से विवाह करते हैं। जाम्बवती का भाई विश्वक्सेन भी उनके साथ आता है । इसके बाद श्रीकृष्ण और भी अनेक कन्याओं से विवाह करते हैं। उनमें से कुछेक के नाम इस प्रकार हैं
१. श्लक्षगरोम की कन्या लक्मणा. २. राष्ट्रबधन की कन्या सुसीमा, ३. मेक की कन्या गौरी, ४. हिरण्यनाभ की कन्या पद्यावती, और ५. इन्द्रगिरि की कन्या गान्धारी।