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सयंभूएवकए रिट्ठणेमिचरिए
कम-कमल-ति-जिय कमल-सोह। साउण्ण-जलाऊरिय-विसोह। मह ससि-घलिय-गयणायास। सिर-कैस-ति-कसणी-कयास ॥ सहं कउत' उच्छवंति दिट्ठ। गं करमभल्लि हियवई पइट्ठ । वसुएव-विद्धि अण्णहि ण जाइ । णियघरु मुएवि कुलबहय गाइ॥ पिय मयण-परम्वस दुहिय कत'। चलपुरुस होंति अविवेयवंत ।। ण मुणंति महिल महिलतराई। रहु सारह सारहि परिज काई । तो पेल्लिय एं वरतुरंग।
गं मारुए ण जलगिहि-तरंग। घत्ता वणितणए फरि लेवि पइसारिख जोयउ जिणभवणे । घेव विहिए पणवति मायंगिणी शायद णिय मणे ॥६॥
कमारेण सजरीपरि-सामिएण। मउम्मस-मायंगी-भीमएण ॥ वंदिउ' येवदेवो जिणियो।
आणदो अणिववाहियो।
तिलोयगागामो तिलोयणाही। चरणकमलों की कान्ति से कमलों की शोभा को जीत लिया है, जिसने अपने सौन्दर्य-जल से दिशा-समूह को आपूरित कर दिया है, जिसने अपने मुख-चन्द्र से आकाश धवल बना दिया है, जिसकी केया-राशि ने दिशाओं को श्याम बार दिया है । कौतुक के साथ उछलती हुई वह ऐसी दिखाई दी मानो कामदेव की बरछी हृदय में प्रवेश कर गई हो । वसुदेव की दृष्टि उसी प्रकार किसी दूसरी ओर नहीं जाती, जिरा प्रकार कुल्लवधू की दृष्टि अपने घर को छोड़कर कहीं और नहीं जाती है। प्रिय को काम के वशीभूत देखकर कान्ता गन्धर्वसेना दुःखी हो उठी । (यह सोचती है) चंचल पुरुष अविवेकशील होते हैं, वे स्त्री और स्त्री के बीच अन्तर नहीं समझते 1 हे सारथि ! तुम रथ चलाओ, उसे रोक क्यों रखा है ? सारथि ने तब श्रेष्ठ अश्वों को प्रेरित किया, मानो पवन ने समुद्र की लहरों को प्रेरित किया हो।
पत्ता--- वणिकन्या ने हाथ पकड़कर वसुदेव को भीतर प्रवेश कराया। वह विधिपूर्वक देव को प्रणाम करता है, परन्तु अपने मन में मातंगसुन्दरी का ध्यान करता है ।। ___ मातंगसुन्दरी के द्वारा भ्रमित, शौर्यपुरी के स्वामी कुमार वसुदेव ने स्तुति प्रारंभ कीहे देववन्य! देवदेव जिनेन्द्र, अनिन्ध, अनिन्द्यों के समूह द्वारा वन्दनीय, त्रिलोक के अग्रगामी १. ज, अ-सहुं कुतवें। २. ज, प्र--हुइम कंत। ३. ज, अ--जिणभवणु। ४. - बलावंदिउ । ५. ब-तिलोयस्स गाहो ।