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________________ वियोगी ] अराउ कामो अाहो अबाहो ॥ सुहकेवलं केवलं जस्स गाणं । महादेव देवत्तणं चप्पहाणं असोम जस्स विण्णेय [गियडेव ] सोहो । पहामंडल दुदिहि- चामरोहो । मदासणं आमरी पृष्वासं । ति सेयायवत्तई दिवाभासं ॥ far fह एएहिं तुमं देवदेखो । राण चि दीसंत कोवालेवो || तुमम्मि पसष्णम्मि होतु मे ताणं । चिधाई एवाई सम्वामराणं ॥ धत्ता- बंदिवि परमजिवि सफलतु गउ घतुएउ घर । णं सकरेणु करेणु पसरह मनोहर कमलसरु ॥१०॥ तहि कालि कुमारकण बाल । ण पबंध णिय सिरि कुसुममाल साह अंग पाहणेण । वीषिय विरह-हुसणेण ॥ जय श्री अरोषु कुरुषासु सोस् । पासेा खेट पसरइ अतोषु ॥ संतावs चंदणलेउ चंबु । मलयाणिलु दाहिणि सुरहि मंदु ॥ परिपेसिय बूई आहि माए । लग्गेज्महि सुयहो तथए माए ॥ [२ त्रिलोक स्वामी, मराग, अकाम, ईर्ष्याविहीन, बाधा रहित, जिनके केवल शुभ केवलज्ञान है, ऐसे हे महादेव ! देवत्व में प्रधान, जिनके पास लोभा देने वाला अशोक वृक्ष है, प्रभामण्डल, दुभि और वामर समूह है, सिंहासन है, दिव्य पुष्प वृष्टि है, तीन श्वेत छत्र हैं, दिव्यवाणी है, ऐसे चिह्नों के कारण तुम देव देव हो। मनुष्यों में कोप का अवलेप देखा जाता है, तुम्हारे प्रसन्न होने पर मेरा त्राण होगा - ये चिह्न सब देवों के नहीं होते । --- इस प्रकार परमजितेन्द्र की वंदना कर वसुदेव अपनी पत्नी के साथ उसी प्रकार घर गया, जिस प्रकार हाथी हथिनी के साथ कमल सरोवर में प्रवेश करता है ॥ १० ॥ 1 उस अवसर पर कुमार के लिए, वह विद्याधरबाला अपने सिर पर फूलों की माला नहीं afat | अपने अंगों को प्रसाधनों से नहीं बजाती । मानो विरह की आग से वह उद्दीप्त हो उठी। ज्वरदाह, अरोचकता, कुरुवासु । शोषण, प्रस्वेद, खेद और असन्तोष फैलता है । चन्द्रमा और चन्दन का लेप, सुरभित मंदमंद दक्षिण पवन उसे संताप पहुंचाते हैं। उसने दूती भेजी - हे श्रादरणीये ! जाओ और तुम उस सुभग के पैरों से लगो । कामदेव के रूप का १. अ, ब - संदीविय। २. ब - भए ।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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