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________________ छट्टो सग्गो] मनकाम सयल वि खलबलकुल-कालय । सयल वि थिर-खोर-कठोर हत्या सयल वि रणमर- कण-समस्थ ॥ सपल वि सिरिरामालिंगियंग । सयल वि पयभर सारिय सुरंग ।। पत्ता--प्रप्फोडिउ सस्थहि तेहि सव्वेहि पुगे पोरालिउ। णिय जीविड कालहो हस्थि वारिहि णाई णिहालिउ ॥१०॥ ओसारिय समल वि सई णिविटु । "भरलार हथिलहर पहठ्ठ॥ से विणिषि धवल अस्वलदेह। णं शोहिय साबण्ण-सरय-मेह ।। णं अंजणपण्वय हिमगिरिंद । णं बदवस-महिस महामइंच ।। गं अणा-गंगागह-पवाह । गं लाखण-राम पलबबाह ॥ णं इंदणील-रविकंतकूड। नं विसहर-तक्खय संखचूड़ ।। ण असिम-पपल सिय-पक्स माय । तं पुणु (सोहिय ?) पजियारा ते जि भाव ।। कंवोट कमलकूडाणुमाण । जणलोयणासि बुबिजमाण ॥ चल्लते चल्लइ सबलभूमि। अपकसे पक्काह तेहिं विहि मि ।। लिए कान के समान थे, सभी स्थिर स्थच और कठोर हाधवाले थे, सभी युद्ध का भार खींचने में समर्थ थे। सभी लक्ष्मी रूपी रमणो के द्वारा आलिगित-शरीर थे। सभी अपने पदभार से अश्वों को हटाने (संचालित करने वाले थे। घसा- शत्रुओं ने उन सबके द्वारा शास्त्रों को आहत तथा गजित अपने जीवन को काल के हाथ में स्थित के समान देखा। ॥१०॥ हटाए गये वे सब स्वयं बैठ गये । हरि और हलधर ने अखाड़े में प्रवेश किया। पवल और श्याम दरीरमाले वे दोनों ऐसे प्रतीत होते थे, मानो सावन और शरद के मेघ शोभित हों, मानो अजनगिरि और हिमगिरि हों, मानो यममहिष और महासिंह हों, मानो यमुना और गंगा के प्रवाह हों, मानो लम्चे बाहुवाले राम-लक्ष्मण हों, मानो नीलमणि और सूर्यकान्त मणियों के शिखर हों, मानो तक्षक और शंखचूड़ महानाग हों, मानो कृष्ण पक्ष और शुक्लपक्ष आये हों और प्रतिदिन दोनों शोभित हों। वे दोनों नीलकमलों और कमलों के ढेर के समान थे, जिन्हें जनों के नेत्ररूप भ्रमर बम रहे थे। उनके चलने पर धरती हिल जाती थी, उनके ठहरने पर वह भी ठहर जाती थी। १.म-अखाला।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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