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________________ सत्तमो सगो] जहि चचरोयया, पफुल्ल-फुल्स-लीलया। जहि च मत्त कोइला, पुलिव-भिल्ल-णाहला। जहिं च कम्मवारणा, णही वरंति वारणा। घसा-तं गिर उज्जेतु मुएवि ससयणु ससाण। गज पंकयणाहु गाई समुदहो पाहणच ॥१४॥ धरहो जि समुदकु णिहालियज । भीयर-करि-मयर-करालियज ॥ भंगुर-तरंग-रंगतजलु। पुष्वावहिरि-उध्वरिय यषु॥ फेकल्लोल-बलय मुहलु। वरखेलालिमय गयणयलु गंभीरघोस धम्माविय अज। परिवालिय-ससि पहिवाग सउ । अषयरिणय-वस्वाणस-वाह। गिध्याग-पहाण पीय-महरु ।। पोसारिय कालकूटकसुसु । हरि हरिय सिरी-मणिप्फरसु ॥ परिरविखय-सयल-सुर-सरणु। सरि सोसाणियपाणिय भरणु॥ आगास-पमाणु विसा सरिसु। जलाहर-संक्षाय-वाहिय-बरिस ॥ पीता सहित सिंह और गेड़े हैं, जहाँ चकोर: चातक हैं, जहां मराल और चकवे हैं, जहां खिले हए फलों से खेलनेवाले भ्रमर हैं, जहां मतवाली कोमलें हैं, पुलिद, भील और नाहल जाति के हैं, अपने कर्म में भीषण गज आकाश का वरण करते हैं; घसा—ऐसे ऊर्जयंत पर्वत को छोड़कर, स्थजनों और सेना के साथ, श्रीकृष्ण मानो समुद्र के अतिथि ममकर गये ।।१४।। उन्होंने दूर से समुद्र देखा. जो भयंकर हाथियों और मगरों से विकराल या, जिसका जल बक्र लहरों से तरंगित हो रहा था, जिसकी पूर्वी सीमा में जल भरा हुआ पा और उसके बाद की भूमि जल रहित थी जो फेनयुक्त तरंगों के समूह से मुखर था, जो अपने श्रेष्ठ किनारों से आकाश को छ रहा था, जो गम्भीर घोष द्वारा विश्व में अपनी जय घुमा रहा था, जिसने अपने में चन्द्रमा के सैकड़ों प्रतिबिम्बों का परिपालन किया है, जिसने बड़वानल की शत्रुता की उपेक्षा की है, जिसमें प्रमुख देव मदिरा का पान करनेवाले हैं, जिससे कूटकाल विष का कलश निकला है, विष्णु ने जिससे लक्ष्मी और कठोर मणि का हरण किया है, जिसने धारणागत समस्त देवों की रक्षा की है, जिसमें नदियों के स्रोतों से जल का भरण होता रहता है, जो आकाश के प्रमाण वाला है और दिशाओं के समान है, जिससे मेष-समूह वर्षा धारण करते हैं;
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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