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________________ मोग्गो] झलझल्लाविय सयल वि सायर । उह कविका कि कायर ॥ वह हरि दिसाह किय एहार विरुद्द आसंकिय ॥ घसा - तिहूअणभवणोयर वासिय समलु लोउ श्रासकिय । पण विजय संतप्त परपदिशक्त्यु ण संशियत ॥ १० ॥ रुप्पिणि- कारणे अमरिस कुछई । अमररंगण - रद्द-रस- लुराई ॥ भिडिय वलई पवल्लभल वसई । दुष्वम-वंसितयगतई ॥ पहिराहय-हिय गई । किय कुंभय लोलोक्लर्थिव ।। वसणमुसल छंदाविध-पाण हूं | पडिय बिमाण जाण अंपागाई ॥ संवाणिय-संवण-संवहनं । दुज्जयजोह- परज्जिय जोहई ॥ रंगाविय रणरंग-तुरंगई । हिरारुणिय रहोहरहगई ॥ छिण्ण कथयखंडिय करवाई। सुरचित्त सयंवर मालई ॥ उम्भव भिउडि भयंकर मालई । पेसिया एक्कमेवक - सरजालहं ॥ [१०७ गिरिसमूह टेढ़ा-मेढ़ा हो गया । समस्त समुद्र छलछला उठे । दिग्गजों के शरीर कायर हो गये, नवग्रह डर गये और दिशाओं के सुख टेढ़े हो गये । ग्यारहों रुद्र आशंकित हो उठे । घसा - त्रिभूवन के उदर ( भीतर ) में निवास करनेवाला समस्त लोक आशंकित हो उठा । मणी के वियोग से संतप्त केवल शत्रुपक्ष आशंकित नहीं हुआ ॥ १० ॥ शुद्ध देवों की उत्तम अंगनाओं के रतिरस की लोभी अनलरूप से बलवान् दोनों सेनाएँ मणी के कारण भिड़ गयीं, उनके शरीर दुर्दम हाथियों के दाँतों से आहत थे। जिन योद्धाओं के गज प्रतिहारों से ह्त आहत थे, जिन्होंने गजकुम्भों को चंचल ऊखलों का समूह बना लिया है, दाँतों के मूसलों से जिनके प्राण छिन्न-भिन्न कर दिए गये हैं, जिनके विमान, यान और पाण गिरे हुए हैं, रयों का समूह ध्वस्त कर दिया गया है। दुर्जेय योद्धाओं के द्वारा जिनके योद्धा पराजित हो गए हैं, जिनके घोड़े रणरंग ( उत्साह; से रंग दिए गये हैं। जिनके रथ- समूह और चक्र रक्त से रंजित है, कवच छिन्न-भिन्न हैं और तलवारें खंडित हैं; जिन पर सुखधुओं ने स्वयंवर की मालाएँ फेंकी है, जो उद्भट भौहों की भयंकर मालाओं वाली हैं, जो एक-एक कर तीरों का जाल फेंक रही है ।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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