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सत्तमो सग्गो
विणिवाइए कसे दूसाह वुक्त परम्चसए। जरसंघहो गंपि पाहाबिउ जीवंजसए ॥छ।।
जीवंशसा कस-बिओय हय। अणणहाँ जरसंघहो पास गय ॥ अपसारमण दुभांणम । बहुलंस-जलोलिलय-सोणिय ।। विणिबद्ध येणी बद्धामरिस। कर पल्लव-छाइय-थगकलस ॥
यसोह वि सोहइ रुखबई। णियगइ-गोवाविय-हंसराइ । पहकिरण करालिय-सयल विस । मयंद-पाय-पंडुरिम णिस ॥ करहवह वप्पण-विमुह। मुहकमलो हामिय अंबुरुह ॥ अंबुबह-समप्पह-मयणय। णव-कोमल-कुसुम-वामभुय ।। णं णवतरु अहिणव-साहुलिय।
करपल्लव णह-कुसुमावलिय॥ कंस के धराशायी होने पर असा दुःख के वशीभूत होकर जीवंजसा जरासंध के पास जाकर विलाप करने लगी। कंस से वियुक्त जीवंजसा पिता जरासंध के पास गयी । दुःख से आतुर, उदास, दुर्मन, उद्विग्न, प्रचुर आँसुओं के जल से गीली आँखोंचाली, वेणी बाँधे हुए, क्रोध से भरी हुई, कर-पल्लवों से स्तन-कलशों को ठेकती हुई रूपवती जीवंजसा आहत शोभा होकर भी शोभित थी। उसने अपनी चाल से हंस की गति को फीका कर दिया था। उसके नख की किरणों से सभी दिशाएँ आलोकित थीं। मुखरूपी पन्द्रमा की किरणों से मिशा धवलित हो रही यी। नखों के सरोवर रूपी दर्पण में अपना मुख देखती हुई, मुखकमल से कमलों को पराजित करनेवासी, कमल की प्रभा के समान नेत्रोंवाली, नये कोमल फूलों की माला के समान बाहुओंवाली बह ऐसी प्रतीत होती थी मानो अभिनव शाखामों वाला नव तरु हो; जो करपल्लवके नखों की कुसुमावलि बाला था।