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धसारउ हि महिवदे राहिय, णं जानतुं कवण गुणु अकुलीण जे उद्छु होइ कुलीन से ससु वि पुणु ॥ ५ ॥ "उससुरा वज्र्ज्जत सुराई ।
जुजांत सेष्णा रणबहु जिसण्णाई ॥ जय छ लुखाई उये कुल सुद्धा हूं । पहरण व हत्था जयसिरि-समस्थाई ॥ कोण विताई रुहिरेहि सिनाई । हम्मति बुरियाई णिवति तुरियाई भवंति सयका जुनंति सुरबाई । जिति अंताई भज्जेति गत्ताई ॥ लोहति विषाई तुट्टति छत्ताई । मेल- भूयाई विसयान भूयाई ॥ अण्णोष्ण-वृम्वार मुक्केक्क हुंकार । पहरति पाइयक णिग्गंति मरथबक ॥ जजरिथ उरवाष्ट विषण्ण सण्णाह वसण कसग्गि समुट्टियउ । विज्जु-विलासु गाई हिउ ॥ ६ ॥
यत्ता-कस्थ गम वीस घणम
[एक रिमिर्धारिए
बारुण रणहं एवं गयई । एकचालीस जाव तिष्णि-सयई ॥
पत्ता - आकाश में धूल और धरती के भाग में रुधिर (उठ रहा है) न जाने क्या बात है कि अकुलीन ( धरती में नहीं होनेवाला, अप्रतिष्ठित ] जब उठता है तो वह कुलीन ( धरती में लीन, प्रतिष्ठित ] हो जाता है, दुष्ट भी ऐसा ही होता है ।
शूर उठते हैं, नगाड़े बजते हैं, रण-वधू जिनके निकट हैं, ऐसी सेनाएं युद्ध करती हैं जो विजयरूपी लक्ष्मी की लोभी उमय कुलों से शुद्ध हैं, जो हाथ में हथियार लिये हुए हैं, विजयलक्ष्मी प्राप्त करने में समर्थ हैं, क्रोध की ज्वाला से प्रदीप्त हैं, रक्त से सिंचित हैं। जो तेजी से प्रहार करती हैं । अश्व गिरते हैं, शकट नष्ट होते हैं, सुभट लड़ते हैं, आंतें निकलती हैं, शरीर भग्न होते हैजा-चिह्न लोटपोट होते हैं, छत्र टूटते हैं। वैताल और भूत बैलों पर सवार हैं, जो एक दूसरे के लिए दुनिवार हैं, एक दूसरे पर हुँकार करते हैं। पैदल सैनिक आक्रमण करते हैं, मस्तक गिरते हैं। वक्ष स्थल और बाहु जर्जर होते हैं, कवच बिखरते हैं।
घसा-कहीं गज के युद्ध में दाँतों से आग उठती है जो ऐसी मालूम होती है जैसे मेघों के बीच विद्युत - विलास हो ॥६॥
इस प्रकार भयंकर युद्ध करते हुए तीन सौ छियालीस दिन बीत गए। जिसका हाथ घनुष
१. उट्टंत सुराई त तूराई जुमंत सेई रण वह जिसण्णई।" 'ज' प्रति में ये नहीं हैं।