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सुवास । वसुह- वासयं वासयं ॥
[सयंभू एक रिमिचरिए
धा-सिस पडिज कबंधु पणच्चद् वत्तु पियतु सयं भुषणे । बहुकालहो अविष्यतेन सीसं णमिज सयंभुवणे ।। १८ ।।
इय रिटुमिचरिए धवलयासिय सयंमू एकाए सिरिणि अवहरणणामो उमी सभ्गो ॥६॥
बार गाली देनेवाले, घरती के वास को प्राप्त भरती के वास को, वास को,
घसा - सिर गिरता है, कबन्ध नाचता है, भुवन में मुख स्वयं देखता है। बहुत समय तक अविनीत रहनेवाले सिर ने स्वयं भुवन में नमस्कार किया ।
इस प्रकार बबलइया के आश्रित स्वयंभूदेव द्वारा विरचित अरिष्टनेमिचरित में श्री रुक्मिणी अपहरण नाम का नौवाँ सगं समाप्त हुआ ।