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________________ णमो सग्गो] खंषे वताविय वदवस-बूव ॥ घसा-तो धारणु मुक्कु अणतेण हुयबह तेण गिरस्थियउ। हि अप्पउ कहि मिण दीसह तेउ अतेउ होधि पियउ॥१७॥ वसीकरण-णिवारमा। अवरवारिणा वारिणा ॥ अहोमुह-विहारिणा । इयवहारिणा हारिणा ॥ णवंबुचा-वासिणा। बरहिवासिणा वासिणा॥ कर्य-कुवलयंवसं । कुवलयंवसमायसं । स वेड्बइ वासुणा। किर सरेण दिवाउगा ॥ समाहणह वारुणं। माहुमहेण नावारुणं ॥ भिसंवयणपंकयं । सयभाणु-काय॥ गुणाणिय-खुरुप्पयं । बहइ अं फलं हप्पयं ॥ सयाई अथ-पुलायं। कणयकस्तरीपुंखयं ॥ तिणर पलय-दित्तिणा। रिउ-विराविणा राविणा ।। जहण कोसिरं। सहसवार-उक्कोसिरं ।। कन्धे पर यम का दप्त चढ़ गया हो। अत्ता--तब श्रीकृष्ण ने वारुण अस्त्र छोड़ा। उसने आग्नेय अस्त्र व्यर्थ कर दिया । जिसमें अस्म भी कहीं नहीं दिखाई दिया, तेज प्रतेज (प्रकाश अंधकार) होकर स्थित हो गया ॥१७॥ ___ जो वशीकरण का निवारण करनेवाला, दूसरों का प्रतिकार करनेवाला, अधोमुख विहार करनेवाला , अग्नि का शमन करनेवाला, नवकमलों में निवास करनेवाला, मयूरों में निवास करनेवाला है, ऐसे उस वारुण अस्त्र से श्रीकृष्ण ने कुवलय (पृथ्वीमंडल) को वश में कर लिया। जो कुवलय से भयभीत है, ऐसा चेदिराज दियायुवाले वायु शर से वाषण अस्त्र को भयंकर रूप से आहत करता है। तब मधुसूदन ने (चक्र उठाया), जो अत्यन्त अरुण, कमल के मुखवाला, प्रलयभानु के दर्प से कित, डोगें से जिसमें तुरुपे लगे हुए हैं। जिसमें पांदी के फलक हैं, लोहे के सैकड़ों अग्रभागवाले बाण हैं, जिनमें स्वर्ण केंचियों के पुंस है। प्रलय को दीप्तिवाले, शत्रु का नाश करनेवाले, मुखर चक्र से अाक्रोश करनेवाले, हजार
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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