________________
बारहमो सम्गो
पवरविमाणाहदु संचस्तु कुमार महत्वा । सञ्चहे छापाभंगु रुप्पिणिहे मणोरष्ठ णावद ।।
छसिप-भिसिय-कमंडल-भार। पुच्छित वम्महेण रिसिणारत ।। कहि कहि ताय सतावणु। किह मायहे भावः ।। भणइ महारिसि कि बित्थारें। सुगु अपसमितं जेण पयार। सच्चाहाम महएवि पहिस्ली। रुप्पिणि-रुप्पिणि पुणु पच्छिर ली। ताहं विहि मि चकिय णामहं । हूय होड तुह मारि-भामहं ।। जाहि जि जटप्सु परिणेसइ। सो मुंडिए सिरि पाउ ठसह ॥ कुविउ कामु गुणगण-गरुयारी । का परिहवाइ जरि महारो॥ तहो तोडम सिरु विरस रसतहो।
सरण पवज्जइ जइथि कयंसहो।
. -..-. .-. .-. .-.-- .विशाल विमान पर जास्त कुमार चला । वह ऐमा शोभित होता है जैसे सत्यभामा की कान्ति का भंग और रुक्मिणी का मनोरथ हो। छत्र, आसन और कमंडल को धारण करनेवाले मुनि नारद से कामदेव ने पूछा-“हे तात ! फहिए कहिए, शरीर को संताप पहुंचानेवाला माता का मुण्डन क्यों ?" महामुनि कहते हैं, "विस्तार से क्या? सुनो, मैं कहता हूँ कि जिस कारण मुण्डन होना है। सत्यभामा पहली पत्नी है । रुक्मिणी, रुविमणी बाद की पत्नी है। यश से अंकित नाम वाली तुम्हारी माँ और सत्यभामा दोनों में यह होड़ हुई कि जिसका बेठा पुत्र विवाह करेगा वह दूसरी के मुंडे हुए सिर पर अपना पर स्थापित करेगी।" यह सुनकर कामदेव कुपित हो गया-गुणसमूह से महान् मेरी माँ का पराभव कौन कर रहा है ? मैं, मुरी तरह चिल्लाते हुए, उसका सिर तोड़ दूंगा । भले ही बह यम की शरण में चला जाए।