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एयारहमो सग्गो]
[१३७ पेसिउ परवरणियपट्टमहो। रिसि अक्सर पिगि-गंधणहो॥ कि वहवें वाया-वित्वरेण । जिह अखिउ सिरिसीमंघरेण ।। शिर परिभमिझोलि भनार: पावंतउ दुक्सापरंपरई॥ जिह केसवका संभाविउ । जिह धूमफेउ वाणवेण णिउ ।। जिह कहिमि सिलालि सणिमित । जिय खयर पिय हे समहलविउ ॥ जिह सोलह वरिसई वबगयई। जिह सिद्ध विज्जाहर पथई ।। जिह बदरि-सेण्णु सर जज्जरिउ । जिह कंचनमाला-कुच्चरित॥ जिह पह-कोपग्गि-समणं गयई ।
जिह लखाई कामएबपपई॥ धत्ता—सिंह सयलु वि बुझियउ तर जाह बेहि अवडणु ।
जाम भाम गउ हप्पिणिहो सई भुहि करा सिर मुंजणु ॥१५॥ इस रिगुणेमिचरिए धवलइयासिय सयंभूएषकए पज्जुण्ण
लीलावण्णणो णाम एयारमो सग्गो॥११॥
राजा कालसंवर को अपने घर भेज दिया गया । महामुनि रुक्मिणी के पुत्र से कहते हैं"बहुत बाणी के विस्तार से क्या, जिम प्रकार श्रीसीमधर स्वामी ने कहा है, जिस प्रकार तुम जन्मान्तरों में घूमे हो और दुःख-परम्परा को प्राप्त हुए हो, जिस प्रकार नारायण के तेज से उत्पन्न हुए हो, जिस प्रकार घूमकेतु दानव के द्वारा ले जाये गये, जिस प्रकार शिलातल पर रखे गये, जिस प्रकार सोलह वर्ष बीते, जिस प्रकार विद्याधर पादुकाएं सिद्ध हुई, जिस प्रकार तीर से शत्रु-सैन्य को जर्जर किया, जिस प्रकार कंचनमाला का दुश्चरित था, जिस प्रकार राजा की क्रोधाग्नि शान्त हुई और जिस प्रकार कामदेव का पद स्वीकार किया,
घता-वह सब जान लिया। अब शीघ्न जाओ और (मां को) आलिंगम दो, कि जब तक सत्यभामा अपने हाथ से रुक्मिणी का मुण्डन नहीं करती।"॥१५॥
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इस प्रकार धवलइया के आश्रित महाकवि स्वयंभुदेव द्वारा विरचित अरिष्टनेमिचरित
में प्रद्युम्न की लीला-वर्णन नामक म्यारहवां सर्ग समाप्त हुआ ॥११॥