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[सयंभूएवकर रिट्टणेमिरिए परिचितिवि णर-सुर-घायण । सुररिसि-कारखणारायणेण ।। सविषय-गुण-क्यणे हि एम वुत्तु । पई जाषिउं किह मासणउ पुत् ॥ सपकेय-षिसत्य-मणाभिराम । पत्तियाण केमवि सच्चहाम ।। तं णिसुवि पभइ अवश्चारु । जाहिकालि गवेसिउ मई कुमार ॥ तहि कालि गरिगिगि पइछ । सोमंधरसामिल गपि दिछु । सहि पउमरहेण रहँगिएण। विकमसिरि रामालिगिएण ॥ पणवेप्पिणु परमजिणिवु-वृत्त। कि कीडन क गरु एह गिरत्तु ॥ गयणंगण-गामिउ गुणस्तमिव ।
पारायण-णारउ इह पसिद्ध । पत्ता-बारावारिहि चक्कवर जगदगु । साइवषसेण तहो विच्छोइउ पवण ॥२॥
णिसुतहो मह परमेसरेण । धक्कवइहे अक्खिउ मिणवरेण ।। धणषण्ण-सुवष्ण-जण-पय-गामें। जंबूचहेता सारिलगामे ।।
इस बात का विचारकर, मनुष्यों और सुरों का घात करनेवाले नारायण ने विनयगुणवाले वचनों से देवर्षि नारद से इस प्रकार कहा—'आपने किस प्रकार जाना कि यह मेरा पुत्र है? अपने घर में विश्वस्त रहनेवाले जनों के लिए अभिराम इस पर सत्यभामा किसी भी प्रकार विश्वास नहीं करेगी।" यह सुनकर सुन्दर नहीं बोलनेवाले नारद कहते है- जिस समय मैंने कुमार की खोज की थी, उस स.. मैं पुण्डरीकिणी नगर में प्रविष्ट हुआ था और जाकर सीमंघर स्वामी के दर्शन किये थे। वहां पर पसरथ चनावर्ती ने-जो चिकम लक्ष्मीरूपी रमणी का आलिंगन करने वाला था—प्रणाम करके परम जिनेन्द्र से कहा-"निश्चय से यह मनुष्य कौन-सा कीड़ा है ? " उन्होंने कहा- "आकाश के आंगन में गमन करने वाले गुणों से समात्र यह प्रसिद्ध नारायण के मूनि नारद हैं।
पत्ता-दारावती नगरी में जनार्दन चक्रवर्ती हैं। देव वश उनके पुत्र का ३५.: हो गया है।" ॥२॥
मेरे सुनते हुए, परमेश्वर सीमंधर स्वामी ने चक्रवर्ती से कहा-"जिसमें धन, न्य, स्वर्ण, अनपद और गांव है ऐसे शालिग्राम में दो सियार थे। दुर्वात और अनवरत वर्षः और अपनी लम्बी आयु छोड़ने के कारण दोनों भरकर उसी गांव में सोमवत्त और अग्गिला ब्राह्मण