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एयारहमो सग्गो
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साम कालसंवरणिवहो उस रज्जुपरचा। एक्करहेण जि सम्महेण हज तिमिह गाई तवण
तो तरम' जवाणभावे चठियड। गं सुरकुमार साहो परियउ॥ सुमणोहरि मेहसिंगणयरे। हरितणज कालसंवरहो धरें । वरित मोहसिई गई। जाप अंगई विक्कममय । सोहग-महामणि-रयणणिहि । तहो को णिवण्णा स्वणिहि ।। जस केरा "परवटिय-पसरा। तिअण-असेस जगति सरा॥ लो मयर केउ सई अवपरित। कर-चरणाहरणालंकरियउ । परिसक्काइ दुक्का अहिं जि जहि । तरुणीयगु सम्भव तहि तहि जि तहिं ॥ बोहरलोयण-सर-पहर-हय । पियजणि जि बहो अहिलास गय॥
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इतने में शत्रुसमहने कालसंवरका राज्य छीन लिया। एकरथी कामदेव प्रचुम्न ने उसे उसी प्रकार पराजित कर दिया, जिस प्रकार तरुण सूर्य अंधकार को पराजित कर देता है। कुमार इस बीच यौवन भाव को प्राप्त हुआ, मानो कोई देवकुमार स्वर्ग से आ पड़ा हो। सुन्दर मेघकूट नगर में, काल संवर के घर हरिपुत्र प्रद्युम्न बड़ा होने लगा । सोलह वर्ष बीत गए। जिसके अंग पराक्रम से परिपूर्ण हो गए, जो सौभाग्य का महामणि और रूप की निषि था, प्रसार को प्राप्त हुए जिसके तीर समस्त त्रिभुवन को पीड़ित करते हैं, ऐसा कामदेव स्वयं अवतरित हुआ है। हाथों और पैरों में गहनों से शोभित वह जहाँ जहाँ जाता या पहुँचता, वहाँ वहाँ युवतीजन आई हो उठतीं । लम्बे नेत्र रूपी तीरों से आहत उसकी अपनी माता(कंचनमाला) को उस पर इच्छा हो गयी।
१. 4-ताण । २. अ-परविट्टिय-पसरा।