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एयारहमो सग्गो
पत्ता--का कामुरकोयग कलकोयल 'मायामहे । अंगहों लाइज रणरण अस्थयकए कंधणमालहों ॥१॥
परमेसरि पोग पओहरोहि । बोल्लह समाणु णियसहयरीहिं॥ हलि लवलि-सर्वगिए उप्पलिए । होल कंफोसिप आदि । कप्पूरिए कुंकुमकष्टमिए । नबकुसुमिए मउलिए पल्लविए ।। किण्णरिए किसोरि-मोहरिएँ। आलाविणि-परस्य-मारिऐं। मह चित्तहो ' भुसभोलाहो। परिहाइ ग झुणि हिंदोलाहो ॥ पउ भास हे विविह पयारियो। ण कउहहे मोसाहारियहे ॥ गाज कराम-टक्कोसियो । सामोरय-मालय-फोसियो।। लहपंचमु पंचम्-कामसक।
जो पिरहिणिमण-संतावयरु॥ पत्ता-विषगसील-मारणउ सहि सस्थे पंचमु गाइयउ । कंचणमालहे बच्छयले वामहंग गाईसक लाइयउ ॥२॥
पक्खोज पीवी-बंधणउ । विस्तारउ करह सई परिषणउ । बरिसावद धम्मो घरसिहरु ।
घसा---सुन्दर कोयल की तरह मतवाली कंचनमाला के शरीर में काम की उत्कंठा उत्पन्न करनेवाले कामदेव ने शीध्र बेचैनी उत्पन्न कर दी ॥१॥
स्थूल पयोधरों वाली यह अपनी सहेलियों से कहती है, "हला! लवली, लवगी तथा उत्पला हला! कंकोली, जातिफला, कर्पूरी, ककुम, कदमा, नवकुसुमिता, पल्लविता, किन्नरी, किशोरी, मनोहरी, आलापनी, परभूता, मधुरा, हिदोल राग की ध्वनि मेरे मदविह्वल चित्त को अच्छी नहीं लगती। विविध प्रकार की भाषा, ककुम, ओसाहारी, टक्कराग, टक्कोशिराग, सामीरय और मालकोश की ध्वनि अच्छी नहीं लगती । तो यह लो पंचम पंचमकामसर (काम स्वर/सर) है, जो विरहिणी के मन के लिए संतापकर है।
धत्ता---हे सखी ! विधनशील मारण को शास्त्र में पांचों राग गाया गया है। कंचनमाला के वक्षस्थल में मानो कामदेव ने तीर मार दिया हो ।।२।।
वह नीवी की गाँठ खोलती है, स्वयं अपने परिधान को ढीला करती है । कामदेव के गृह
१.-वायालहो। २.
व-मुंभर 1 ३. अ- परिहणउ ।