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________________ १२८] रोमावलि तिवल पणषद ॥ आमेल्लइ गिव्ह इदप्पण । सयवार जिहाल अप्पणउ ॥ गरिणा दामु परिद्वयि । करि उद कंकणु कष्णे फिउ ॥ कमि कंठ पुट्टिए 'कण्णरसु । मुह अंजण लोग लक्खरसु ॥ परिचित दसगु अहिलस | बीहरड पुणु वि पुणु गोससह ॥ जब पेल्लइ मेल्लइ बाहू गवि । आहारभूति ण सुहाइ कषि ॥ णिएव ज्ज - लग्न परिहर मने । उम्महहि भज्ज खणे शिक्षणे ॥ [एक रिमिरिए धत्ता--षणे उपज्जद्द कलमलड खाणे मणु उल्लोलह मावई । वाहिली ग कवि एक्कुवि उस ग महावद्द ॥३॥ तो विरह-वेण विद्दाणिएं । gay wala syinen vufaɛng a अं सुबह एत्यु मनु घर हो । तं किं मह किम का पिरो । वेणु सहरम कच्छउ कच्यिहि जि संभव ॥ जो तक वहरिहि रक्ख करइ । अवसापि तहो जि फलु वपर ॥ शिखर को दिखती है, जो रोमावली बिलि और स्तन के आधे भाग को धारण करते हैं। वह दर्पण को छोड़ती है और ग्रहण करती है, सो बार अपने को देखती है। करधनी को वह गले में डाल लेती है, हाथ में नूपुर और कान में कंकण धारण करने लगती है। पैरों में कंठा और पीठ पर कर्णफूल । गुख पर अंजन और आंखों में लाक्षा रस । वह चिन्ता करती है, देखना चाहती है, फिर बार बार लम्बे उच्छ्वास लेती है । ज्वर पीड़ा देता है और तपन नहीं छोड़ता । कोई भी आहार- मुक्ति उसे अच्छी नहीं लगती। निरवद्य लज्जा का वह अपने मन में परिश्याग कर देती है । उन्माद से क्षण क्षण में नष्ट होती है । - एक क्षण में बेचैनी उत्पन्न होती है, एक क्षण में मन उत्सुकताओं में दौड़ता है। उस व्याधि की अनोखी मंगिमा यह थी कि एकाकी औषधि का प्रभाव नहीं होता था ॥ ३॥ विरह वेदना से व्याकुल रानी ने किसी सखी से पूछा - "जो यह सुंदर मेरे घर में है, वह है या किसी दूसरे का ? " तब सहेली प्रणाम करके निवेदन करती है— "कन्छ कच्छा पर ही संभव होता है । जो तरुलता की रक्षा करता है, अन्त में उसी पर फल अवतरित होते हैं।" इस १. वणवसु । स
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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